सन् 1947 में श्रीगौड़ीय मठ के आश्रित गृहस्थ भक्त श्री राधामोहन दासाधिकारी जी के विशेष निमन्त्रण पर एक बार फिर श्रील गुरु महाराज जी आसाम प्रचार में गये । उस समय उनके साथ पार्टी में जो- जो थे उनमें उल्लेखनीय हैं- श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रह्मचारी, श्रीमाधवानन्द ब्रह्मचारी तथा श्री रथारूढ़ दास ब्रह्मचारी | प्रचार के दौरान श्रील गुरु महाराज जी अन्यान्य वैष्णवों के साथ श्री राधामोहन दासाधिकारी प्रभु के घर में ठहरे और शहर के विभिन्न स्थानों में धर्म- सभाओं का आयोजन किया गया ।

स्थानीय हरि सभा में जो विशेष आयोजन हुआ, उसके सभापति हुए थे वहाँ के विशेष वकील क्षीरोदसेन महोदय। इनके अलावा वहाँ के विशिष्ट व्यक्ति व Govt. Pleader श्री कामाख्या चरणसेन तथा Pleader of Mechpada State श्री प्रिय कुमार गुहराय आदि शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति, सभाओं में विशिष्ट अतिथियों के रूप में उपस्थित हुए थे। वहाँ के श्री धीरेन्द्र कुमार गुहराय के पुत्र ‘श्री कामाख्या चरण, जो बाद में श्री कृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी एवं उसके पश्चात् श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज के नाम से परिचित हुए, की श्रीगुरु महाराज जी से प्रथम मुलाक़ात श्री राधामोहन प्रभु के घर पर ही हुई थी। श्रीकामाख्या चरण व उनके दोस्त श्री देवव्रत (रवि) तत्त्वजिज्ञासु होकर श्रील गुरु महाराज जी के पास श्री राधामोहन जी के घर आये। अपने बन्धु के साथ श्री कामाख्या चरण जी भगवद् प्राप्ति के लिए सुनिश्चित पथ के निर्देशन की प्रार्थना से युक्त अन्तःकरण के साथ जब गुरु महाराज जी के पास आये, उस समय वे (श्रीगुरु महाराज जी) एक खाट पर बैठे थे। दोनों ने महाराज जी को प्रणाम किया। प्रणाम करते समय श्री कामाख्या चरण जी को ऐसा अनुभव हुआ कि उन पर श्रील गुरु महाराज जी के शुभ- आशीर्वाद की वर्षा हो रही है। ऐसा अनुभव करके ये पुलकित हो उठे। इसी समय उन्होंने श्रील गुरुदेव जी से इस प्रकार का एक प्रश्न पूछा- “हरिनाम करते-करते मेरे मन में ऐसी भावना होती है कि जैसे थोड़ी देर बाद ही मुझको भगवान् के दर्शन होंगे और फिर संसार में जिन 2 के प्रति प्रीति सम्बन्ध है- उन्हें छोड़ कर चला जाना पड़ेगा-इसी आशंका से उस समय हरिनाम बन्द हो जाता है, वह हरिनाम जैसे बन्द न हो, उसके लिए मैं आपसे उपदेश देने की प्रार्थना करता हूँ ।”

यद्यपि यह कम दिमाग में उत्पन्न होने वाले विचारों वाला कोई खास महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं था, तथापि उत्साह प्रदान करने के लिये श्रील गुरु महाराज जी ने प्रश्न की प्रशंसा की व एक उदाहरण देकर समझाते हुए कहा- “कीचड़ व दुर्गन्ध से युक्त एक कच्चा तालाब था जो कि बत्तखों की विहार स्थली था। वे उस गन्दगी में रहकर कीचड़ में रहने वाले शामूक, गुगली व केंचुवे आदि प्राणियों को खाकर अपना जीवन निर्वाह करते थे। एक दिन उन्होंने देखा कि आकाश में काफी ऊँचाई पर उनके जाति – भाई हंस उड़ कर जा रहे हैं। वे हंस देखने में बहुत सुन्दर थे, आकार में भी बड़े थे व उनके पंख भी बड़े विचित्र व मनोहर थे । बत्तखों ने इस प्रकार विचार किया कि उड़ने वाले ये हंस जहाँ रहते हैं, निश्चय ही वह स्थान अत्यन्त रमणीक होगा। यदि हमको भी उनके साथ रहना मिलता तो हमारा चेहरा भी सुन्दर हो जाता एवं हम भी परम सुखी हो सकते थे।

