सन् 1947 के नवम्बर-दिसम्बर माह में आपने तेजपुर शहर में शुभ पदार्पण किया। वहाँ पर आप दो मास से अधिक समय तक ठहरे थे। पहले आप स्थानीय मारवाड़ी धर्मशाला में ठहरे, फिर उसके पश्चात् दुर्गाबाड़ी में ठहर कर आपने शुद्ध भक्ति का प्रचार किया। दुर्गाबाड़ी के पास ही बंगाली थियेटर है, जहाँ पर आप भाषण दिया करते थे । आपके भाषण तथा वीर्यवती भगवत् कथा से तथा आपके अलौकिक व्यक्तित्व के प्रभाव से बहुत से नर-नारीगण वहाँ पर आपसे कथा सुनने आते थे । तेजपुर में वहाँ के विशेष- 2 व्यक्तियों के घरों में भी हरिकथा संकीर्तन तथा महोत्सव आदि का आयोजन होता रहता था तथा बीच 2 में नगर संकीर्तन भी होता था । बहुत अधिक प्रचार के फलस्वरूप तेजपुर शहर में एक बार तो तहलका मच गया। शहर के विशेष व्यक्ति श्री चूनी लाल तथा और भी व्यक्तियों ने आपके चरणों का आश्रय लेकर गौराङ्ग महाप्रभु जी के बताए हुए शुद्ध भक्ति मार्ग पर चलने का व्रत लिया। सन् 1950 में श्री चूनी लाल दत्त महोदय ने दीक्षा-मन्त्र ग्रहण किया। उनका दीक्षा का नाम हुआ- श्रीचैतन्यचरण दासाधिकारी । गुरुगत-प्राण श्रीचैतन्यचरण दासाधिकारी ने श्रीगुरुदेव जी का मनोऽभीष्ट पूर्ण करने के लिए तेजपुर शहर के अपने रहने वाले स्थान को बेच कर श्रीधाम मायापुर ईशोद्यान में नव चूड़ायुक्त एक ऊँचा सुन्दर मन्दिर, सत्संग भवन व श्रीगुरुदेव जी के रहने के लिए एक कमरे का निर्माण कराया। इस प्रकार श्रीचैतन्यचरण दासाधिकारी जी श्रील गुरुदेव जी के एकनिष्ठ सेवक के रूप में प्रसिद्ध हुए । उन्होंने श्रीधाम मायापुर ईशोद्यान में, जो कि महाप्रभु जी की मध्यान्हिक लीला – भूमि है, भजन करने के लिए एक कुटिया भी बनवाई।

धीरे-2 तेजपुर में बहुत प्रचार हुआ जिसके फलस्वरूप विशेष धनवान व्यक्ति, श्री रजनी कान्त पाल महोदय, तेजपुर में मठ की संस्थापना के लिए अपनी ज़मीन व मकान को दान देने का प्रस्ताव लेकर श्री गुरु महाराज जी के पास आए। श्रील गुरु महाराज जी ने भी ज़मीन ग्रहण की स्वीकृति दे दी । स्वीकृति पाने पर श्री रजनीकान्त महोदय तथा उनकी भक्तिमती सहधर्मिणी ने काच्छाड़ीपाड़ा में स्थित अपनी ज़मीन की रजिस्ट्री कर मठ को समर्पण कर दी तथा सन् 1948 वहीं पर श्रीगौड़ीय मठ की स्थापना हुई ।

23 जनवरी 1950, श्री पंचमी के दिन, श्रीभागवत और पंचरात्र के अनुसार श्रील गुरुदेव जी के मूल पौरोहित्य में श्री श्रीगुरु गौराङ्ग राधानयनमोहन जी के श्रीविग्रह प्रतिष्ठित हुए। इसी उपलक्ष्य में प्रस्थानत्रय् पारायण, वैष्णव होम, श्रीविग्रहगणों का महाभिषेक, श्रृङ्गार, पूजा, भोग आरती के पश्चात् महाप्रसाद वितरण का महोत्सव भी मनाया गया तथा साँयकाल के धर्म सम्मेलन में हज़ारों नर-नारियों ने बड़े उल्लास के साथ भाग लिया। 5 फरवरी 1968 सोमवार, श्री अद्वैत- सप्तमी तिथि को, श्रील गुरुदेव जी के संकीर्तन व मुख्य पौरोहित्य में पाँच-चूड़ा वाले सुरभ्य मन्दिर के प्रतिष्ठा का कार्य भी सुसम्पन्न हुआ तथा मठ के अधिष्ठात्री विग्रह श्री श्रीगुरु – गौरांग – राधा नयन मोहन जी विग्रहों ने नये मन्दिर में शुभ विजय की अर्थात् नये मन्दिर में पधार गये तथा राधा नयन मोहन युगल जी विजय-विग्रह के रूप से भी प्रतिष्ठित हुए।

इस महान् अनुष्ठान में पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति भूदेव श्रौती महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्ड स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति कुमुद सन्त महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विकास हृषीकेश महाराज आदि श्रीगुरुदेव जी के गुरु भाई व वैष्णव आचार्यगण उपस्थित थे।

सन्ध्याकाल की धर्म सभाओं में सभापति और प्रधान अतिथि के रूप में म्युनिसिपैल्टी के चेयरमैन श्री श्रीकान्त शर्मा, श्री भगवत् प्रसाद अग्रवाल, डिप्टी इन्सपेक्टर जनरल श्री डी. एन. वरा, अध्यापक श्रीअजय कुमार वसु, दरं ज़िले के डिप्टी कमिश्नर श्री अनिल कुमार चौधरी, अध्यापक, श्री देवेश्वर गोस्वामी, श्री उमाकान्त गोस्वामी, श्री महादेव शर्मा, अध्यापक, श्रीनृपेन्द्रनाथ भट्टाचार्य और श्री विपनचन्द्र गोस्वामी उपस्थित थे। श्रीमन्दिर निर्माण हेतु आर्थिक सेवा का मुख्य आनुकूल्य, श्री भगवत् प्रसाद अग्रवाल जी ने प्रदान किया। श्री नारायण दास ब्रह्मचारी, श्रीचैतन्य चरण दासाधिकारी, डा० सुनील आचार्य, श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती, श्री गौरांग दास आदि गुरुदेव जी के चरणाश्रित त्यागी एवं गृहस्थ शिष्यों ने उत्सव अनुष्ठान की सफलता के लिए मुख्य रूप से यत्न किया था।