सातवाँ परिच्छेद
जय जय गदाइ गौरांग नित्यानन्द ।
जय सीतापति जय गौरभक्तवृन्द ।।
हरिदास बले प्रभु चतुर्थापराध ।
श्रुतिशास्त्रविनिन्दन भक्तिरसबाध ।।
श्रीगदाधर पंडित जी, श्रीगौराङ्ग. महाप्रभु जी, श्रीमती जाहवा देवी के प्राण – स्वरूप – श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की जय हो। श्रीसीतापति अद्वैताचार्य जी एवं श्रीवास जी आदि भक्तों की जय हो।
श्रीहरिदास ठाकुर जी “श्रुति शास्त्रों की निन्दा” नामक चौथे अपराध के बारे में कहते हैं कि श्रुति शास्त्रों की निन्दा करने से भक्तिरस में बाधा उत्पन्न होती है।
वेद ही एकमात्र प्रमाण है
श्रुतिशास्त्र वेद उपनिषत् पुराण ।
कृष्णनिश्वसित हय सर्वत्र प्रमाण ।।
विशेषतः अप्राकृततत्त्वे ज्ञान यत।
सकलि आम्नायसिद्ध, ताहे हइ रत ।।
जड़ातीत वस्तु इन्द्रियेर अगोचर।
कृष्णकृपा बिना ताहा ना हय गोचर ।।
करणापाटव, भ्रम, विप्रलिप्सा आर।
प्रमाद, सर्वत्र नरज्ञाने (दोष) एइ चार ।।
सेइ सब दोषशून्य वेदचतुष्टय।
वेद बिना परमार्थ गति नाहि हय ।।
मायाबद्ध जीवे कृष्ण बहु कृपा करि’।
वेदपुराणादि दिल आर्षज्ञान धरि’ ।।
श्रुति – शास्त्र, वेद, उपनिषद्, पुराण- ये सब श्रीकृष्ण के श्वास से उत्पन्न हुये हैं और यह भगवद् तत्त्व निर्णय में प्रामाणिक हैं। विशेष रूप से अप्राकृत – तत्त्व (भगवद् – तत्त्व) का जितना भी ज्ञान है, सब वेद – सिद्ध है। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मैं तो हमेशा इसी में रमा रहता हूँ। जड़ातीत वस्तु जड़ – इन्द्रियों से दिखाई नहीं दे सकती। श्रीकृष्ण कृपा के बिना कोई भी उस तत्त्व को नहीं जान सकता। जन्म से ही मनुष्य में करणापाटव, भ्रम, विप्रलिप्सा तथा प्रमाद नामक चार प्रकार के दोष होते हैं। इन दोषों के कारण मनुष्य अप्राकृत – ज्ञान को नहीं जान पाता जबकि चारों वेद इन दोषों से रहित हैं। अतः वेद के बिना परमार्थ मार्ग में कोई गति नहीं है। माया में फंसे जीवों पर अति कृपा करते हुये भगवान श्रीकृष्ण ने वेद-पुराण आदि का ज्ञान प्रदान किया, जिसे ऋषि-मुनियों ने समाधि लगाकर अनुभव किया एवं उसे लिपिबद्ध किया।
वेदों में से मुख्य दस मूल शिक्षा और नौ प्रमेय
सेइ श्रुतिशास्त्रे जानि – कर्मज्ञान छार।
निर्मल – भक्तिते मात्र पाइ सर्वसार ।।
मायामूढ़ – जीवे कर्मज्ञाने शुद्ध करि’।
शुद्ध भक्ति अधिकार शिरवाइला हरि ।।
प्रमाण से वेदवाक्य, नयटी प्रमेय।
शिवाय सम्बन्ध, प्रयोजन, अभिधेय ।।
एइ दशमूल सार – अविद्या – विनाश।
करिया जीवेर करे सुविद्या प्रकाश ।।
1) हरि एक परत्तत्त्व,
2) तिनि सर्वशक्तिमान,
3) तिनि रसमूर्ति
प्रथमे शिखाय – परतत्त्व एक हरि।
श्याम, सर्वशक्तिमान्, रसमूर्त्तिधारी ।।
जीवेर परमानन्द करेन विधान।
संव्योम धामेते ता’र नित्य अधिष्ठान ।।