आकाश में उड़ने वाले हंस, जाति से राजहंस थे । वे समुद्र में गये थे और अभी लौटकर मान सरोवर में जा रहे थे। जब बत्तख अत्यन्त करुण भाव से उन्हें देख रहे थे तो एक राजहंस को बत्तखों की दुरावस्था देख कर दया आ गयी। वह आकाश में घूम-घूम कर ज़मीन पर उतरने लगा ।

बत्तख राजहंस का अपूर्व प्रकाण्ड रमणीक चेहरा देख कर आश्चर्यान्वित हो गये। वे हंस से, जहाँ वे रहते हैं, उन्हें भी वहाँ ले चलने के लिए प्रार्थना करने लगे। राजहंस ने कहा- “आप सभी का इस दुर्गन्ध वाले स्थान से उद्धार करने के लिये ही मैं आया हूँ । जब राजहंस ने उन बत्तखों को अपने साथ चलने के लिये कहा तो उन्होंने अपनी मज़बूरी बताते हुये कहा कि वे ज़्यादा ऊपर नहीं उड़ सकते । बत्तखों की मज़बूरी समझ कर राजहंस को और भी दया आ गयी। उसने अपने दयाद्रचित्त से कहा कि आप मेरी पीठ पर चढ़ जाइये, मैं आप सबको ले जाऊँगा | राजहंस की बात सुन कर सारे बत्तख चिन्तित हो उठे व आपस ‘में काफी देर तक विचार-विमर्श करते रहे और राजहंस से पूछने लगे कि वे उन्हें जहाँ ले जा रहे हैं वहाँ खाने के लिए शामूक, गुगली व केंचुवे इत्यादि प्राणी मिलते हैं कि नहीं ?

उत्तर में राजहंस ने कहा कि वे हिमालय के मान सरोवर में रहते हैं । वहाँ इस प्रकार की गन्दी चीजें नहीं होतीं। वहाँ पर तो वे कमल के मृणाल का भोजन करते हैं। राजहंस की बात सुन कर बत्तखों के मुख से चीख निकल गयी। वे घबराहट के साथ कहने लगे कि वहाँ क्या खाकर ज़िन्दा रहेंगे ….. । अन्त में ये निर्णय हुआ कि वे राजहंस के साथ नहीं जाएँगे। बत्तखों की इतर आसक्ति ही राजहंसों के रमणीक स्थान में जाने के लिए बाधक बनी। ठीक इसी प्रकार भगवान् की
बहिरंगा माया द्वारा रचित नश्वर देह व देह सम्बन्धी व्यक्तियों के प्रति आसक्ति ही हमारे लिए भगवान् के पास जाने के लिए बाधक स्वरूप होती है | भगवान् निर्गुण, मंगलमय व परमानन्द स्वरूप हैं। उनका धाम भी उसी प्रकार का है। वहाँ पर गन्दी, घृणित व नाशवान वस्तुओं की अधिष्ठान नहीं है । जो भगवान् के लिए अन्य वस्तुओं की आसकि को नहीं छोड़ सकते, भगवद्तर अन्यान्य मायिक वस्तुओं को जो जकड़ कर रखना चाहते हैं, वे कभी भी भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकते।

भगवान् और माया दो विपरीत वस्तुएँ हैं। साधु-संग के द्वारा भगवान् व उनकी भक्ति को छोड़ अन्यान्य वस्तुओं की माँग से छुटकारा न मिलने तक जीवों का यथार्थ मंगल नहीं हो सकता ।

ततो दुःसंगमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्।
सन्त एवास्य छिन्दन्ति मनोव्यासंगमुक्तिभिः ॥
(भा० 11/26/26)

अतएव बुद्धिमान् व्यक्ति दुःसंग को परित्याग करके सत्संग करेंगे और साधु लोग अपने साधु-उपदेशों के द्वारा उनकी भक्ति की तमाम प्रतिकूल वासनाओं का छेदन करेंगे।

