उच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर जब आपने अपने कुलगुरु से दीक्षा लेने की बजाए श्रीगौड़ीय मठ के आचार्यदेव जी से दीक्षा ले ली तो आपके पूर्व आश्रम के सभी लोग अर्थात परिवार की रिश्तेदारी के लोग बहुत क्षुब्ध हो गए। वे लोग इसे अपने वंश पर कलंक एवं अत्यन्त घृणित कार्य समझकर आपकी भर्त्सना करने लगे। तब आपने अनेक शास्त्र- प्रमाणों और युक्तियों के द्वारा उन्हें समझाया कि उनके द्वारा किया गया कार्य उचित है। आपने उदाहरण के रूप में कहा- देखो, श्रीप्रह्लाद महाराज जी ने भी अपने कुलगुरु शुक्राचार्य के दोनों पुत्रों (षण्ड और अमर्क) को सद्गुरु के रूप में स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे ब्रह्मनिष्ठ नहीं थे। विषयनिष्ठ षण्डामर्क ने प्रह्लाद जी को धर्म, अर्थ, काम व राजनीति की शिक्षा दी थी, उन्होंने प्रह्लाद को विष्णु भक्ति की शिक्षा नहीं दी। अतः प्रह्लाद जी ने विषय-निष्ठ शुक्राचार्य जी के पुत्रों की बजाए श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ व भगवान् के निजजन- श्री नारदगोस्वामी जी की शिक्षा को ही सद्गुरु की शिक्षा के रूप से स्वीकार किया था।
गुरु यदि तत्त्ववेत्ता न हों तो वे शिष्य को भगवद्ज्ञान कैसे प्रदान करेंगे? श्रीचैतन्य चरितामृत में कहते हैं-
“किवा विप्र किवा न्यासी शूद्र केने नय ।
येह कृष्ण तत्त्ववेत्ता सेइ गुरु हय’ ॥”
(अर्थात् चाहे कोई ब्राह्मण हो, चाहे संन्यासी हो अथवा शूद्र ही क्यों न हो- इनमें जो कृष्ण- तत्त्व को भली-भांति जानता है, वही सद्गुरु हो सकता है)।
आपके पूर्वाश्रम के बहुत से लोग, जिन्होंने पहले आपके मन्त्र ग्रहण कार्य की निन्दा की थी, परवर्ती काल में उनमें से कई लोग आपके अलौकिक, महापुरुषोचित चरित्र-वैशिष्ट्य को देखकर आपके पादपद्मों में आश्रित हुए अर्थात् शिष्य बन गए।