प्रस्तावना

श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने स्वरचित कीर्त्तन ‘वैष्णव के?’ में वर्णन किया है कि भजन मार्ग की तीन प्रमुख बाधाएँ हैं कनक, कामिनी एवं प्रतिष्ठा । यद्यपि कनक एवं कामिनी की स्पृहा का त्याग करना भी निश्चित रूप से दुष्कर है किन्तु माया देवी का अन्तिम प्रहार, प्रतिष्ठाशा, इनसे भी कहीं अधिक भयावह है । प्रतिष्ठा की कामना इस प्रकार हृदय के अन्तर में सूक्ष्म रूप से विराजमान रहती है कि अन्यों के लिये तो क्या स्वयं के लिये भी उसे पहचान पाना सम्भवपर नहीं होता।

प्रतिष्ठाशा धृष्टा श्वपचरमणी मे हृदि नटेत्
कथं साधुप्रेमा स्पृशति शुचिरेतन्ननु मनः ।
सदा त्वं सेवस्व प्रभुदयितसामन्तमतुलं
यथा तां निष्काश्य त्वरितमिह तं वेशयति सः ॥
श्रीमनः शिक्षा (७)

इस श्लोक में, श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी ने वर्णन किया है कि जब तक हृदय में प्रतिष्ठा की आशा निवास कर रही है तब तक श्रीश्रीराधा-कृष्ण के प्रति अप्राकृत निर्मल प्रेम रूपी सूर्य कदापि उदित नहीं होगा । तो क्या निष्कपट साधकों को निराश हो जाना चाहिये ? “ नहीं !” श्रील दास गोस्वामी नें हमें आश्वस्त किया है- “एक उपाय है !”

वह वर्णन करते हैं, “सदा त्वं सेवस्व प्रभुदयितसामन्तमतुलं सदैव हमारे प्रभु के अतुलनीय बलशाली सेनापतियों की सेवा करो।” यहाँ पर ये शब्द प्रभु श्रीकृष्ण अथवा महाप्रभु श्रीचैतन्य देव की सेना में विद्यमान उनके अत्यन्त प्रिय तथा अतुलनीय बलशाली सेनापतियों जैसे कि श्रीरूप गोस्वामी, श्रीसनातन गोस्वामी एवं अन्यों के सम्बन्ध में प्रयुक्त हुए हैं। इस पर भी, जब भी मैं इस श्लोक का पठन, स्मरण अथवा मेरे परमस्नेही प्रभुवर उच्चारण करता हूँ तो मेरे हृदय में इसके अनेक अर्थ स्फुरित होते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

१. ‘प्रभु – दयित’ से तात्पर्य श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर से है, जिन्होंने अपने नित्य स्वरूप का परिचय ‘श्रीवार्षभानवी दयित दास’ के रूप में दिया है एवं ‘सामन्तमतुलं’ से तात्पर्य उनके अतुलनीय बलशाली सेनापति मेरे परमाराध्य गुरुपादपद्म श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज से है।

२. ‘प्रभु’ शब्द का तात्पर्य श्रील प्रभुपाद के शिष्यगण ‘मेरे परमस्नेही प्रभुवर’ से है, ‘दयित’ से तात्पर्य श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर (श्रीवार्षभानवी दयित दास) एवं ‘सामन्तमतुलं’ से तात्पर्य उनके अतुलनीय बलशाली सेनापतियों से है।

३. ‘प्रभु’ शब्द का तात्पर्य श्रील प्रभुपाद से है एवं ‘दयित सामन्तमतुलं’ से तात्पर्य उनके ‘अत्यन्त प्रिय एवं अतुलनीय बलशाली सेनापति’ श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज से है।

४. ‘प्रभु’ शब्द का तात्पर्य श्रीगुरु से है एवं ‘दयित’ शब्द का तात्पर्य श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज से है जो कि सामन्तमतुलं अर्थात् एक अतुलनीय बलशाली सेनापति हैं।

५. ‘प्रभु’ शब्द का तात्पर्य श्रीचैतन्य महाप्रभु से है एवं दयित सामन्तमतुलं’ से तात्पर्य उनके अतुलनीय बलशाली सेनापति श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद से है अथवा श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज से है जो मेरे सौभाग्य के क्षितिज पर एक उज्ज्वल सूर्य के रूप में प्रकटित हुए।