ए तिन प्रमेय हय श्रीकृष्णविषये।
वेदशास्त्र शिक्षा देन जीवेर हृदये ।।
श्रुति – शास्त्रों के माध्यम से हम यह जानते हैं कि कर्म और ज्ञान जीव के वास्तविक उद्देश्य को पूरा नहीं करते, केवल मात्र निर्मल भक्ति ही जीव को उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य प्रदान करती है। माया से मोहित जीव कर्म तथा तुच्छ ज्ञान के चक्कर में उलझे रहते हैं। भगवान श्रीहरि ने कृपा करके जीवों को कर्म और ज्ञान से ऊपर उठाकर शुद्ध भक्ति का अधिकार दिया एवं उसकी शिक्षा प्रदान की क्योंकि शुद्ध भक्ति से ही श्रीकृष्ण – प्रेम की प्राप्ति होती है। भगवान कहते हैं कि वेद तथा नौ प्रमेय इसके प्रमाण हैं। वेद, जीव को सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन तत्त्व की ही शिक्षा देते हैं। यह दस मूल शिक्षा* ही तमाम उपदेशों का सार है। इस दशमूल शिक्षा से अविद्या का विनाश होता है तथा ये दशमूल शिक्षा जीव के हृदय में सुविद्या (आध्यात्मिक विद्या) का प्रकाश करती है।
जीव-तत्त्व
द्वितीये शिवाय विभिन्नांश जीवत्तत्त्व।
अनन्त – संख्यक चित् परमाणुसत्त्व ।।
जीव तत्त्व के सम्बन्ध में अगली शिक्षा यह है कि जीव भगवान की शक्ति के विभिन्न अंश हैं तथा संख्या में अनन्त हैं। यह जीव कोई जड़ीय वस्तु नहीं है बल्कि ये जीव तो चेतन का एक परमाणु – कण है।
नित्यबद्ध तथा नित्यमुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के होते हैं
नित्यबद्ध नित्य – (मुक्त) भेदे जीव द्विप्रकार।
संव्योम ब्रह्माण्ड भरि’ संस्थिति ताहार ।।
बद्धजीव माया भजि’ कृष्णबहिर्मुख ।
अनन्तब्रह्माण्डे भोग करे दुःखसुख ।।
नित्यमुक्त कृष्ण भजि’ कृष्णपारिषद ।
परव्योमे भोग करे प्रेमेर सम्पद ।।
तिनटी प्रमेय एइ जीवेर विषये ।
श्रुतिशास्त्र शिक्षा देन कृष्णदासी ह’ये ।।
नित्य – बद्ध तथा नित्य – मुक्त के भेद से जीव दो प्रकार के होते हैं। इस पूरे ब्रह्माण्ड में जहाँ – तहाँ जीव भरे पड़े हैं। श्रीकृष्ण के विमुख मायाबद्ध – जीव अनन्त ब्रह्माण्ड़ों में दुःख-सुःख का भोग करते रहते हैं, जबकि नित्य – मुक्त जीव वैकुण्ठ में श्रीकृष्ण का भजन करते हुये श्रीकृष्ण के पार्षद के रूप में भगवद् – प्रेम सम्पदा का रसास्वादन करते हैं। जीवों के विषय में श्रुति शास्त्र इन तीन प्रमेयों को श्रीकृष्ण की दासी के रूप में शिक्षा प्रदान करते हैं।
अचिन्तय भेदाभेद सम्बन्ध
चिद्व्यापार आर यत जड़ेर व्यापार।
सकलि अचिन्त्य भेदाभेदेर प्रकार ।।
जीव, बड़ – सर्ववस्तु कृष्णशक्तिमय ।
अविचिन्त्य – भेदाभेद श्रुतिशास्त्रे कय ।।
एइ ज्ञाने जीव जाने – ‘आमि कृष्णदास।
कृष्ण मोर नित्य प्रभु, चित्सूर्य – प्रकाश ।।
शक्तिपरिणाम मात्र वेदशास्त्रे बले।
विवर्त्तादि दुष्टमते वेदनिन्दे छले ।।
