एक रात श्रीगुरुदेव जी ने एक अपूर्व स्वप्न देखा कि नारद ऋषि जी ने आकर आपको सांत्वना दी तथा मन्त्र प्रदान किया और कहा कि इस मन्त्र के जप से तुम्हें सबसे प्रिय वस्तु की प्राप्ति होगी परन्तु स्वप्न टूट जाने के पश्चात् बहुत चेष्टा करने पर भी वह सारा मन्त्र आपको याद नहीं आ पाया। मन्त्र भूल जाने पर आपके मन और बुद्धि में अत्यन्त क्षोभ हुआ और दुःख के कारण आप मोहित से हो गए । साँसारिक वस्तुओं से उदासीनता चरम सीमा पर पहुँच गई और आपने संसार को त्याग देने का संकल्प लिया। उस समय आपकी माता जी दुर्गापुर में रहती थीं। आप अपनी माता जी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ‘दुर्गापुर’ पहुँच गए। आपकी भक्तिमति माता जी ने भी आपके संकल्प में बाधा नहीं दी। तब क्या था – भगवान् के दर्शनों की तीव्र इच्छा को लेकर व संसार को त्याग कर आपने हिमालय की ओर प्रस्थान किया। लोहा जिस प्रकार चुम्बक द्वारा खिंचे जाने पर किसी बाधा की परवाह नहीं करता, उसी प्रकार जब आत्मा में भगवान् का तीव्र आकर्षण उपस्थित होता है तब जगत् का कोई भी बन्धन या बाधा उसको रोकने में समर्थ नहीं होती।

हृदय में भगवद् प्राप्ति की तीव्र इच्छा को लेकर आप हरिद्वार आ गए। यहाँ से अकेले ही बिना किसी सहायता के हिमालय पर्वत पर चले गए। जंगलों से घिरे हुए निर्जन पहाड़ पर तीन दिन और तीन रात भोजन और निद्रा का त्याग करके आप एकाग्रचित्त होकर, अत्यन्त व्याकुलता के साथ भगवान् को पुकारते रहे। भगवान् के दर्शनों की तीव्र इच्छा होने के कारण आपका बाह्य ज्ञान जैसे लुप्त प्रायः हो गया था। उसी समय वहाँ आकाशवाणी हुई, “आप जहाँ पहले रहते थे वहाँ आपके होने वाले श्रीगुरुदेव जी का आविर्भाव हो चुका है, इसलिए आप अपने स्थान को वापस लौट जाएँ”। देववाणी के आदेश को शिरोधार्य करके आप हिमालय से नीचे हरिद्वार में आ गए। यहाँ आपने कुछ दिन ठहरने का निश्चय किया। यहीं पर एक दिन एक साधु पुरुष से आपकी भेंट हो गई। उनको आपने अपनी दैववाणी की कथा सुनाई और उन्हें उपदेश करने की प्रार्थना की। उन्होंने भी आपको घर लौट जाने की सम्मति दी और कहा कि वहाँ ही आपको श्रीसद्गुरु की प्राप्ति होगी। तब आपने यह निश्चय किया कि कुछ दिन पवित्र तीर्थ स्थान हरिद्वार में ठहर कर वापस कलकत्ता जाऊँगा। परन्तु दैवचक्र से कुछ दिन हरिद्वार में रहने की अभिलाषा में विघ्न आ उपस्थित हुआ।

घटनाक्रम से उन्हीं दिनों हिन्दीभाषी क्षेत्र का रहने वाला एक धनी व्यक्ति, जो अपनी धर्म-पत्नी को साथ लेकर तीर्थ-स्नान व दर्शन करने आया था, की आपसे उस समय भेंट हुई जब आप ब्रह्मकुण्ड से स्नान करके आ रहे थे। आपकी यौवनावस्था और सुन्दरता को देखकर दोनों आकर्षित हुए और उन्होंने आपको बहुत से फल और मिठाई भेंट की तथा आपको अपने उस स्थान पर चलने के लिए बार-बार प्रार्थना की जहाँ वे ठहरे थे । प्रतिदिन इसी प्रकार भेंट देने और बार-बार अनुरोध करने पर, शिष्टाचार के नाते आप एक दिन उनके स्थान पर, जहाँ वे सेठ व सेठानी ठहरे थे, चले गए। सेठ और सेठानी ने आपको बहुत सी खाने की वस्तुएँ दीं और आपके साथ बहुत प्यार और स्नेह का व्यवहार किया; क्योंकि उनके कोई सन्तान न थी। इसलिए बाद में उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि, “यदि आप हमारे प्रतिपाल्य पुत्र अर्थात- धर्म के पुत्र बन जाएँ; तो तब आप हमारी सारी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी वन सकते हैं”। आपके समक्ष वे ऐसा प्रस्ताव रखेंगे, आपने कभी सोचा भी न था। जो भी हो मन-ही-मन आपकी “मैं तो संसार छोड़कर आसा है, परन्तु माया मुझे एक अन्य तरीके से आकर्षण करना चाहती है।” आपने उनके हव को अस्वीकार कर दिया और उनके स्थान से आए। किन्तु सेठानी आपके प्रति इतने ही असे से कि ये प्रतिदिन आपके पास आकर अपना प्रस्ताव स्वीकार करने के लिये हल करने लगे। जिस हृदय में भगवान को पाने की निष्कपट इच्छा व तीव्र व्याकुलता हो तो उस हृदय को जगत् का कोई भी प्रलोभन खींच नहीं सकता परन्तु जो विषयों की अभिलाषा रखते हैं ऐसे पुरुषों द्वारा इस प्रकार विपुल सम्पति का अधिकारी बनने के सुअवसर का परित्याग करना सम्भव नहीं है। हृदय में भोगों की आकांक्षा न होने एवं श्रीभगवान की आराधना की निष्कपट तीव्र इच्छा होने के कारण आपने उस प्रस्ताव को विपदायुक्त समझा और उसे ग्रहण न करके हरिद्वार में अधिक ठहरने की इच्छा को छोड़ कर कोलकाता वापस आ गये। यह घटना लगभग 1925 की है।