बाबाजी महाराज हमेशा ही श्रद्धालु जीवों को ऐकान्तिक मंगल का उपदेश देते थे। एक व्यक्ति श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के पास आकर समय समय पर हरिकथा श्रवण करता था। दो एक कड़वी बातें सुनकर इस व्यक्ति ने बाबाजी महाराज के पास आना बन्द कर दिया। विभिन्न क्लेशों से पीड़ित होकर यह व्यक्ति पुनः एक दिन हठात् बाबाजी महाराज जी से मिलने आया। तब बाबाजी महाराज ने कहा- “आपने हरिकथा श्रवण बन्द करके अब क्या निर्जन भजन आरम्भ किया है? हरिकथाश्रवण के समय साधुसंग होता है, साधुसंग होने से माया भजन में बाधा नहीं दे सकती। निर्जन भजन की चेष्टा में यदि हरिकथा श्रवण कीर्तन और साधुसंग का अभाव रहे, तब निर्जन भजन प्रयासी को माया और भी अधिक जकड़कर रखती है। तब भगवान श्रीहरि की चिन्ता के बजाय विषय – चिन्ता आकर हृदय पर कब्ज़ा कर लेती है।” यह बात सुनकर यह व्यक्ति बोला- ‘मैंने सोचा कि साधु के पास आकर हृदय में व्यथा पाने की अपेक्षा निर्जन भजन ही अच्छा है।’ इसके उत्तर में श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज ने कहा- ‘देखो! जो साधु तीव्र सत्यकथा कहकर माया पिशाची को भगा देते हैं, वे ही वास्तविक साधु और परम बान्धव हैं। लोग पत्नी के कड़वे बोल एवं कुटुम्बी और आत्मीय स्वजनों की गालियाँ सुनकर भी मरने तक उन्हें छोड़ना नहीं चाहते, बल्कि उन्हें प्रसन्न करके उनकी सेवा में ही लगे रहते हैं और मंगलकामी साधु यदि एक शासन-वाक्य भी कह दें, तब उसी क्षण उन्हें पूरी ज़िन्दगी के लिए परित्याग करने का संकल्प कर लेते हैं। आप यदि वास्तविक भजन करना चाहते हैं, तो वैष्णवों की गालियों को माया से बचने की मन्त्र – औषध की तरह ग्रहण करना होगा। ऐसा होने पर ही हरिनाम करने का अधिकार प्राप्त कर पाएँगे।”