श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के चरित्र में सब प्रकार के विरुद्ध धर्मों का अपूर्व समन्वय देखा जाता है। श्रील बाबाजी महाराज के अनुगत पार्षदों के निष्कपट पूर्णानुगत्य में भजनमय जीवन यापन के अलावा उनका अचिन्तय चरित्र, आदर्श और शिक्षा की कथा समझने का प्रयास केवल मात्र व्यर्थ ही होगा। कोई उन्हें अनेक चेष्टा करके भी कुछ दे नहीं सकता था और फिर किसी किसी पर वे बिना माँगे भी कृपा कर देते थे। एक बार श्रीधाम मायापुर से एक गृहस्थ-भक्त बाबाजी महाराज के दर्शन करने के लिए कुलिया में गए। बाबाजी महाराज तब कुलिया में एक घास-फूस के छप्पर के नीचे रहते थे। वह भक्त छप्पर के पास पहुँच गया, किन्तु बाबाजी महाराज ने उसी समय अपना द्वार बन्द रखा था। छप्पर के पास बैठे किसी व्यक्ति ने बाबाजी महाराज को दर्शनार्थी व्यक्ति के बारे में बताया। बाबाजी महाराज ने उस भक्त की श्रद्धा की परीक्षा लेने के लिए कहा, ‘मेरा दर्शन करने के लिए दो रुपये देने पड़ेंगे।’ तब श्रीमायापुर से आये उस दर्शनार्थी गृहस्थ-भक्त ने पॉकेट से दो रुपये निकाल कर पास खड़े सेवक को दे दिए। सेवक ने यह बात बाबाजी महाराज को बता दी। तब बाबाजी महाराज ने द्वार खोलकर कहा ‘दर्शन करो’; दर्शन के लिए आये गृहस्थ-भक्त ने कुछ दूर से दण्डवत प्रणाम किया। किन्तु बाबाजी महाराज ने अपनी इच्छा से उक्त व्यक्ति के हाथ में अपने हाथों को देकर बहुत आदर के साथ कहा ‘आप मेरे महाप्रभु के जन्म स्थान, श्रीमायापुर से आए हैं, महाप्रभु ने ही आपको मेरे पास भेजा है, फिर भी मैं महाप्रभु को आपके लिए दो-चार बातें कहूँगा। महाप्रभु इस कंगाल की बात अवश्य सुनेंगे। आप हरिनाम का आश्रय ग्रहण कीजिए, निरन्तर हरिनाम कीजिए, आपको और कोई विघ्न नहीं आएगा।” श्रीधाम – मायापुर के लोगों को देखते ही श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज, ‘मेरे प्रभु के धाम के लोग’ कहकर विशेष आदर करते थे। सर्वतन्त्र स्वतन्त्र बाबाजी महाराज को उनकी इच्छा के बिना कोई धन या अन्य वस्तु दे नहीं सकता था और फिर भक्तों की वस्तु और धन बाबाजी महाराज वैष्णव सेवा के लिए स्वयं माँग कर लेते थे, ऐसा भी देखा गया। वे स्वयं कुछ भी ग्रहण नहीं करते थे, वैष्णव सेवा में सब कुछ खर्च कर देते थे।