निर्भीकता रूपी गुण

एक समय श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज बर्मा में ताँगे पर चढ़कर गवर्नर हाउस में पहुँच गए। यह देखकर गवर्नर अपने द्वारपालों पर बहुत अधिक क्रोधित हुआ तथा उसने उनसे कहा, “यहाँ पर बड़े-बड़े पदाधिकारियों में भी ताँगे पर चढ़कर अन्दर आने का साहस नहीं होता, तब फिर यह साधु कैसे ताँगे पर चढ़कर अन्दर आ गया और तुम लोगों ने उसे ताँगे सहित अन्दर आने क्यों दिया ?”

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज बहुत स्पष्ट अंग्रेजी बोलते थे तथा वे गवर्नर द्वारा कही गयी बात को भी पूर्ण रूप से समझ रहे थे। उन्हें श्रील प्रभुपाद के आदेश से अंग्रेजी भाषा में प्रवचन करने का अभ्यास होने के कारण गवर्नर से बात करने में कोई सङ्कोच नहीं हुआ। उन्होंने गवर्नर से अंग्रेजी में कहा, “मेरी प्रार्थना है कि आप इन लोगों पर क्रोधित न हों । इन्होंने मेरे द्वारा गवर्नर जनरल का पत्र दिखाने पर ही मुझे भीतर आने दिया है।” ऐसा कहकर श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने अपने नाम पर गवर्नर जनरल के द्वारा लिखित पत्र गवर्नर को सौंपा।

गवर्नर ने अत्यधिक आश्चर्यचकित होकर श्रील गिरि गोस्वामी महाराज से कहा, “आप कौन हैं ? आप कहाँ से आये हैं? आपको गवर्नर जनरल ने पत्र क्यों लिखा? मेरे पास भी उनके पत्र आते हैं किन्तु आज तक मुझे कभी उनके द्वारा स्वयं किए गये हस्ताक्षर वाला पत्र तक भी नहीं मिला, उस पर सदैव केवल लिखा हुआ आता है ‘From Governor General’ अर्थात् ‘गवर्नर जनरल की ओर से किन्तु आपको उन्होंने एक नहीं, दो नहीं, तीन पत्र लिखे हैं और वे भी सम्पूर्णतः अपने हाथ से ” ऐसा कहते हुए गवर्नर उन्हें अत्यधिक आदर के साथ अपने कक्ष में ले गया।

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने उन्हें कहा, “मैं सर्वप्रथम जब कोलकाता में गवर्नर जनरल के निकट गया तब मैं अपने गुरु महाराज के मिशन के लिए किसी विशेष स्थान पर सरकार की ओर से भूमि दिए जाने का तथा प्रचार कार्य में सहायता प्रदान करने का प्रस्ताव लेकर गया था। मैंने उन्हें अपने मिशन तथा उसके द्वारा सम्पूर्ण जगत् को होने वाले लाभ के विषय में बताया।

“तब गवर्नर जनरल ने मुझसे कहा, ‘मैं किसी एक जाति अथवा धर्म-विशेष के समर्थन में न तो कुछ लिखकर दे सकता हूँ और न ही कुछ कर सकता हूँ।’
“तब मैंने उनसे अत्यधिक निर्भीकतापूर्वक कहा था, ‘यदि मैं यह प्रमाणित कर दूँ कि आपने किसी एक जाति अथवा धर्म – विशेष के लिए पूर्व में इस प्रकार की सहायता की है तो क्या आप मेरे लिये भी प्रस्तावित कार्य कर देंगे?’

“मेरी बात सुनकर उन्होंने अपना मुख झुका लिया, कुछ कहा नहीं। मेरे द्वारा निर्भीकतापूर्वक उनके समक्ष ऐसा बोलने से वे क्षुब्ध नहीं, बल्कि मेरे प्रति प्रसन्न ही हुए तथा मेरी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘मैं आपकी भाँति स्पष्ट बात करने वालों को बहुत पसन्द करता हूँ।’

“बाद में हमारे बीच बहुत समय तक वार्त्तालाप हुआ तथा हम दोनों में मित्रता हो गयी। इसी कारण जब मैंने उनके जन्मदिन तथा अन्य विशेष कारणों से
कुछेक पत्र लिखे तो उन्होंने साथ ही साथ उसका अपने हाथों से उत्तर प्रदान किया। अब मैं आपके निकट भी अपने गुरुदेव के मिशन के प्रचार हेतु ही कुछ सहायता माँगने आया हूँ।”

इस प्रकार उन दोनों में वार्त्तालाप हुआ तथा श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने उनसे श्रील प्रभुपाद की सेवा करायी। वे कहते थे, “श्रील प्रभुपाद ने जब सर्वप्रथम गवर्नर जनरल के द्वारा मेरे नाम पर लिखे गये पत्र को पढ़ा तो वे बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने कहा, ‘इसी प्रकार स्थान-स्थान पर संन्यासियों – ब्रह्मचारियों के द्वारा अपने-अपने कृतित्व का परिचय प्रदान करने पर मेरे आनन्द की सीमा नहीं रहती।”

उचित वस्तु का उचित समय पर आदर

एक समय श्रील गिरि गोस्वामी महाराज जब बर्मा में प्रचार सेवा कार्य के उद्देश्य से गये, तब वहाँ पर किसी बङ्गाली समिति के प्रधान ने उनसे कहा, “महाराज, आप दुर्गा पूजा के समय पर यहाँ आए हैं, इन दिनों सभी दुर्गा पूजा करने में व्यस्त रहेंगे, उसी में आविष्ट रहेंगे। ऐसे में आपके मुख से श्रीचैतन्य महाप्रभु अथवा श्रीकृष्ण की कथाओं को कौन श्रवण करेगा?”

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने कहा, “देखो, एक होता है टेलीग्राफ, दूसरा होता है एक्सप्रेस टेलीग्राफ तथा तीसरा होता है स्टेट टेलीग्राफ। जब किसी कार्यालय में स्टेट टेलीग्राफ आता है, तब उन्हें साधारण टेलीग्राफ अथवा एक्सप्रेस टेलीग्राफ में कही गयी बात को पूर्णतया नगण्य समझकर सम्पूर्ण रूप से स्टेट टेलीग्राफ में कही गयी बात को ही गुरुत्व देकर उसके पालन में ही अपनी समस्त ऊर्जा को नियुक्त करना होता है।

“दो वस्तुओं के परस्पर तुलनात्मक गुरुत्व को समझकर यदि हम उचित वस्तु का उचित समय पर आदर नहीं करते तो इससे स्वयं की ही वञ्चना होगी। ”

“ठीक उसी प्रकार जब परम ईश्वर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनसे अभिन्न कलियुग पावनावतारी श्रीचैतन्य महाप्रभु की कथा, उनकी शिक्षा, उनके आदर्श को श्रवण करने का सुवर्ण सुयोग उपस्थित हुआ है, तब उनकी बहिरङ्गा शक्ति दुर्गा देवी की पूजा आदि को छोड़कर उनकी कथा में आविष्ट होने पर ही अधिक लाभ होगा अन्यथा बड़े लाभ से वञ्चित तथा उचित वस्तु का उचित समय पर आदर नहीं करने से स्वयं ही वञ्चित होना पड़ेगा, किसी अन्य की इसमें क्या हानि होगी ?”

