नाम-अपराध

गदाधरप्राण जय जाहवा – जीवन ।
जय सीतानाथ श्रीवासादि भक्तगण ।।

प्रभु बले हरिदास एबे सविस्तार।
नाम – अपराध व्याख्या कर अतःपर ।।

हरिदास बले प्रभु मोरे या ‘बला ‘बे।
ताहाइ बलिब आमि तोमार प्रभावे ।।

श्रीगदाधर जी के प्राण स्वरूप श्रीगौरांग महाप्रभु जी की जय हो तथा श्रीमती जाह्नवा देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु जी की जय हो। सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि सभी भक्तों की जय हो।

महाप्रभु जी कहने लगे
‘हरिदास जी ! अब तुम नामापराध की विस्तृत व्याख्या करो।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं
‘हे महाप्रभु! आपकी कृपा से मैं वही बोलूँगा जो आप मुझसे बुलवायेंगे।’

दश तरह के नामापराध

नाम – अपराध – दशविध, शास्त्रे कय।
सेइ अपराधे मोर बड़ हय भय ।।

एक एक करि’ आमि बलिब सकल ।
अपराधे वाँचि याते, देह मोरे बल ।।

साधुनिन्दा, अन्यदेवे स्वातन्त्र्य – मनन ।
नाम तत्त्व – गुरु आर शास्त्र – विनिन्दन ।।

हरिनामे अर्थवाद, कल्पित मनन ।
नामबले पाप, श्रद्धाहीने नामार्पण ।।

अन्य शुभकर्मेर समान कृष्णनाम।
ए कथा बलिले अपराध अविश्राम ।।

नामेते अनवधान हय अपराध ।
ताहाके पुराणकर्त्ता बलेन प्रमाद ।।

नामेर माहात्म्य जाने, तबु नाहि भजे।
‘अहं मम’ आसक्तिते संसारेते मजे ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हमारे शास्त्रों में दस प्रकार के नामापराधों का वर्णन है। सचमुच मुझे तो इन नामापराधों से बहुत डर लगता है। हे प्रभु! एक-एक करके मैं सभी अपराधों के बारे में कहूँगा। बस, आप मुझे ऐसा बल प्रदान करते रहें जैसे मैं इन अपराधों से बचा रहूँ :-

1. भगवान के भक्तों की निन्दा (साधु – निन्दा)।

2. अन्य देवताओं को भगवान से स्वतन्त्र समझना।

3. हरिनाम के तत्त्व को जानने वाले सद्‌गुरु की निन्दा करना।

4. शास्त्रों की निन्दा करना।

5. नाम में अर्थवाद करना अथवा हरिनाम की महिमा को काल्पनिक समझना और ये मानना कि शास्त्रों में हरिनाम की महिमा को व उसके फल को बढ़ा – चढ़ाकर बताया गया है।

6. हरिनाम के बल पर पाप करना।

7. अश्रद्धालु व्यक्ति को कृष्ण – नाम का उपदेश देना।

8. अन्य शुभकर्मों को हरिनाम के बराबर कहना घोर अपराध है।

9. . दूसरी तरफ ध्यान रखकर हरिनाम करने को हमारे पुराणकर्त्ता ‘प्रमाद’ कहते हैं।

10. हरिनाम की महिमा को जानते हुये भी हरिनाम न करना तथा ‘मैं’ और ‘मेरा’ की आसक्ति से संसार में लिप्त रहना।

साधु-निन्दा ही पहला अपराध है

साधु निन्दा प्रथमापराध बलि’ जानि ।
एइ अपराधे जीवेर हय सर्व हानि ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मैं समझता हूँ कि साधु – निन्दा ही पहला अपराध है। इस अपराध से जीव का हर प्रकार से ही अकल्याण होता है।

