बाघराय की एक दरिद्र महिला भक्त, श्रीमति कुसुम कुमारी देवी की अद्भुत वैष्णव-सेवा प्रवृत्ति देख कर सभी चमत्कृत हो उठे थे। हुआ ऐसा कि जब गुरु महाराज जी अपनी प्रचार पार्टी के साथ बंगला देश पहुँचे तो उक्त महिला ने गुरु महाराज जी से अनेक बार अनुनय-विनय की कि वे इस बार उसके घर ठहरें। गरीब महिला का भक्ति भाव देख कर गुरु महाराज जी ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। अपने घर में ठहरा कर उक्त गरीब महिला ने जिस भाव से सभी वैष्णवों की खूब सेवा की, वह धनी घर में भी देखने को नहीं मिलती। बाद में पता चला कि उक्त महिला ने अपना वह मकान, जिसमें वह स्वयं रहती थी, किसी को बेच दिया था और उसी पैसे से गुरु-वैष्णवों की सेवा की। जिसको उसने मकान बेचा उससे इस बात की अनुमति ले ली थी कि जब तक गुरु-वैष्णव लोग यहाँ रहेंगे तब तक वे उचित व्यवहार करेंगे, महात्माओं के चले जाने के बाद मकान के नए मालिक उक्त मकान पर कब्जा कर सकते हैं। बिक्री किए गए मकान में ही उक्त गरीब महिला ने श्रीगुरु व वैष्णवों की सेवा की। उसने सेवा का सुयोग प्राप्त करने के लिए ही आर्ति के साथ, यह जानते हुए भी कि उसके बाद वृक्ष के नीचे रहने वाले रास्ते के भिखारियों की तरह अपनी बाकी ज़िन्दगी बितानी पड़ेगी-प्राणधन से सेवा की। गुरु महाराज जी को जब यह सब मालूम पड़ा तो वे अत्यन्त दुःखित और मर्माहत हो उठे।
श्री गुरु महाराज जी ने जब उक्त महिला से इस विचार रहित कार्य को करने का कारण पूछा तो महिला ने कहा- “वैष्णव-सेवा द्वारा ही जीव का वास्तविक मंगल होता है। क्या पता अपने इस जीवन में फिर कभी गुरु वैष्णव-सेवा का ऐसा स्वर्ण अवसर मिलेगा या नहीं ? सो, मैंने अपना जीवन व सामर्थ्य रहते-रहते ये अतिशय शुभ, सेवा-कार्य पूरा कर लिया है। अब मृत्यु भी हो जाए तो मुझे कोई दुःख नहीं होगा ।”
महिला की बात सुन कर गुरु महाराज जी विस्मित हो उठे और सोचने लगे कि हृदय में वैष्णव-सेवा की ऐसी प्रवृत्ति होना दुर्लभ है।
इस घटना के कुछ समय पश्चात् कुसुम कुमारी देवी ने श्रील गुरु महाराज जी से हरिनाम-मन्त्र आदि ग्रहण किया व बाकी का अपना सारा जीवन श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की जन्मलीला भूमि श्रीधाम मायापुर के योगपीठ में बिताया। वहाँ पर उन्होंने एकान्तिक निष्टा द्वारा गौर- भजन का कठोर व्रत लिया व तीव्र भजन करते-करते अपने शरीर को छोड़ दिया व स्वधाम को प्राप्त हो गयीं।
श्रीगुरु महाराज जी अपने आश्रितों को हरिकथा सुनाते समय आदर्श वैष्णव-सेवा एवं भगवद् गौरांग निष्ठा का उदाहरण देने के लिए अक्सर कुसुम कुमारी की बात सुनाया करते थे।
मैमन सिंह जिला के उच्च अंग्रेजी विद्यालय में विराट धर्म-सभा का आयोजन – हिन्दु लोग मूर्ति-पूजा क्यों करते हैं, एक मौलवी साहब के इस प्रश्न का समाधान
मैमन सिंह जिला के अन्तर्गत जामुकी पाकुल्ला स्थित उच्च अंग्रेज़ी विद्यालय के प्रांगण में हुई एक विराट धर्म-सभा के आयोजन के अवसर पर श्रील गुरु महाराज जी ने प्रवचन के रूप में जो योगदान किया था, उसका उल्लेख श्रील गुरुदेव हरिकथा प्रसंग में अक्सर करते थे-