यद्यपि सम्भवतः उपरोक्त समस्त अर्थ संस्कृत व्याकरण के नियमों के अनुसार उचित नहीं हैं, मेरा भक्तों से विनम्र निवेदन है कि वे इन व्याख्याओं द्वारा इङ्गित भावों के सार को ग्रहण करें। इस पुस्तक का शीर्षक उक्त कथित द्वितीय अर्थ से प्रेरित है।

जब श्रीमन्महाप्रभु अपने पार्षदों सहित श्रील प्रभुपाद के समक्ष आविर्भूत हुए एवं उन्हें प्रचार सेवाकार्य में प्रवृत्त होने का निर्देश दिया, तब महाप्रभु ने उन्हें वचन दिया, “मैं आवश्यक धन एवं जन की व्यवस्था करूँगा।” इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि जिन महापुरुषों ने श्रील प्रभुपाद का चरणाश्रय ग्रहण किया वे सभी श्रीमन्महाप्रभु द्वारा प्रेरित भगवद्- पार्षद ही थे। अतएव वे सभी श्रीमन्महाप्रभु द्वारा प्रेरित श्रील प्रभुपाद के अत्यन्त प्रिय अतुलनीय सेनापतियों में ही सम्मिलित हैं एवं उनकी निरन्तर सेवा करने से प्रतिष्ठाशा रूपी क्लेश का हृदय से उन्मूलन होना सम्भवपर होगा।

सेना के अध्यक्ष का यह कर्त्तव्य होता है कि वह अपने शत्रु का दलनकर अपनी सेना को विजय पथ पर अग्रसर करते हुए अपने राजा के साम्राज्य की रक्षा एवं विस्तार करे। श्रीमन्महाप्रभु की सेना के सर्वोच्च सेनापति श्रीनित्यानन्द प्रभु अपने प्रभु के आदेश का पालन करने के लिये इतने अधिक उत्सुक थे कि परम- निःस्वार्थ भाव से एवं अपने प्राणों को भी सङ्कट में डालकर उन्होंने अपने प्रभु के संदेश को अत्यधिक पतित जीवों तक भी पहुँचाया। जिस प्रकार एक नापति अपने राजा के प्रत्येक आदेश का पालन करता है, उसी प्रकार श्रीरूप गोस्वामी एवं श्रीसनातन गोस्वामी ने श्रीमन्महाप्रभु के आदेश से श्रीश्रीराधाकृष्ण की लीला स्थलियों को प्रकाशित किया जो समय के प्रभाव से विलुप्त हो गई थीं। उन्होंने स्वयं अनेक जीवों को भक्तिपथ पर चलने हेतु उनका मार्गदर्शन किया एवं अनेक भक्ति-ग्रन्थों की रचना की जिनमें उन्होंने श्रीमन्महाप्रभु की शिक्षाओं को स्थापित कर अन्यान्य मतवादियों अथवा विपक्षियों के अपसिद्धान्तों यथा अपधर्म, उपधर्म एवं छलधर्म का खण्डन किया।

सेना के सेनापति अपने देश की सुरक्षा हेतु सब प्रकार की कठिनाइयों को शान्तिपूर्वक सहन करते हैं। किसी भी प्रकार की प्रतिकूल अवस्था के उपस्थित होने पर भी अपने कर्त्तव्य का सदा निर्वाह करते हैं। इसी प्रकार श्रीमन्महाप्रभु के सेनापति भी विद्वेषी विपक्षियों के आक्रमण से भक्ति – राज्य की सुरक्षा हेतु सब प्रकार की असुविधाओं को स्वीकार करते हैं।

अब यह प्रश्न उठता है कि जब हमारे प्रभु के अत्यन्त प्रिय एवं अतुलनीय सेनापति इस जगत् से अपनी लीला का सम्वरण कर भगवान् की नित्य लीला में प्रवेश कर जाते हैं, तब हम उनकी निरन्तर सेवा किस प्रकार कर सकते हैं? इसका उत्तर है कि ऐसे समय में उनके द्वारा आचरित- प्रचारित शिक्षाओं के निरन्तर श्रवण, कीर्त्तन एवं स्मरण में स्वयं को नियुक्त करना ही उनके श्रीचरणों की सेवा है।

