आसाम प्रदेश में चारों ओर श्रीचैतन्य वाणी के विपुल प्रचार व प्रसार श्रीधाम मायापुर ईशोद्यान स्थित, श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान की शाखा स्वरूप, और उसकी ही सेवा परिचालना के अधीन, तेजपुर, गोहाटी व सरभोग नामक स्थानों में तीन प्रचार केन्द्र प्रतिष्ठित हैं। साथ ही हमारे आनन्द का विषय ये है कि नित्यलीलाप्रविष्ट परमाराध्य, जगद्गुरु 108 श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी के चरण चिन्हों से पवित्र स्थान, ग्वालपाड़ा शहर में भी श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की एक शाखा प्रतिष्ठित हुई है। श्री श्रील प्रभुपाद जी के समय में भी यहाँ पर ” ग्वालपाड़ा प्रपन्नाश्रम” नाम से एक प्रचार केन्द्र स्थापित हुआ था। ग्वालपाड़ा के बलबला ग्राम निवासी, स्वनामधन्य, स्वधर्मनिष्ठ व वदान्यवर सज्जन श्री शरत् कुमार नाथ महोदय जी ने ग्वालपाड़ा क्षेत्र में शुद्ध भक्तों के माध्यम से कलियुग पावनावतारी श्रीमन् महाप्रभु जी द्वारा आचरित व प्रचारित शुद्ध भक्ति सिद्धान्त वाणी के प्रचार-प्रसार का अनुभव किया तथा मठ के लिए, ग्वालपाड़ा Municipality के रास्ते के किनारे, लगभग एक एकड़ ज़मीन सहित दो मकान, जो इलेक्ट्रिक लाईट से युक्त थे तथा जिसमें दो सैनेटरी शौचालय, दो रसोई घर, बड़े-छोटे मिलाकर आठ कमरे तथा एक ट्यूबवैल था, श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के अध्यक्ष, परम पूजनीय श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी जी के श्रीहस्तों में अर्पण किये।
15 दिसम्बर 1969 को इस दान-पत्र की निर्विघ्न रजिस्ट्री हुई। स्थानीय विशिष्ट वकील और अन्यान्य सभी सज्जनों ने श्रीयुत् शरत् कुमार जी का इस सेवा वैशिष्ट्य के लिए सर्वान्तःकरण से उल्लास प्रकाशित किया।
जगत् में हरिकथा का दुर्भिक्ष (अकाल ) ही वास्तविक दुर्भिक्ष है। उसे दूर करने की चेष्टा ही वास्तविक दयालुता व परोपकारिता का परिचय है । मरणासन्न मानवों के लिए हरिकथामृत ही संजीवनी है तथा इसके (हरिकथामृत के) वितरणकारीगण ही वास्तविक दाता हैं।
परम पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति दयित माधव महाराज जी ने स्वयं अपने पार्षदों के साथ वहाँ जाकर अपनी स्वभाव सुलभ ओजस्विनी भाषा में, श्रीश्रीगुरु – गौरांग वाणी का कीर्तन करते हुए, मठ-प्रतिष्ठा-महोत्सव का महा-समारोह के साथ सम्पादन किया ।
ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे स्थित मठ का दृश्य अति सुन्दर लगता है। शहर भी काफी साफ़-सुथरा है। इसके इलावा भविष्य में अलग से मन्दिर व साधु निवास की ज़रूरत पड़ने पर उस ज़रूरत को पूरा करने के लिए स्थान का अभाव भी नहीं था ।
जब तक मन्दिर इत्यादि नहीं बना था, तब तक मकान के उन्हीं कमरों में से एक कमरे को मन्दिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के इस नव प्रतिष्ठित प्रचार केन्द्र में वहाँ के एस.डी.ओ. श्री जयप्रकाश सिंह एवं ग्वालपाड़ा कालेज के अध्यक्ष, श्रीमहेन्द्र वरा महोदय जी के सभापतित्व में, 17 व 18 दिसम्बर, 1969 को दो धर्म सभाओं का भी आयोजन किया गया, जिनमें “जीवों के दुःखों के कारण व उनका प्रतिकार” तथा “भागवत धर्म” विषयों पर प्रवचन हुए। इसके इलावा श्रीनाम संकीर्तन का भी अनुष्ठान हुआ।
शुक्रवार, 5 फरवरी, 1971 को श्रीरामानुजाचार्य जी की तिरोभाव तिथि के शुभ अवसर पर श्रील गुरुदेव जी के पौरोहित्य व सेवानियामकत्व में, श्रीश्रीगुरु गौरांग, श्रीराधा दामोदर जी के विग्रह प्रतिष्ठित हुए। इसी उपलक्ष्य में 4 से 10 फरवरी तक सप्त दिवसीय धर्म सम्मेलन व 7 फरवरी को संकीर्तन शोभायात्रा के साथ रथ में सुसज्जित श्रीविग्रहों का नगर भ्रमण उत्सव भी सम्पन्न हुआ ।
