एक दिन श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के अनुगत कोई एक सेवक को चैत्र मास की कड़ी धूप में दोपहर के समय भिक्षा इकट्ठी करके लाता देखकर एक व्यक्ति ने बाबाजी महाराज जी को कहा ‘आपका सेवक इस प्रकार कड़ी धूप में भिक्षा करने क्यों जाता है? सुबह-सुबह भिक्षा करके भी तो वापिस आ सकता है।’ यह सुनकर बाबाजी महाराज ने कहा-
‘तोमार सेवाय दुःख हय यत, सेओ त’ परम सुख।
सेवा सुख दुख परम सम्पद, नाशये अविद्यादुःख’ ।।
(अथात् हे प्रभो! आपकी सेवा करते हुए यदि दुःख भी होता है, तो वास्तव में वही मेरे लिए परम सुख है। आपकी सेवा करते हुए जो दुःख अथवा सुख प्राप्त होता है, वही तो एकमात्र सम्पत्ति है, जो कि अविद्या रूपी दुःख को नाश कर देती है।)
ठाकुर भक्तिविनोद जी का यह उपदेश अपने अनुगत सेवक को शिक्षा देते हुए सुनाया। श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज ने आत्म मंगलकामी व्यक्तियों के आत्म मंगल के लिए सहिष्णुता के साथ साधन-क्लेश स्वीकार करते हुए सेवा के सुख-दुख दोनों को ही अविद्या ताप के नाश के लिए परम ग्रहणीय जानकर सब समय श्रीहरि – गुरु – वैष्णव सेवा में नियुक्त रहने का उपदेश दिया है। जो हरिभजन करने आते हैं और ऐश आराम ढूँढते हैं, वे कभी भी अविद्या के हाथ से नहीं बच सकते, ज्यादातर अनर्थ में ही पतित होते हैं।