बात उस समय की है जब पूर्व पाकिस्तान स्वतन्त्र राष्ट्र बन चुका था । कालेज के प्रांगण में एक विराट धर्म-सभा का आयोजन हुआ। सभा में ‘उपस्थित श्रोताओं में कालेज के अनेक छात्र, अध्यापक तथा हिन्दु- मुसलमान जाति के बहुत से नर-नारी उपस्थित थे। प्रवचन से पहले स्थानीय पुलिस विभाग के कुछ मित्र भाव वाले व्यक्ति गुरुदेव जी के पास आए। उन्होंने कहा- “देखिए स्वामी जी! अब पूर्व पाकिस्तान स्वाधीन राष्ट्र बन चुका है; यहाँ की सरकार आपकी प्रत्येक गतिविधि व भाषण पर नज़र रख रही है। ‘स्वामी जी का ये वाक्य पाकिस्तान के स्वार्थ के विरुद्ध है’ – पाकिस्तान सरकार के पास गया बस इतना वाक्य ही आपको जेल में डलवा देगा।”
पुलिस द्वारा दी गयी चेतावनी से व कई पुलिस आफिसरों को सभा में बैठे देख गुरुदेव जी थोड़ा चिन्तित हुए कि यदि किसी भी कारण को दिखा कर ये मुझे जेल में बन्द कर देते हैं तो वहाँ भक्ति-सदाचार के प्रतिकूल वातावरण में रहना पड़ेगा।
विभिन्न प्रकार के श्रोता होने के कारण भाषण के दौरान किसी न किसी का प्रश्न तो ज़रूर होगा ही। इस आशंका से अपना भाषण प्रारम्भ करने से पूर्व श्रोताओं को निवेदन करते हुए गुरु जी ने कहा- “देखिए ! भाषण सुन कर यदि किसी के मन में कोई शंका उत्पन्न हो तो वह भाषण के अन्त में पूछ सकता है, भाषण के बाद प्रश्नों के उत्तर के लिए 15-20 मिनट रखे जाएँगे, परन्तु यदि भाषण में व्यक्त किए गए विचारों के इलावा किसी का प्रश्न हो तो वह मेरे वास स्थान पर आ सकता है। भाषण के बीच में कोई भी प्रश्न न करे। आपके ऐसा करने से श्रोताओं को भी सुख नहीं होगा तथा भाषण का विषय भी प्रभावित होगा।”
इस प्रकार निवेदन करके आपने अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ही था कि लगभग आधे घण्टे बाद ही एक मौलवी साहब जिनके हाथ में एक उर्दू की किताब थी, अपने स्थान पर खड़े हो गए और प्रश्न करने लगे कि हिन्दुओं में जो बुत परस्तवाद है अर्थात् हिन्दु लोग जो बुत (मूर्ति) पूजा करते हैं, क्या युक्ति है इसकी ?
सभा के बीच में मौलवी साहब के प्रश्न से अनेकों श्रोता अप्रसन्न हुए और उन्होंने गुरुदेव जी को प्रश्न का उत्तर न देने के लिए कहा। परन्तु गुरुदेव जी ने मौलवी साहब के प्रश्न का स्वागत किया और कहा कि मौलवी साहब ने जो प्रश्न किया है, वह एक अच्छा प्रश्न है। सभी को इसका उत्तर सुनना चाहिए। वे जो विषय बोल रहे हैं, उन्हें इससे अलग नहीं होना होगा बल्कि प्रश्न का उत्तर देने से वक्तव्य विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। अतः वे मौलवी साहब के प्रश्न का सभा में ही उत्तर देंगे ।
गुरुदेव जी ने मौलवी साहब के प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व उनको ही एक प्रश्न कर दिया- “मौलवी साहब! आप खुदा को मानते हैं या नहीं?”
गुरुदेव जी द्वारा इस प्रकार पूछने पर मौलवी साहब ने कहा- “निश्चय ही मानता हूँ ।”
गुरुदेव जी ने दोबारा प्रश्न पूछा – “खुदा की कोई शक्ति है या नहीं?”
