दीक्षा ग्रहण के कुछ समय बाद ही श्रील गुरुदेव श्रीकृष्ण व श्रीकृष्ण भक्तों की सेवा में सम्पूर्ण रूप से आत्मनियोग करने के लिए मठवासी हो गये। आप आजीवन ब्रह्मचारी थे अर्थात् गृह परित्याग करते हुए नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा वृहद्व्रती रूप से आपने मठ में प्रवेश किया था। आपकी एकान्तिक गुरु-निष्ठा, विष्णु-वैष्णव सेवा के लिए सदैव तत्परता, सेवाओं में बहुमुखी योग्यता, निष्कपटता, आलस्यरहित महा-उद्यम युक्त सेवा-प्रचेष्टा तथा सब कार्यों में आपकी सफलता को देख कर श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद जी ऐसा कहा करते थे कि आपमें अद्भुत Volcanic Energy है।

श्रीगौड़ीय मठ में आपके आने (लगभग 1928 में) से लेकर श्रील प्रभुपाद जी के प्रकट काल 1936 तक तथा उसके बाद 1945 तक श्रीगौड़ीय मठ प्रतिष्ठान में योगदान के लिए आपने जो कुछ किया तथा जहाँ-तहाँ जाकर श्रीमन् महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार करके दुर्गति प्राप्त जीवों का उद्धार किया इस विषय में आपके अलौकिक व्यक्तित्व की महिमा के बारे में आपके गुरुभाइयों तथा चरणाश्रित प्राचीन शिष्यों तथा पूर्वाश्रम के परिचित व्यक्तियों से जो कुछ जानकारी प्राप्त हो सकी है। यह संक्षिप्त रूप से प्रकाशित की जा रही है। इसके इलावा सन् 1946 से, अर्थात् जब से मुझे श्रील गुरुदेव जी के सान्निध्य में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, के बाद की घटनाएँ विस्तृत रूप से लिखना सम्भव हो सकेगा।

(अर्थात् चाहे कोई ब्राह्मण हो, चाहे संन्यासी हो अथवा शूद्र ही क्यों न हो- इनमें जो कृष्ण- तत्त्व को भली-भांति जानता है, वही सद्गुरु हो सकता है)।