साधु के स्वरूप और तटस्थ लक्षणों का विचार

साधुर लक्षण तुमि बलियाछ प्रभो।
एकादशे उद्धवेरे कृष्ण रूपे विभो ।।

दयालु, सहिष्णु, सम, द्रोहशून्यवत ।
सत्यसार, विशुद्धात्मा, परहिते रत ।।

कामे अक्षुभित बुद्धि, दान्त, अकिन्चन।
मृदु, शुचि, परिमितभोजी, शान्तमन ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! श्रीमद् भागवत के 11- वें स्कन्ध में आपने श्रीकृष्ण के रूप में उद्धव जी को साधु के लक्षणों के बारे में बताया है। आपने कहा था कि साधु अर्थात् भगवान का भक्त होगा – दयालु, सहनशील, समदर्शी, सत्यवादी, विशुद्धात्मा, हमेशा दूसरों के हित में लगा रहनेवाला, कामना – वासना से जिसकी बुद्धि विचलित न होने वाली, जितेन्द्रिय, अकिचन, मृदु, पवित्र, भगवान का भक्त उतना ही भोजन करेगा जितनी ज़रूरत है, इसके इलावा वह शान्त मन वाला होगा।

अनीह, धृतिमान्, स्थिर, कृष्णैकशरण।
अप्रमत्त, सुगम्भीर, विजित – षड्गुण ।।

अमानी, मानद, दक्ष, अवन्चक, ज्ञानी।
एइ सब लक्षणेते साधु बलि’ जानि ।।

एइ सब लक्षण प्रभो हय द्विप्रकार।
स्वरूप – तटस्थ – भेदे करिब विचार ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते है कि भक्त के अन्य लक्षण हैं जिसकी कोई स्पृहा न हो, धैर्यवान, स्थिर, श्रीकृष्ण के शरणागत, विषय – वासनाओं से दूर रहने वाला, गम्भीर, कामक्रोध आदि से मुक्त, मान-सम्मान की परवाह न करने वाला, सबको सम्मान देने वाला, दूसरों को हरिकथा सुनाने व हरिभजन कराने में निपुण, दूसरों को न धोखा देने वाला और न ही दूसरों से धोखा खाने वाला तथा ज्ञानी।

हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! यह सब लक्षण जिसमें हैं, वही साधु है परन्तु हे प्रभु! स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण के भेद से, ये सभी लक्षण दो प्रकार के होते हैं जिन पर मैं अब विचार करूँगा।

साधु-निन्दा ही पहला अपराध है

साधु निन्दा प्रथमापराध बलि’ जानि ।
एइ अपराधे जीवेर हय सर्व हानि ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मैं समझता हूँ कि साधु – निन्दा ही पहला अपराध है। इस अपराध से जीव का हर प्रकार से ही अकल्याण होता है।

साधु के स्वरूप और तटस्थ लक्षणों का विचार

साधुर लक्षण तुमि बलियाछ प्रभो।
एकादशे उद्धवेरे कृष्ण रूपे विभो ।।

दयालु, सहिष्णु, सम, द्रोहशून्यवत ।
सत्यसार, विशुद्धात्मा, परहिते रत ।।

कामे अक्षुभित बुद्धि, दान्त, अकिन्चन।
मृदु, शुचि, परिमितभोजी, शान्तमन ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! श्रीमद् भागवत के 11- वें स्कन्ध में आपने श्रीकृष्ण के रूप में उद्धव जी को साधु के लक्षणों के बारे में बताया है। आपने कहा था कि साधु अर्थात् भगवान का भक्त होगा – दयालु, सहनशील, समदर्शी, सत्यवादी, विशुद्धात्मा, हमेशा दूसरों के हित में लगा रहनेवाला, कामना – वासना से जिसकी बुद्धि विचलित न होने वाली, जितेन्द्रिय, अकिचन, मृदु, पवित्र, भगवान का भक्त उतना ही भोजन करेगा जितनी ज़रूरत है, इसके इलावा वह शान्त मन वाला होगा।

