श्रील गुरुदेव जी ने ग्वालपाड़ा एवं कामरूप ज़िले के भक्तों के आमन्त्रण पर जिन-जिन स्थानों पर शुभ पर्दापण किया उनमें बिजनी, भाटिपाड़ा, हाउली व बरपेटा इत्यादि स्थान उल्लेखनीय हैं। हाउली में जो धर्म सभा हुई थी उसमें हिन्दु व मुसलमान परिवार के एक हज़ार से अधिक नर-नारी उपस्थित थे। प्रवचन के बीच में श्रोताओं की ओर से प्रश्न उठ सकते हैं, इस आशंका से श्रील गुरु महाराज जी ने अपने प्रवचन के प्रारम्भ में ही कह दिया कि यदि किसी का कोई प्रश्न हो तो वह प्रवचन के बीच में न पूछे। प्रश्नों के उत्तर के लिये सभा के बाद 15-20 मिनट का समय दिया जायेगा। इतना कहने पर भी प्रवचन के बीच एक मौलवी साहब ने प्रश्न किया- ‘क्या आत्मा-परमात्मा को किसी ने देखा है ? आप आत्मा-परमात्मा की बात कहकर दुनियाँ के लोगों को धोखा नहीं दे रहे हैं – इसका क्या प्रमाण है ?”
मौलवी साहब का प्रश्न सभा के नियम के प्रतिकूल था, इसलिये उनके प्रश्न से श्रोता नाराज़ हो गये और उन्होंने श्रील गुरु महाराज जी को प्रश्न का उत्तर देने के लिये मना कर दिया । परन्तु उक्त प्रश्न का उत्तर न देने से शायद अज्ञ व्यक्ति यह समझें कि इसका उत्तर है ही नहीं, इसलिए श्रील गुरुदेव जी ने सभा में ही मौलवी साहब के प्रश्न का उत्तर दिया ।
मौलवी साहब के हाथ में एक पुस्तक थी। श्रील गुरुदेव जी ने मौलवी साहब को पूछा- “आपके हाथ में जो पुस्तक है, उसका नाम क्या है ?”
हैं ।
मौलवी साहब पुस्तक को किताब कहते हैं व किताब का नाम बताते हैं।
श्री गुरु महाराज जी ने कहा, “बंगला, आसामी, हिन्दी तथा अंग्रेज़ी इत्यादि भाषाओं का ज्ञान होने पर भी व आँखें ठीक होने पर भी मैं उस किताब का ‘वो’ नाम नहीं देख पा रहा हूँ- क्यों? मौलवी साहब मुझे धोखा नहीं दे रहें हैं, इसका क्या प्रमाण है?”
श्रील गुरु महाराज जी के प्रश्न को सुनकर मौलवी साहब के आसपास जो लोग बैठे थे उन्होंने भी किताब को अच्छी तरह से देखा और श्रील गुरु महाराज से कहा कि मौलवी साहब किताब का जो नाम बता रहे हैं वह ठीक है ।
इसके उत्तर में श्रील गुरु महाराज जी ने कहा कि आप सब लोग एक साथ मिल कर मुझे धोखा दे रहे हैं।
मौलवी साहब कुछ आश्चर्यचकित हुये और उन्होंने जानना चाहा कि श्री गुरुदेव क्या देख रहे हैं व उनके इस प्रकार बोलने का अभिप्राय क्या है ?
श्रील गुरु महाराज जी ने कहा कि मैं तो देखता हूँ कि एक कौवा स्याही पर बैठा होगा। बाद में वही आपकी इस किताब के ऊपर बैठ गया होगा, ये उसी के पैरों के निशान हैं ।
श्रील गुरुदेव के इस प्रकार के मन्तव्य को सुन कर मौलवी साहब ने कहा कि आप निश्चय ही उर्दू नहीं जानते ।
श्री गुरु महाराज जी ने स्वीकार किया कि हाँ, मैं उर्दू नहीं जानता हूँ।
मौलवी साहब ने कहा, “तब आप उर्दू लेख को कैसे समझ सकोगे ? आपको उर्दू सीखनी होगी। तब आप भी देख पाओगे कि इस किताब का नाम वही है जो मैं बता रहा हूँ।”
श्री गुरुदेव जी ने मौलवी साहब की बात पर ही उनको समझाते हुए कहा, “बहुत सी भाषाएँ जानते हुए भी, बहुत सा ज्ञान होने पर भी, उर्दू भाषा को समझने के लिये उर्दू ज्ञान आवश्यक है। जिस प्रकार आँखों की दृष्टि-शक्ति ठीक रहने पर भी, दृष्टि-शक्ति के पीछे उर्दू का ज्ञान न रहने पर उर्दू भाषा के शब्द के रूप को व अर्थ को समझा नहीं जा सकता, देखा नहीं जा सकता, उसी प्रकार दुनियाँदारी का बहुत सा ज्ञान व योग्यता रहने पर भी, आत्मा व परमात्मा को समझने की विशेष योग्यता जब तक अर्जित नहीं हो जाती, तब तक आत्मा व परमात्मा की अनुभूति नहीं होती ।
