विश्वव्यापी श्रीचैतन्य मठ और श्रीगौड़ीय मठ समूह के प्रतिझता हमारे परमगुरु- पादपरा, नित्यलीला प्रविए ॐ 100 श्री श्रीमद भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ‘प्रभुपाद’ जी ने अपने दीक्षा गुरु परमहंस श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज एवं शिक्षा गुरु श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर जी का सारे संसार में श्रीचैतन्य महाप्रभु के विमल प्रेमधर्म की वाणी के प्रचार का आदेश पाकर सन् 1918 में त्रिदण्ड संन्यास चेष ग्रहण किया तथा उसी वर्ष उन्होंने श्रीमायापुर में श्रीचैतन्य मठ एवं कोलकाता में नं० 1 उल्टाहोगा, जंक्शन रोड पर ‘श्रीशक्ति विनोद आसन’ की संस्थापना की। सन् 1920 में श्री श्रीगुरु-गौरांग – राधागोविन्द जी के श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा होने के बाद उसका नाम श्रीगौड़ीय मठ हुआ।

सन् 1925 में ही आप श्री नारायण चन्द्र मुखोपाध्याय एवं कोलकाता के अन्यान्य युवक बन्धुबान्धवों के साथ कोलकाता से नवद्वीप धाम के दर्शनों के लिये गये थे। आपने सुना था कि श्रीमायापुर एक अपूर्व रमणीय स्थान है जहाँ कलियुग पावनावतारी श्रीचैतन्य महाप्रभु जी प्रकट हुए थे और जहाँ पर श्रीचैतन्य मठ के मनोरम विग्रह विराजित हैं। यद्यपि नवद्वीप के श्रीगौड़ीय मठ विरोधी लोगों ने आपको श्रीमायापुर के सम्बन्ध में भ्रमित करने की चेष्टा भी की थी; किन्तु श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के कृपाकर्षण से आपने तमाम बाधाओं का अतिक्रमण करके श्रीमायापुर धाम में शुभागमन किया। उस समय आपके साथ श्री नारायण मुखोपाध्याय महोदय भी थे। वैसे आपके दोस्तों में से बहुत से दोस्त आपके साथ मायापुर नहीं गए थे।

जब आप वहाँ पहुँचे तो मन्दिर दोपहर के विश्राम के लिए बन्द था। श्रीविग्रह के दर्शन न होने के कारण आप हताश हो गए। तभी मठ के एक सेवक ब्रह्मचारी ने आपको कोलकाता से आए जानकर व अति सुन्दर, सुशिक्षित नवयुवक देख कर आपके प्रति आदरपूर्वक व्यवहार किया, महाप्रसाद पाने के लिए प्रार्थना की एवं श्रीमन्दिर न खुलने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा। उन ब्रह्मचारी जी ने आपको यह भी बताया कि कोलकाता के एक विशिष्ट व्यक्ति डा० एस. एन. घोष जी ने आज अपनी स्त्री सहित गुरुदेव जी से (प्रभुपाद जी से) दीक्षा ग्रहण की है-उनका दीक्षा का नाम श्री सुजनानन्द दासाधिकारी हुआ है। उन्होंने ही आज महोत्सव का आयोजन किया है।

डा० एस. एन. घोष के साथ आपका यह प्रथम साक्षात्कार था। बाद में ये डा० घोष ही आप द्वारा प्रतिष्ठित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान के एक प्रधान मददगार साबित हुए थे। यद्यपि आपकी व आपके दोस्तों के भोजन की व्यवस्था नवद्वीप शहर में ही थी, तथापि आपने विचार किया कि महाप्रसाद सेवा से वंचित होना तथा इतना कष्ट करके श्रीमायापुर आकर भी श्रीविग्रह के दर्शन किये बिना जाना ठीक नहीं है। इसलिए आपने प्रसाद पाने के लिए हाँ कर दी। प्रसाद पाने के बाद आप श्रीविग्रहों के दर्शनों की प्रतीक्षा करने लगे। तब ब्रह्मचारी सेवक ने दोबारा आपके पास आकर कहा कि अभी तो आप लोगों को कोई ज़रूरी काम नहीं है। आजकल हमारे गुरुदेव यहाँ आए हुए हैं, आप उनके दर्शन करें तथा उनसे हरिकथा सुनें, इससे आपका मंगल होगा तथा इसी बहाने हमें भी हरिकथा सुनने का सुयोग प्राप्त होगा।

यह सुनते ही आप जहाँ श्रील प्रभुपाद जी विराजमान थे, उस भजन कुटीर में आ पहुँचे। प्रभुपाद जी की घुटनों तक लम्बी भुजाएँ, गौरकान्ति, दीर्घ आकृति और महा तेज से परिपूर्ण परम मधुर तथा अलौकिक मूर्ति के दर्शन करके आप विस्मित हो गये और आप अपने आपको कृतार्थ समझने लगे। सोचने लगे कि मैं बहुत से तीर्थ स्थानों पर गया किन्तु इस प्रकार के महापुरुष तो मेरे को कहीं भी देखने को नहीं मिले। अवश्य ही ये गौरांग महाप्रभु जी के निजजन तथा अतिमर्त्य महापुरुष होंगे। तभी आपके हृदय में एक ऐसी अनुभूति हुई कि निश्चय ही यह मेरे देववाणी के बताये हुए श्रीगुरु पादपद्म ही हैं, जिनका आश्रय करने से मुझे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होगी। आप बड़ी श्रद्धा के साथ प्रभुपाद जी को प्रणाम कर श्रील प्रभुपाद जी के चरणों में बैठ गये ।

श्रील प्रभुपाद जी ने आपसे आपका परिचय एवं यहाँ कैसे आगमन हुआ, पूछा- तब आपने उत्तर दिया कि हमने श्रीमायापुर का नाम सुना था एवं यहाँ के मनोरम श्रीविग्रहों के विषय में सुन कर हम यहाँ चले आये।

श्रील प्रभुपाद जी ने फिर पूछा कि क्या आपने इससे पहले किसी विग्रह के दर्शन नहीं किये ?

