रविवार 15 नवम्बर, 1964 को श्रीउत्थान एकादशी के दिन कोलकाता मठ में मनाये गये श्रील गुरुदेव जी के आविर्भाव उत्सव में श्रीगुरु जी के आश्रित शिष्यों एवं गुरुभाइयों में से उपस्थित थे- त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी महाराज, त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति विलास भारती महाराज, श्रीमद् जगमोहन ब्रह्मचारी, श्रीमद् ठाकुरदास ब्रह्मचारी, श्रीमत् उद्धारण ब्रह्मचारी, श्रीमद् नारायण चंद्रमुखोपाध्याय, श्रीमद् कृष्णानन्द, भक्ति शास्त्री और श्रीमद् दुर्दैव मोचन दासाधिकारी । इस उत्थान एकादशी तिथि में पुष्पाञ्जलि प्रदान के बाद श्रील गुरुदेव जी ने दीनता पूर्ण भाव से मर्मस्पेशी भाषा में, जो उपदेश वाणी प्रदान की थी, उसका सारमर्म इस प्रकार है:-

आज श्रीउत्थान एकादशी के दिन मेरे परम गुरुदेव परमहंस श्रीमद् गौर किशोर दास बाबा जी महाराज जी ने नित्यलीला में प्रवेश किया था। दैवयोग से आज के दिन मेरा भी जन्म हुआ था। इसलिए मेरे शुभचिन्तक बन्धुओं ने मेरे मंगल के लिये मुझ पर प्रचुर आशीर्वाद वर्षण किया है। उनके स्नेह और आशीर्वाद से जीवन का प्रत्येक क्षण श्रीकृष्ण और उनके भक्तों की सेवा के अतिरिक्त और किसी भी कार्य में न व्यतीत हो, यही प्रार्थना ज्ञापन करता हूँ। मेरे पारमार्थिक बन्धु मुझे जो आशीर्वाद दे रहे हैं, उसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ। उनके निष्कपट प्रेम को मैं तभी समझँगा, जब वे भुक्ति और मुक्ति की वाञ्छा आदि सब का परित्याग करके निष्कपटता से श्रीकृष्ण और उनके निजजनों की सेवा में अपने प्राण, धन और वाणी नियोजित करेंगे। श्रीकृष्ण प्रेम से श्रेष्ठ किसी और लोभनीय वस्तु की कल्पना ही नहीं हो सकती। भोगों का फल, तीन प्रकार का क्लेश एवं मुक्ति का फल, मात्र दुःखों से छुटकारा है। संसार में दुःखों की तरंगों और ब्रह्मसायुज्यादि मुक्ति में आस्वादनीय वस्तु और आस्वादन करने वाले का अस्तित्व न होने के कारण आनन्द आस्वादन का अभाव है। प्रेममय राज्य में भक्त और भगवान का नित्य प्रेम-सम्बन्ध होने के कारण हमेशा नये-नये आनन्द का आस्वादन और मस्ती वहाँ विद्यमान है। यही चिद्विलासमय भूमिका है। ऐश्वर्य- चिद्विलासमय भूमिका ही वैकुण्ठ और माधुर्य चिद् विलासमय भूमिका ही गोलोक है। वैकुण्ठ में श्रीनारायण सेवित हो रहे हैं, जबकि गोलोक में सात गौण और पाँच मुख्य कुल 12 रस सम्पूर्ण रूप से प्रकट हैं। वहाँ प्रेम के सर्वोत्तम विषय- नन्दनन्दन श्रीकृष्ण हैं। यही कृष्ण प्रेम ही जीव का प्रयोजन है। श्रील रूप गोस्वामी प्रभु ने साधकों के लिए श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति का क्रम बताया है:-

आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोऽथ भजनक्रिया ।
ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रुचिस्ततः ॥
अयासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति ।
साधकानामय प्रेम्नः प्रादुर्भावे भवेत् क्रमः ॥
(पूर्ण विभाग भ.र. सि. 4 लहरी, 15-16 श्लोक)

भगवान सर्वशक्तिमान हैं- ऐसे दृढ़ विश्वास वाला व्यक्ति ही साधु है। श्रद्धालु व्यक्तियों को साधुसंग मिलता है। तत्पश्चात् सद्गुरु के चरणों का आश्रय कर भजन शुरु करते समय साधक में चार प्रकार के अनर्थ होते हैं:- स्वरूप-भान्ति, असतृष्णा, हृदयदौर्बल्य तथा अपराध । यत्न के साथ साधन- भक्ति का अनुशीलन करने से धीरे-धीरे अनर्थ चले जाते हैं। साधन भक्ति के प्रति उदासीन हो जाने से हमें शीघ्रता से मंगल की प्राप्ति नहीं होती। श्रीभक्ति रसामृत सिन्धु में श्रील रूप गोस्वामी जी ने 64 प्रकार की मुख्य साधन-भक्ति का वर्णन करते समय श्रीकृष्ण के लिये ही तमाम चेष्टायें करने का उपदेश दिया है। आज की इस शुभ तिथि में हम ये संकल्प ग्रहण करेंगे कि हम हर प्रकार से श्रीकृष्ण के अनुकूल प्रेम का अनुशीलन करेंगे। तभी हम गुरुवर्ग की वास्तविक मनोभीष्ट- सेवा सुचारू रूप से कर पायेंगे।