इस उत्सव में पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति ललित गिरि महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोद वन महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रकाश गोविन्द महाराज, श्रीलोकनाथ ब्रह्मचारी, महोपदेशक श्री मँगल निलय ब्रह्मचारी, श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी, श्रीमद् अच्युतानन्द दासाधिकारी, श्री हरेकृष्ण दास, श्री अघदमन दासाधिकारी, श्रीउपानन्द ब्रह्मचारी तथा श्री यज्ञेश्वर ब्रह्मचारी उपस्थित थे।*
*(आपको ये जानकर अति हर्ष होगा कि श्रील गुरु महाराज जी के कृपा आशीर्वाद से बुधवार 20 फरवरी, 1986 को श्रील गुरु महाराज जी की विरह तिथि के शुभ दिन पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज के पौरोहित्य में ज्वालपाड़ा मठ के नवचूड़ा से युक्त, सुरम्य मन्दिर की प्रतिष्ठा व श्रीमंन्दिर में श्रीविग्रहगणों का शुभ विजय उत्सव सम्पन्न हुआ।)
श्रील प्रभुपाद, श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी की मनोऽभीष्ट सेवा को पूर्ण करने के लिए व पतित जीवों का उद्धार करने के लिये त्रिदण्ड- संन्यास वेषाश्रय की लीला के बाद से लेकर, अपने प्रकट काल तक आपने भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम तथा पूर्व पाकिस्तान (वर्तमान बंगला देश) में जो विपुल प्रचार किया, उससे देश के विभिन्न प्रान्तों के अनगिनत नर-नारियों ने आपके चरणाश्रित होकर भक्ति-सदाचार ग्रहण करते हुए, श्रीमन् महाप्रभु जी द्वारा प्रदर्शित शुद्ध भक्ति-पथ पर चलने के लिए अर्थात् भजन करने के लिए व्रत लिया | पश्चिम व दक्षिण भारत में मायावादियों के दुर्भेद्य दुर्ग में जब श्रील गुरु महाराज जी ने प्रवेश किया व जब आपने वहाँ के निवासियों को श्रीमन् महाप्रभु जी के प्रेम धर्म के असमोर्द्धत्व को समझाया तो उनमें से अनेक लोगों ने मायावाद विचार को परित्याग करके शुद्ध भक्ति पथ को ग्रहण किया। आपकी महापुरुषोचित्त बाहरी आकृति दर्शन करके व आपके माधुर्यपूर्ण व्यवहार से, मायावादी लोग, ये समझते हुए भी कि उनके विचारों का खण्डन हो रहा है, तथापि आपको आमन्त्रण करके आपके श्रीमुख से वीर्यवती हरिकथा श्रवण करके तृप्ति लाभ करते थे।
आपकी परम सुन्दर तेजोमय गौर कान्ति, आपका परम आदर्श चरित्र, पारमार्थिक गूढ़ विषयों की अकाट्य युक्तियों एवं शास्त्र-प्रमाणों के द्वारा समझाने की अपूर्व क्षमता, सभी सज्जनों को आकर्षित करती थी। आपका आचरण इतना निष्कलंक था कि चेष्टा करके भी कोई आपके चरित्र में दोष दर्शन नहीं कर सकता था । शास्त्र की बात को याद करना व भाषण देना आसान है परन्तु शास्त्र और महाजनों के निर्देशित पथ का आचरण करना आसान नहीं है। आचार्य उसे कहते हैं जो आचरण करके शिक्षा दे ।
आचिनोति यः शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि ।
स्वयमाचरते यस्मादाचार्य स्तेन कीर्तितः ॥
(वायु पुराण)
जो शास्त्र के अर्थ का चयन करके दूसरों को शास्त्र के अनुकूल आचरण की शिक्षा देते हैं तथा स्वयं शास्त्र के अनुसार चलते हैं उनको ‘आचार्य’ कहा जाता है। आचरण रहित पेशेदार वक्ताओं के द्वारा कभी भी धर्म प्रचार नहीं होता। Don’t follow me but follow my lecture मेरा आचरण मत देखो, जो मैं कहता हूँ उसे सुनो-इस नीति से धर्म प्रचार नहीं होता। हरिकथा किसकी जिह्वा से कीर्तित होती है, इस सम्बन्ध में बताते हुए श्रील प्रभुपाद जी ने कहा- “जो 24 घण्टे में से 24 घण्टे ही हरि सेवा में नियोजित रहते हैं, जो प्रत्येक कदम पर हरि सेवा करते हैं, उनकी जिह्वा में हरि से अभिन्न हरिकथा प्रकट होती है।”
श्रील गुरुदेव एक स्थान पर रहते हुए भी सभी आगन्तुकों की सुविधा – असुविधा के प्रति इस प्रकार दृष्टि रखते थे कि सभी ये समझते थे कि श्रील गुरुदेव सबसे ज़्यादा उसे ही प्यार करते हैं । ईश्वरीय शक्ति के अतिरिक्त साधारण मनुष्य में इस प्रकार के गुणों का प्राकट्य सम्भव नहीं है ।
