सन् 1942 में जब श्रील गुरु महाराज जी का संन्यास नहीं हुआ था, अर्थात् संन्यास से कुछ समय पूर्व आप अपने गुरु भाईयों-पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विचार यायावार महाराज और पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति कुमुद सन्त महाराज जी के साथ मेदिनीपुर शहर में गए। श्रील गुरु महाराज जी ने व उनके गुरु भाईयों ने जब मेदिनीपुर में शुद्ध भक्ति का प्रचार आरम्भ किया तो श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शुद्ध भक्ति की शिक्षा को सुन कर वहाँ के अनेकों विशिष्ट नर- नारियों ने महाप्रभु जी की बतायी शिक्षा पद्धति से भजन करने का दृढ़ संकल्प लिया। इसके फलस्वरूप थोड़े दिनों में ही वहाँ के जाने-माने धनी व्यक्ति अपने शहर में श्रीगौड़ीय मठ की एक शाखा खोलने के लिए उत्साही हुए। इन्हीं लोगों की सहायता से ही मेदिनीपुर शहर के शिव बाज़ार में प्राप्त ज़मीन के साथ एक विशाल दो मन्जिला मठ स्थापित हुआ। इन व्यक्तियों में विशेष रूप से श्री गोवर्धन पिड़ि महोदय उल्लेखनीय हैं। कारण, इस सेवा के साथ-2 वे किस प्रकार से श्रीगौड़ीय मठ के साथ जुड़ गये, किस प्रकार उनके जीवन में अद्भुत मोड़ आया; सब कुछ छोड़-छाड़ कर किस प्रकार से उन्होंने श्रीकृष्ण व श्रीकृष्ण भक्तों की सेवा की ये सब इतिहास जो हमने अपने गुरु महाराज जी से सुना, यो निम्न प्रकार से है-

एक दिन श्रील गुरु महाराज जी ने अपने सभी गुरु भाईयों के आगे प्रस्ताव किया कि हमें यहाँ के धनी व्यक्ति श्री गोवर्धन पिड़ि महोदय से मिलना चाहिए व उनसे मठ के लिए कुछ सेवा लेनी चाहिए।

आपके इस प्रस्ताव को सुन कर स्थानीय लोगों ने कहा नहीं, वो बहुत ही कंजूस व्यक्ति है, किसी भिखारी को भी एक पैसा नहीं देता। यदि आप उसके पास जाएँगे तो वह आपका अपमान भी कर सकता है। अतः आप कभी भी उसके पास मत जाना।

सबकी बात सुनने के बाद, सभी को समझाते हुए श्रील गुरुदेव जी ने कहा- “साधु का मान-अपमान क्या होता है ? चलो मान लिया गोवर्धन पिड़ि बहुत कंजूस है, तब तो साधु को अवश्य ही चेष्टा करनी चाहिए कि वह कंजूस न रहे, बल्कि एक सज्जन व्यक्ति बनें। अच्छे व्यक्ति को अच्छा बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती; यदि खराब व्यक्ति को अच्छा बनाया जा सके, तभी तो प्रचार का सही फल समझा जाएगा।”

अपने ऊपर श्रद्धा रखने वाले स्थानीय व्यक्तियों को इस प्रकार समझाकर, एक दिन श्रील गुरुदेव जी श्री गोवर्धन जी के पास पहुँच गये । आपको देखते ही गोवर्धन जी खड़े हो गये, उन्होंने आपका स्वागत किया व बैठने के लिए उपयुक्त आसन भी प्रदान किया। आने का कारण पूछने पर आपने कहा कि मेदिनीपुर शहर में श्रीगौड़ीय मठ का प्रचार केन्द्र खुल रहा है-ये बात बता कर आपने श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शिक्षा के माध्यम से उन्हें समझाया कि किस प्रकार जीवों का वास्तविक मंगल हो सकता है। आपके श्रीमुख से प्रभावशाली हरिकथा सुन कर श्रीगोवर्धन जी बहुत प्रभावित हुए व उत्साह भरे स्वर में बोले- “हमारे गृह देवता राधा-कृष्ण ही हैं, यहाँ प्रतिदिन उनकी सेवा-पूजा होती है। क्या आप उनका दर्शन करना चाहेंगे?”