उत्तर में मौलवी साहब ने कहा– “खुदा सर्वशक्तिमान् है ।”
मौलवी साहब के जवाबों को सुन कर गुरुदेव जी हंसते हुए कहने लगे- “मौलवी साहब ने तो अपने आप ही अपने सवाल का जवाब दे दिया।”
‘सर्वशक्तिमान’ शब्द के गम्भीर तात्पर्य को न समझ पाने के कारण ही मौलवी साहब की समझ में नहीं आया कि उनके प्रश्न का उत्तर कैसे हो गया है। तभी आपने मौलवी साहब को व अन्यान्य लोगों को समझाने के लिए एक उदाहरण देते हुए कहा- “कपड़े सिलने वाली एक छोटी सुई के छेद में से (जिसके अन्दर 90 नम्बर का धागा भी सुगमता से न घुस पाता हो) क्या मौलवी साहब का ख़ुदा उस सुई के छेद से मैमन सिंह जिले के विशाल हाथी को इस पार से उस पार तथा उस पार से इस पार ला सकता है, या नहीं, बशर्ते कि हाथी के शरीर में ज़रा सा भी ज़ख्म न होने पाए, उसका एक बाल भी न टूटे।”
मौलवी साहब को चुपचाप देख कर आपने कहा- “मौलवी साहब के ख़ुदा में कितनी शक्ति है, मैं नहीं जानता। लेकिन जिसको मैं भगवान् मानता हूँ, उनके लिए सब कुछ सम्भव है।
कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं यः समर्थः स एव ईश्वरः ।
भगवान् सर्वसमर्थ हैं। वे सब कुछ कर सकते हैं। वे किए हुए को उल्टा कर सकते हैं, उल्टे किए हुए को फिर पलट सकते हैं। उन सर्वशक्तिमान् के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। सर्वशक्तिमान् सब कुछ करने में समर्थ हैं। हम जो-जो शक्ति भगवान् में स्थापित करेंगे, उस- उस शक्ति से ही भगवान युक्त होंगे अर्थात सिर्फ वही वही शक्ति यदि भगवान में होगी तो ऐसे में उन्हें सर्वशक्तिमान् नहीं कह सकते हैं। वास्तविकता यह है कि हमारी कल्पना के अन्दर और बाहर समस्त शक्ति वाले तत्त्व को ही सर्वशक्तिमान् कह सकते हैं। और हाँ, जब एक बार भगवान को सर्वशक्तिमान् मान लिया तो वह उस कार्य को कर सकते हैं और उस कार्य को नहीं कर सकते हैं, ऐसी बात कहने का हमारा अधिकार ही नहीं है । सर्वशक्तिमान् भगवान अपने भक्त की इच्छा को पूर्ण करने के लिए जिस किसी मूर्ति को धारण करके अर्थात किसी भी स्वरूप को धारण करके तथा जिस किसी भी स्थान पर आ सकते हैं। यदि कहें कि वे ऐसा नहीं कर सकते तो भगवान् को सर्वशक्तिमान् कहना निरर्थक है। मनुष्य कर्त्तारूप से मिट्टी द्वारा, धातु द्वारा अर्थात् पंचमहाभूत द्वारा जो निर्माण करेंगे; अथवा जड़ीय मन द्वारा साकार व निराकार जो भी चिन्ता करेंगे- -सब जड़ ही होगी। उनको ही बुत (पुतुल) कहा जाएगा। जबकि सनातन धर्म में बुत पूजा की व्यवस्था नहीं है। सनातन धर्म पालन करने वाले ‘श्रीविग्रह’ की आराधना करते हैं। भक्त के प्रेम के वशीभूत होकर सर्वशक्तिमान् भगवान् जो विशेष मूर्ति ग्रहण करते हैं; अर्थात स्वरूप ग्रहण करते हैं उसको ही श्रीविग्रह कहते हैं। ‘श्रीविग्रह’ और ‘पुतुल’ (बुत) में जमीन-आसमान का अन्तर है। भगवान के श्रीविग्रह चिदानन्दमय साक्षात् भगवान् ही हैं। भगवान् की माया से मोहित कामातुर बद्ध जीव श्रीविग्रह का चिन्मय स्वरूप दर्शन करने में असमर्थ होते हैं। यहाँ तक कि यदि भगवान् साक्षात् उनके सामने उपस्थित हो जाएँ तो वह उनको भगवान् रूप से पहचान नहीं सकेंगे। शुद्ध भक्ति नेत्रों द्वारा ही भगवान की अनुभूति हो सकती है। भगवान् के दर्शनों के लिए जो योग्यता चाहिए, उसको अर्जित किए बिना भगवत् – दर्शन नहीं होता है ।
गुरु जी के मुखारविन्द से अपने प्रश्न का इस प्रकार युक्ति-युक्त समाधान पाकर मौलवी साहब सन्तुष्ट चित्त से अपने स्थान पर बैठ गए।