आपकी अनेक विषयों में जानकारी व दूरदर्शिता देख कर अनेक लोग विस्मित हो जाते थे और सोचते कि आप इन विषयों में शिक्षा प्राप्त न करते हुए भी किस प्रकार सभी विषय में पारंगत हैं। आपके अलौकिक व्यक्तित्व से आकृष्ट होकर, आपकी मनोऽभीष्ट सेवा पूर्ण करने की आकांक्षा से, जिन्होंने गृह बन्धनों को छेदन करके, माता-पिता व स्वजनों की माया ममता परित्याग करके, आपके श्रीपादपद्मों में आत्मसमर्पण किया अथवा आपके सान्निध्य में आये उनमें से मुख्य त्यक्ताश्रमियों के नाम संक्षिप्त भाव से नीचे दिये जा रहे हैं।
1. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रसाद आश्रम महाराज, दीक्षा नाम – श्री कृष्ण प्रसाद ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा-सन् 1944- 45, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1961
2. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति ललित गिरि महाराजः दीक्षा नाम – श्री ललिता चरण ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1944-45, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1961
3. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज दीक्षाः नाम – श्रीकृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1947- 48, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1961
4. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोद अरण्य महाराजः दीक्षा नाम – श्री प्रद्युम्न दासाधिकारी, नाम व मन्त्र दीक्षा-सन् 1951-62, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1962
5. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सम्बन्ध पर्वत महाराजः दीक्षा नाम – श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1946, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1965
6. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विज्ञान भारती महाराजः दीक्षा नाम – श्री नरोत्तम ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1955, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1969
7. श्रीमद् मंगल निलय ब्रह्मचारी, विद्यारत्न, भक्ति शास्त्रीः नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1950
8. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रसाद पुरी महाराजः दीक्षा नाम- श्रीनारायण ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1951, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1969
9. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति भूषण भागवत महाराजः दीक्षा नाम – श्री नारायण दास ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1950, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1970
10. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रकाश गोविन्द महाराजः दीक्षा नाम – श्री दीनानाथ वनचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1950, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1970
11. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोद वन महाराजः दीक्षा नाम- श्री भुवन मोहन दासाधिकारी (श्रील प्रभुपाद जी के शिष्य), त्रिदण्ड संन्यास सन् 1970
12. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सुहृद दामोदर महाराजः दीक्षा नाम – श्री लोकनाथ ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1944-45, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1972
13. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सुन्दर नारसिंह महाराजः दीक्षा नाम – श्री अचिन्त्य गोविन्द ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1951-52, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1973
14. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विजय वामन महाराजः दीक्षा नाम – श्री बलराम ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1946-47, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1973
15. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति बान्धव जनार्दन महाराजः दीक्षा नाम – श्री अनन्त दास ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1963- 64, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1973
16. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सर्वस्व निष्किंचन महाराजः दीक्षा नाम – श्री राधाकृष्ण दास ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1951, त्रिदण्ड संन्यास सन् 1974
17. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सुहृद बोधायन महाराजः पूर्व नाम – श्री नारायण चन्द्र मुखोपाध्याय (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित), त्रिदण्ड संन्यास सन् 1976
18. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रापण दण्डी महाराजः पूर्व नाम – श्री गोपाल दास ब्रह्मचारी, (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित ) त्रिदण्ड संन्यास सन् 1976
19. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति वैभव अरण्य महाराजः दीक्षा नाम – श्री विष्णुदास ब्रह्मचारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – सन् 1955 त्रिदण्ड संन्यास सन् 1977
20. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रबोध मुनि महाराजः पूर्व नाम- श्रीठाकुर दास ब्रह्मचारी, (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित), ड संन्यास सन् 1977
21. त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति शरण त्रिविक्रम महाराजः पूर्व नाम – श्री प्यारी मोहन ब्रह्मचारी, (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित) त्रिदण्ड संन्यास सन् 1977
श्री गुरु महाराज जी के वे गुरु भाई तथा शिष्य, जो उस समय हमारी संस्था के विशिष्ट सदस्य थे
1. श्रीमद् जगमोहन ब्रह्मचारी (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित)
2. श्रीमद् इन्दुपति ब्रह्मचारी, वृन्दावन (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित)
3. श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित)
4. श्री गोविन्द चन्द्र दासाधिकारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – 1947
5. श्री सत्येन्द्र नाथ चक्रवर्ती (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित), दीक्षा प्राप्त होने के बाद- श्री सनातन दासाधिकारी – 1966
6. डा० एस० एन० घोष (श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित), दीक्षा नाम-सुजनानन्द दासाधिकारी
7. श्री नरेन्द्र नाथ कपूर, दीक्षा नाम-श्री नरहरि दासाधिकारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – 1954-78
8. श्री चूनी लाल दत्त, दीक्षा नाम-श्री चैतन्य चरण दासाधिकारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – 1947-50
9. पण्डित विभु पद पण्डा, दीक्षा नाम-श्री विभुपद दासाधिकारी, नाम व मन्त्र दीक्षा – 1945-48
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की वाणी के प्रचार में श्रील गुरुदेव जी का बड़ा उत्साह था । उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही बहुत से विशिष्ट व्यक्ति उनकी ओर आकर्षित हुए तथा भारत के विभिन्न स्थानों पर श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ नामक संस्थान के बहुत से प्रचार केन्द्रों की स्थापना हुई।
(श्रील गुरुदेव जी के व्यक्तित्व से विशिष्ट व्यक्तियों का आकर्षण एवं विभिन्न स्थानों में प्रचार केन्द्रों का संस्थापन)