अनीह, धृतिमान्, स्थिर, कृष्णैकशरण।
अप्रमत्त, सुगम्भीर, विजित – षड्गुण ।।

अमानी, मानद, दक्ष, अवन्चक, ज्ञानी।
एइ सब लक्षणेते साधु बलि’ जानि ।।

एइ सब लक्षण प्रभो हय द्विप्रकार।
स्वरूप – तटस्थ – भेदे करिब विचार ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते है कि भक्त के अन्य लक्षण हैं जिसकी कोई स्पृहा न हो, धैर्यवान, स्थिर, श्रीकृष्ण के शरणागत, विषय – वासनाओं से दूर रहने वाला, गम्भीर, कामक्रोध आदि से मुक्त, मान-सम्मान की परवाह न करने वाला, सबको सम्मान देने वाला, दूसरों को हरिकथा सुनाने व हरिभजन कराने में निपुण, दूसरों को न धोखा देने वाला और न ही दूसरों से धोखा खाने वाला तथा ज्ञानी।

हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! यह सब लक्षण जिसमें हैं, वही साधु है परन्तु हे प्रभु! स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण के भेद से, ये सभी लक्षण दो प्रकार के होते हैं जिन पर मैं अब विचार करूँगा।

स्वरूप-लक्षण ही प्रधान लक्षण हैं, इसके आश्रय में तटस्थ लक्षण तो स्वयं ही उदित हो जाते हैं

कृष्णैकशरण हय स्वरूप लक्षण।
तटस्थ – लक्षणे अन्य गुणेर गणन ।।

कोन भाग्ये साधुसंगे नामे रुचि हय।
कृष्णनाम गाय, करे कृष्ण – पादाश्रय ।।

स्वरूप – लक्षण सेइ हइते हइल ।
गाइते गाइते नाम अन्य गुण हइल ।।2

अन्य गुणगण ताइ तटस्थे गणन ।
अवश्य वैष्णव – देहे ह ‘बे संघटन ।।

भगवद् – भक्त के दो प्रकार के लक्षण होते हैं- स्वरूप लक्षण एवं तटस्थ लक्षण। श्रीकृष्ण के शरणागत होना ही साधु का स्वरूप लक्षण होता है जबकि जो अन्य गुण हैं- वे तटस्थ लक्षण हैं। सौभाग्य से जब किसी को साधु – संग के प्रभाव से श्रीहरिनाम में रुचि होती है, तब वह श्रीकृष्ण – नाम – संकीर्तन करता हुया श्रीकृष्ण के पादप‌द्मों का आश्रय ग्रहण करता है। ये ही साधु का स्वरूप लक्षण है। श्रीनाम कीर्तन करते करते, हरिनाम करने वाले के अन्दर अन्य जो गुण आ जाते हैं, उन्हीं को तटस्थ लक्षण कहते हैं जो कि वैष्णव देह में अवश्य ही प्रगट हो जाते हैं।

वर्णाश्रम-लिंग और नाना प्रकार के वेश द्वारा साधत्त्व की पहचान नहीं होती, केवल मात्रा श्रीकृष्ण के शरणागत होना ही साध का लक्षण है

वर्णाश्रम – चिह नानावेषेर रचना।
साधुर लक्षणे कभु ना हय गणना ।।

श्रीकृष्णशरणागति – साधुर लक्षण।
ता’र मुखे हय कृष्णनाम – संकीर्तन ।।

गृही, बह्मचारी, वानप्रस्थ, न्यासिभेदे।
शूद्र, वैश्य, क्षत्र, विप्रगणेर प्रभेदे ।।

साधुत्व कखन नाहि हइबे निर्णित।
कृष्णैकशरण साधु, शास्त्रेर विहित ।।

वर्णाश्रम – चिन्हों से एंव नाना प्रकार के वेशभूषा की रचना से, साधु के लक्षणों की गणना नहीं होती है। श्रीकृष्ण – शरणागति ही साधु का स्वरूप लक्षण है और श्रीकृष्ण के शरणागत- भक्त के मुख से ही श्रीकृष्ण नाम का संकीर्तन हो सकता है। गृहस्थी, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी एवं संन्यासी के भेद से एवं शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण के प्रभेद से साधुत्त्व का निर्णय कभी भी नहीं किया जा सकता। जो श्रीकृष्ण के शरणागत हैं, वही साधु हैं, यही शास्त्रों का सार सिद्धान्त है।