अर्थ द्वारा गुरुभ्राताओं की सेवा करना

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज के कानों में जब भी किसी ब्रह्मचारी अथवा संन्यासी की किसी असुविधा की बात पड़ती थी, वे तभी, साथ ही साथ उनकी सहायता अथवा सेवा के उद्देश्य से उनके निकट धन इत्यादि भिजवाते थे। उदाहरण स्वरूप जब श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज (श्रीविनोद विहारी ब्रह्मचारी), श्रील कृष्णदास बाबाजी महाराज आदि को उन पर मिथ्या अभियोगों के कारण कारागार में रहना पड़ा था, तब गुरु महाराज के मुख से ‘उन्हें छुड़ाने के लिये मैं अर्थ संग्रह कर रहा हूँ” श्रवण कर श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने उसी समय अपने पास रखे पचास रुपये में से केवल पाँच रुपये रखकर बाकी पैंतालीस रुपये गुरु महाराज के हाथ में दे दिए।

जब श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज ( श्रीविनोद विहारी ब्रह्मचारी) कोलकाता, बोसपाड़ा लेन स्थित किराए के घर में एकादशी के दिन अपने गुरुभ्राता श्रीनारायण मुखोपाध्याय के आने पर कानी कौड़ी के भी अभाव के कारण अपने हृदय में अपने गुरुभ्राता की सेवा के लिये व्यग्र हो रहे थे तभी उन्हें चिड़िया के माध्यम से चालीस पैसे की प्राप्ति हुई थी तथा उसी के द्वारा उन्होंने अपने गुरुभ्राता की सेवा की थी। उसी दिन उन्हें श्रील गिरि गोस्वामी महाराज के द्वारा एक सौ रुपये का मनीआर्डर प्राप्त हुआ था। कारण, जब श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने सुना कि श्रीविनोद विहारी ब्रह्मचारी श्रीचैतन्य मठ से चले गये हैं तथा अपने साथ वहाँ से कुछ भी लेकर नहीं गये तभी उन्होंने उनके तत्कालीन वासस्थान का पता लगाकर उनकी सेवा के उद्देश्य से मनीआर्डर भेजा।

श्रील भक्तिसारङ्ग गोस्वामी महाराज जिस समय विदेश में प्रचार करने के उद्देश्य से गये थे, उस समय वे मठ से कुछ भी अर्थ अपने साथ लेकर नहीं गये थे। जब श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने सुना कि श्रील भक्तिसारङ्ग गोस्वामी महाराज विदेश में ही भिक्षा करके सब कार्य कर रहे हैं तब उन्होंने श्रील भक्तिसारङ्ग गोस्वामी महाराज के पास भी मनीआर्डर से पैसे भेजे थे। उन्हें प्रचार में जो कुछ भी मिलता, वे उसे सदैव अपने गुरुभ्राताओं की सेवा हेतु दे देते, अपने पास निकट भविष्य में यात्रा अथवा अन्य किसी प्रयोजन हेतु किञ्चित रखकर सब सेवा में लगा देते थे, वे ऐसे निष्किञ्चन थे। वे कहते थे, “श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने हमें उपदेश दिया है-

यदि थाके बहु धन, निजे हबे अकिञ्चन, वैष्णवेर कर उपकार।
जीवे दया अनुक्षण, राधा-कृष्ण-अराधन, कर सदा हये सदाचार ॥
कल्याण- कल्पतरु (१.१२.४)

[यदि आपके पास बहुत धन है तो इससे अनासक्त होकर इसे वैष्णवों की सेवा में लगाओ। सदैव जीवों के प्रति दया रखते हुए, सदाचार का पालन करते हुए निरन्तर श्रीश्रीराधाकृष्ण की आराधना करो। ]

अप्रकट लीला प्रकाश करने से पूर्व की अभिलाषा

कानपुर निवासी श्रीगिरिधारी लाल भार्गव ने श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज को वृन्दावन धाम में स्थित श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ की भूमि दान करने के पश्चात् उसके निकट ही स्थित एक अन्य भूमिखण्ड गुरु महाराज को दान करने की इच्छा प्रकट की थी। जब श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज को यह बात पता चली तब उन्होंने गुरु महाराज से कहा, “यदि आप यह स्थान लेकर स्वयं रहेंगे, तब तो ठीक है, किन्तु यदि आप यहाँ पर मठ बनाएँगे तब तो मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा अर्थात् यहाँ मेरी उपस्थिति का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा। ”

गुरु महाराज ने उनसे कहा, “जब गिरिराज गोवर्धन को धारण करने वाले गिरिधारी श्रीकृष्ण स्वयं मुझे इस अन्य गिरिधारी (लाल भार्गव) के माध्यम से भूमि देना चाहते हैं तो मुझे अवश्य ही उनकी इच्छा की पूर्ति करनी चाहिये। मैं अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता के चरण कमलों में ही रहूँगा।”

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने कहा, ” आपकी महिमा के समक्ष मेरी महिमा बहुत कम है। आपके असाधारण प्रभाव के कारण, बहुत लोग आपका ही अनुसरण करते हैं। तब फिर मेरे मिशन का क्या होगा?”

उनकी चिन्ता को समझते हुए गुरु महाराज ने पुनः विचार किया तथा समाधान करते हुए कहा, “यदि ऐसी बात है तो मैं यह भूमि स्वीकार नहीं करूँगा। वैष्णव की सेवा करना ही मेरी प्राथमिकता है, मैं उन्हें किसी प्रकार से उद्वेग देने का कारण नहीं बनूँगा। मैं आपके स्थान से कुछ दूरी पर वृन्दावन में किसी अन्य स्थान पर मठ बना लूँगा। आप लेशमात्र भी चिन्तित मत होना। ”

श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज ने इस घटना के बहुत समय के पश्चात् जब गुरु महाराज को अपना श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ समर्पित करने की बात कही, तब गुरु महाराज ने उनसे कहा, “महाराज, हमने तो यहाँ श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की स्थापना की ही है, मैं एक ही स्थान पर दूसरी शाखा नहीं चाहता। यदि हमारा अन्य कोई गुरुभ्राता श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ की सेवा के दायित्व को चाहता हो तो आप उसे दे दीजिए। ”

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने तब गुरु महाराज के हाथों को अपने हाथों में लेकर कहा, “आपके इस मठ को स्वीकार करने पर ही मैं शान्तिपूर्वक देह त्याग कर पाऊँगा।” ऐसा कहते हुए वे क्रन्दन करने लगे। उनकी भावनाओं को देखते हुए गुरु महाराज ने श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ की सेवा के दायित्व को स्वीकार कर लिया।

जब श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने छत से गिरकर अस्वस्थ होने की लीला प्रकट की, तब गुरु महाराज ने अपने आश्रित श्री निताई प्रभु को उनकी सेवा में नियुक्त किया। श्रीनिताई प्रभु की सेवा परिपाटी को देखकर गुरु महाराज उसके प्रति अत्यन्त सन्तुष्ट हुए थे।

श्रील प्रभुपाद के आशीर्वाद की पुष्टि करना

जब गुरु महाराज ने श्रीधाम वृन्दावन में स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा की थी, तब उन्होंने तीन दिवस के विराट उत्सव का आयोजन किया था। उसी उत्सव के उपलक्ष्य में श्रील प्रभुपाद के अनेकानेक आश्रितजनों में श्रील गिरि गोस्वामी महाराज भी उपस्थित हुए थे तथा उन्होंने अपने भाषण में कहा था, “श्रील प्रभुपाद ने मुझे तथा श्रीपाद परमानन्द प्रभु को इसी स्थान को गौड़ीय मठ के लिये संग्रह करने हेतु भेजा था किन्तु उस समय हम इसे संग्रह करने में असमर्थ रहे थे। आज उसी स्थान को श्रील माधव महाराज द्वारा संगृहीत तथा मठ के रूप में परिणत हुआ देखकर मुझे दृढ़ विश्वास है कि श्रील प्रभुपाद इसके द्वारा अत्यधिक प्रसन्न होकर श्रीपाद माधव महाराज के प्रति कृपा वृष्टि कर रहे होंगे। श्रीपाद माधव महाराज के द्वारा इस स्थान को संग्रह करने में सफल होना उनके प्रति श्रील प्रभुपाद की कृपा का ही निदर्शन है। ”

नियम पालन करने का महत्व

एक समय श्रील गिरि गोस्वामी महाराज हमारे कृष्णनगर स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में आये तथा उन्होंने मुझसे कहा, “ओह ! मैं तो माधव महाराज से यहाँ दो-चार दिन रहने हेतु आज्ञासूचक पत्र लिए बिना ही आ गया हूँ तथा मैं उन्हें कुछ दिन रहने के विषय में सूचित करना भी भूल गया, अब क्या करूँ?”

