एक दिन ज़मींदार, पण्डित, ब्राह्मण और विशेष-भक्त के रूप में परिचित, पश्चिम बंगाल का रहने वाला एक व्यक्ति अपने एक मित्र के साथ श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के दर्शन करने के लिए आया। यह ज़मींदार भक्त हमेशा ही भाव में तन्मय रहने का इस प्रकार अभिनय करता था कि एक व्यक्ति यदि उसे सहारा देकर न चलाये तो वह बिल्कुल भी चल नहीं सकता। वह ज़मींदार भक्त अपने मित्र के कन्धे पर हाथ रखकर काँपते काँपते श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के पास पहुँचा। वहाँ पर बाबाजी महाराज के पास जो लोग पहले से बैठे हुए थे उनमें से एक-दो व्यक्ति उस जमींदार भक्त को पहचानते थे और उसे परम भक्त मानते थे। उन्होंने अत्यन्त सम्मानपूर्वक ज़मींदार की अगवानी कर उसे बैठने का स्थान दिया। बाबाजी महाराज तब दृष्टिशक्ति-हीन होने का अभिनय कर रहे थे। उन्होंने वहाँ उपस्थित सभी लोगों के द्वारा आदर-सम्मानसूचक आवाज़ों को सुनकर पूछा- ‘कौन आया है?’ ज़मींदार के संगी-मित्र ज़मींदार का सम्पूर्ण परिचय देते हुए उनका गुणगान करने लगे कि वे कितने बड़े पण्डित व भक्त हैं और उनके पास अगाध धन-सम्पत्ति होने के बावजूद भी उनकी उसमें बिल्कुल भी आसक्ति नहीं है। बातों ही बातों में उन्होंने और भी बताया कि अभी केवल दो सप्ताह पहले ही उस ज़मींदार के घर पर डकैती हुई थी, जिसमें उनके 45 हज़ार रुपये चोरी हो गये हैं लेकिन चूंकि ये भक्तश्रेष्ठ हैं इसलिए सारी मुसीबतों को वहीं छोड़कर श्रील बाबाजी महाराज का दर्शन करने के लिए आये हैं। और भी कहा, “मैं उनका बन्धु हूँ, इन्होंने अन्य विषयी लोगों का संग परित्याग करके केवल मात्र मुझे साथ रखा है। आपके साथ बात होने पर ही आप इनकी महिमा समझ सकेंगे। इन्होंने श्रीचैतन्य चरितामृत के श्रीगौर-राय रामानन्द संवाद के किसी सिद्धान्त को समझने के लिए मुझसे प्रश्न किया था; उसके उत्तर में मैंने कहा कि एकमात्र श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज को छोड़कर आपको और कोई भी इस सिद्धान्त को नहीं समझा सकता। अन्यान्य सभी पण्डितों के साथ मेरी और ज़मींदार बाबू की जान पहचान है, किन्तु वे इस प्रश्न का स्पष्टीकरण नहीं कर पायेंगे। यह केवल आप ही कर सकते हैं।” यह सुनकर श्रील गौरकिशोर प्रभु जी ने कहा- मैं एक उपाय बता देता हूँ, उसी से वे सभी कुछ समझ जाएँगे। श्रीराय रामानन्द जी के सिद्धान्तों को समझने से पहले वे आपका और दूसरे कपटी व्यक्तियों का संग परित्याग करके ऐकान्तिक रुप से साधु – वैष्णव का आश्रय ग्रहण कर यदि श्रीचैतन्य चरितामृत का शुरु से अन्त तक विचार करते-करते और महाप्रभु जी के भक्तों के सामने रोते-रोते एक सौ बार पाठ करेंगे, तभी वे श्रीराय रामानन्द संवाद के सिद्धान्त के तात्पर्य को समझ पाएँगे। हमारी अब हरिभजन करने की इच्छा हुई है अतः अधिक कुछ कहने के लिए समय नहीं है।”