गृहस्थ में रहने वाले साधु के लक्षण

रघुनाथदासे लक्ष्य करिया सेवार।
गृहिसाधुजने शिखायेछ एइ सार ।।

स्थिर ह’ये घरे याओ, ना हओ बातुल।
क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकूल ।।

मर्कट – वैराग्य छाड़ लोक देखाइया।
यथायोग्य विषय भुन्ज अनासक्त हया ।।

अन्तरे निष्ठा कर, बाह्य लोकव्यवहार ।
अचिरे श्रीकृष्ण तोमाय करिबे उद्धार ।।

में श्रीहरिदास ठाकुर जी कहने लगे – हे प्रभु! आपने श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को लक्ष्य करके गृहस्थ आश्रम साधु (भक्त) कैसे रहेंगे, इसकी सार शिक्षा दी है। आपने उस समय श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को कहा था कि वह स्थिर होकर अपने घर जायें एवं पागल न बनें। छलांग मारकर कोई भी भवसागर से पार नहीं होता। भगवद् – भक्ति की साधना में लगे रहें, साधना करते-करते श्रीकृष्ण जी की कृपा से धीरे -धीरे जीव भव सागर से पार उतर जाते हैं। दुनियाँ वालों को दिखाने के लिए बन्दर जैसा दिखावटी वैराग्य दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं, संसार के विषयों के प्रति अनासक्त रहो तथा दुनियाँ में रहने के लिए, गृहस्थ में रहने के लिए जितने विषयों की आवश्यकता हो, उतने विषयों को कर्तव्य समझकर अनासक्त भाव से स्वीकार करते रहो। हाँ, हृदय में भगवान के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा रखो तथा साथ ही जगत के लोगों से अपने व्यवहार को ठीक रखो, ऐसा करने से बड़ी जल्दी ही श्रीकृष्ण प्रसन्न होकर तुम्हारा उद्धार कर देंगे।

गृहत्यागी साधु के लक्षण

पुनः तुमि ता’र देखि’ वैराग्य – ग्रहण।
एइ मत शिक्षा दिले अपूर्व श्रवण ।।

ग्राम्यकथा ना शुनिबे, ग्राम्यवार्त्ता ना कहिबे।
भाल न खाइबे आर भाल न परिबे ।।

अमानी मानद हया, कृष्णनाम सदा लबे।
व्रजे राधाकृष्णसेवा मानसे करिबे ।।

हे प्रभु! तुमने पुनः श्रीरघुनाथदास जी को वैराग्य का रास्ता ग्रहण करने पर, जो शिक्षा प्रदान की थी वह बड़ी अद्भुत थी। आपने कहा था कि ग्राम्य बातें अर्थात् अश्लील बातें न तो सुनना और न ही बोलना। अच्छा खाना व अच्छा पहनना, यह भी वैरागी को शोभा नहीं देता, ये भी मत करना। दूसरों के सम्मान देते हुए एवं स्वयं अमानी होकर हमेशा श्रीकृष्णनाम करते रहना तथा मानसिक चिन्तन द्वारा ब्रज में श्रीराधा-कृष्ण जी की सेवा करते रहना।