मैंने उनसे कहा, “महाराज! क्या आपके जैसे विशिष्ट व्यक्ति को भी पत्र लेकर आने की आवश्यकता है। यहाँ सभी व्यक्तिगत रूप से आपसे परिचित हैं। गुरु महाराज इस प्रकार की औपचारिकताओं के लिए आपको नहीं कहेंगे। ”

“हम जब स्वयं सावधानीपूर्वक नियमों का पालन करते हुए जीवन यापन करते हैं तो इससे सभी का मङ्गल साधित होता है।”

मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा, “देखो, ऐसा होने पर भी नियमानुसार चलने से अच्छा रहता है। यदि कोई श्रेष्ठ व्यक्ति अपने अधिकारानुसार किसी नियम को पालन नहीं करता तो इसमें उसकी स्वयं की तो कोई हानि नहीं होती किन्तु उनके अधिकार, उनके हद्गत भावों को समझ पाने में असमर्थ व्यक्ति उनका अनुकरण करके अपना अमङ्गल करता है। अतएव सावधानीपूर्वक नियमानुसार जीवन यापन करने में सबका मङ्गल निहित होता है।”

गुरुभ्राताओं के उच्छिष्ट को ग्रहण करना

एक समय गुरु महाराज ने अपने अनेक गुरुभ्राताओं को कोलकाता रासबिहारी एवेन्यू में किराए के स्थान पर स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में एक विराट उत्सव हेतु निमन्त्रित किया। उत्सव में योगदान देने वाले भक्तों को तीन भिन्न-भिन्न निर्दिष्ट स्थानों पर तथा गुरु महाराज के गुरुभ्राताओं को गुरु महाराज के कक्ष में ही प्रसाद परिवेशन किया गया। श्रील गिरि गोस्वामी महाराज सबसे ज्येष्ठ होने के कारण पंक्ति में सबसे आगे बैठे थे तथा हमने सर्वप्रथम उन्हें ही विभिन्न प्रकार का प्रसाद परिवेशन किया।

प्रसाद ग्रहण करने के उपरान्त गुरु महाराज के गुरुभ्रातागण एक-एक करके ‘निताई गौर हरि बोल’ कहते हुए उठने लगे तथा कक्ष में एकमात्र श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ही रह गये। जैसे ही मैं प्रसाद की पत्तलों को एकत्रित कर कूड़ेदान में डालने के लिए प्रस्तुत हुआ तो मैंने देखा कि श्रील गिरि गोस्वामी महाराज अपने प्रत्येक गुरुभ्राता की पत्तल से उनका उच्छिष्ट प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं। मैंने अतिशीघ्र गुरु महाराज को सूचित किया जो कि कक्ष के बाहर ही खड़े थे। तब गुरु महाराज ने कक्ष में प्रवेश किया एवं श्रील गिरि गोस्वामी महाराज का अनुसरण करते हुए गुरु महाराज भी अपने गुरुभ्राताओं का उच्छिष्ट प्रसाद पाने लगे।

मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न रही। मैं विचार करने लगा, “ यद्यपि श्रील गिरि गोस्वामी महाराज यहाँ पर उपस्थित श्रील प्रभुपाद के समस्त शिष्यों में सबसे ज्येष्ठ हैं तथापि उनके स्वभाव में वैष्णव जगत् क मुख्य स्तम्भरूपी गुण ‘तृणादपि सुनीचता अर्थात् स्वयं को तृण से भी नीच समझना’ सम्पूर्णरूप से प्रकाशित है। ”

बाद में उपयुक्त समय देख कर मैंने श्रील गिरि गोस्वामी महाराज से उनके अत्यन्त विस्मित कर देने वाले इस कार्य के विषय में जिज्ञासा की, “मैं अन्ध-विश्वास से बचने हेतु किसी वस्तु के वास्तविक महत्त्व को समझने पर ही उसको पालन करने का अभ्यस्त हूँ। इस कारण आपको वैष्णवों का उच्छिष्ट प्रसाद ग्रहण करते हुए देख मेरे मन में यह प्रश्न आया कि वैष्णवों का उच्छिष्ट प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व क्या यह विचार करना चाहिये कि वह किस स्तर का वैष्णव है?”

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने कहा, “मैं इस विषय में कुछ नहीं कह सकता किन्तु एक बात निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि वैष्णवों का उच्छिष्ट ग्रहण करने से व्यक्ति उनके भावों को प्राप्त करेगा। श्रील रघुनाथदास गोस्वामी के सम्बन्धी, श्रीकालिदास बिना वैष्णवों के स्तर का विचार किए सदैव श्रद्धापूर्वक उनका उच्छिष्ट ग्रहण करते थे तथा इसके फलस्वरूप ही उन्होंने श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणामृत को प्राप्त करने की योग्यता अर्जित कर ली। श्रीचैतन्यचरितामृत ( अन्त्य – लीला १६.६०) में वर्णित है-

भक्तपदधूलि आर भक्तपद-जल ।
भक्तभुक्त-शेष, एइ तिन साधनेर बल ॥

[भक्तों के चरणों की धूलि, भक्तों के चरणों का जल एवं भक्तों का उच्छिष्ट प्रसाद, ये तीनों साधन के बल हैं।]

“इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवतम् में श्रीनारद ऋषि ने पारमार्थिक जीवन में उनकी निष्ठा स्थापन का श्रेय ऋषियों के उच्छिष्ट को दिया है तथा वहाँ भी वैष्णवों के स्तर से सम्बन्धित कोई विचार उल्लिखित नहीं है। जिन्हें श्रीगुरुदेव ने स्वीकार कर वैष्णव प्रमाणित कर दिया है तब मैं उन्हें कोई अन्य प्रमाण-पत्र देने का प्रयास क्यों करूँ? मेरे विचार से वे सभी मेरे पूज्य हैं क्योंकि वे मुझसे अधिक दृढ़ श्रद्धावान् तथा मुझसे अधिक सेवा करते हैं। इसलिए मेरे गुरुदेव के प्रियजनों का उच्छिष्ट ग्रहण करना मात्र ही बहुत सौभाग्य का विषय है। श्रीचैतन्यचरितामृत (मध्य – लीला १०.१४२) में लिखा है, ‘गुरुर किङ्कर हय मान्य से आमार अर्थात् श्रीगुरु के सेवक सदैव मेरे पूज्य हैं।’

श्रीगौर-आशीर्वाद

श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की विचारधारा को सुष्ठु रूप से अग्रसर करने की अभिलाषा से गुरु महाराज ने विभिन्न स्थानों पर जाकर प्रचार-प्रसार, मठ-मन्दिरों की स्थापना, पत्रिकाओं का प्रकाशन, दीक्षा संन्यास, गेरुएँ वस्त्र आदि प्रदान करने रूपी समस्त पद्धतियों का ही प्रचलन किया।

श्रील प्रभुपाद जिस प्रकार श्रीगौर पूर्णिमा के समय श्रीमन्महाप्रभु की सेवा करने वालों को गौर आशीर्वाद प्रदान करते थे, उसी प्रकार गुरु महाराज भी श्रीचैतन्यवाणी प्रचारिणी सभा की ओर से विशेष सेवा करने वाले ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ आदि सभी को श्रीगौर आशीर्वाद प्रदान करते थे।

गौर आशीर्वाद प्रदान करने में गुरु महाराज का एक विशेष वैशिष्ट्य यह था कि वे गौर आशीर्वाद पत्र पर हस्ताक्षर स्वयं नहीं करके पहले अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता श्रीभक्तिसारङ्ग गोस्वामी महाराज तथा उनके अप्रकट लीला को प्रकाशित करने के उपरान्त श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज को श्रीचैतन्यवाणी प्रचारिणी सभा का सभापति बनाकर उन्हें प्रचुर मर्यादा प्रदान करते हुए उनके हस्ताक्षर किए हुए गौर – आशीर्वाद – पत्र को उनके हस्तकमलों से प्रदान कराते थे। उदाहरण स्वरूप उन्होंने मुझे मेरी ब्रह्मचारी अवस्था में जो गौर आशीर्वाद प्रदान किया उसमें श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज के हस्ताक्षर हैं।

श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी का प्रचार करने हेतु श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज द्वारा आयोजित वार्षिक धर्म-सभा “वास्तव में हमें जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह एकमात्र भगवान् की सेवा हेतु ही है।”

गृहस्थ भक्तों के लिए विशेष निर्देश

श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज प्रायः गृहस्थ भक्तों से कहते थे, “यद्यपि शास्त्रों में वर्णित है कि गृहस्थ व्यक्ति को अपनी मासिक आय का कुछ भाग भगवान् तथा भक्तों की सेवा के उद्देश्य से देना चाहिये तथापि यदि किसी कारणवश वैसा सम्भवपर न हो तो अन्ततः बारह मास में से अपनी एक मास की आय को तो उन भगवान् की सेवा के उद्देश्य से अर्पित करना ही चाहिये जिनकी सेवा के लिये ही वास्तव में हमें सब कुछ मिला है, जिनके लिए सब कुछ है। यदि हम ऐसा नहीं करते तो दोष लगता है । ”

