श्रील गुरुदेव, श्रील प्रभुपाद जी के कितने आस्था-भाजन, प्रिय व अन्तरंग सेवक थे, यह आसाम प्रदेश के सरभोग गौड़ीय मठ में हुये श्रीश्रीगुरु गौरांग – गाँधर्विका गिरिधारी जी के विग्रह-प्रतिष्ठा उत्सव के समय मंभ कही गयी प्रभुपाद जी की उक्तियों से जाना जाता है। अपने प्रकट काल में प्रभुपाद जी ने जिन 64 मठों की स्थापना की थी, उनमें आसाम प्रदेश के अन्तर्गत कामरूप जिला (वर्तमान में बरपेटा जिला के अन्तर्गत) सरभोग स्थित श्रीगौड़ीय मठ भी एक है।
श्रील प्रभुपाद जी ने गुरुदेव जी को उनके बड़े भाई त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज तथा श्री जानकी बल्लभ आदि सेवकों के साथ श्रीविग्रह प्रतिष्ठा महोत्सव की पूर्व व्यवस्था आदि के लिए सरभोग भेजा। उस समय गुरुदेव जी के बड़े गुरु भाई त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विज्ञान आश्रम महाराज जी के ऊपर मठ का दायित्व था। मठ में पहुँच कर श्रील गुरुदेव यह देख कर विस्मित हो गये कि वहाँ महोत्सव की कुछ भी व्यवस्था नहीं हुई थी। उन्होंने तत्कालीन मठ रक्षक श्रीमद्भक्ति विज्ञान आश्रम महाराज से जब इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा- “मैं क्या करूँ? श्रील प्रभुपाद जी ने जिसके (श्री निमानन्द दासाधिकारी ) ऊपर इन सब सेवाओं का दायित्व दिया था उन्होंने कुछ भी नहीं किया।” थोड़ी देर की सोच के बाद श्रील गुरुदेव महान् उत्साह के साथ महोत्सव की तैयारी में लग गये। श्रील गुरुदेव जी का ऐसा अलौकिक व्यक्तित्व था कि वे किसी कार्य का दृढ़ संकल्प लेने के बाद पीछे नहीं हटते थे और न ही कभी निरुत्साहित होते थे। हुआ भी ऐसा ही। श्रील प्रभुपाद जी के अपने निजजनों के साथ मठ में पहुँचने से पहले ही श्री गुरुदेव ने कठिन परिश्रम से सभी के ठहरने के लिए अस्थायी व्यवस्था कर दी।
15 मार्च सन् 1936 को प्रातः 6.30 बजे जब श्रील प्रभुपाद अपने निजजनों, जिनमें श्रीमद् कुँज बिहारी विद्या भूषण प्रभु, श्री परमानन्द विद्यारत्न प्रभु, श्रीमद् वासुदेव प्रभु, श्रीमद् कीर्तनानन्द ब्रह्मचारी, श्रीमद् सज्जन महाराज तथा श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी के नाम मुख्य हैं-के साथ सरभोग रेलवे स्टेशन पर पहुँचे तो, श्रील गुरुदेव तथा स्थानीय भक्तों द्वारा उनका खूब धूमधाम के साथ स्वागत किया गया। उस समय की शोभा देखते ही बनती थी। आगे-आगे हाथी, उसके पीछे बैंड पार्टी तथा उसके पीछे भाव-मग्न अवस्था में भक्त लोग संकीर्तन करते हुए एक विराट नगर संकीर्तन शोभा यात्रा के साथ श्रील प्रभुपाद जी सरभोग रेलवे स्टेशन से स्थानीय सरभोग गौड़ीय मठ में पहुँचे। वैष्णवों के वासस्थान व नगर संकीर्तन शोभा यात्रा में व्यस्तता के कारण श्रील गुरुदेव जी आए हुए वैष्णवों के खाने-पीने के द्रव्यों की यथायोग्य व्यवस्था न कर पाये थे। ये ठीक है कि इसके लिए आप अत्यन्त चिन्तित व उद्विग्न भी थे । परन्तु आपके हृदय की आर्ति व श्रील प्रभुपाद जी की अलौकिक महिमा ने सारे हालात को बदल दिया। प्रभुपाद जी के अपने पार्षदों के साथ मठ में पहुँचने