यह सन् 1930 की बात है, तब श्रील प्रभुपाद जी प्रकट थे। श्रीप्रभुपाद जी के प्रकट काल में कलकत्ता के बाग बाज़ार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में, श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी के उपलक्ष्य में विशाल धर्म- सम्मेलन होता था, जो कि एक महीने तक चलता था। इस सम्मेलन में प्रतिदिन कोई न कोई विशिष्ट व्यक्ति सभापति का आसन ग्रहण करता था। उक्त धर्म सम्मेलन में भारत के विख्यात वैज्ञानिक डा० सी.वी. रमन के छात्र भी श्रीगौड़ीय मठ के विद्वान स्वामियों के प्रवचनों को सुनने के लिए आते थे। एक दिन सभी छात्र मिल कर श्रील प्रभुपाद जी के पास गये और उन्होंने निवेदन किया कि हम देखते हैं कि आपके इस धर्म-सम्मेलन में प्रतिदिन कलकत्ता के किसी न किसी विशिष्ट व्यक्ति को सभापति के आसन पर बैठने के लिए निमन्त्रित किया जाता है, परन्तु हमारे अध्यापक डा० सी.वी. रमन जी को निमन्त्रित नहीं किया जाता। ऐसा क्यों? उनका नाम तो सारे विश्व में विख्यात है। छात्रों की बात सुनकर श्रील प्रभुपाद जी ने कहा कि उनको निमन्त्रण करने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। ऐसा कह कर श्रील प्रभुपाद जी ने हमारे गुरुदेव जी को निर्देश दिया कि वे डा० सी.वी. रमन जी को धर्म-सम्मेलन में सभापति पद ग्रहण करने के लिए निमन्त्रण दें।

श्रील गुरुदेव जी डा० रमन से मिलने पहले उनके घर गये परन्तु डा० रमन उस समय घर पर नहीं थे। उनकी स्त्री ने बताया कि इस समय वे सरकुलर रोड पर स्थित अपनी Laboratory (गवेषणागार) में होंगे। श्रीमती रमन का जवाब सुन कर श्रील गुरुदेव जी एक चपरासी के साथ, जो कि श्रीमती रमन ने ही श्रील गुरुदेव जी के साथ भेजा था, डा० रमन की लेबोरेटरी पर पहुँचे। डा० रमन के साथ जब श्रील गुरुदेव जी का साक्षात्कार हुआ, उस समय वे अपनी लेबोरेटरी की दूसरी मन्जिल में स्थित एक बड़े हाल के कोने में बैठे हुए अकेले ही कुछ गवेषणा कर रहे थे। डा० रमन बंगला या हिन्दी अच्छी तरह नहीं जानते थे, इसलिए श्रीगुरुदेव जी की उनके साथ अंग्रेज़ी में ही बातचीत हुई।

सर्वप्रथम डा० रमन ने श्रीगुरुदेव जी से उनके आने का कारण पूछा। श्रील गुरुदेव जी ने कहा- ‘कलकत्ता के बाग बाज़ार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी उपलक्ष्य में मासव्यापी धर्म- सम्मेलन होता है, जिसमें प्रतिदिन कलकत्ता के कोई न कोई विशिष्ट सज्जन सभापति का आसन ग्रहण करते हैं। आप भी एक दिन सभापति के आसन को अलंकृत करें, ये ही हमारी प्रार्थना है ।’

श्रील गुरुदेव जी की बात सुन कर डा० रमन ने कहा-‘ ‘तुम्हारे केष्ट- विष्ट को (यानि कृष्ण विष्णु को) मैं नहीं मानता हूँ । इन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष नहीं होती, ऐसी काल्पनिक वस्तुओं के लिए मैं समय नहीं दूँगा । मेरा समय बहुत कीमती है। हाँ, विज्ञान या शिक्षा के विषय में कोई सभा होने से मैं जा सकता हूँ ।”

श्रील गुरुदेव : आपके छात्र प्रतिदिन बाग बाज़ार स्थित गौड़ीय मठ में स्वामी जी लोगों के भाषण सुनने के लिए आते हैं। उसी सभा में हम कलकत्ता के विशिष्ट व्यक्तियों को सभापति बनाते हैं। आपके छात्रों की ही इच्छा है कि एक दिन आप भी सभापति का आसन ग्रहण करें। अपने गुरुदेव जी के निर्देशानुसार मैं आपको निमन्त्रण देने आया हूँ। आप हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर लीजिए।

डा० रमनः क्या तुम अपने भगवान् को दिखा सकते हो ? यदि दिखा सको, तो जाऊँगा।

[जिस हाल (Hall) में बातचीत हो रही थी, उस हाल के एक ओर कोई भी खिड़की या दरवाज़ा नहीं था, सिर्फ एक लम्बी दीवार थी, जिसके दूसरी ओर पूरा उत्तरी कलकत्ता था ।]

श्रील गुरुदेव : अपने सामने खड़ी इस दीवार के पीछे मैं कुछ नहीं देख पा रहा हूँ, यदि मैं कहूँ कि इस दीवार के पीछे कुछ नहीं है, तो क्या मेरी बात सच होगी?
STO रमनः तुम नहीं देख सकते हो, परन्तु मैं अपने यन्त्र के द्वारा देख सकता हूँ?