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज की बात सुनकर बर्मा तथा भारतवर्ष के अनेक गृहस्थ भक्त अन्ततः एक वर्ष में एक मास की अपनी आय को भगवान् तथा भक्तों की सेवा हेतु प्रदान करते थे।

वास्तविक वरिष्ठता का विचार

एक समय श्रील गिरि गोस्वामी महाराज के हमारे कृष्णनगर मठ में आने पर जब मैंने उन्हें प्रातः काल पाठ करने के लिये प्रार्थना की तब उन्होंने मुझसे कहा, “मैंने आज तक आपको पाठ करते हुए नहीं सुना, आप ही पाठ करें तथा मैं ऊपर से अर्थात् अपने कक्ष में बैठे-बैठे ही उसे सुनता रहूँगा।”

मैंने उनसे कहा, “महाराज, आप मेरे गुरुवर्ग हैं, मुझसे अत्यधिक ज्येष्ठ हैं, मेरे द्वारा किए गये पाठ को आप क्यों श्रवण करेंगे?”

उन्होंने कहा, “भजन राज्य में वास्तव में ज्येष्ठ तथा कनिष्ठ का कोई विचार नहीं है। श्रीचैतन्यचरितामृत में श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने लिखा है ‘जेइ भजे, सेइ बड़’ अर्थात् जो कृष्ण की सेवा करता है वही ज्येष्ठ है। अधिक दिन तक मठ में वास करने से नहीं, बल्कि मठ की विचार धारा, उसके आदर्श को जो जितनी अधिक मात्रा में गुरुत्व देकर पालन करता है, वह उतनी मात्रा में श्रेष्ठ होता है।

” और एक बात, वैष्णव होने के साथ- ही साथ व्यक्ति तदीय वस्तु के अन्तर्भुक्त होने के कारण पूज्य बन जाता है। अतएव आप ही पाठ कीजिए। ”

मैंने श्रील महाराज के वचनों को उनका आदेश मानकर पाठ किया तथा बाद में जब मैं उन्हें प्रणाम करने के उद्देश्य से गया तब उन्होंने कहा, “मैंने पाठ सुना, सुनकर बहुत अच्छा लगा, आपने बहुत अच्छे विषय को चुनकर युक्तिपूर्ण कथा का परिवेशन किया। वास्तव में कथा तभी कथा होती है जब वक्ता अन्यों को सुनाने, उन्हें उपदेश करने का दम्भ नहीं करके स्वयं के मङ्गल के उद्देश्य से, स्वयं को पुनः पुनः गुरुवर्गों से श्रवण किए हुए विषय को स्मरण कराने के उद्देश्य से पाठ करता है। है। इस प्रकार वह प्लेटफॉर्म स्पीकर नहीं बनकर जीवन में उसी आदर्श का स्वयं पालन अथवा आचरण करते हुए प्रचार करता है। यह ‘आचरण करते हुए प्रचार करना’ ही महाप्रभु के आश्रितजनों का मुख्य वैशिष्ट्य है। ”

धैर्य सम्बन्धित शिक्षा

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज सभी कार्यों को बहुत धीरे-धीरे करते थे। उन्हें स्नान करने, वस्त्र धारण करने अथवा अन्य किसी भी कार्य को करने में बहुत अधिक समय लगता था। इसलिए किसी-किसी स्थान पर रसोई बनाने वाला व्यक्ति रन्धन कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व ही उनके पास जाकर कहता, “महाराज, रन्धन कार्य प्रायः समाप्त होने को है, आपको कितनी देरी लगेगी। अच्छा हो कि आप शीघ्र गर्म-गर्म प्रसाद ग्रहण कर लें।”

उनकी बात सुनकर श्रील गिरि गोस्वामी महाराज उत्तर देते, “अच्छा, बस मैं शीघ्र ही आता हूँ।” दूसरी ओर रन्धन कार्य करने वाले रसोइये के द्वारा रन्धन पूर्ण कर लेने पर भी श्रील गिरि गोस्वामी महाराज नहीं पहुँच पाते थे तथा बुलाने पर कहते, “अभी-अभी तो बोला था कि आ रहा हूँ, तब फिर दोबारा से क्यों बुलाने आए हो, मैं अभी आ ही रहा हूँ।” इस प्रकार उन्हें सब कार्यों को करने में ही देरी हो जाती थी।

” भजन राज्य में ज्येष्ठ अथवा कनिष्ठ का कोई विचार नहीं है । ”

एक समय मुझे उनके साथ कृष्णनगर में जाकर उनकी स्वरूपगञ्ज स्थित भूमि को बेचने हेतु रजिस्ट्रेशन कराना था। किन्तु प्रातः काल उन्होंने स्नान हेतु गर्म जल माँगा, मैंने गर्म जल की व्यवस्था कर दी। बाद में गर्म जल ठण्डा हो गया किन्तु किसी अन्य कार्य में व्यस्त रहने के कारण वह स्नान करने नहीं गए। मैंने दोबारा उनका जल गर्म कर दिया। उनके स्नान हेतु जाने से पूर्व मैंने जिज्ञासा की, “महाराज, आप प्रातः कलेवा में दूध-चिड़वा लेंगे अथवा दही- चिड़वा।”

उन्होंने कहा, “दूध मेरे लिये उपयुक्त नहीं, किन्तु हाँ, दही चिड़वा ले सकता हूँ।”

मैंने कहा, “बहुत अच्छा महाराज, आपके स्नान- आहिक इत्यादि करने तक मैं उसकी व्यवस्था कर दूँगा।”

मैंने दही- चिड़वे की व्यवस्था कर दी, किन्तु श्रील गिरि गोस्वामी महाराज को आहिक करते-करते इतनी देरी हो गयी कि इससे हमारा कृष्णनगर में होने वाला कार्य विपद में पड़ गया। जब मैंने उनसे कहा, “महाराज, समय बहुत होता जा रहा है, आप इसे ग्रहण कर लीजिए।”

तब उन्होंने मुझसे कहा, “अब इसे रहने दो, एक साथ दोपहर में प्रसाद ही ग्रहण करूँगा।” तथा वह अन्य प्रातः कालीन कार्यों में व्यस्त हो गए।
दोपहर के प्रसाद के समय तक भी वह अपने कार्यों में व्यस्त थे, फिर दोपहर का प्रसाद पाते पाते भी उन्हें बहुत देरी हुई तथा जब हम रजिस्ट्रेशन कराने के लिये पहुँचे तो कार्यालय के क्लर्क ने कहा, “आज हम और नये फॉर्म स्वीकार नहीं करेंगे। कारण, पहले ही बहुत देरी हो गयी है। अतएव आप लोग कल आना।”

मैंने श्रील गिरि गोस्वामी महाराज की महिमा बोलकर रजिस्ट्रार को जिस किसी प्रकार से उसी दिन हमारा फॉर्म स्वीकार करने के लिए मनाया और फिर हमारा कार्य हो गया।

सन्ध्या के समय कार्य के समाप्त होने पर मठ की ओर आते समय श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने मुझसे कहा, “तुम मेरे द्वारा सब कार्यों में देरी करने पर भी क्षुब्ध तो हुए ही नहीं, बल्कि मेरी महिमा बोलकर अत्यधिक दक्षतापूर्वक रजिस्ट्रेशन का कार्य भी करवा दिया। मैंने तुम्हारे गुरुदेव श्रीमाधव महाराज में भी ऐसा ही गुण देखा है कि वे वैष्णवों की व्यवहारिक क्रियाओं की ओर कोई ध्यान नहीं देकर उनसे उनकी वैष्णवता के अनुरूप ही व्यवहार करते हैं।

“किसी के सभी कार्यों को शीघ्रतापूर्वक कर लेने या फिर देरी से करने से अथवा समयनिष्ठ होने या फिर नहीं होने से अथवा साफ-सुथरा परिच्छन्न रहने या फिर मेला- कुचैला रहने से कम अथवा अधिक भोजन ग्रहण करने आदि से ही उनकी वैष्णवता की पहचान नहीं होती अथवा उनकी ये क्रियाएँ उनकी वैष्णवता को मापने का मापदण्ड नहीं होती बल्कि उनकी चित्तवृत्ति, उनकी भावनाएँ तथा उनका आदर्श ही वास्तव में उनकी वैष्णवता को देखने का मापदण्ड होता है। तुम्हारी ही तरह मेरे गुरुभ्रातागण भी मुझ पर रुष्ट नहीं होते तथा वे मेरी क्रियाओं को देखकर मुझ पर मधुर अपनेपन को प्रदर्शित करने वाला आमोद-प्रमोद करते हैं और मैं जब चाहने पर भी किसी भी कार्य को शीघ्रतापूर्वक नहीं कर सकता तो इसमें मैं क्या करूँ, इसमें मेरा क्या दोष?”