गृहस्थ और गृहत्यागी के स्वरूप लक्षण एक ही हैं

स्वरूप लक्षण एक, सर्वत्र समान ।
आश्रमादि भेदे पृथक् तटस्थ विधान ।।

अनन्यशरणे यदि देखि दुराचार।
तथापि से ‘साधु’ बलि’ सेव्य सवाकार ।।

एइ त’ श्रीकृष्णवाक्य गीता – भागवते ।
इहाके पूजिब यत्ने सदा सर्व मते ।।

इहाते आछे त’ एक निगूढ़ सिद्धान्त ।
कृपा करि’ जानायेछ ताइ पाइ अन्त ।।

गृहस्थ और गृहत्यागी – दोनों के लिए, स्वरूप – लक्षण एक ही हैं, किन्तु आश्रम के भेद से, तटस्थ – लक्षण का कुछ अलग विधान है। श्रीकृष्ण की अनन्य शरणागति ही भक्त का स्वरूप लक्षण है अर्थात् मुख्य लक्षण है। जिसमें उक्त स्वरूप – लक्षण है, उसमें तटस्थ लक्षण भी अवश्य होंगे। किन्तु किसी श्रीकृष्ण के एकान्त शरणागत व्यक्ति में, यदि किसी अंश में तटस्थ – लक्षण पूर्ण उदित न होकर, उसके आचरण में कुछ कमी रह जाये, तब भी वह साधु ही है। श्रीकृष्ण ने यह वाक्य श्रीमद्भागवत एवं श्रीमद्भगवद्गीता में कहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण तो ये भी कहते हैं कि ऐसे भक्त की यत्न के साथ हमेशा तथा हर प्रकार से पूजा करनी चाहिए। श्रीहरिदास ठाकुर कहने लगे – हे प्रभु! इसमें जो एक रहस्यमय सिद्धान्त है। आपने ही कृपा करके वह समझाया है, अन्यथा ये रहस्य भला मेरी समझ में कैसे आता।

पिछले किये पापों को याद करके जो श्रीकृष्ण के शरणागत साधु की निन्दा करता है, वह नामापराधी है

कृष्णनामे रुचि यबे हइबे उदय ।
एकनामे पूर्वपाप हइवेक क्षय ।।

पूर्वपाप गन्ध तबु थाके किछुदिन।
नामेर प्रभावे क्रमे हया पड़े क्षीण ।।

शीघ्र सेइ पापगन्ध विदूरित हय।
परम धर्मात्मा बलि’ हय परिचय ।।

श्रीकृष्णनाम में जब रुचि उदय होती है तब एक हरिनाम से ही पिछले सब किये पाप खत्म हो जाते हैं। हाँ, किसी-किसी के जीवन में देखा जाता है कि उसमें पिछले किये पापों की कुछ गन्ध है अर्थात् अभी गन्दे पापमय थोड़े संस्कार बाकी हैं, परन्तु इसमें घबराने की कोई बात नहीं, श्रीहरिनाम के प्रभाव से पाप की वह गन्ध भी धीरे-धीरे खत्म हो जाती है। तब परम धर्मात्मा रूप से उसका परिचय निखर कर सामने आता है।

ये कयेक दिन सेइ गन्ध नाहि याय।
साधारण – जन चक्षे पाप बलि’ भाय ।।

से पाप देखिया येइ साधुनिन्दा करे।
पूर्वपाप लक्षि’ पुनः अवज्ञा आचरे ।।

सेइ त’ पाषण्डी वैष्णवेर निन्दा – दोषे।
नाम – अपराधे मजि’ पड़े कृष्णरोषे ।।

परन्तु जिन दिनों में वह पाप-गन्ध खत्म हो रही होती है तो साधारण लोगों की नज़रों में वह पाप सा ही लगता है, ऐसे में अथवा शरणागति ग्रहण करने से पहले किये हुये पापों को लक्ष्य करके जो वैष्णव अवज्ञा करते हैं या वैष्णवों का निरादार करते हैं, वे पाखण्डी हैं। वैष्णवों की निन्दा रूपी दोष के कारण वे नाम – अपराधी बन पड़ते हैं। श्रीकृष्ण भी उनसे असन्तुष्ट हो जाते हैं।

श्रीकृष्ण के प्रति शरणागति ही साधु का लक्षण है, जो अपने को साधु बोलते हैं, वे दाम्भिक हैं