श्रील गुरुदेव : यन्त्र की भी तो एक सीमा है। जितनी दूर यन्त्र की योग्यता है, माना, वहाँ तक आपने देख लिया परन्तु उसके बाद कुछ नहीं है-ऐसा कहना क्या सच होगा ?

डा० रमन : हो या न हो, उसके लिए मैं समय नहीं दूँगा। जो बात मेरे Sense Experience में नहीं आ सकती, उसके लिए मैं अपना कीमती समय नहीं दे सकता। क्या तुम भगवान् को दिखा सकते हो? यदि दिखा सको तो मैं समय दूँगा ।

श्री गुरुदेव : आपने जो वैज्ञानिक सत्य अनुभव किये हैं, यदि आपके छात्र आपसे ये प्रश्न करें कि पहले हमें वैज्ञानिक सत्य का अनुभव कराओ बाद में हम आपकी शिक्षा की ओर ध्यान देंगे, तब आप उन्हें क्या कहेंगे ?

डा० रमन : (उच्च स्वर से) I shall make them realise (मैं उन्हें अनुभव करा दूँगा ।)

श्रील गुरुदेव : न, पहले आप अनुभव करा दें, बाद में वे आपके पास शिक्षा ग्रहण करेंगे?

डा० रमन : नहीं, जिस पद्धति को अवलम्बन करके मैंने वैज्ञानिक सत्यों का अनुभव किया है, वही पद्धति उन्हें भी ग्रहण करनी होगी । (No, they are to come to my process through which I have realised the truth) पहले उन्हें फलाँ विषय को लेकर B.Sc. पढ़नी होगी, उसके बाद M.Sc. करनी होगी। उसके बाद यदि पांच-छः साल वह मेरे पास पढ़ें, तब मैं उनको समझा सकता हूँ ।

श्रील गुरुदेव : आपने जो बात कही, क्या भारतीय ऋषि-मुनि लोग उस बात को नहीं कह सकते ? उन्होंने जिस पद्धति से आत्मा-परमात्मा-भगवान् को अनुभव किया है, आप भी उसी पद्धति को अवलम्बन करके देखें कि भगवान् को अनुभव किया जा सकता है या नहीं ? आप अपने उपलब्ध लौकिक वैज्ञानिक सत्य को भी अपने छात्रों को अनुभव नहीं करा पा रहे हैं, उसके लिए उन्हें विभिन्न प्रकार की विधियों को अपनाना पड़ रहा है तो जो सर्वशक्तिमान, इंद्रिय-ज्ञानातीत, अलौकिक परमेश्वर हैं, उन्हें क्या आप ऐसे ही जान सकते हैं? इसलिए जिस उपाय से भगवान् की उपलब्धि होती है आप भी उसी उपाय को ग्रहण करके देखो होती है या नहीं ? यदि उपलब्धि न हो तो आप छोड़ देना परन्तु पहले ही आप कैसे मना कर सकते हैं? डा० रमन कोई जवाब न दे सके।

कुछ समय पश्चात् डा० रमन कहने लगे कि वे कृष्ण सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते, वहाँ जाकर वे क्या कहेंगे ? इस विषय को जो जानतें हैं उन्हें निमन्त्रण करना अच्छा है।

श्रील गुरुदेव जी की प्रत्युत्पन्नमतित्व एवं उपस्थित बुद्धि इस प्रकार थी कि उनके सामने कोई अयुक्ति की बात कहकर टिक नहीं सकता था। केवल तथाकथित विद्वता के द्वारा ये असाधारण योग्यता सम्भव नहीं है। जो शिष्य गुरुदेव के प्रति समर्पित-आत्मा हैं, जिन्होंने गुरुदेव जी की कृपा से सत्य वस्तु को साक्षात् अनुभव कर लिया है, गुरु शक्ति के प्रभाव से वे एक प्रकार की ऐसी ईश्वरीय शक्ति प्राप्त कर लेते हैं, जिसके सामने भगवद्-अनुभूतिरहित व्यक्तियों की बुद्धिमता नहीं चल पाती।