श्रुति – शास्त्र कहते हैं कि चिद् तथा अचित् जगत अर्थात् जीव तथा तमाम जड़ वस्तुएँ श्रीकृष्ण की शक्ति से उत्पन्न हुई हैं व ये सभी श्रीकृष्णशक्तिमय हैं। इन सभी का श्रीकृष्ण से अचिन्त्य भेदाभेद सम्बन्ध है। अचिन्त्य भेदाभेद ज्ञान के द्वारा ही जीव को यह मालूम पड़ता है कि वह श्रीकृष्ण का नित्य-दास है तथा श्रीकृष्ण ही उसके अपने नित्य-प्रभु हैं और वह श्रीकृष्ण रूपी चिन्मय सूर्य की किरणों का एक छोटा सा परमाणु मात्र है। शक्ति – परिणामवाद ही वेद शास्त्रों का मत है। विवर्तवाद अर्थात् एक वस्तु में दूसरी वस्तु का भ्रम होने का नाम विवर्त्त है जोकि नितान्त वेद – विरुद्ध है।
सम्बन्ध-ज्ञान
एइ त’ सम्बन्ध- ज्ञान सातटी प्रमेय ।
श्रुतिशास्त्र शिक्षा देन अति उपादेय ।।
वेद पुनः शिक्षा देन अभिधेयसार।
नवविध कृष्णभक्ति विधि, राग आर ।।
यहाँ तक जिन सात प्रमेयों को बताया गया है, सभी सम्बन्ध ज्ञान से सम्बन्धित हैं। सभी श्रुति शास्त्र इनके बारे में अति कल्याणकारी उपदेश प्रदान करते हैं। सम्बन्ध – ज्ञान के बाद वेद अभिधेय ज्ञान की शिक्षा देते हैं, जो कि विधि मार्ग की चिन्मय नवधा कृष्ण भक्ति तथा रागानुगा – भक्ति है।
अभिधेय-नवधा भक्ति
श्रवण, कीर्त्तन, स्मृति, पूजन, वन्दन।
परिचर्या, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन ।।
भक्तिर प्रकारमध्ये नाम सर्वसार।
प्रणवमाहात्म्य वेद करेन प्रचार ।।
श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजन, वंदन, पादसेवन्, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन् इस नवधा भक्ति में श्रीनाम संकीर्तन ही सर्वशिरोमणि है। वेदों में भी भगवान के नाम प्रणव (ॐ) की विशेष महिमा गाई गई है।
प्रयोजन-कृष्ण प्रेम
शुद्ध भक्ति – समाश्रय करिया मानव।
कृष्णकृपाबले पाय प्रेमेर वैभव ।।
मानव शुद्ध – भक्ति का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण कृपा के प्रभाव से भगवद् – प्रेम प्राप्त करता है।
इस प्रकार की शिक्षा देने वाले श्रुति-शास्त्रों की निन्दा करना अपराध है
ए नव प्रमेय श्रुति करेन प्रमाण।
श्रुतितत्त्वाभिज्ञ गुरु करेन सन्धान ।।
ए हेन श्रुतिरे येइ करे विनिन्दन।
नाम – अपराधी सेइ नराधम जन ।।
यह नौ प्रमेय वेदों में वर्णित होने के कारण यह ज्ञान पूर्ण रूप से प्रामाणिक हैं। सद्गुरु इन नौ प्रमेयों को भली भांति समझते हैं तथा अपने शिष्यों को समझाते हैं। इस प्रकार के श्रुति शास्त्रों की जो निन्दा करता है वह जीव नामापराधी तथा नराधम (अधम जीव) है।
वेद विरुद्ध वाद
जैमिनि, कपिल, नग्न, नास्तिक, सुगत।
गौतम – ए छयजन हेतुवादे हत ।।
वेद माने मुखे, तबु ईश नाहि माने।
कर्मकाण्ड श्रेष्ठ बलि’ जैमिनि बारखाने ।।
ईश्वर असिद्ध, कपिलेर कल्पनाय।
तबु योग माने, अर्थ बुझा नाहि याय ।।