कृष्णैकशरण – मात्र कृष्णनाम गाय।
साधुनामे परिचित कृष्णेर कृपाय ।।

कृष्णभक्त – व्यतीत नाहिक साधु आर।
‘आमि साधु’ बलि’ हय दम्भ अवतार ।।

जो श्रीकृष्ण के शरणागत होते हैं, वे हमेशा, श्रीकृष्णनाम – कीर्तन करते रहते हैं तथा श्रीकृष्ण की कृपा के ऐसे शरणागत व्यक्ति ही साधु कहलाते हैं। श्रीकृष्ण भक्त के अतिरिक्त और कोई साधु नहीं होता तथा जो अपने को साधु कहते हैं, वे साधु नहीं होते वे तो घमण्डी होते हैं।

कम शब्दों में साधु-निर्णय

ये बलिबे, अमि दीन, कृष्णैकशरण।
कृष्णनाम या ‘र मुखे, साधु सेइ जन ।।

तृण हैते हीन बलि’ आपनाके जाने।
सहिष्णु तरुर न्याय आपनाके माने ।।

निजे त’ अमानी आर सकले मानद ।
ता’र मुखे कृष्णनाम कृष्णरतिप्रद ।।

जो वास्तविक साधु होता है, भगवद्भक्त होता है, वह कहता है कि मैं तो दीन-हीन हूँ, एकमात्र श्रीकृष्ण की शरण में हूँ एवं उसके मुख से हर क्षण श्रीकृष्ण नाम ही उच्चारित होता रहता है। वास्तविक भगवद् – भक्त अपने का तृण से भी अधिक हीन समझता है तथा वह वृक्ष के समान सहनशील होता है, स्वयं सम्मान की चाहना न रखकर दूसरों को सम्मान देता है। उसके मुख से उच्चारित श्रीकृष्णनाम ही दूसरों के हृदयों में श्रीकृष्ण – प्रेम को प्रकाशित कर सकता है।

नाम-परायण वैष्णव ही साधु हैं

हेन साधु – मुखे यबे शुनि एक नाम।
‘वैष्णव’ बलिया तारे करिब प्रणाम ।।

वैष्णव से जगद्‌गुरु, जगतेर बन्धु।
वैष्णव सकल – जीवे सदा कृपासिन्धु ।।

ए हेन वैष्णव – निन्दा येइ जन करे।
नरके पड़िवे सेइ जन्म – जन्मान्तरे ।।

नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि इस प्रकार के अर्थात् ऊपर जो कम अक्षरों में साधु के लक्षण बताये गए हैं, ऐसे साधु के मुख से जब मैं एक श्रीकृष्णनाम सुनता हूँ तो मैं उसे वैष्णव समझ कर प्रणाम करता हूँ। क्योंकि वैष्णव ही जगद्‌गुरु हैं और वे ही जगत् के बन्धु हैं। सभी वैष्णव जीवों के लिए कृपा के समुद्र होते हैं। इस प्रकार के वैष्णव की जो निन्दा करते हैं, वे नरक में जाते हैं तथा जन्म-जन्मान्तर के चक्करों में फँसे रहते हैं।

भक्ति लभिवारे आर नाहिक उपाय।
भक्ति लभे सर्वजीव वैष्णव कृपाय ।।

वैष्णव – देहेते थाके श्रीकृष्णेर शक्ति।
सेइ – देह – स्पर्श अन्ये हय कृष्णभक्ति।।

वैष्णव – अधरामृत आर पद – जल।
वैष्णवेर पदरजः तिन महाबल ।।

वैष्णव – कृपा को छोड़कर भक्ति को प्राप्त करने का और दूसरा कोई उपाय नहीं है। वैष्णव की कृपा से ही सब जीवों को भक्ति की प्राप्ति होती है। वैष्णवों के देह में श्रीकृष्ण शक्ति रहती है। ऐसे वैष्णवों को स्पर्श करने से भी श्रीकृष्ण में भक्ति उदित हो जाती है। वैष्णवों की जूठन, वैष्णवों के चरणों का जल तथा वैष्णवों के चरणों की धूलि – ये तीनों ही भक्ति की साधना में बल प्रदान करने में बड़े प्रभावशाली हैं।