वैष्णवेर गुण गान, करिले जीवेर त्राण,
शुनियाछि साधु-गुरु-मुखे ।
श्रीगोपाल- गोविन्द माहन्त
श्रील प्रभुपाद – वन्दना (१८)

[वैष्णवों का गुणगान करने से जीवों का उद्धार होता है, ऐसा मैंने साधु एवं श्रीगुरु के मुख से श्रवण किया है।]

वैष्णवों का स्मरण ही हमारी निधि एवं उनका विस्मरण ही विपत्ति है। इसी विचार को ध्यान में रखते हुए, जब वैष्णव सार्वभौम श्रील जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज को यह ज्ञात हुआ कि मेरे परमाराध्य परमगुरुदेव श्रील प्रभुपाद ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त पारङ्गत हैं तब उन्होंने कृपापूर्वक श्रील प्रभुपाद को नवद्वीप पञ्जिका प्रकाशित करने का निर्देश दिया। उन्होंने श्रील प्रभुपाद से कहा कि पञ्जिका में वे वैष्णवों की आविर्भाव तिरोभाव तिथियों का उल्लेख करें जिससे कि इन पवित्र तिथियों के उपस्थित होने पर समस्त भक्तसमाज उन वैष्णवों के विषय में श्रवण, उनकी महिमा कीर्त्तन एवं स्मरण कर सके। वास्तव में, वैष्णवों की आविर्भाव तिरोभाव तिथि में उनका स्मरण न करना एक अपराध है।

मेरे मठवास के अत्यन्त प्रारम्भिक वर्षों से ही मैंने देखा कि वैष्णवों की आविर्भाव तिरोभाव तिथि उपस्थित होने पर मेरे परमाराध्य गुरु महाराज ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज, ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज एवं श्रील प्रभुपाद के चरणाश्रित अनेक अन्य भक्त उस दिन नियमित रूप से किये जा रहे ग्रन्थ के पाठ को विराम देकर उस विशिष्ट तिथि का महिमा कीर्त्तन ही करते थे। मैं भी अनेक वर्षों से उसी आदर्श को शिरोधार्य करते हुए प्रतिदिन नियमित रूप से प्रातः काल वैष्णव पञ्चाङ्ग देखकर यथासम्भव उपस्थित मङ्गलमय तिथि का पालन करता हूँ।

यद्यपि इस ग्रन्थ में वर्णित प्रत्येक वैष्णव आचार्य द्वारा श्रीविष्णु एवं वैष्णवों की सेवा करने की पद्धति में परस्पर कुछ भिन्नता दिखलाई दे सकती है किन्तु निष्कपट साधक इन भिन्नताओं को विसङ्गति अथवा व्यतिक्रम न समझकर उनके व्यक्तिगत वैशिष्ट्य के रूप में दर्शन करेंगे। यदि कोई व्यक्ति उचित योग्यता अर्जित किये बिना ही विभिन्न आचार्यों के आचरण की परस्पर तुलना करता है तो इससे यही प्रमाणित होता है कि उसे वैष्णवों के अप्राकृत चरित्र के विषय में प्रथम सोपान का ही ज्ञान नहीं हुआ। इस प्रकार आलोचना करने वाला निःसन्देह अपने ही अमङ्गल को आमन्त्रित करता है-

जे पापिष्ठ एक वैष्णवेर पक्ष हय।
अन्य वैष्णवेरे निन्दे सेइ जाय क्षय ॥
श्रीचैतन्यभागवत (मध्य-खण्ड १३.१६१)

[जो पापी व्यक्ति एक वैष्णव का पक्ष लेकर अन्य वैष्णव की निन्दा करता है वह निश्चित रूप से विनाश को प्राप्त होता है ।]

अतएव अपनी बद्ध अवस्था को ध्यान में रखते हुए साधक को अपनी बुद्धि से अतीत तत्त्वों की आलोचना से बचना चाहिये अन्यथा वे स्वयं ही अपना पारमार्थिक अमङ्गल कर बैठेंगे। जो व्यक्ति वैष्णवों के बाह्य स्वरूप से परे देखने की योग्यता रखते हैं तथा उनके मुख्य एवं गौण लक्षणों में पार्थक्य करने में समर्थ होते हैं, वे कदापि भ्रमित नहीं होते।