इतनी सरलतापूर्वक श्रील महाराज मुझे सब बातें बोल रहे थे, मानो वे एक बालक हों।

सामान्य किन्तु महत्वपूर्ण निर्देश

श्रील भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज ने मुझे एक समय अपने निकट बैठाकर उपदेश दिया, “कभी भी कोई ऐसी खाद्य- सामग्री अकेले किसी के समक्ष मत खाना, जिसे देखकर अन्यों को लोभ हो, कभी कोई ऐसा वस्त्र धारण मत करना, जिसे देखकर अन्यों को वैसे वस्त्र धारण करने की रुचि हो। अपने कक्ष में वस्तुओं को इस प्रकार सजा – सजाकर नहीं रखना, जिस प्रकार गृहस्थ लोग रखते हैं, किन्तु कक्ष को साफ-सुथरा रखो।” उन्होंने केवल मुझे ऐसा उपदेश किया हो, ऐसी बात नहीं, वे स्वयं भी सदैव उपरोक्त सब बातों का पालन करते थे। उनका जीवन अत्यधिक वैराग्यमय था।

मंगलाचरण
श्रील गिरि गोस्वामी महाराज देखने में अत्यधिक दुबले-पतले थे तथापि उनका स्वर इतना प्रबल था कि उन्हें किसी भी सभा में, चाहे वहाँ बड़ी संख्या में श्रोता एकत्रित हों, भाषण देने के लिये कदापि माइक की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। वे हरिकथा के आरम्भ में मङ्गलाचरण करते हुए सर्वप्रथम इस निम्नलिखित श्लोक का अवश्य ही उच्चारण करते थे तथा उनके आरम्भ करने मात्र से सभी अत्यधिक आश्चर्यपूर्वक उस दिव्य ध्वनि को श्रवण करते थे-

‘आजानुलम्बित भुजौ कनकावदातौ
संकीर्त्तनैक पितरी कमलायताक्षौ ।
विश्वम्भरी द्विजवरौ युगधर्मपाली
वन्दे जगत्प्रियकरौ करुणावतारौ ॥’
श्रीचैतन्यभागवत (आदि खण्ड १.१)

[मैं उन करुणावतार श्रीगौराङ्गदेव एवं श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु की वन्दना करता हूँ जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं, जिनके शरीर की कान्ति स्वर्ण की भाँति मनोरम है, जो सङ्कीर्त्तन के सृष्टिकर्त्ता अथवा प्रवर्त्तक हैं, जिनके नेत्र कमल की भाँति विशाल हैं, जो विश्व के पोषणकर्त्ता हैं, जो श्रेष्ठ ब्राह्मण कुल में आविर्भूत हुए हैं, जो युगधर्म के पालनकर्त्ता हैं, तथा जगत् के लोगों का परम कल्याण करने वाले हैं।]

वैष्णवों के चरणों में शरणागति

एक समय श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने ऐसी अस्वस्थ लीला का अभिनय किया कि उनके नेत्रों का ऑपरेशन करना पड़ा तथा उन्हें रक्त भी चढ़ाना पड़ा। श्रील गिरि गोस्वामी महाराज को कोलकाता प्रेसिडेंसी गवर्नमेन्ट अस्पताल में भर्ती कराया गया था । यद्यपि ब्रिटिश समय में उस अस्पताल में केवल उच्च पदस्थ अधिकारियों को ही चिकित्सा के लिए भर्ती किया जाता था अन्य किसी को नहीं, परन्तु देश स्वतन्त्र होने के पश्चात् वह सभी की चिकित्सा के लिए खोल दिया गया। श्रील गिरि गोस्वामी महाराज को उसी अस्पताल के सबसे उत्तम विभाग ‘Woodburn Ward’ में भर्ती कराया गया था।

गुरु महाराज ने जब अपने आश्रितजनों को जानकारी दी, “श्रील गिरि महाराज के लिये रक्त की आवश्यकता है, आप लोगों में कौन-कौन उन्हें रक्त दे सकता है?” तब सभी भक्तों में उनके लिये रक्त देने की मानो होड़ सी लग गयी। जिन कुछेक भक्तों की रक्त परीक्षा हुई उनमें मैं भी था । मेरा ब्लड ग्रुप ‘O’ निकला। डॉक्टर ने कहा, “यह रक्त चल सकता है किन्तु उनके वाला ही ब्लड ग्रुप मिलने से अच्छा होगा ।” बाद में पता चला कि मेरे सतीर्थ श्रीभक्तिविजय वामन महाराज तथा श्रीमदन प्रभु का ब्लड ग्रुप श्रील गिरि गोस्वामी महाराज के ब्लड ग्रुप से मिलता है तथा डॉक्टर ने श्रीभक्तिविजय वामन महाराज का रक्त लेकर श्रील गिरि गोस्वामी महाराज को चढ़ाया।

जब श्रील गिरि गोस्वामी महाराज अपने ऑपरेशन के पश्चात् अस्पताल से मठ में लौट आए तब उन्होंने कहा, “मैं जैसा महाविद्यालय में पढ़ाई करते समय देखता था अब वैसे ही देख पा रहा हूँ। वैष्णव ही मेरे रक्षाकर्त्ता तथा वही मेरे पालन करने वाले हैं। शास्त्रों में षड़ङ्ग शरणागति की जो बात कही गयी है जब तक वह वैष्णवों के प्रति नहीं होगी तब तक वह भगवान् के प्रति कदापि नहीं हो सकती। मेरा पुनः पुनः वैष्णवों से यही कहना है

“मेरा पुनः पुनः वैष्णवों से यही कहना है- मुझ दास पर आपका सम्पूर्ण अधिकार है, आप चाहें तो मुझे मार डालिए अथवा मेरा पोषण कीजिए, जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही कीजिए।”

‘मारबि राखबि जो इच्छा तोमार नित्यदास- प्रति तुया अधिकार’ अर्थात् इस दास पर आपका सम्पूर्ण अधिकार है, आप चाहे तो इस दास को मार डालिए या जीवित रखिए, जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही कीजिए।”

गुरुभ्राताओं के स्नेह के पात्र

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज तथा श्रील भक्तिहृदय वन गोस्वामी महाराज के मध्य विशेष प्रीति का एक आंशिक कारण यह भी था कि श्रील प्रभुपाद ने उन दोनों को एक ही दिन संन्यास प्रदान किया था। जब श्रील गिरि गोस्वामी महाराज ने अप्रकट लीला प्रकाशित की, तब श्रील भक्तिहृदय वन गोस्वामी महाराज आगरा के किसी नर्सिंग होम में भर्ती थे, उन्हें कैथेटर लगा हुआ था, किन्तु जैसे ही उन्होंने सुना, “श्रील गिरि महाराज अप्रकट हो गए हैं, वह साथ ही साथ डॉक्टर के अत्यधिक निषेध करने पर भी अस्पताल से छुट्टी लेकर तथा कैथेटर को हाथ में ही पकड़ कर वृन्दावन आ गये तथा श्रील गिरि गोस्वामी महाराज की समाधि के समस्त सेवा कार्य को अपने दिशा-निर्देश में कराया।

श्रील गिरि गोस्वामी महाराज के प्रति गुरु महाराज, श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज, श्रील भक्तिसौरभ भक्तिसार गोस्वामी महाराज, श्रील भक्क्यालोक परमहंस महाराज आदि की अत्यधिक प्रीति निष्ठा आदि को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उनमें कैसे वैष्णवोचित गुण होंगे, जिस कारण अत्यधिक निष्ठावान् भक्तगण भी उनके प्रति निष्ठा, श्रद्धा-भक्ति रखते थे।

