आसाम के नर-नारियों में साधुओं के प्रति श्रद्धा व उनके हृदयों की सरलता को देख कर श्रील प्रभुपाद जी की आसाम में शुद्ध भक्ति प्रचार करने की इच्छा थी। यहाँ तक कि उन्होंने इस महान कार्य के लिए श्रील गुरु महाराज जी को निर्देश भी दिया था। इसी निर्देश को स्मरण करते हुए श्रील गुरु महाराज जी ने संन्यास ग्रहण एवं बंगला देश में शुद्ध भक्ति का प्रचार करने के पश्चात् अपनी प्रचार पार्टी के साथ सरभोग, जिला कामरूप (अब जिला बरपेटा) में शुभ पदार्पण किया। उस समय आपकी पार्टी में श्री भुवन प्रभु, श्री उद्धारण प्रभु तथा श्रीमद् कृष्ण केशव ब्रहाचारी प्रभु थे। प्रभुपाद जी के अप्रकट हो जाने के बाद सरभोग श्रीगौड़ीय मठ के परिचालन की व्यवस्था परिवर्तन होने की वजह से तथा वहाँ पर ठहरने की असुविधा के कारण गुरु महाराज जी श्रीमद् कृष्ण केशव प्रभु के पूर्व आश्रम के बड़े भाई के घर पर ही ठहर गये थे । बहुत वर्षा होने के कारण उस समय चारों ओर पानी ही पानी दिखाई देता था । सड़कों पर घुटने-घुटने तक व कहीं-कहीं इससे भी अधिक पानी था । यहाँ तक कि घरों में भी पानी भरा हुआ था। अतः बिस्तर इत्यादि समान बैलगाड़ी में रख कर लाया गया व सभी पानी के बीच ही पैदल चल कर आये, सभी के ठहरने के लिए व शौचादि के लिए बाँसों के ऊँचे-ऊँचे मचान बनाए गए। शौचादि के लिये मचान, रहने वाले मचान से कुछ दूरी पर बनाया गया था। ऐसी परिस्थितियों में रसोई का सारा कार्य श्रीमद् कृष्ण केशव प्रभु जी की पूर्वाश्रम की भक्तिमति व सेवा- परायण माता जी ने किया। उन्होंने पानी के मध्य ही तमाम प्रकार के अन्न, व्यंजनादि रसोई करके वैष्णव-सेवा की यथोपयुक्त व्यवस्था की।
एक तो चारों ओर पानी ही पानी-ऐसी अवस्था में रहना, खाना व शौचादि जाना सभी कष्टप्रद था तो दूसरी ओर उन्हीं दिनों में जापान के साथ युद्ध आरम्भ हो चुका था। जापानी सेना ब्रह्मदेश को पार करके आसाम की सीमा पर पहुँच गयी थी। इधर अंग्रेजों के अधीन भारतीय सेना, आसाम की सीमा से लगे गाँवों को भारतीय सेना के ठहरने के लिए खाली करवा रही थी। सेना जिन गाँवों को खाली करवाकर उनमें ठहरने की व्यवस्था कर रही थी, उनमें श्रीमद् केशव प्रभु जी के पूर्वाश्रम का वह घर भी था जिसमें गुरु महाराज जी अपनी पार्टी के साथ ठहरे हुए थे। अतः श्रील गुरु महाराज जी को वह घर छोड़ना पड़ा और वे अपनी प्रचार पार्टी के साथ सरभोग के पास ही के एक गाँव में ठहर गये। इतना कष्ट होने पर भी श्रील गुरु महाराज जी निराश नहीं हुए। अपने गुरु जी के आदेश को पालन करने के लिए व कृष्ण विमुख जीवों का कल्याण करने के लिए आप जिस किसी त्याग को भी स्वीकार करने व क्लेश को वरण करने से कभी भी विमुख नहीं हुए। ये सब घटनाएँ हमारे लिए उदाहरण स्वरूप हैं।
इस प्रकार की असुविधाओं के होते हुए भी सात दिन के प्रचार के बाद श्रीगुरु महाराज जी सरभोग में ही श्रीगोपाल प्रभु के घर ठहर गये। वहाँ के अवस्थान काल में स्थानीय विद्यालय के अध्यापक व विशिष्ट व्यक्ति श्री चिन्ताहरण पाटगिरी महोदय के घर पर प्रतिदिन ” श्रीमद् भागवत” पाठ की व्यवस्था हुई।
सरभोग प्रचार के समय जिन्होंने श्रील गुरु महाराज जी का चरणाश्रय ग्रहण किया था उनमें श्री गोपाल दासाधिकारी एवं उनकी पत्नी, श्री शिवानन्द दासाधिकारी, श्री खगेन दासाधिकारी व अच्युतानन्द दासाधिकारी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
जिन दिनों श्रील गुरु महाराज जी श्री चिन्ताहरण पाटगिरी जी के घर में हरिकथा करते थे, उन्हीं दिनों एक स्थानीय युवक श्रीकमलाकान्त गोस्वामी प्रतिदिन श्रील गुरु महाराज जी से हरिकथा सुनने आता था। हरिकथा सुनते-सुनते वह श्रीमन् महाप्रभु जी की शिक्षा के प्रति इतना आकृष्ट हुआ कि घर-द्वार छोड़ कर प्रचार पार्टी के साथ ही सहयोग देने लगा। श्री चिन्ताहरण जी के घर में प्रोग्राम समाप्त होने के बाद श्री गुरु महाराज जी श्री शिवानन्द प्रभु व उनके बहनोई के विशेष आग्रह पर भवानीपुर – तापा में ठहरे।