जिस प्रकार से एक रसोइया परस्पर विरोधी वस्तुओं जैसे कि गुड़ एवं मिर्च के सम्मिश्रण से एक अत्यन्त स्वादिष्ट व्यञ्जन बना सकता है एवं जिस प्रकार यह तथ्य कि करताल, मृदङ्ग एवं कांसे की ध्वनियाँ वस्तुतः पृथक हैं उस समय गौण प्रतीत होता है जब कीर्त्तन के समय वे तीनों ध्वनियाँ एक ही मधुर ताल में मिश्रित हो जाती हैं, इसी प्रकार विभिन्न आचार्यों की व्यक्तिगत सेवा – पद्धति में विविधता होने पर भी उनकी सामूहिक प्रचार- चेष्टाओं का परिणाम अन्ततः सुमधुर एवं सुसङ्गत ही है। इसके विपरीत एक अनुभवहीन व्यक्ति जब रन्धन अथवा कीर्त्तन का प्रयास करेगा तब उसके इस प्रयास का फल हास्यप्रद ही होगा वह कभी भी एक अनुभवी रसोइये अथवा कीर्त्तनीया की प्रस्तुति की समानता नहीं कर सकता क्योंकि वे लोग परस्पर भिन्नताओं को भी उचित रूप में व्यवहार कर सुखद परिणाम में परिणत करने में निपुण हैं।

इस विषय में एक अन्य विचार भी है – एक बुद्धिमान विवेकशील व्यक्ति यह समझता है कि किसी भी मात्रा में गौण संघटकों की उपस्थिति मुख्य संघटकों के अभाव की पूर्ति नहीं कर सकती। दूसरी ओर गौण संघटकों के अनुपस्थित होने पर भी मात्र मुख्य संघटकों के प्रयोग से ही प्रशंसनीय कार्य किया जा सकता है। उदाहरण-स्वरूप हृदय में यदि विशुद्ध भाव ही उपस्थित नहीं है तब अति सुमधुर सुर एवं ताल में गायन करने पर भी गायक की प्रस्तुति सर्वथा दोषयुक्त है। इसके विपरीत यदि एक रसोइया व्यञ्जन में सही मात्रा में नमक का व्यवहार करता है तब अन्य मसालों की कमी अथवा अधिकता भी उसके प्रशंसकों को अप्रसन्न नहीं करेगी।

इसी प्रकार इस पुस्तक में वर्णित वैष्णव- आचायों के श्रीहरि-गुरु-वैष्णवों के प्रति एकान्त समर्पण के आदर्श को ही उनके प्रचार के मुख्य संघटक के रूप में ग्रहण करना चाहिये तथा अन्य सभी गौण लक्षणों को एकीकरण एवं सुसङ्गति प्रदान करने वाले इस एक मुख्य लक्षण के अनुयायी के रूप में ही देखना चाहिये ।

अमेरिका में अपने निवास के प्रारम्भिक दिनों में श्रीमद्भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज के किसी शिष्य को एक पुस्तकालय में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर रचित ‘Sri Caitanya: His Life and Percepts’ की एक प्रतिलिपि प्राप्त हुई। इससे ज्ञात होता है कि ठाकुर भक्तिविनोद की शिक्षाएँ उनके भारत से एक पग बाहर रखे बिना ही पाश्चात्य देशों में पहुँच गयीं। इसी प्रकार यद्यपि श्रील प्रभुपाद एवं उनके अधिकांश शिष्य शारीरिक रूप से कभी भारत से बाहर नहीं गये किन्तु यह उनके एकत्रित निष्ठापूर्ण प्रयासों का ही परिणाम है कि प्रचुर प्रचार के फलस्वरूप श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एवं श्रील प्रभुपाद की विचारधारा सम्पूर्ण विश्व में मान्यता प्राप्त कर रही है।