श्रीमद्भक्ति सर्वस्व गिरि महाराज का नित्य लीला में प्रवेश
श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित

सांसारिक वार्त्ता के प्रति उदासीन

पूज्यपाद गिरि महाराज पूर्वबङ्गाल ( वर्त्तमान बाङ्गलादेश) के ढाका शहर में १८९९ ई० में एक विशिष्ट सम्भ्रान्त परिवार में आविर्भूत हुए थे। वे बाल्यकाल से ही विरक्त स्वभाव के थे। उनकी खाने पहनने के विषय में उदासीनता, खेलकूद आदि में अरुचि, गम्भीर स्वभाव, साधु-सज्जन महापुरुषों के साथ मेलजोल, धर्म के प्रति अनुराग इत्यादि को लक्ष्य कर माता-पिता यह सोच कर कि उनके ऊपर किसी देवता की दृष्टि पड़ गई है अथवा वे किसी ग्रह के प्रभाव से ग्रस्त हो गए हैं, उनकी कुशलता के सम्बन्ध में अत्यन्त आशङ्कित होते थे तथा श्रीभगवद् चरणों में अत्यन्त कातर होकर सन्तान के मङ्गल की प्रार्थना करते थे।

श्रील प्रभुपाद से भेंट

१९२१ ई० में, कार्तिक मास में नियमसेवा के समय परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद ने ढाका के प्रसिद्ध, धनी एवं जमींदार स्वर्गीय श्रीसनातनदास महाशय के भवन में कई दिनों तक श्रीमद्भागवतम् का पाठ एवं व्याख्या की थी। अनेक शिक्षित एवं सम्भ्रान्त व्यक्ति उस समय श्रील प्रभुपाद की अभूतपूर्व व्याख्याओं को श्रवण कर विशेष आकृष्ट हुए थे। उनके शिष्य (अधुना नित्यलीलाप्रविष्ट) परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थ महाराज ने भी वहाँ पर कई दिनों तक श्रीमद्भागवतम् का पाठ किया था। उस समय श्रीमद् गिरि महाराज वहाँ आकर पाठ एवं हरिकथा श्रवण करते थे। उस समय वे ‘इन्दु बाबु’ के नाम से परिचित थे। कुछ समय पश्चात् परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद के चरणों का आश्रय ग्रहण करने पर पहले ‘श्रीगौरेन्दु ब्रह्मचारी’ तथा परवर्ती काल में दण्डसंन्यास स्वीकार कर ‘त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज’ के नाम से सुपरिचित हुए।

निर्भीक वक्ता

संन्यास प्राप्ति के उपरान्त श्रीपाद गिरि महाराज ने परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद के आदेश से भारत के विभिन्न स्थानों पर अथक परिश्रम के साथ प्रचार कार्य कर प्रभुपाद का मनोऽभीष्ट पूर्ण किया।

श्रील महाराज एक निर्भीक वक्ता थे। उनकी मेघ के समान गम्भीर ओजस्विनी भाषा में प्रदत्त वक्तृता को श्रवण करने से समस्त श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। उनकी वक्तृता में माइक्रोफोन की आवश्यकता नहीं होती थी।

श्रील प्रभुपाद के असीम आनन्द का स्रोत

सत्य के प्रति श्रील महाराज की ऐसी दृढ़निष्ठा थी कि अंग्रेजी शासनकाल में भी वे गवर्नर, वायसराय इत्यादि के समक्ष निर्भीक सत्यकथा बोलने से किञ्चित् मात्र भी पश्चात्पद नहीं हुए। उन्होंने ही सर्वप्रथम परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद के श्रीमुखनिःसृत वास्तव सत्य वाणी का भारत के वायसराय (गवर्नर जनरल) लॉर्ड वैलिङ्गटन के समक्ष परिवेशन किया था वायसराय बहादुर श्रील महाराज के वचन श्रवण कर सन्तुष्ट हुए एवं उन्हें एक पत्र प्रदान किया, जिसको देखकर परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद अत्यन्त आनन्दित हुए थे। १९२६ ई० कार्तिक मास में श्रील प्रभुपाद ने अपने भारत भ्रमण वृत्तान्त के सम्बन्ध में अपने शिष्यों को जो पत्र लिखे थे, वे ‘पत्रावली, प्रथम खण्ड ‘ में प्रकाशित हुए हैं, उनमें एक स्थान पर यह उल्लेख है-

“भक्तिसर्वस्व गिरि ने जो अंग्रेजी Certificate प्राप्त किया है, उसे पढ़ कर मैं परमानन्दित हुआ। इसी प्रकार प्रत्येक स्थान पर संन्यासी ब्रह्मचारियों के द्वारा अपने-अपने कृतित्व का परिचय प्रदान करने से मेरा आनन्द और भी वर्धित होगा। ”

गवर्नर, वायसराय एवं अन्यान्य विशिष्ट राजपुरुषगण द्वारा लिखित अनेक पत्र मैंने श्रील महाराज के पास देखे हैं। उन पत्रों में उन्होंने श्रील महाराज के प्रचार कार्यों की भरसक प्रशंसा की है तथा श्रीमन्महाप्रभु के समस्त जीवों में प्रेमधर्म के प्रचार-प्रसार के विषय में यथेष्ट उत्साह का प्रदर्शन किया है।

अंग्रेजी भाषा लेखन एवं वक्तृता में सुप्रवीण

परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद द्वारा प्रवर्त्तित श्रीधाम मायापुर स्थित मूलमठ श्रीचैतन्य मठ एवं तत्शाखा गौड़ीय मठों में प्रभुपाद के श्रीचरणाश्रित अनेक उच्चशिक्षित अंग्रेजी भाषा में प्रवीण वक्ता विद्यमान होने पर भी श्रील महाराज के अंग्रेजी में लिखने एवं बोलने की पद्धति की श्रीनिशिकान्त सन्याल महोदय (श्रीपाद नारायण दास भक्तिसुधाकर प्रभु, जो कि कटक के रॉवेनशॉ कॉलेज में इतिहास के एक प्रवीण प्राध्यापक थे ) तथा अन्य विशेषज्ञगण भी भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे।

उनका आदर्श चरित्र

श्रील महाराज में अपने श्रोतागणों के चित्त को आकर्षण करने की एक अद्भुत क्षमता थी। परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद एवं उनके अनुगत सभी गुणग्राही वैष्णवगण उनकी वक्तृता को प्रचुर पसन्द करते थे।

उनका शुद्ध पवित्र निर्मल चरित्र, शिशु के समान सरलता, जो प्राप्त हो उसमें ही सन्तोष, अपूर्व गुरुसेवा-निष्ठा, सर्वत्र भगवत्- कथा कीर्त्तन एवं उसके फलस्वरूप पाषण्डियों के दलन में अदम्य उत्साह एवं अनुराग रूपी सद्गुण निश्चय ही आदर्श स्वरूप हैं।

उनका व्यापक सेवा-सौष्ठव

परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद की मनोऽभीष्ट सेवा निष्पादन में उन्होंने काय मन – वाक्य से निष्कपट भाव से भरसक प्रयत्न किए हैं। प्रभुपाद द्वारा प्रतिष्ठित समस्त मठमन्दिरों में एवं भारत के विभिन्न स्थानों पर उनके मनोऽभीष्ट के प्रचार के उद्देश्य से श्रीधाम मायापुर, कोलकाता, ढाका, पटना, प्रयाग, कुरुक्षेत्र आदि स्थानों पर सतृशिक्षा प्रदर्शनी का उन्मोचन कर श्रीमन्महाप्रभु द्वारा आचरित एवं प्रचारित सत्शिक्षा के विस्तार का कार्य, भक्तिग्रन्थों एवं सामयिक पत्रिका आदि का प्रचार, श्रीगौड़मण्डल, श्रीक्षेत्रमण्डल एवं श्रीब्रजमण्डल के समस्त सेवा कार्यों में श्रीपाद गिरि महाराज की सेवा-प्रचेष्टा निश्चित रूप से उल्लेखनीय है।