दर्शन भी दो प्रकार का होता है-वेद दृक् व मांस-दृक अर्थात् ज्ञानमय दर्शन व मांसमय दर्शन । मांसमय नेत्रों से अर्थात् जड़ नेत्रों से जड़ वस्तु छोड़ कर अन्य वस्तु नहीं देखी जा सकती। जड़ातीत, इन्द्रियातीत वस्तु जब स्वयं प्रकाशित होती है तो उसके कृपा- आलोक से ही उसका दर्शन किया जा सकता है। सद्गुरु के श्रीचरणों में शरणागत व्यक्ति के हृदय में ही तत्व वस्तु का आविर्भाव होता है ।”
हाली में कुछ व्यक्ति जो श्रील गुरुदेव जी के चरणाश्रित होकर भक्ति- सदाचार को ग्रहण करते हुए गौर-विहित भजन करने के लिए व्रती हुए उनमें श्री रामेश्वर वर्मन का नाम उल्लेखनीय है जो दीक्षित होने के बाद श्री रामेश्वर दासाधिकारी के नाम से परिचित हुए।
श्रील प्रभुपाद जी के निर्देश को स्मरण करते हुए श्रील गुरु महाराज. प्रतिवर्षी आस में जाते थे एवं अपने गुरु भाईयों एवं त्यागी व गृहस्थ शिष्यों के सहित आसाम के शहरों व गाँवों में श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी का प्रचार करते थे। वहाँ पर प्रचार करने से वहाँ के सैकड़ों नर- नारी भक्ति सदाचार ग्रहण करते हुए श्रील गुरुदेव जी के चरणाश्रित हुए। कई-कई क्षेत्रों में अत्यन्त प्रतिकूल अवस्था आने पर भी आप अविचलित होकर निर्भीक भाव से प्रचार करते रहे। श्रीकृष्ण में समर्पितात्मा महाभागवत लोग सर्वत्र निश्चिन्त भाव से विचरण करते रहते हैं, कोई भी प्रतिकूल अवस्था उनकी हरि सेवा की प्रवृत्ति को रोक नहीं सकती; चूँकि वह अहैतुकी है, इसलिए अप्रतिहता है ।
तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद्
भ्रश्यन्ति मार्गात् त्वयि बद्ध सौहृदाः ।
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया विनायकनीकपमूर्धसु प्रभो ॥
(भा० 10/2/33)
अर्थात् माधव के स्तवकारी, माधव के अनन्याश्रित भक्त हो जाने पर वे कभी भी भक्ति पथ से च्युत नहीं होते । वे तो माधव के द्वारा रक्षित होकर विघ्नकारियों के सिर पर पैर रखकर सर्वत्र निश्चिन्तता से विचरण करते हैं।
जीवों के दुःखों से कातर होकर श्रील गुरुदेव उनके आत्यन्तिक मंगल के लिये व उन्हें कृष्णोन्मुख करने के लिये अनेक कष्ट सहन करते कभी पैदल व कभी बैलगाड़ी में भ्रमण करते थे। जिन-जिन स्थानों में आपका शुभ पदार्पण हुआ, उनमें जितने मुझे स्मरण हैं, उनका विवरण निम्न प्रकार से है:-
1. ज़िला ग्वालपाड़ा के ग्वालपाड़ा, धुवड़ी, वासुगाउँ, विलासी पाड़ा, काशी कोटरा, सिदली, आगिया, देपालचुं, बड़दामाल, लक्ष्मीपुर, कृष्णाई तथा सुदुनई इत्यादि ।
2. ज़िला कामरूप (वर्तमान कामरूप व बड़पेटा) के गोहाटी, सरभोग, चक्चका बाज़ार, केतकी बाड़ी, हाउली, बड़पेटा, बड़पेटा रोड, पाठशाला, चिहुँ, विजनी, रजिया, नलवाड़ी, जालाहघाट, ‘भाटिपाड़ा, उन्निकुड़ी तथा आमिनगाऊँ इत्यादि स्थान ।
3. ज़िला दरं के- तेजपुर, टांला, बिन्दुकुड़ि, राङ्गा पाड़ा, टेकुयाजुलि, मंगलदै ।
4. जिला काच्छाड़ के शिलचर, हाइलाकान्दि, शिलं एवं शिव सागर इत्यादि ।
आसाम में अधिवासी लोग अधिकतर भागवत धर्मावलम्बी हैं। श्रीशंकर देव, श्री माधव देव, श्री दामोदर देव एवं श्री हरिदेव इत्यादि वैष्णव आचार्यों ने वहाँ पर भागवत धर्म का प्रचार किया। श्री शंकर देव सम्प्रदाय के तब के श्रेष्ठ आचार्य श्री नारायण देव मिश्र (जिन्हें आसाम में सत्राधिकारी कहा जाता है), परमाराध्य श्रील गुरुदेव जी में बहुत श्रद्धा करते थे। श्रील गुरुदेव जी ने जब बड़पेटा में शुभ पदार्पण किया, तब स्कूल व कालेज में जो धर्म सभाओं का आयोजन हुआ, उनका पौरोहित्य किया था- श्रीनारायण देव मिश्र जी ने ।
