क्षे*** नामक एक भक्त अपनी विवाहिता पत्नी के साथ श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के पास आकर कृपा प्रार्थना करने लगा। श्रील बाबाजी महाराज ने कहा ‘तुम यदि निष्कपट भाव से भजन करना चाहते हो तो तुम दोनों अलग अलग रहकर, किसी से भी कोई अपेक्षा न रखकर हरिनाम करो।”

बाबाजी महाराज के आदेशानुसार क्षे* ने वही किया। कुछ दिन बाद क्षे* जब श्रील बाबाजी महाराजा के पास आया तो उन्होंने उससे पूछा ‘तुम क्या अपनी पत्नी के साथ इकट्ठे भोजन करते हो या अलग प्रसाद ग्रहण करते हो?’ क्षे*** ने कहा, -‘भोजनादि एक साथ ही होता है लेकिन आपके आदेशानुसार अलग- अलग रहकर भजन करते हैं।’ तब श्रील बाबाजी महाराज ने कहा– आज क्या प्रसाद पाया?

क्षे*** ने कहा ‘सजना-डाटा (फली) की तरकारी, बैगुण की भाजी और मूंग की बढ़िया दाल बनी थी। यह सुनकर बाबाजी महाराज ने कहा, –“केवल बाहर से स्त्रीसंग छोड़ने से मंगल नहीं होता, तुम अन्दर से स्त्रीसंग कर रहे हो। पत्नी द्वारा बनाये गए बढ़िया-बढ़िया व्यंजन खाने का लोभ अभी तक छोड़ नहीं पाये हो, तुम्हारा कैसे भजन होगा? पत्नी तुम्हें बढ़िया-बढ़िया भोजन सामग्री के माध्यम से अपना संग करवा रही है। हाय हाय! हरिनाम करने का अभिनय करने पर भी तुमने सजना-डाटा की फली को चिबाने की इच्छा रखी हुई है। कैसे तुमने सजना-डाटा की फली चबा ली? किसी से यदि एक लाख रुपये गुम हो जाएँ, तो उससे उसके हृदय में जितना दुःख होगा, उससे क्या वह अन्न का एक ग्रास भी मुँह में डाल सकता है? वह व्यक्ति हर पल धन की चिन्ता करता – करता किसी प्रकार से बस प्राण रक्षा के लिए दो-चार ग्रास भोजन ग्रहण करता है, लेकिन एक लाख रुपयों के शोक में बढ़िया-बढ़िया वस्तुओं में भी उसकी तनिक भी रुचि नहीं रहती। तुम श्रीकृष्ण की सेवा रूप अमूल्य रत्न को गंवाकर बैठे हो, तुम कैसे सजना-डाटा की फली चबा गये? बाहर से स्त्रीसंग छोड़ने पर भी तुम अन्दर से वह कर रहे हो?”