श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के सम्बन्ध में लिखा है- “उन्हें देखने के बावजूद भी अनेक अर्वाचीन, अनेक चतुर, समीचीन, बालक, वृद्ध, पण्डित, मूर्ख, भक्ताभिमानी व्यक्ति उनका दर्शन प्राप्त नहीं कर सके। यही है कृष्ण-भक्त की दैवी शक्ति। सैंकड़ों अन्याभिलाषी व्यक्ति उनसे अपनी-अपनी तुच्छ अभिलाषाओं के विषय में परामर्श प्राप्त करते थे यह सत्य है, किन्तु उनका वह उपदेश ही उन लोगों के लिए वंचना-स्वरूप होता था। असंख्य लोग साधु का वेष पहनकर, साधु की तरह क्रियाकलाप करते हैं, किन्तु वास्तव में, वे लोग साधुता से बहुत दूर होते हैं। मेरे प्रभु ऐसे नहीं थे, कपटता रहित होना ही जो सत्य है, उसे उन्होंने अपने व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त किया है। उनका निष्कपट स्नेह अतुलनीय था जिससे विभूति – लाभको भी तुछ मालुम होता है। उनका अपने प्रतिद्वन्द्वी या विरोधी व्यक्ति के प्रति किसी प्रकार का भी द्वेष भाव नहीं था, कृपा-पात्र के प्रति भी किसी प्रकार का बाहरी अनुग्रह प्रदर्शन नहीं था। वे कहते थे, “मेरे असंतोष या प्रेम का पात्र इस जगत में कोई नहीं है। सभी मेरे सम्मान के पात्र हैं।” और एक अलौकिक कथा यह है कि शुद्ध भक्तिधर्म – विरोधी, छल धर्मपरायण अनेक सांसारिक व्यक्ति कुछ न समझने पर भी, उन्हें सर्वदा घेरकर बैठे रहते थे एवं अपने को उनका स्नेह पात्र मानकर, कुविषयों में प्रमत्त रहते थे। लेकिन बाबाजी महाराज जी ने उन लोगों का खुले आम कभी परित्याग नहीं किया और फिर उन्हें किसी प्रकार से ग्रहण भी नहीं किया।”