श्रील प्रभुपाद के मिशन के प्रेरक- शक्ति स्वरूप

श्रील प्रभुपाद के प्रकट काल में ब्रह्मदेश (बर्मा) में रङ्गून गौड़ीय मठ की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में श्रीमद् गिरि महाराज ही प्रधान उद्यमकर्त्ता थे तथा परवर्ती काल में उनके अथक परिश्रम एवं प्रयत्नों से ही वहाँ पर श्रीविग्रह-प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।

श्रील प्रभुपाद द्वारा प्रतिष्ठित लखनऊ स्थित श्रीगौड़ीय मठ के कार्यालय को स्थायी मठ में परिवर्तित करने के लिए श्रील महाराज ने ही १९३८ ई० में वहाँ पर एक विशाल दो तल वाला घर किराए पर लेकर श्रीविग्रहों का संग्रह किया था।

हरिद्वार स्थित श्रीसारस्वत गौड़ीय मठ की भूमि संग्रह एवं वहाँ पर सेवक निवास के निर्माण कार्य में प्रधान कार्यकर्ता श्रील महाराज ही थे। नैमिषारण्य में श्रीपरमहंस मठ के सेवा कार्य में भी उन्होंने प्राण देकर परिश्रम किया था।

उनका विशेष योगदान

उत्तरप्रदेश के तत्कालीन सिंचाई विभाग के सुपरिटेण्डेन्ट इन्जीनियर रायबहादुर श्रीमदनगोपाल सरदाना महोदय ने उनकी मुखनिःसृत हरिकथा को श्रवण कर आकृष्ट हो कर ही श्रील प्रभुपाद के चरणों का आश्रय ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त किया था। इसके अतिरिक्त जिला एवं सेशन जज लखनऊ निवासी रायबहादुर श्री जे. एन. राय सहित उत्तरप्रदेश के अनेक विशिष्ट व्यक्तियों को उन्होंने श्रीश्रीगुरुगौराङ्ग की वाणी श्रवण कराकर उनके द्वारा श्रीमठ की प्रचुर सेवा करवाई थी।

उनका चरम उत्साह एवं सत्यनिष्ठा परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद के अप्रकट लीला प्रकाश करने के उपरान्त उनके द्वारा प्रतिष्ठित मठमन्दिर आदि की सेवा- परिचालना के लिए १० जनवरी १९३७ को बागबाजार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में श्रील प्रभुपाद के विशिष्ट शिष्यगणों ने सम्मिलित होकर जिस गवर्निग बॉडी का गठन किया था, परवर्ती काल मं् श्रील गिरि महाराज ने उस बॉडी के अन्यतम सदस्य के रूप में साहसिकता एवं सत्यनिष्ठापूर्वक श्रीमठ की प्रचुर सेवा की।

श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ से उनका सम्बन्ध

श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के अध्यक्ष पूज्यपाद माधव महाराज के साथ श्रील महाराज का अकृत्रिम सौहार्द था। श्रील महाराज श्रील माधव महाराज के द्वारा संस्थापित श्रीधाम मायापुर में ईशोद्यानस्थ श्रीगौड़ीय संस्कृत विद्यापीठ की कार्यकारी समिति के एक प्रधान सदस्य थे उनको श्रीगीर जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष श्रीधाम मायापुर में श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में आयोजित श्रीचैतन्य- वाणी प्रचारिणी सभा के सभापति के पद पर भी मनोनीत किया जाता था।

उनकी अन्तिम प्रार्थना

श्रीमद्भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज मठवासियों तथा वैष्णवगणों के श्रीमुख से श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ एवं महामन्त्र कीर्तन श्रवण करते हुए श्रीव्रजरज को प्राप्त हुए। अप्रकट लीला प्रकाश के अन्तिम मुहूर्त्त तक भी श्रील महाराज की चेतना लुप्त नहीं हुई थी। उन्होंने उस दिन प्रातःकाल के समय अत्यन्त कातरतापूर्वक “हे प्रभुपाद ! मेरी रक्षा कीजिए, मुझ पर कृपा कीजिए। हमारे समस्त अपराधों को क्षमा कर अपने श्रीचरणों में स्थान प्रदान कीजिए” इत्यादि कहते-कहते श्रीगुरुपादपद्म का स्मरण करते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर क्रन्दन किया था।

श्रील माधव महाराज की उनके प्रति चिन्ता

श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज के निकट उनके अस्वस्थ लीला का प्रथम संवाद पहुँचते ही उन्होंने श्रीधाम वृन्दावन स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के सेवकवृन्द को तार के द्वारा एवं पत्र आदि के माध्यम से श्रील महाराज की सेवा परिचर्या एवं चिकित्सा की सुष्ठु व्यवस्था करने के लिए विशेष रूप से निर्देश दिया। भक्त निताई दास ने दिवा-रात्रि उनके निकट उपस्थित रहकर प्रसन्न मुख से समस्त सेवाएँ की । श्रील महाराज ने उनकी निष्कपट सेवा से सन्तुष्ट होकर उनको प्रचुर आशीर्वाद प्रदान किया था।

उनकी अनुपस्थिति का प्रभाव

श्रील महाराज के समान एक शुद्ध भक्त वैष्णव के सङ्ग का अभाव सभी के हृदय को अत्यन्त वेदना में निमज्जित कर देता है। श्रील महाराज इस जगत् में अधिक समय तक उपस्थित नहीं रहेंगे सम्भवतः यह अपनी दिव्य अनुभूति के बल से वह पहले ही जान गए थे, इसी कारण उन्होंने अपने संन्यासी शिष्यों के उपस्थित रहते हुए भी अपने द्वारा प्रतिष्ठित श्रीधाम वृन्दावन में कालियदह मोहल्ले में अवस्थित श्रीविनोद वाणी गौड़ीय मठ का समस्त सेवाभार अपने हृदय की प्रेरणा के अनुरूप श्रीपाद माधव महाराज को अर्पण कर दिया था।

सर्वोपरि दुःख

श्रीमन्महाप्रभु ने निज पार्षद प्रवर श्रीराय रामानन्द प्रभु से यह प्रश्न किया था- ” समस्त दुःखों में कौन-सा दुःख सर्वोपरि है?” श्रीराय रामानन्द ने उसके उत्तर में कहा था- “कृष्णभक्त के विरह से बड़ा कोई दुःख नहीं है।” चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि अत्यन्त दुर्लभ है, यह मनुष्य जन्म क्षणभङ्गुर होने पर भी भगवद्भजन के लिए विशेष अनुकूल है। स्वर्ग के देवतागण भी वैकुण्ठ के प्राङ्गण-स्वरूप इस भारतभूमि पर परमार्थ प्रदानकर्ता इस सुदुर्लभ मनुष्य जन्म की प्राप्ति की प्रचुर प्रशंसा करते हैं। परन्तु “तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्।” देहधारी जीवगणों के मध्य क्षणभङ्गुर मनुष्य देह की प्राप्ति दुर्लभ होने पर भी श्रीभगवान् के प्रिय भक्तों का दर्शन प्राप्त करना उससे भी अधिक दुर्लभ है। अतएव सद्गुरु के चरणाश्रित श्रीहरि- गुरु-वैष्णव सेवा में अत्यधिक आविष्टतापूर्वक रत भजन परायण शुद्ध भक्त के सङ्ग से च्युत होने के समान अन्य महादुःख क्या हो सकता है?

