संन्यास लेने से कुछ समय पूर्व आप बांकुड़ा जिला के केथेर डांगा, ओन्दा झान्टिपहाड़ी व बांकुड़ा इत्यादि तथा मेदिनीपुर जिले के गड़वेंता आदि विभिन्न स्थानों पर शुद्ध भक्ति का प्रचार करने के लिये गये थे। आपके अलौकिक व्यक्तित्व व आदर्श चरित्र से प्रभावित होकर तथा आपके श्रीमुख से वीर्यवती कथा सुन कर वहाँ के बहुत से नर-नारी श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षा के प्रति आकृष्ट हुए। जब आप प्रचार में थे तो उस समय श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी, श्रीमद् राम गोविन्द ब्रह्मचारी, श्री कुंज लाल प्रभु, श्री हरि विनोद प्रभु इत्यादि-गुरु भाई, प्रचार में आपके सहायक के रूप में थे। ‘केथेर डाँगा’ में श्री राधा गोबिन्द सीट एवं ‘उन्दा’ में श्री अविनाश पाल जी ने भी श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की वाणी के प्रचार में सहायता की थी। यद्यपि श्रील प्रभुपाद जी की आपको त्रिदण्ड संन्यास देने की इच्छा थी, परन्तु भिक्षा आदि कार्यों में कुशल होने व व्यस्त रहने के कारण आप संन्यास ग्रहण नहीं कर पाये। श्रील प्रभुपाद जी की अन्तर्ध्यान लीला के बाद पूज्यपाद श्रीकुंज बिहारी विद्याभूषण प्रभु, पूज्यपाद भक्ति प्रकाश अरण्य महाराज, पूज्यपाद भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज, पूज्यपाद श्री भक्ति सर्वस्व पर्वत श्री कृष्ण केशव महाराज, पूज्यपाद श्री भक्ति प्रसून बोधायनं महाराज, ब्रह्मचारी तथा श्री सुन्दर गोपाल ब्रह्मचारी आदि गुरु भाईयों के विशेष अनुरोध से आपने शुद्ध भक्ति प्रचार के अनुकूल त्रिदण्ड संन्यास लेने के लिए संकल्प किया ताकि प्रभुपाद जी की इच्छा की भली-भाँति पूर्ति हो सके।
अतः सन् 1944 फाल्गुनी पूर्णिमा को, गौर आविर्भाव तिथि पर आपने श्री टोटा गोपीनाथ जी के मन्दिर (श्रीपुरुषोत्तम धाम, उड़ीसा) में अपने गुरुभाई परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति गौरव वैखानस महाराज जी से सात्वत विधान के अनुसार त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण किया। तब आपकी उम्र 40 वर्ष की थी। संन्यास के बाद आप परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके संन्यास के समय पूज्यपाद कुंज बिहारी विद्याभूषण प्रभु, पूज्यपाद श्री परमानन्द विद्यारत्न प्रभु, पूज्यपाद श्री पर्वत महाराज तथा पूज्यपाद श्री बोधायन महाराज आदि गुरु भाई उपस्थित थे।
श्रीपुरुषोत्तम धाम में त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण करने के बाद, श्री श्यामानन्द गौड़ीय मठ में शुभ पदार्पण करने पर श्री विश्व-वैष्णव राजसभा द्वारा (458 गौराब्द 3 विष्णु को) आप विशेष रूप से सम्मानित हुए। श्री विश्व-वैष्णव राजसभा से जो लिखित अभिनन्दन पत्र आपको प्राप्त हुआ था उसमें आपकी निर्भीकता, सत्साहस एवं प्रचार में जन- साधारण को मुग्ध करने की क्षमता तथा इनके अतिरिक्त सर्वोपरि श्रील प्रभुपाद जी के आनन्द-वर्धनकारी व वैष्णव प्रीति आदि महान् गुणावली कीर्तित हुई ।
गुरु-निष्ठा तथा गुरुदेव जी के वैभव अर्थात गुरु भाईयों में प्रीति आपका एक आदर्श थी। श्रील प्रभुपाद जी के अप्रकट हो जाने के बाद यदि कभी आपके गुरु भाई किसी विपरीत परिस्थिती अर्थात मुसीबत पड़ जाते थे तो आप हमेशा अपने सुख-दुःख की परवाह न करके उनकी सहायता करने के लिए उनके पीछे खड़े हो जाते थे। उस समय जब मठ की बाहरी अवस्था अनुकूल न थी तो उस विपरीत परिस्थिति से सामन्जस्य न बिठा पाने के कारण प्रभुपाद जी के बहुत से योग्य योग्य शिष्य मठ छोड़ कर वापस घर जाने की सोच रहे थे तो आपने ही बड़ी मुश्किल से उनको समझा-बुझाकर मठ में रखा। यहाँ तक कि, जो गुरु भाई घर चले गये थे उनके घर जा जा कर स्वयं क्लेश सहन करते हुए भी उन्हें किसी तरह से समझा-बुझा कर वापस मठ में लाये। श्रील गुरुदेव जिन-जिन को घर से वापस लाये थे, उनमें से कोई-कोई तो आज भी आचार्य पद पर अधिष्ठित हैं।
जिस प्रकार श्रीकृष्ण के वैभव (कृष्ण भक्तों) में प्रीति द्वारा ही श्रीकृष्ण प्रीति का यथार्थ प्रमाण पाया जाता है, उसी प्रकार गुरुदेव जी के वैभव (गुरु भाईयों) में प्रीति द्वारा ही गुरु-प्रीति की पराकाष्ठा प्रदर्शित होती है। श्रील गुरुदेव जी की गुरु-भाईयों में प्रीति की पराकाष्ठा उनके आदर्श जीवन के शेष मुहूर्त तक सुस्पष्ट रूप में अभिव्यक्त रही ।