आपके अगाध पाण्डित्य व व्यक्तित्व को देखकर श्रीनारायण देव मिश्र आपकी ओर विशेष भाव से आकृष्ट हुए थे। वे आपको अपने मकान में भी ले गये थे । आप बड़पेटा में श्री अमिय कान्तिदास राय और श्री हरे कृष्णदास के घर में ठहरे थे। श्रील गुरुदेव जी से दीक्षा होने के बाद श्री अमिय कान्तिदास व श्रीहरे कृष्णदास, क्रमशः श्री अघदमन दास व श्री हरिदास नाम से परिचित हुए थे। सन् 1945 में जब आपने बपेटा में शुभ पर्दापण किया तब आप श्री अमिय कान्ति दास राय के घर में ठहरे थे। उस समय आपकी प्रचार पार्टी में श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी, श्री गोपाल कृष्ण दासाधिकारी, श्री त्रैलोक्य नाथ ब्रजवासी, श्री माधवानन्द ब्रजवासी तथा श्री भुवन मोहन दासाधिकारी थे।
चिहूँ के प्रसिद्ध नामी व्यक्ति श्रील जीवेश्वर गोस्वामी भी श्रील गुरुदेव जी के असामान्य व्यक्तित्व से आकृष्ट हुए थे । उन्होंने गुरुदेव जी के सामने ही अपने हृदय के विचारों को व्यक्त करते हुए कहा था कि वे आसाम प्रदेश के किसी गृहस्थ तेजस्वी प्रचारक से रूढ़ भाषा (कर्कश भाषा) में अन्य सम्प्रदाय के विचारों का खण्डन सुनकर अत्यन्त क्षुब्ध हुए थे, परन्तु आपसे शुद्ध-भक्ति के विरुद्ध अपसिद्धान्तों का दूरीकरण सुनकर दुःखी तो हुए ही नहीं बल्कि सुखी हुए हैं। आपकी कथा में जिस प्रकार का माधुर्य था वह महापुरुषोचित, अलौकिक व्यक्तित्व के द्वारा ही सम्भव हो सकता है ।
श्रील गुरुदेव जी के द्वारा विपुल प्रचार के फलस्वरूप उनके जिनमें प्रकटकाल में ही आसाम में तीन मठ संस्थापित हो चुके थे, सर्वप्रथम मठ तेजपुर में, उसके बाद गोहाटी में एवं अन्त में ग्वालपाड़ा में एक मठ की स्थापना हुई। आपके आसाम प्रचार में पहले व बाद में जो-जो सहायक रूप से थे उनमें से श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी, श्रीमद् माधवानन्द व्रजवासी, श्री ललिता चरण ब्रह्मचारी (श्रीपाद भक्ति ललित गिरि महाराज), श्री लोकनाथ ब्रह्मचारी (श्रीपाद भक्ति सुहृद दामोदर महाराज), श्री कृष्ण प्रसाद ब्रह्मचारी (श्रीपाद भक्ति प्रसाद आश्रम महाराज), श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी (श्रीपाद भक्ति सम्बन्ध पर्वत महाराज), श्री कृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी (श्रीपाद भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज), श्री मंगल निलय ब्रह्मचारी (श्रील गुरुदेव जी के अन्तर्ध्यान के बाद त्रिदण्ड वेष ग्रहण करने पर श्रीपाद भक्ति हृदय मंगल महाराज), श्रीनरोत्तम ब्रह्मचारी (श्रीपाद भक्ति विज्ञान भारती महाराज), श्रीनारायण ब्रह्मचारी (श्रीपाद भक्ति भूषण भागवत महाराज), श्रीदीनानाथ ब्रह्मचारी (श्रीपाद भक्ति प्रकाश गोविन्द महाराज), श्रीसुदर्शन ब्रह्मचारी, श्री परमानन्द दास बाबा जी महाराज, श्रीभूतभावन दासाधिकारी, श्री श्रीनिवास दासाधिकारी, श्री शशक शेखर दास, श्री हरिदास ब्रह्मचारी (श्री हरे कृष्णदास), श्री उपानन्द ब्रह्मचारी (श्री उपानन्द दासाधिकारी), श्री घनश्याम ब्रह्मचारी (श्रीघनश्याम दासाधिकारी), श्री विजय कृष्ण ब्रह्मचारी, श्री भगवान् दास ब्रह्मचारी, श्री गोकुलानन्द ब्रह्मचारी, श्री विष्णु चरणदास तथा श्रीप्रणवानन्द दासाधिकारी उल्लेखनीय हैं ।