“काहार निकट गेले पाप दूरे जाए।
एमन दयाल प्रभु केबा कोथा पाय ॥”

[ ऐसे करुणा के विग्रह वैष्णवजन कहाँ मिलेंगे जिनके समीप जाने मात्र से ही जीव के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ? ]

उनका एकमात्र लक्ष्य

जिनकी मुख- निःसृत वाणी को श्रवण कर सैकड़ों जीव भवबन्धन से मुक्त होकर निःश्रेयस पथ पर अग्रसर हुए, जिनके शुद्धभक्तियुक्त पावन चरित्र, कृष्ण एवं कृष्ण- भक्तों के प्रति अकृत्रिम अनुराग, स्निग्ध- सौम्य विग्रह का दर्शन, श्रवण एवं स्मरण करने से हृदय पवित्र हो जाता था, काय- मन-प्राण में भगवद्भजन की लालसा जागृत हो उठती थी, श्रीश्रीगुरुपादपद्म ने जिनको अत्यन्त करुणापूर्वक ‘भक्ति- सर्वस्व’ नाम प्रदान किया था एवं जिन्होंने अपने प्रकट काल के अन्तिम मुहूर्त्त तक उस नाम की सार्थकता का निर्वाह करते हुए परमपवित्र निष्कलङ्क भजनादर्श-युक्त जीवन यापन किया, ऐसे ही ‘कृष्णप्रिय दर्शन’ अर्थात् श्रीकृष्ण के प्रियतम, श्रीगुरुपादपद्म के प्रियतम, उनका मनोऽभीष्ट पूर्ण करने वाले भक्तप्रवर के अदर्शन से उत्पन्न वेदना आज निश्चित रूप से हमारे हृदय के अंतःस्थल को स्पर्श कर रही है।

अत्यन्त हर्ष एवं गौरव का विषय

इस महादुःख के बीच हमारे परम सुख एवं गौरव का विषय यह है कि आज उन्होंने साक्षात् श्रीवृन्दावन धाम में सम्बन्ध के साक्षात् अधिठात्री देवता श्रीसनातन एवं उनसे अभिन्न, श्रीवार्षभानवी दयित- दास के नाम से आत्मपरिचय प्रदान करने वाले, श्रीराधाजी की नयनमणि, श्रीगुरुपादपद्म के प्राणकोटि सर्वस्व श्रीराधामदनमोहन के श्रीचरणों के सान्निध्य में चिरकाल के लिए आश्रय प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार का सौभाग्य कदापि साधारण सुकृति का परिचायक नहीं है।

“जत देख वैष्णवेर व्यवहार दुःख ।
निश्चय जानिह सेई परानन्द सुख ।
” श्रीचैतन्यभागवत (मध्य खण्ड ९.२४० )

[ अर्थात् वैष्णव के जीवन में दिखाई देने वाले व्यवहारिक दुःखों को भी निश्चित रूप से परानन्द सुख के रूप में ही जानना चाहिये। ]

‘श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ वृन्दावन में श्रीश्रीराधा मदनमोहन मन्दिर से लगभग २०० मीटर दूर दक्षिण दिशा में उसी मार्ग पर स्थित है।

इस महाजन वाक्य में कथित महान् आदर्श श्रील महाराज के अस्वस्थ अभिनय आदि के प्रसङ्ग में लक्ष्य करने का विषय है।

श्रीगुरु सेवा ही उनके प्राण-स्वरूप

पूज्यपाद महाराज भिक्षा में प्राप्त अर्थ आदि में से एक अंश भी निज-इन्द्रिय-तर्पण में नियुक्त न कर सर्वस्व मठ मन्दिर आदि में श्रीहरि गुरु- वैष्णव की सेवा में समर्पण करते हुए उनके ‘भक्ति – सर्वस्व’ नाम की सार्थकता स्थापित कर गए हैं। इस प्रकार कृष्ण एवं कृष्ण-भक्तों की सेवा ही जिनके प्राण हैं, परमभागवत बान्धव को खो देने के पश्चात् कौन ऐसा पाषाण हृदय होगा जो द्रवीभूत नहीं हो जाएगा? परमाराध्यतम श्रील प्रभुपाद के मनोऽभीष्ट की सेवा ही जिनके प्राण-स्वरूप थे, उन्हीं परमकरुणामय श्रील प्रभुपाद ने अपने प्रियतम निजजन को श्रीवार्षभानवी दयित श्रीमदनमोहन के श्रीचरणों का नित्यदासानुदासत्व प्रदान कर उनके श्रीचरणों की नित्यसेवा का अधिकार प्रदान किया है। श्रीश्रीमदनमोहन ने उनके सेवक गोस्वामी के हृदय में एवं उसके साथ श्रीवृन्दावन के सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी महोदय के हृदय में भी अनुकूल प्रेरणा प्रदान पूर्वक उनके निजजन को उनके चरणों के सान्निध्य में चिर वासस्थान प्रदान कर नित्य सेवा अधिकार प्रदान किया है। भक्तवत्सल भगवान् का ऐसा भक्तवात्सल्य धन्य है।

एक सर्वव्यापी सत्य

श्रीनन्द महाराज पुत्र के जन्म के उपरान्त मथुरा मण्डल के अधिपति कंस को सन्तुष्ट रखने के उद्देश्य से वार्षिक कर प्रदान करने के लिए मथुरा गए थे। उस समय कर आदि प्रदान करने के पश्चात् परम प्रिय बान्धव श्रीवसुदेव के साथ भेंट करने पर श्रीवसुदेव ने कथावार्त्ता के समय निज बन्धुवर श्रीनन्द महाराज से यह कहा था-

“नैकत्र प्रियसंवासः सुहृदां चित्रकर्मणाम् ।
ओघेन व्यूह्यमानानां प्लवानां खोतसो यथा ॥
* श्रीमद्भागवतम् (१०.५.२५)

[जैसे नदी के प्रबल प्रवाह में बहते हुए तिनके, काष्ठ आदि सदा एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही इस संसार प्रवाह में विचित्र प्रारब्धकर्म-युक्त सगे सम्बन्धियों का प्रियजनों के साथ सब समय एक स्थान पर रहना सम्भव नहीं है ।]

उसी प्रकार हमारे लिए भी अब उनके साथ रह पाना सम्भवपर नहीं है।

“कृपा करि कृष्ण मोरे दियाछिला संग ।
स्वतन्त्र कृष्णेर इच्छा, कैला संग भंग ॥”
चै०च० (अन्त्य – लीला ११.९४ )

[भगवान् श्रीकृष्ण ने कृपापूर्वक मुझे उनका सङ्ग प्रदान किया था। श्रीकृष्ण ने निज स्वतन्त्र इच्छा से अब वह संग भंग करा दिया है ।]

हृदय विदारक अवस्था

दैन्यता की प्रतिमूर्ति श्रील महाराज की सरलतापूर्ण मन्द हास्य से युक्त मुखछवि स्मृति पटल पर उपस्थित होकर आज हृदय को अत्यन्त शोकविहल कर रही है। उनके मठ जीवन के आरम्भ से अन्त तक की समस्त स्मृतियाँ पहले प्रसन्नतावश हृदय को द्रवीभूत कराकर अन्ततः दुःख के सागर में निमज्जित कर रही हैं। अप्रकट लीला प्रकाश करने के कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने अपने किसी एक प्रिय बान्धव (श्रीमद्भक्ति प्रमोद पुरी महाराज) को स्वप्न में स्वस्थ शरीर से दर्शन देकर हृदय में कितनी ही आशाओं का सञ्चार कराया था, किन्तु हाय! समस्त आशाएँ ही नष्ट हो गईं! इस जन्म में पुनः उनका दर्शन प्राप्त नहीं होगा, यह अत्यन्त ही हृदयविदारक है।

हमारा अविच्छेद्य सम्बन्ध

श्रीगुरुपादपद्म जिस प्रकार हमारे जन्म- जन्मान्तर के नित्य जीवन के ही प्रभु हैं, उनके प्रति समर्पितात्मा, उनके निजजन भी उसी प्रकार हमारे लिए जन्म-जन्मान्तर के बान्धव हैं, उनके साथ हमारा नित्यजीवन का नित्य, अविच्छेद्य सम्बन्ध सुनिश्चित है। गुरु-अवज्ञा रूप महत् अपराध के फल से चित्त वज्र के समान कठोर हो जाता है तथा इस सम्बन्ध – ज्ञान से विच्युत होकर जीव माया का दास हो जाता है तथा संसार की वासना की श्रृंखला में आबद्ध हो जाता है।

उनके श्रीचरणों में कातर प्रार्थना पूज्यपाद गिरि महाराज श्रीव्रजधाम में मूल विषय-विग्रह श्रीगिरिराज गोवर्धन के चरणों में उनके श्रीगुरुपादपद्म के के लिए आश्रय-विग्रह – शिरोमणि आनुगत्य में चिरकाल प्राप्तकर हमें भी उसी व्रज के पथ का पथिक होने की यही आज उनके योग्यता प्रदान करें, चरणों में सकरुण निवेदन करता हूँ । वैष्णवों ” वैष्णवेर कृपा जाहे हय सर्वसिद्धि – की कृपा से ही सर्वार्थ सिद्धि सम्भवपर होती है” ।