नग्न से तामसतन्त्र करय विस्तार।
वेदेर विरुद्ध धर्म करये प्रचार ।।
नास्तिक चार्वाक, कभु वेद नाहि माने।
सुगत बौद्धेरा एक प्रकार बारखाने ।।
गौतम न्यायेर कर्त्ता ईश्वर ना भजे।
तार हेतु वादमते नरमात्र मजे ।।
जैमिनी, कपिल, नग्न, नास्तिक, सुगत तथा गौतम ये छः व्यक्ति हेतुवाद से ग्रस्त हैं। जैमिनी, मुख से वेदों को तो मानते हैं परन्तु ईश्वर को नहीं मानते। उनका कहना है कि कर्मकाण्ड ही श्रेष्ठ है। कपिल की कल्पना में ईश्वर असिद्ध है, काल्पनिक है परन्तु फिर भी उन्होंने जिस योगमार्ग की शिक्षा दी है, उसका तात्पर्य क्या है, समझ में ही नहीं आता। नग्न ने तामस – तन्त्र का विस्तार करके वेद – विरुद्ध धर्म का प्रचार किया। नास्तिक चार्वाक तो कभी भी वेद को नहीं मानते। सुगत जो बौद्धधर्म का पालन करते हैं, वे अलग ही तरह की व्याख्या करते हैं। न्याय दर्शन के रचयिता गौतम, भगवान को नहीं मानते। इनके हेतुवाद में मनुष्य उलझे हुये हैं।
इन सब मतवादों से श्रुति-निन्दा होती हैं
एइ सब दुष्टमते श्रुतिर निन्दन।
कभु स्पष्ट, कभु गुप्त, बुझे विज्ञजन ।।
एइ सब मते थाकि’ अपराधी हय।
अतएव एइ सबे त्यजिवे निश्चय ।।
विद्वान भगवद् – जन जानते हैं कि इन सब दुष्ट मतवादों के द्वारा कभी स्पष्ट रूप से तो कभी अस्पष्ट रूप से श्रुति शास्त्रों की निन्दा होती रही है। इन सब मतों में पड़ने से अपराध निश्चित है, इसलिए दृढ़ता के साथ इन मतवादों से दूर रहना चाहिए।
मायावाद अति ही दुष्ट एवं वेद-विरुद्ध मत
ए सब कुमत छाड़ि’ आर मायावाद।
शुद्ध भक्ति अनुभवि’ हय निर्विवाद ।।
मायावाद असत्शास्त्र गुप्त – बौद्धमत ।
वेदार्थविकृति कलिकालेते सम्मत ।।
उमापति ब्राह्मणरूपेते प्रकाशिल ।
ऊपर लिखे मतवादों को तथा मायावाद को छोड़ने से ही मानव निर्विवाद रूप से शुद्ध भक्ति रस का आस्वादन कर सकता है। मायावाद असत् – शास्त्र है और यह एक तरह का गुप्त बौद्ध मत ही है। इसमें वेदों के अर्थ की विकृति की गई है परन्तु यह कलिकाल में प्रसिद्ध है।
उमापति ब्राह्मण रूपे ते प्रकाशिल
तोमार आज्ञाय तँह आचार्य हइल ।।
जैमिनि येरूप मुखे वेद मात्र माने।
श्रुतिर विकृत अर्थ जगते बारखाने ।।
मायावादी गुरु सेइरूप बौद्ध धर्म।
वेदवाक्ये स्थापि आच्छादिल भक्त्तिमर्म ।।
एइ सब मतवादे भक्ति दूरे याय।
श्रीकृष्णनामेते जीव अपराध पाय ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी श्रीमन् महाप्रभु जी से कहते हैं- हे प्रभु! आपकी आज्ञा से ही उमापति महादेव जी ने ब्राह्मण रूप में आकर इस मायावाद को प्रकाशित किया तथा मायावाद के आचार्य बने। जैमिनी ने जिस प्रकार सिर्फ मुख से वेद को मानते हुये श्रुति शास्त्र के परिवर्तित अर्थों की व्याख्या की थी, उसी प्रकार मायावादी गुरुओं ने प्रच्छन्न (ढके हुए) बौद्ध धर्म को वेदवाक्यों के द्वारा स्थापित करके भगवद् – भक्ति के असली मर्म को ही ढक दिया। इन सब मतवादों को स्वीकार करने से जीव भगवान की भक्ति से दूर हो जाता है तथा उसका श्रीकृष्ण नाम के प्रति अपराध हो जाता है।