यह कहकर बाबाजी महाराज जी ने सभी को उच्चः स्वर से हरिनाम करने के लिए कहा एवं स्वयं उच्च स्वर से कीर्तन करने लगे। ऐसा सुन देखकर उक्त भक्ताभिमानी पण्डित ज़मींदार और उनके मित्र तुरन्त वहाँ से चले गए। सन्ध्या हाने पर सभी लोगों के चले जाने के बाद बाबाजी महाराज अपने पास बैठे एक-दो व्यक्तियों को कहने लगे – “जो ज़मींदार पण्डित ब्राह्मण इतनी दूर से भाव में अविष्ट होकर यहाँ आया था, उसके जागतिक अभाव के अतिरिक्त और कोई वास्तविक भाव मुझे नहीं दिखाई दिया।” बाबाजी महाराज के मुखारविन्द से सब के द्वारा स्वीकृत व सभी लोगों में प्रसिद्ध उस भावुक भक्त के सम्बन्ध में ऐसा कटाक्ष सुनकर पास बैठे एक भक्त ने प्रश्न किया ‘जो व्यक्ति इस प्रकार के भाव में आविष्ट होता है, जिसे एक व्यक्ति यदि न पकड़े तो वह चल ही नहीं पाता, उसकी कोई भावभक्ति नहीं हुई है, यह आप कैसे कह सकते हैं?’ श्रील गौरकिशोर प्रभु ने कहा, “मैं उसके साथ दो एक बातें करके समझ पाया कि उसका हरिभजन के लिए बिन्दुमात्र भी रूझान नहीं है। आम लोगों के अनुमोदन अथवा कहने से हरिभक्ति कितनी है, यह कहा नहीं जा सकता। यदि हरिभजन में कपटता हो, तब बाहरी दृष्टिकोण से अत्यन्त विरक्ति, अनासक्ति और विभिन्न प्रकार के भाव दिखने पर भी उसे वास्तविक विरक्ति या भावभक्ति नहीं कहा जाएगा। किसी विशेष परीक्षा के समय उसी क्षण यह दिखावटी वैराग्य चला जाएगा। हरिभजन में जिनकी निष्कपट रति-मति हो गई है, विरक्ति उनका आश्रय करने के लिए मौका ढूँढ़ती है। हम लोगों को भाव नहीं दिखाएँगे। इस प्रकार आचरण करेंगे- जिससे अन्दर में हरिभजन करने का अनुराग बढ़े। भगवान श्रीहरि के प्रति वास्तविक आन्तरिक अनुराग न होने से बाहर से अनासक्ति के सैंकड़ों भाव दिखाने पर भी श्रीकृष्ण उन पर कृपा नहीं करते, बल्कि और दूर हट जाते हैं। निष्कपट अनुराग रहने से श्रीकृष्ण स्वयं ही धीरे-धीरे उस अनुरागी भक्त के पास आ जाते हैं।

जिसमें श्रीहरि के निष्कपट अनुराग की गन्ध नहीं है, विषयानुराग से जिसका हृदय भरा हुआ है, वह व्यक्ति ही विभिन्न प्रकार की बाहरी वेषभूषाएँ धारण करता है; श्रीकृष्ण भी उन्हें उससे भी अधि क वंचना करते हैं। भगवान श्रीहरि में सच्चा अनुराग रहने से भक्त के शरीर में यदि बाहरी दृष्टि से कोढ़ की बीमारी भी हो जाए, तब भी श्रीकृष्ण उस भक्त की दिव्य सेवामय अंग की गन्ध से विमोहित होते हैं।

मैं यदि उपवास करके दिन-रात हरिनाम कर सकूँ और लोगों को न दिखाकर अन्दर से आर्त (कातर) भाव से पुकारते हुए वृषभानु – नन्दिनी श्रीमति राधारानी जी की सेवा प्राप्त करने के लिए, हर पल क्रन्दन कर सकूँ, तब श्रीमति राधारानी जी के प्राणधन श्रीकृष्ण स्वयं ही ‘पकड़ में आ जाएँगे।