23 दिसम्बर 1936 को पुरुषोत्तम धाम से बाग बाज़ार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में लौटने से पूर्व व नित्यलीला में प्रवेश करने से पहले श्रील प्रभुपाद जी ने वहाँ पर उपस्थित भक्तों को प्रातःकाल के समय अन्तिम उपदेश दिया जिसमें उन्होंने अपने आश्रित शिष्यों को निर्देश दिया- सभी श्रीरूप-रघुनाथ की कथाओं का परमोत्साह के साथ प्रचार करें। श्रीरूपानुग-गणों के पादपद्म की धूलि बनना ही हमारी चरम आकांक्षा का विषय है। आप सभी अद्वय-तत्त्व की अप्राकृत इन्द्रियों की वृद्धि करने के उद्देश्य से, आश्रय-विग्रह (सद्गुरु) के आनुगत्य में आपस में मिल-जुल कर रहना आप सभी एक ही उद्देश्य से एक साथ मिल कर मूल आश्रय विग्रह (राधा जी) की सेवा करें।

जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद जी ने अपने आश्रित शिष्यों को आश्रय विग्रह (गुरुपादपद्म) के आनुगत्य में रहते हुये, एक ही उद्देश्य से एक साथ रहकर रूप-रघुनाथ जी की वाणी का प्रचार करने का उत्साह प्रदान किया था। श्रील प्रभुपाद जी के अप्रकट होने के बाद जो लीला प्रदर्शित हुई, उसे देखकर अनर्थयुक्त, अदूर-दृष्टि-सम्पन्न व्यक्तियों में ये भावना आ सकती है कि इन घटनाओं से श्रील प्रभुपाद जी की आज्ञाओं का उल्लंघन हुआ है। परन्तु, मंगलमय श्रीहरि की इच्छा से जो होता है, मंगल के लिए होता है, पारमार्थिक जीवन का यह मूल विषय ध्यान में न रहने के कारण हम दुःखी होते हैं। श्रीभगवान् की इच्छा न होने से कुछ भी नहीं हो सकता। दूसरी ओर चूँकि भगवान् मंगलमय हैं, अतः उनकी इच्छा से जो भी होता है, उसमें मंगल अवश्य ही निहित होता है। किसी भी विराट उद्देश्य की पूर्ति के लिए भगवान् की इच्छा से एक के बाद एक जो घटनाएँ होती हैं, बहुत से अदूर दृष्टि वाले व्यक्ति उन्हें समझ नहीं पाते हैं ।

“पृथ्वीते आहे यत नगरादिग्राम ।
सर्वत्र प्रचार हइवे मोर नाम ॥”

श्रीमन् महाप्रभु जी की उपरोक्त वाणी की सत्यता को दिखाने के लिए श्रीमन् महाप्रभु व उनकी अभिन्न प्रकाशमूर्ति श्रील प्रभुपाद की इच्छा से ही ऐसा हुआ अर्थात् श्रील प्रभुपाद जी ने सारी पृथ्वी में महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार कराने के लिए अपनी कृपा-शक्ति संचारित की तथा दिग्विजयी शिष्यों को अलग-2 रहकर प्रचार करने की प्रेरणा प्रदान की। श्रील प्रभुपाद जी ने जगत् का मंगल करने के उद्देश्य से ही ऐसा किया। वे आचार्य-शक्ति-सम्पन्न अपने शिष्यों को एक ही स्थान में आबद्ध रख कर उनकी योग्यता को एवं प्रचार की व्यापकता को संकुचित नहीं करना चाहते थे। आज श्रील प्रभुपाद जी के आश्रित शिष्यों की अलौकिक शक्ति के प्रभाव से सारी पृथ्वी पर श्रीमन् महाप्रभु जी की वाणी प्रचारित, समादृत व गृहीत होने के कारण श्रीमन् महाप्रभु जी की भविष्यवाणी सार्थक हो रही है।

यदि वे (प्रभुपाद जी के कृपा-शक्ति-संचारित शिष्य) गुरु आनुगत्य रहित अनर्थयुक्त जीव होते तो उनके द्वारा इस प्रकार का व्यापक प्रचार सम्भव नहीं था। भगवान् के उद्देश्य के बारे में न जानने वाले दुर्भागे व्यक्ति ही एक की वन्दना व एक की निन्दा करके परमार्थ पथ गिर जाते हैं व अपराध रूपी दलदल में फंस जाते हैं। श्रील प्रभुपाद जी के सभी पार्षदों ने अपनी-2 योग्यता के अनुसार श्रील प्रभुपाद जी की आज्ञा पालन करने के लिए निष्कपट यत्न किया व कर रहे हैं। उनके निष्कपट प्रचार के फल स्वरूप ही आज बहुत से सौभाग्यशाली बद्ध जीवों ने श्रीमन् महाप्रभु जी की शिक्षा के प्रति आकृष्ट होकर भक्ति-सदाचार ग्रहण करते हुए शुद्ध भाव से श्रीकृष्ण भजन में नियोजित होकर अपने जीवन को धन्य किया है।