से पहले ही चावल, दाल व सब्जी आदि आवश्यक वस्तुओं के पहाड़ की तरह मठ में ढेर लग गये। नवद्वीप धाग से एक महापुरुष आ रहे हैं-यह समाचार सुन कर आसाम के विभिन्न स्थानों से उन महापुरुष के दर्शन व उनकी सेवा के लिए कन्धों पर रखी बहिंगिओं पर सेवा के द्रव्यादि लेकर 6, 8, 10, 20, 30, 40 व इससे भी अधिक मीलों की दूरी से धर्मानुरागी नर-नारियाँ नदी के स्रोत की तरह आने लगे। उनके द्वारा लाये द्रव्यों से सारा मठ खाद्य सामग्रियों से परिपूर्ण हो गया। आसाम के नर-नारियों के सरल अन्तःकरण व साधु-सेवा परायणता को देखकर प्रभुपाद जी आश्चर्यान्वित हो गये। यही नहीं, जब तक श्रील प्रभुपाद वहाँ रहे, तब तक मठ में रोज़ महोत्सव होता रहा-जिसमें सैंकड़ों सैंकड़ों नर- नारियों को नाना प्रकार के प्रसाद से परितृप्त किया जाता रहा।
सरभोग मठ में श्रील प्रभुपाद जी के अवस्थान के दूसरे दिन श्रीविग्रह-प्रतिष्ठा का समय आया। श्रीविग्रह-प्रतिष्ठा की समस्त व्यवस्था का सेवा भार श्रील प्रभुपाद जी ने श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज जी पर दिया था। उन्होंने श्री श्रीगुरु-गौरांग गांधर्विका गिरिधारी जी के श्रीविग्रहों को मन्दिर के अन्दर पुष्प मालादि के द्वारा सुसज्जित करके रख दिया था।
शुभ मुहूर्त के समय अर्थात् प्रातः 10 बजे जब श्रील प्रभुपाद जी ने मन्दिर में प्रवेश किया और देखा कि सभी विग्रह सुसज्जित हैं तो श्रीविग्रहों को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए बोले- ‘श्रीविग्रह तो प्रकाशित ही हैं।’ श्रील प्रभुपाद जी के ये वाक्य सुनकर पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति रक्षक श्रीधर महाराज अनुतप्त हो उठे और सोचने लगे कि श्रील प्रभुपाद जी को जो करना था वह मैंने ही कर दिया है, इससे अवश्य ही मेरा अपराध हुआ है। इसके बाद श्री श्रीगुरु-गौराँग-गांधर्विका- गिरिधारी जी के श्रीविग्रह संकीर्तन, वैष्णव-होम आदि वैष्णव-स्मृति के विधानानुसार महामहोत्सव के साथ प्रतिष्ठित हुए। महोत्सव में अनगिनत नर-नारियों को महाप्रसाद दिया गया।
श्रीविग्रह-प्रतिष्ठा-उत्सव के अन्त में वहाँ के मठ रक्षक, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विज्ञान आश्रम महाराज जी ने श्रील गुरुदेव जी से अनेक बार अनुरोध किया कि वे प्रभुपाद जी को बताएँ कि निमानन्द प्रभु जी, जिन्हें विग्रह-प्रतिष्ठा उत्सव की सारी व्यवस्था करने की जिम्मेवारी दी गई थी, वह उन्होंने नहीं निभाई।
प्रभुपाद जी को सुन कर सुख नहीं होगा, ऐसा सोच कर पहले तो श्रील गुरुदेव उनकी बात को टालते रहे परन्तु श्रीमद् भक्ति विज्ञान आश्रम महाराज जी के बार-बार अनुरोध करने पर, अपने बड़े गुरु भाई के वाक्य की मर्यादा रक्षा करने के लिए-जब प्रभुपाद जी टहल रहे थे और आप उनके पीछे-पीछे चलकर पंखा करते हुए मक्खी उड़ा रहे थे- उस समय बात करते-करते आपने पूज्यपाद आश्रम महाराज जी की बात भी श्रील प्रभुपाद जी को कह दी। घटना सुन कर श्रील प्रभुपाद जी क्रोधित हो उठे और उन्होंने आप को डाँटा।