वेदों के विचारानुसार शुद्ध प्रक्रिया
श्रुतिर अभिधा – वृत्ति करि’ संयोजन।
शुद्ध भक्ति लभि’ जीव पाय प्रेमधन ।।
श्रुतिते लक्षणा करे अयथा प्रकारे ।
नित्य सत्य दूरे याय, अपराधे मरे ।।
सर्ववेदसम्मत प्रणव कृष्णनाम ।
सेइ नामे जीव सब पाय नित्यधाम ।।
प्रणव से महावाक्य हय कृष्णनाम।
ताहातेइ श्रीभक्तेर सतत विश्राम ।।
वेद बले, नाम – चित्स्वरूप जगते।
नामेर आभासे सिद्ध हय सर्वमते ।।
वेदों की अभिधावृति (अर्थात् मुख्य अर्थ) को ग्रहण करने से जीव को शुद्ध – भक्ति की प्राप्ति होती है जिससे वह श्रीकृष्ण – प्रेम रूपी धन से ध नी हो जाता है किन्तु वेद वाक्यों में अनुचित रूप से लक्षणावृति (घुमा फिरा कर किया हुआ अर्थ) का प्रयोग करने से नित्य- सत्य से जीव दूर रहता है और अपराध में ही फंसता चला जाता है। प्रणव (ॐ) अर्थात् श्रीकृष्ण नाम सभी वेदों द्वारा सम्मत है अर्थात् सभी वेदों की राय है कि महावाक्य प्रणव (ॐ) ही श्रीकृष्णनाम है। उस श्रीकृष्ण नाम को करने से भक्तजन आनन्दमय वैकुण्ठ- गोलोकधाम को प्राप्त करते हैं। वेदों में कहते हैं कि इस जगत् में भगवान का नाम ही चिद्रस्वरूप है, जिसके आभास मात्र से सब प्रकार की सिद्धि हो जाती है।
वेद केवल शुद्ध-नाम-भजन की ही शिक्षा देते हैं
एइ सब वेदशिक्षा अभागा ना माने।
नामे अपराध करे, वेदेर निन्दने ।।
शुद्ध नामपरायण येइ महाजन ।
वेदाश्रये पाय नाम-रस प्रेमधन ।।
सर्ववेद बले, – “गाओ हरिनामसार।
पाइबे परमा प्रीति आनन्द अपार ।।
वेद पुनः बले- “यत मुक्त महाजन ।
परव्योमे सदा करे नामसंकीर्त्तन ।।
दुर्भाग्यशाली व्यक्ति ही वेद की इन शिक्षाओं को न मान कर, वेद की निन्दा करते हुये नामापराध करते हैं किन्तु जो शुद्ध नाम-परायण भगवद् – भक्त लोग हैं, वे वेदों का आश्रय लेकर नाम-रस रूपी प्रेमधन को प्राप्त करते हैं। सभी वेद कहते हैं कि श्रीहरिनाम ही सार है, उसका कीर्तन करो। ऐसा करने से आपकी भगवान में प्रगाढ़ प्रीति होगी तथा तुम्हें असीम आनन्द का अनुभव होगा। यही नहीं, वेद और भी कहते हैं कि जितने भी संसार से मुक्त महाजन हैं, वे वैकुण्ठ धाम में सदासर्वदा श्रीहरिनाम संकीर्तन करते रहते हैं।
तामस-तन्त्रों की शिक्षा वेद विरुद्ध है
कलियुगे महाजन मायाशक्ति भजे।
चिदात्मा – पुरुष – कृष्णनामरस त्यजे ।।
तामसिक तन्त्र धरि’ श्रुतिनिन्दा करे।
मद्यमांसे प्रीति करि’ अधर्मते मरे ।।
से सब निन्दुक नाहि पाय कृष्णनाम ।
कभु नाहि पाय कृष्णेर वृन्दावनधाम ।।