वैष्णव के द्वारा शक्ति संचार

वैष्णव – निकटे यदि वैसे कतक्षण।
देह हैते हय कृष्णशक्ति – निःसरण ।

सेइ शक्ति श्रद्धावान् – हृदये पशिया।
भक्तिर उदय करे देह काँपाइया ।।

ये बसिल वैष्णवेर निकटे श्रद्धाय ।
ताहार हृदये भक्ति हइबे उदय ।।

प्रथमे आसिबे ता ‘र मुखे कृष्णनाम।
नामेर प्रभावे पा ‘वे सर्वगुणग्राम ।।

वैष्णव के निकट यदि कुछ समय तक बैठा जाये तो उनके शरीर से श्रीकृष्ण – शक्ति निकलकर श्रद्धावान हृदय को स्पर्श करके उसके शरीर को थोड़ा कंपाकर उसके हृदय में भक्ति उदय करा देती है। जो श्रद्धासहित वैष्णव के निकट बैठते हैं, उनके हृदय में भक्ति उदय होगी। जब किसी के हृदय में भगवद् – भक्ति उदित होगी तो सर्वप्रथम उस जीव के मुख से श्रीकृष्णनाम निकलेगा एवं हरिनाम के प्रभाव से वह तमाम सर्वगुणों को प्राप्त कर लेगा।

वैष्णवों के किस-किस दोष को देखने से वैष्णव निन्दा होती है

वैष्णवेर जाति आर पूर्वदोष धरे।
कादाचित्क दोष देखि’ येइ निन्दा करे ।।

नष्टप्राय दोष ल ‘ये करे अपमान।
यमदण्डे कष्ट पाय से सब अज्ञान ।।

वैष्णवेर मुखे नाम – माहात्म्यप्रचार ।
से वैष्णवनिन्दा कृष्ण नाहि सहे आर ।।

धर्म – योग – याग – ज्ञानकाण्ड परिहरि’।
ये भजिल कृष्णनाम, सेइ सर्वोपरि ।।

माना किसी वैष्णव का जन्म छोटी जाति में हुआ हो और कोई व्यक्ति उसका यह जाति दोष देखे या किसी ने श्रीकृष्ण के चरणों में पूर्ण शरणागति लेने से पहले अगर कोई पाप किया हो और कोई उस पाप को याद करवा कर उस भक्त की निन्दा करे अथवा अचानक किसी वैष्णव से कोई पाप – कर्म हो जाये या कोई वैष्णव ऐसी स्थिति में हो कि पहले पाप करता था परन्तु अब वह शरणागत रहकर भजन करता है परन्तु थोड़े बुरे संस्कार अभी बाकी हैं, इनको देखकर ही कोई उसकी निन्दा करे या उसका अपमान करे तो वह अज्ञानी, वैष्णव – निन्दक, यमदण्ड का भागीदार बनता है। वैष्णवों के मुख से ही श्रीकृष्ण – माहात्म्य का प्रचार होता है। ऐसे वैष्णवों की निन्दा को श्रीकृष्ण बिल्कुल भी सहन नहीं करते। दुनियावी भोग दिलाने वाले ध र्म-कर्म-यज्ञ अथवा मोक्ष दिलाने वाले ज्ञान काण्ड को भी छोड़कर जो श्रीकृष्णनाम का भजन करते हैं, वे ही सर्वोपरि हैं।

देवी-देवताओं व शास्त्रों की निन्दा न करके जो हरिनाम का आश्रय लेते हैं, वे ही साधु हैं