आपने अपने उत्तर में कहा- मैंने अभी तक भारत के बहुत से तीर्थों व मन्दिरों में श्रीविग्रहों के दर्शन किए हैं।

श्रील प्रभुपाद जी ने फिर जानना चाहा कि उससे कुछ लाभ हुआ या नहीं ?

यह सुन कर आप चिन्तित हो गए कि क्या उत्तर दूँ, क्योंकि महापुरुष के निकट उचित बात ही बोलनी चाहिए। तब आप कहने लगे कि कोई लाभ हुआ या नहीं यह तो मैं नहीं जानता हूँ, परन्तु दर्शन करने चाहिएँ, इसलिए दर्शन कर लिए। श्रील प्रभुपाद जी ने आपको उत्साहित करते हुए कहा कि श्रीविग्रहों का दर्शन करना ठीक बात है। किन्तु दर्शन करने से पहले दर्शन करने का तरीका सीखना होगा। काम नेत्रों के द्वारा दर्शन नहीं होते हैं, प्रेम नेत्रों के द्वारा ही भगवान् के श्रीविग्रह के दर्शन होते हैं। श्रील प्रभुपाद जी से बहुत समय तक अपूर्व हरिकथा श्रवण करके आपने अपने हृदय में एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव किया।

श्रील प्रभुपाद जी की दिव्य मूर्ति और वीर्यवती कथा आपके हृदय में गम्भीर रूप से घर कर गई। तब आपने प्रभुपाद जी के सेवकों से पूछा कि कोलकाता में श्रील प्रभुपाद जी के दर्शन हो सकते हैं कि नहीं ? उत्तर मिला कि नम्बर 1 उल्टाडाँगा, जंक्शन रोड पर एक मठ स्थापित है, वहाँ श्रील प्रभुपाद जी शीघ्र ही पदार्पण करेंगे। वहाँ पर इनके दर्शन हो सकते हैं। श्रील प्रभुपाद जी के दर्शन करके आप अपने आपको परम सौभाग्यवान समझने लगे तथा प्रसन्नचित्त होकर कोलकाता वापस आ गये।

आप प्रतिदिन नियमित रूप से श्रील प्रभुपाद जी के पास नम्बर 1 उल्टाडांगा, जंक्शन रोड पर स्थित मठ में हरिकथा सुनने के लिए जाने लगे। वैष्णव सेवा द्वारा हरिभजन में आने वाली सब बाधायें दूर होंगी और शीघ्र ही भगवत् कृपा की प्राप्ति होगी, इस विचार से आप गुप्त रूप से वैष्णव सेवा के लिये मठ में बहुत सा द्रव्य भेजने लगे। मठवासी वैष्णव भी यह जान नहीं पाते थे कि यह द्रव्य कौन भेज रहा है? जगत् के लोग जानें न जानें, सर्वद्रष्टा भगवान् तो सब कुछ देखते हैं और उसी के अनुसार फल प्रदान करते हैं। विष्णु-वैष्णव सेवा निष्कपट भाव से केवल उनकी प्रीति के उद्देश्य से ही करनी चाहिए यह शिक्षा श्रील गुरुदेव जी ने साधक लीला का आचरण करके हमें दी है।

आपने विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन की लीला भी प्रकाशित की। आपने शंकराचार्य जी के भाष्ययुक्त वेदान्त का पाठ और अध्ययन करके उसे ही बुद्धिमता की चरम सीमा समझा था परन्तु श्रील प्रभुपाद जी के मुखारविन्द से श्रीमहाप्रभु जी की शिक्षा और सिद्धान्त सुन कर, उसे अधिक युक्तिसंगत जानकर हृदयंगम् कर लिया। श्रीमन् महाप्रभु जी की शिक्षा और उनके द्वारा दी गई वस्तु (पंचम पुरुषार्थ-भगवद् प्रेम) की सर्वोत्तमता को जानकर, आप उनकी (महाप्रभु जी की) शिक्षाओं के प्रति सुदृढ़ श्रद्धा युक्त हो गये। गुरु-शिष्य सम्बन्ध नित्य होने पर भी श्रील गुरु पादपद्म में आत्मसमर्पण की लीला करते हुए आपने श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी के निकट 4 सितम्बर, सन् 1927, श्रीराधाष्टमी की शुभ तिथि को उल्टाडाँगा, नम्बर 1 जंक्शन रोड पर स्थित श्रीगौड़ीय मठ में श्रीहरिनाम और दीक्षा मन्त्र ग्रहण किये। श्रील प्रभुपाद जी ने आपका नाम श्री हयग्रीव दास ब्रह्मचारी रखा और तब से आप गौड़ीय मठों में उसी नाम से परिचित होने लगे । आपकी दीक्षा के समय वैष्णव-होम इत्यादि आचार्यदास देवशर्मा महोदय जी ने किया था।