कलियुग के तथाकथित महाजन लोग चिन्मय पुरुष – श्रीकृष्ण के नाम-रस को त्याग कर माया शक्ति का भजन करते हैं। वे तामसिक – तन्त्रों को प्रामाणिक मानकर वेदों की निन्दा करते हैं। वे शराब व मांस का सेवन करते हुये अधर्म का आचरण करते हैं। इस प्रकार के निन्दक, श्रीकृष्ण नाम को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते और न ही कभी उन्हें श्रीकृष्ण के श्रीवृन्दावन धाम की प्राप्ति होती है।
मायादेवी की निष्कपट कृपा ही हमारा प्रयोजन है
मायावादी से-सब पाषण्डे अधोगति।
दिया नामामृते आर नाहि देन मति ।।
तबे यदि साधुसेवाय तुष्ट हन माया।
अकपटे देन तबे कृष्णपदछाया ।।
माया कृष्णदासी, बहिर्मुख जीवे दण्डे।
माया पूजिलेओ शुभ नाहि पाय भण्डे ।।
कृष्णनाम करे येइ, मायावादी तारे।
निष्कपटे कृपा करि लय भवपारे ।।
अतएव श्रुतिनिन्दा अपराध त्यजि।’
अहरहः नामसंकीर्त्तनरसे मजि ।।
इस प्रकार पाखंड आचरण करने वाले व्यक्ति को मायादेवी अधोगति प्रदान करती है एवं भगवद् नाम में उनकी मति नहीं होने देती किन्तु यदि साधक की साधु – सेवा की निष्कपट भावना द्वारा मायादेवी अर्थात् दुर्गादेवी प्रसन्न हो जाती हैं तो वे भी निष्कपट भाव से उसको श्रीकृष्ण के पाद – पद्मों की छाया प्रदान करती हैं। मायादेवी श्रीकृष्ण की दासी हैं। वह श्रीकृष्ण से विमुख जीवों को दण्ड देती हैं। मायादेवी अपनी पूजा से इतना प्रसन्न नहीं होतीं जितना श्रीकृष्ण की पूजा से प्रसन्न होती हैं। जो श्रीकृष्ण का नाम उच्चारण करते हैं, मायादेवी उन पर निष्कपट कृपा करते हुये उन्हें भवसागर से पारा ले जाती हैं। अतः श्रुति – शास्त्र की निन्दारूपी अपराध को छोड़कर श्रीनाम संकीर्तन रस में मग्न रहना चाहिए।
इस अपराध से मुक्त होने का उपाय
प्रमादे यद्यपि हय से श्रुतिनिन्दन।
अनुतापे करि पुनः से श्रुतिवन्दन ।।
कुसुम – तुलसी दिया सेइ श्रुतिगणे।
भागवत सह सदा पूजिव यतने ।।
भागवत श्रुतिसार कृष्ण – अवतार।
अवश्य करिवे मोरे करुणा अपार ।।
हरिदासपदरजः भरसा याहार।
नामचिंतामणि – हार गलाय ताहार ।।
असावधानीवश यदि श्रुति शास्त्र की निन्दा हो जाये तो पश्चाताप् करते हुये श्रुति – शास्त्रों की वन्दना करनी चाहिए तथा उन श्रुति – शास्त्रों को श्रीमद्भागवत् के साथ रखकर उनको पुष्प एवं तुलसी अर्पण करते हुए बड़े यत्न के साथ उनकी पूजा करनी चाहिए क्योंकि श्रीमद्भागवत सभी वेदों का सार है तथा ये साक्षात् श्रीकृष्ण का अवतार है। ये भावना रखनी चाहिए कि भगवान श्रीकृष्ण के ये श्रीमद्भागवत अवतार अवश्य ही मुझ पर करुणा बरसायेंगे। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर के चरणों की रज ही जिनका भरोसा है, श्रीहरिनाम चिन्तामणि उनके गले का हार है।
इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ श्रुतिनिन्दा अपराधविचारो नाम सप्तमः परिच्छेदः ।