बाबाजी महाराज का यह उपदेश सुनकर पास बैठे एक गृहस्थ भक्त ने पूछा, ‘अनेक वैष्णवों को स्त्री के साथ रहते हुए हरिभजन करते देखा जाता है, उनका क्या कोई मंगल नहीं होगा? बाबाजी महाराज ने कहा “जीव श्रीकृष्ण का नित्यदास है; लेकिन बद्धजीव जिसे स्त्री-पुत्र रूप से दर्शन करता है, उससे केवल माया का ही दर्शन होता है, भक्तिमय दृष्टि नहीं होने पर, कोई भी श्रीकृष्ण के नित्यदास के स्वरूप का दर्शन नहीं कर सकता। स्त्री-पुत्र के प्रति सर्वदा ही बद्धजीव को भोगबुद्धि रहती है। आजकल बद्धजीव हरिभक्तों का संग व हरिकथा श्रवण न कर, हरिनाम की शक्ति प्राप्त न कर कोई अपनी स्त्री-पुत्र के प्रति आसक्त होकर पड़ा है और कोई अपने स्त्री-पुत्र और विषय त्याग का बाहरी दिखावा कर मर्कट वैरागी होकर पड़ा है। जो मर्कट वैरागी है उसका त्याग नाटक अभिनय के समान है। जो वास्तविक वैष्णव हैं, उनकी पत्नी के प्रति किसी प्रकार की भी भोग बुद्धि नहीं रहती। अपितु वह उनको कृष्ण के दास और गुरु के रूप में दर्शन करते हैं और जो निष्कपट हरिभजन करना चाहते हैं, लेकिन हृदय की दुर्बलता है, स्त्री पुत्रादि के प्रति भी सम्पूर्ण भाव से भोग बुद्धि गई नहीं है, वे भी महाभागवत वैष्णव का निरन्तर संग, हरिकथा श्रवण – कीर्तन करते-करते स्त्री-पुत्रादि के प्रति भोगबुद्धि शीघ्र ही परित्याग कर पाएँगे। वे क्रमशः ही समझ सकते हैं कि सर्वतोभाव से श्रीकृष्ण के प्रति शरणापन्न होने से ही आत्ममंगल होता है। देहात्मज्ञान रहने से आत्म समर्पण नहीं होता, श्रीहरि की कृपा प्राप्त नहीं होती। देहात्मबोध का ही विस्तृत रूप है- स्त्री-पुत्र के प्रति आसक्ति। बाहरी दृष्टि से स्त्री-पुत्र के हंगामे से छुट्टी लेकर अपना सुख या मन का सुख प्राप्त करने के लिए ऐसा जो त्याग होता है, वह वास्तविक त्याग नहीं है। कृष्ण भक्त के त्याग की एक विशेषता है। वे कृष्ण-प्रीति के लिए प्रतिकूल विषय त्याग करते हैं एवं अनुकूल विषय ग्रहण करते हैं।”