श्रीमद् राधामोहन प्रभु, श्री श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ‘प्रभुपाद’ जी के दीक्षित शिष्य थे। वे दीक्षित होने के बाद ‘श्री राधामोहन ब्रह्मचारी’ के नाम से श्रीगौड़ीय मठ में कुछ दिन रहे थे। गृहस्थाश्रम में प्रवेश होने के बाद वे श्री राधामोहन दासाधिकारी के नाम से श्रीगौड़ीय मठाश्रित व्यक्तियों में परिचित हुये। उनकी भजन -निष्ठा एवं भक्ति सिद्धान्त विषयों में पारंगति देखकर ग्वालपाड़ा अन्चल के भक्त लोग उनमें बहुत श्रद्धा करते थे ।

शहर के स्थानीय व्यक्तियों में वे ‘राममोहन दा’ नाम से परिचित थे। श्री कामाख्या चरण (श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ) के पूर्वाश्रम के चाचा के आफिस में काम करते थे। गाँव के सम्बन्ध से भी उन्होंने श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ के पारमार्थिक कल्याण के लिये जो स्नेह प्रदर्शन किया व यत्न किया, उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। श्रीमद्भ क्ति बल्लभ तीर्थ महाराज के गौड़ीय मठ में आने के मूल पथ- प्रदर्शक गुरु के रूप में वे ही थे। इसलिए उन्हें न जाने कितनी कटुक्तियाँ सहन करनी पड़ीं व न जाने कितने लोगों द्वारा की गयी विरुद्ध समालोचना का उन्हें सामना करना पड़ा। श्रील गुरु महाराज जी के साथ श्री कामाख्या चरण का जो पत्रालाप होता था, उसका उत्तर भी राधामोहन प्रभु के घर के पते पर ही आता था। राधामोहन प्रभु की भक्तिमति सहधर्मिणी एवं उनके परिजन वर्ग का स्नेह – ऋण अपरिशोधनीय है अर्थात् उनके स्नेह के ऋण को उतारा नहीं जा सकता।

श्री गुरु महाराज जी ने अपने स्नेहपूर्ण कृपा आशीर्वाद रूप पत्रों श्रीभक्ति बल्लभ तीर्थ के प्रश्नों के उत्तर देते हुए बहुत से संशयों को मिटाया तथा श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी द्वारा लिखित “जैव धर्म” ग्रन्थ का अध्ययन करने का उपदेश दिया था। जैव धर्म ग्रन्थ के पाठ करने से श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ के बहुत दिनों के सन्चित संशयों का निवारण हो गया था । निवृतिमार्गी, एकान्त पारमार्थिक जीवन धारण करने वालों के लिए सरकारी नौकरी करना उचित नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति मार्ग में, घर में रहकर भजन करने की इच्छा होने पर सरकारी नौकरी करना ठीक है – इस प्रकार का उपदेश भी पत्र द्वारा श्रील गुरु महाराज जी ने प्रदान किया था। घर के परिवेश में रहकर भजन सम्भव नहीं होगा- ऐसा विचार कर श्री भक्ति बल्लभ तीर्थ ने गृह त्याग का संकल्प लिया।

हमारे परम गुरु पादपद्म नित्य लीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर, जो कि श्रीचैतन्य मठ- एवं श्रीगौड़ीय मठ समूह के प्रतिष्ठाता थे, ने भी अपने पार्षदों के साथ ग्वालपाड़ा शहर में पदार्पण किया था । उनके निर्देशानुसार उनके ही आश्रित गृहस्थ शिष्य पूज्यपाद श्रीमद् नित्यानन्द प्रभु द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर हुलूकान्दा पहाड़ के ऊपर रमणीय स्थान में ‘श्रीप्रपन्नाश्रम’ नामक एक श्रीगौड़ीय मठ की शाखा स्थापित हुई थी परन्तु सेवकों के अभाव में व अनेकों असुविधाओं के कारण वह शाखा धीरे-धीरे ‘लुप्त हो वर्ती में जब श्रीमद् शरत कुमार नाथ जी ने ग्वालपाड़ा में मठ की स्थापना के लिए मकान सहित ज़मीन देने की इच्छा व्यक्त की तो श्रील प्रभुपाद जी का अभिप्राय समझ कर श्रील गुरु महाराज जी ने उनकी ज़मीन व मकान को लेने की स्वीकृति दे दी तथा वहाँ पर श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की एक शाखा स्थापित कर दी।