एक बालक दूरदर्शन के किसी कार्यक्रम का आनन्द लेते हुए मात्र उसके अभिनेताओं को ही देख पाता है तथा कार्यक्रम के निर्देशक, लेखक, निर्माता, चलचित्रकार, रूपकार एवं कैमरे के पीछे के अन्य कलाकारों के श्रमसाध्य योगदान से सर्वथा अपरिचित होता है। कार्यक्रम के अन्त में दिये जाने वाले उनके नामों की श्रृंखला को पढ़ना भी उसे समय का अपव्यय ही प्रतीत होता है। वास्तव में उसका यह व्यवहार उसकी अज्ञानता का ही परिचायक है।
इसी प्रकार एक प्रारम्भिक साधक किसी विषय वस्तु के सार को ग्रहण करने में असमर्थ होता है तथा इसी कारण तथ्यों का सामञ्जस्य करने में भी असफल रहता है। यदि कोई व्यक्ति श्रील प्रभुपाद के कितने ही शिष्यों द्वारा पर्दे के पीछे से किए गए अथक प्रयासों एवं अभूतपूर्व योगदान को अनदेखा करता है तथा केवलमात्र उनका ही आदर करता है जो मञ्च पर उपस्थित हैं तब यह स्पष्ट है कि अभी तक उसने वैष्णवों को यथायोग्य सम्मान प्रदान करने की सूक्ष्म विधि को अङ्गीकार नहीं किया है। हमें यह देखकर अत्यन्त हर्ष होता है कि धीरे-धीरे वैष्णव समाज में बहुत से गूढ़ विषयों को दृढ़ता से समझ पाने वाले भक्त उभर रहे हैं तथा निःसङ्कोच सभी को यथायोग्य सम्मान प्रदान कर रहे हैं।

अनेक वर्षों से मैं अपनी कथा- वार्त्ताओं में प्रायः श्रील प्रभुपाद के उन समस्त शिष्यों की महिमा – गुणगान करता हूँ जिनकी सेवा एवं सङ्ग का परम सौभाग्य मुझे अपने गुरु महाराज की अपार करुणा के फलस्वरूप प्राप्त हुआ । यद्यपि मुझे श्रील प्रभुपाद के अन्य अनेक शिष्यों का सङ्ग करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ परन्तु उन सबका इस संक्षिप्त पुस्तक में वर्णन नहीं किया गया है क्योंकि मेरी वृद्धावस्था के कारण मैं उनके साथ व्यतीत अनेक वृत्तान्तों को स्मरण नहीं कर पा रहा हूँ। उनकी कृपा से आवश्यकता होने पर कभी-कभी मेरे स्मृति पटल पर कुछ वृत्तान्त प्रकटित हो जाते हैं। मुझे आशा है कि श्रील प्रभुपाद के अतुलनीय सेनापतियों की इन स्मृतियों को एकत्रित कर अगले संस्करण में प्रकाशित कर पाऊँगा । परन्तु इसका सम्भवपर होना इन दिव्य महापुरुषों की मधुर, स्वतन्त्र इच्छा पर ही निर्भर करता है।

आज तक किसी ने भी श्रील प्रभुपाद के शिष्यों, जिन्हें मैं जगत् का उद्धारकर्ता समझता हूँ के साथ मेरे उपाख्यानों को प्रकाशित करने का प्रयास नहीं किया, तथा न ही कभी मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे अनुभव, विचार एवं व्याख्यान प्रकाशित करने योग्य हैं। किन्तु अब लगभग ९१ वर्ष की आयु में जब मेरी स्थिति ऐसी है कि भगवत् इच्छा से मुझे कभी भी यह संसार छोड़ना पड़ सकता है, अनेक भक्तों का यह सुदृढ़ मत है कि मेरे द्वारा इन वैष्णवों की गुणावली कीर्त्तन करने से समस्त जगत् का मङ्गल साधित होगा।

इस कारण से उन्होंने मेरे व्याख्यानों को संग्रह कर लिपिबद्ध करना आरम्भ किया। जब भी उन्हें ऐसा प्रतीत होता कि वह किसी घटना का सार ग्रहण करने में असमर्थ हैं तो वे मुझसे परामर्श करते एवं मैं अत्यन्त उत्साहपूर्वक उसका समाधान करता। उसके पश्चात् वे उस ड्राफ्ट को सुनियोजित कर उसके विषय को व्यवस्थित करते। संयोग से इस प्रक्रिया के द्वारा मैं अधिक गहन रूप से स्मरण करने के लिए प्रेरित हुआ तथा उसके फलस्वरूप मेरे अन्तःकरण की बहुत समय से धूमिल हो गई अनेक वैष्णव- स्मृतियाँ भी प्रकटित हो गई।