“हाँ, क्यों नहीं, कहकर आप गोवर्धन जी के साथ उनके घर के ऊपर बने मन्दिर में गये। श्रीराधा-कृष्ण के मनोरम श्रीविग्रहों को देखकर आप बहुत प्रसन्न हुए और गोवर्धन जी से कहने लगे- “हमारे आराध्य भी राधा-कृष्ण जी हैं, परन्तु अभी तक हमारे मठ में राधा-कृष्ण जी के विग्रह स्थापित नहीं हुए हैं। यदि आप इन विग्रहों को देकर हमें इनकी सेवा प्रदान कर दें तो हमें बहुत सुख होगा व हम आपके कृतज्ञ रहेंगे ।”

आपकी बात सुनकर श्री गोवर्धन जी ने कहा- “यह तो हमारे गृह देवता हैं । यहाँ तो इनके नाम से बहुत सी सम्पत्ति है। इन्हें आपके मठ में सेवा-पूजा के लिए हम कैसे दे सकते हैं ? हाँ, यदि आप अपने मठ के लिए कहीं और से श्रीविग्रह ले आयें तो मैं उनका खर्चा दे सकता हूँ।”

गोवर्धन जी की बात सुनकर आपने कहा, “गौड़ीय मठ के विग्रह तो जयपुर से आते हैं।”

“कोई बात नहीं, जो खर्च होगा वो मैं दूँगा”- गोवर्धन जी ने कहा। मठ में आकर गोवर्धन जी से हुई सारी बातचीत आपने अपने गुरु भाईयों को बतायी। सारी घटना सुनकर सभी आश्चर्यचकित हो गये।

कंजूस कहलाने वाले गोवर्धन जी ने ही श्रीविग्रहों को जयपुर से लाने का, उनकी प्रतिष्ठा का, उनके आभूषणों का एवं श्रीविग्रहों के प्रतिष्ठा- समारोह में हुए उत्सवादि का सारा खर्चा दिया। इतना ही नहीं, जब उन्हें हरिकथा में आने के लिए निवेदन किया गया तो उन्होंने प्रतिदिन हरिकथा सुनने के लिए मठ में आना प्रारम्भ कर दिया। प्रतिदिन के सत्संग के प्रभाव से धीरे-2 उन्हें संसार की असारता का अनुभव होने लगा व साथ ही साथ उन्हें ये भी लगा कि वास्तव में भगवान् का भजन करना ही मनुष्य जीवन का एकमात्र कर्त्तव्य है व हरिभजन से ही नित्य शान्ति लाभ हो सकती है। इन सब बातों को विचार करते हुए उन्होंने अपनी सभी गंदी आदतों को छोड़ दिया व शुद्ध भक्ति के सदाचार को अवलम्बन करके मठ से हरिनाम-मन्त्र आदि लेकर हरिभजन का दृढ़ संकल्प लिया। श्री गोवर्धन बाबू के इस प्रकार के परिवर्तन को देख कर स्थानीय लोग बहुत विस्मित व उल्लसित हुए।

एक दिन गोवर्धन बाबू की धर्मपत्नी मठ में आई और गुरुदेव जी को प्रणाम करती हुई व्याकुल भाव से कहने लगी- ” “आपकी कृपा मेरे पति में परिवर्तन हुआ है। हमारी सारी अशान्तियाँ दूर हो गयी हैं।”

इस प्रकार श्रील गुरु महाराज जी को देखकर कितने लोग उनकी ओर आकर्षित हुए, आपके सुमधुर व्यवहार से कितने लोग मुग्ध हुए व कितने लोगों के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ इसका एक छोटा सा नमूना उपरोक्त घटना में उल्लिखित हुआ है।