मेरी बात से श्रील प्रभुपाद जी को सन्तोष नहीं हुआ ऐसा सोच कर श्रील गुरुदेव जी का हृदय संतप्त (दुःखी) हो उठा। परन्तु तुरन्त ही अपने भावों को बदलते हुए श्रील प्रभुपाद स्नेह-सूचक वाक्यों से श्रील गुरुदेव जी की प्रशंसा करने लगे। अपनी प्रशंसा सुन कर भी श्रील गुरुदेव को सुख नहीं हुआ कारण, गुरुदेव जी ने सोचा कि श्रील प्रभुपाद जी को आशंका हुई है कि शायद मैं उनकी डाँट सहन नहीं कर सकूँगा।
श्रील प्रभुपाद जी श्रील गुरुदेव जी को अनेक मूल्यवान उपदेश देते हुए प्रकारान्तर से ये बताने लगे कि वे उनके अन्तरंग प्रियजन हैं। श्रील प्रभुपाद जी ने सबसे पहले ही कहा- ‘अत चाओ केन, आर कष्ट पाओ केन” | अमुक व्यक्ति इतनी सेवा करेगा, इस प्रकार आशा करना ठीक नहीं है क्योंकि गुरु-सेवा के जितने भी कार्य हैं वे सब तुम्हारे हैं। उसमें दूसरा यदि कोई कुछ सेवा करता है तो उसके लिए तुम्हें उसका कृतज्ञ रहना होगा। देखो, कृष्ण की गृहकर्त्ती (Majordomo) श्रीमति राधिका जी हैं। श्रीमति राधिका जी समझती हं। कि कृष्ण की सभी सेवाएँ उनकी ही करणीय हैं। यदि कोई किसी सेवा में उनकी कुछ सहायता करता है। तो वे उसके पास कृतज्ञ रहती हैं। यहाँ श्रील प्रभुपाद जी का हृदय भाव ये है कि उनकी सब सेवाएँ श्रील गुरुदेव जी द्वारा ही करणीय हैं। यदि कोई उसमें उनकी किसी प्रकार सहायता करता है तो वे उसके पास कृतज्ञ रहें। श्रील प्रभुपाद जी के उक्त वाक्यों द्वारा श्रील गुरुदेव उनके अन्तरंग निज जन हैं, स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है। श्रील प्रभुपाद जी की जिस प्रकार आजानुलम्बित बाहु, दीर्घाकृति, गौरकान्ति तथा सौम्य मूर्ति थी, श्रील गुरुदेव जी की भी उसी प्रकार आजानुलम्बित बाडु, दीर्घाकृति, गौरकान्ति और सौम्य मूर्ति थी, जिसे देखकर अनेक लोगों को श्रील गुरुदेव जी के प्रति श्रील प्रभुपाद जी के पुत्र होने का भ्रम होता था।
शरणागति की महिमा को समझाने के लिए श्रील गुरुदेव अपने आश्रित वर्ग को उपदेश देते समय सरभोग गौड़ीय मठ की बात अक्सर कहा करते थे। वे कहते थे कि सरभोग गौड़ीय मठ में श्रीविग्रह-प्रतिष्ठा के समय श्रील प्रभुपाद जी ने जो करना था वह गलती से पूज्यपाद श्रीधर महाराज जी द्वारा पहले ही सम्पन्न कर दिये जाने के कारण श्रीधर महाराज जी मन ही मन बहुत चिन्तित हो उठे थे कि उनका गुरु चरणों में अपराध हो गया है। अतः उन्होंने गुरुदेव जी को अपने मन की अशान्ति के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि वे प्रभुपाद जी के पादपद्मों में मेरी ओर से क्षमा याचना करें और कहें कि अज्ञानता वश ही उनसे ये अपराध हो गया है।
श्रील गुरुदेव जी ने पूज्यपाद श्रीधर महाराज का अनुरोध, पत्र द्वारा श्रील प्रभुपाद जी के चरणों में निवेदन किया। श्रील प्रभुपाद जी ने उसके उत्तर में लिखा- ‘शरणागत का कभी भी अपराध नहीं होता। शरणागत की त्रुटि शरण्य नही देखते, हमेशा सुधार करते हैं, कारण, शरणागत केवल शरण्य की सेवा के लिए, अन्य मतलब रहित, समर्पितात्मा है; जबकि अन्य अभिलाषाओं से युक्त अशरणागत द्वारा कदम-कदम पर अपराध होने की आशंका है।’