यह प्रकाशन भाव-अनुवाद की शैली में प्रस्तुत किया गया है जो कि स्पष्ट रूप से मेरे द्वारा कथित शब्दों के भाव एवं उद्दिष्ट अर्थों को व्यक्त करता है। इस प्रकाशन में वर्णित उपाख्यान परस्पर स्वतन्त्र हैं जिनका किसी भी क्रम से पाठ किया जा सकता है। पाठक बिना किसी हानि के किसी भी प्रसङ्ग से प्रारम्भ कर विराम दे सकते हैं।

मैं इस प्रकाशन में योगदान देने वाले भक्तों का उनके अथक प्रयास एवं उनकी श्रील प्रभुपाद के शिष्यों की महिमा को संरक्षित करने की अकृत्रिम अभिलाषा के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ इस ग्रन्थ के प्रकाशक ने सम्पूर्ण रूप व्यक्तिगत मनोकल्पना से रहित होकर गुरुवर्गों की वाणी एवं आचरण को यथारूप प्रस्तुत किया है जैसा कि मैंने स्वयं श्रवण एवं अनुभव किया है।

दुर्भाग्यवशतः वैष्णवों को उनकी वरिष्ठता के अनुसार प्रस्तुत करना सम्भव नहीं हो पाया। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जिन्होंने श्रीमन्महाप्रभु एवं उनके पार्षदों की लीलाओं का वर्णन किया है उन्होंने श्रीचैतन्यचरितामृत (आदि – लीला १०.५) में कहा है, “केह करिवारे नारे ज्येष्ठ-लघु-क्रम अर्थात् कनिष्ठ वरिष्ठ के क्रमानुसार वर्णन सम्भवपर नहीं हो पाया है।” श्रीदेवकीनन्दन दास ने अपनी वैष्णव वन्दना में व्यक्त किया है, “क्रम भङ्ग दोष ना लइबा मेरा क्रम भङ्ग का दोष मत लीजिये। ” उपरोक्त वैष्णवों की भाँति में भी ऐसा करने में असमर्थ होने के कारण क्षमाप्रार्थी हूँ।

मैं अब वृद्ध हो गया हूँ तथा मेरी स्मृति-शक्ति की क्षीण होती क्षमता अनेक अवरोध उत्पन्न करती है। मैं कुछ भी करने में असमर्थ हूँ तथा एकमात्र अनुताप के भाव से इन वचनों को स्मरण करता हूँ, “निज कर्म-दोषे, ए देह हइल भजनेर प्रतिबन्ध मेरे अपने ही कर्म-दोष के कृपया कारण यह देह भजन करने में बाधा बन गई है।”

श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने हमें सावधान करते हुए कहा है कि जो वैष्णवों की महिमा का गुणगान नहीं करते वे अकृतज्ञता के दोषी हैं। इसलिये मैं आज चिन्तामुक्त अनुभव कर रहा हूँ कि यह प्रकाशन मेरी वैष्णवों के प्रति सतत कृतज्ञता का साक्षी है जिनसे मैंने सब कुछ ग्रहण किया है।

श्रील प्रभुपाद के शिष्यों ने श्रीगुरु के प्रति दृढ़ निष्ठा एवं निरन्तर सेवा के जिस सिद्धान्त को स्थापित किया है वही वास्तविक रूप में हमारे लिए आदर्शस्थानीय एवं प्राणस्वरूप है। इस प्रकार की दृढ़ता हमारे हृदय में प्रकट हो, इस प्रार्थना के साथ ही मैं अपनी प्रस्तावना को विराम देता हूँ।

“वैष्णवेर नाम लबा, आर किछु ना करिबा मैं वैष्णवों के नाम कीर्त्तन के अतिरिक्त कुछ नहीं करूंगा।”

-दासानुदास
श्रीभक्तिविज्ञान भारती।

श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज की तिरोभाव तिथि 2 फरवरी 2017