कमलाकान्त गोस्वामी भी गुरुदेव जी के साथ तापा आ गया। “कमलाकान्त के पिता जी श्री घनकान्त गोस्वामी भी जैसे-तैसे वहाँ पहुँच गये व अपने लड़के को खूब डाँटने लगे एवं ज़बरदस्ती उसे घर ले गये । श्री घनकान्त गोस्वामी में वहाँ के समाज में प्रचलित ब्राह्मण-संस्कार प्रबल थे। इसलिए वे गौड़ीय मठ के दैववर्णाश्रम धर्म का समर्थन नहीं कर पाये। उन्होंने विचार किया कि गौड़ीय मठ का भोजन करने के कारण उनके पुत्र की जाति नष्ट हो गयी है। अतः अपने पुत्र को प्रायश्चित कराने के लिए उन्होंने कमलाकान्त को घर से बाहर ही रखा। जिन दिनों कमलाकान्त श्रील गुरु महाराज जी से हरिकथा सुनने आते थे, उन्हीं दिनों उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में प्रकटित श्रील गुरुदेव जी से हरिकथा प्रसंग में ब्राह्मणों व वैष्णवों में अन्तर व वैष्णवों की सर्वोत्तमता सुनी थी। उन्होंने ये भी सुना हुआ था कि वैष्णव (भगवान् का भक्त) किसी भी कुल में व किसी भी जाति में आ सकता है। इन्हीं शुद्ध भक्ति सिद्धान्तों को श्रवण करने के कारण वह समझ नहीं पा रहे थे कि उन्होंने गौड़ीय वैष्णवों के द्वारा, जिनका आचरण व व्यवहार शास्त्र-विधि के अनुसार है, तैयार किया हुआ या दिया हुआ भोजन ग्रहण किया तो इसमें क्या दोष किया ? अतः पिता के द्वारा किया गया, वैष्णव-मर्यादा को हानि पहुँचाने वाला व्यवहार कमलाकान्त को सहन नहीं हुआ और वह वैष्णव-अपराध से छुटकारा पाने के लिए अगले दिन ही दुबारा घर छोड़कर श्रील गुरु महाराज जी के श्रीचरणों में उपस्थित हो गया। उस समय श्रीगुरु महाराज जी तापा नामक स्थान पर ही थे। तापा गाँव सरूपेटा रेलवे स्टेशन के नज़दीक ही है। यद्यपि कमलाकान्त ने उस समय श्रील गुरु महाराज जी से हरिनाम-दीक्षा देने की प्रार्थना की थी, परन्तु परिवार के लोग बाधा उपस्थित कर सकते हैं-ऐसा सोचकर श्रील गुरु महाराज जी ने उन्हें वहाँ पर हरिनाम इत्यादि देना उचित न समझा। यहाँ के ही एक धनी मारवाड़ी व्यक्ति ने श्रील गुरुदेव जी के प्रति आकृष्ट होकर श्रीचैतन्य वाणी के प्रचार व वैष्णव सेवा के लिए आन्तरिक भाव से यत्न किया था शिवानन्द प्रभु गृहस्थ में रहते हुए भी विषय-विरक्त थे। वे ज़्यादातर समय ध्यान-धारणादि में व्यतीत करते थे। पिता ने अपने पुत्र को स्वेच्छा से श्री गुरु सेवा के लिए समर्पित किया हो, ऐसे उदाहरण कम ही देखे जाते हैं परन्तु उन्हीं दिनों श्री शिवानन्द प्रभु ने अपने पुत्र श्रीलोकेश को श्री श्रीगुरु गौराङ्ग की सेवा में नियोजित करने के लिए श्रीगुरु-पादपद्म में समर्पित किया था। वहीं श्री तुलाराम बाबू के घर पर श्री शिवानन्द प्रभु का भान्जा श्री लोहित तथा पुत्र श्रीलोकेश श्रीगुरुदेव जी के निकट हरिनामाश्रित हुए। कुछ समय पश्चात् यानि कि आसाम से कलकत्ता वापस आने के कुछ दिन पहले मेदिनीपुर मठ में श्रीलोहित, श्री लोकेश व श्री कमलाकान्त की मन्त्र-दीक्षा भी हुई जिससे वे क्रमशः श्री ललिता चरण ब्रह्मचारी, श्री लोकनाथ ब्रह्मचारी व श्री कृष्ण प्रसाद ब्रह्मचारी नाम से पहचाने जाने लगे। जिससे वे क्रमशः श्री ललिता चरण ब्रह्मचारी, श्री लोकनाथ ब्रह्मचारी व श्री कृष्ण प्रसाद ब्रह्मचारी नाम से पहचाने जाने लगे। कई वर्षों के बाद जब श्रील गुरु महाराज जी के द्वारा इन तीनों का संन्यास वेष हुआ तो तीनों क्रमशः त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिललित गिरी महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिसुहृद दामोदर महाराज एवं त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्तिप्रसाद आश्रम महाराज के नामों से प्रसिद्ध हुए।