अन्यदेव अन्यशास्त्र ना करि’ निन्दन।
नामेर आश्रय लय शुद्ध साधुजन ।।

से साधु गृहस्थ हउ अथवा संन्यासी।
ताहार चरणरेणु पाइते प्रयासी ।।

यार यल नामे रति, से तत वैष्णव ।
वैष्णवेर क्रम एइ मते अनुभव ।।

इथे वर्णाश्रम, धन, पाण्डित्य, यौवन।
कोन कार्य नाहि करे रूपबल जन ।।

शुद्ध – साधुजन, अन्य देवी-देवताओं एवं अन्य शास्त्रों की निन्दा नहीं करते, वे तो एकमात्र श्रीकृष्णनाम का आश्रय लेते हैं। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहने लगे हे प्रभु! ऐसे हरिनाम का आश्रय लेने वाले साधु चाहे गृहस्थी हों या संन्यासी, उनके चरणों की धूलि को पाने का मैं हमेशा प्रयास करता रहता हूँ। मेरा तो ये अनुभव है कि जिसकी जितनी हरिनाम में रुचि है, वह उतना ही बड़ा वैष्णव है। इसमें वर्णाश्रम, धन, विद्वता, यौवन, रूप, बल व जन आदि कुछ भी महत्त्व नहीं रखता।

अतएव यिनि करिलेन नामाश्रय।
साधुनिन्दा छाड़िबेन ए धर्म निश्चय ।।

नामाश्रया शुद्धा भक्ति भक्त भक्तिरूपा।
भक्त भक्तिविवर्जिता हइले विरूपा ।।

याँहा साधुनिन्दा, ताँहा नाहि भक्तिस्थिति।
अतएव अपराधे तथा परिणति ।।

साधुनिन्दा छाड़ि’ भक्त साधुभक्ति करे।
साधुसंग साधुसेवा एइ धर्माचरे ।।

इसलिए जिन्होंने हरिनाम का आश्रय लिया है, उन्हें अवश्य ही साधुनिन्दा छोड़नी चाहिए। श्रीहरिनाम का आश्रय रूपी शुद्ध – भक्ति का आश्रय लेने वाले भक्त ही शुद्ध-भक्त हैं।

भक्त के द्वारा भक्ति को छोड़ने से वह अभक्त हो जाता है। जहाँ साधुनिन्दा होती है, वहाँ भक्ति नहीं रहती। वह स्थान तो अपराध के स्थान में बदल जाता है। अतः साधकों को चाहिए कि वे साधुनिन्दा को छोड़कर, साधु – भक्त की सेवा करेंगे। भगवान का भक्त हर समय सासधुसंग व साधुसेवा करेगा, यही उसका धर्माचरण है, इसी का वह पालन करेगा।

असत् संग दो प्रकार का है

असत्संगत्यागे हय वैष्णव – आचार ।
असत्संगे हय साधु – अवज्ञा अपार ।।

असत् ये द्विप्रकार सर्वशास्त्रे कय।
सेइ दुइयेर मध्ये योषित्संगी एक हय ।।

योषित्संगिसंगी पुनः तार मध्ये गण्य।
ता’र संगत्यागे जीव हइवेक धन्य ।।

असत्संग का त्याग करना ही वैष्णवों का आचरण होता है। असत् का संग करने से साधु की बड़ी अवहेलना व अवज्ञा होती है। सभी शास्त्रों में असत् दो प्रकार के कहे गये हैं, उन दो में से एक स्त्री संगी है। स्त्री संगी के संगी का संग करना भी उसी के अन्तर्गत है। उसका संग त्यागने से ही जीवन धन्य हो सकता है।

स्त्री-संगी किसे कहते हैं

कृष्णेर संसारे ये दाम्पत्य – धर्म थाके।
असत् बलिया शास्त्र ना बले ताहाके ।।

अधर्म – संयोगे आर स्त्रैण – भावे रत।
योषित्संगी जन दुष्ट, शास्त्रेर सम्मत ।।

श्रीकृष्ण को केन्द्र मानकर गृहस्थ आश्रम में जो दम्पत्ति रहते हैं शास्त्रों में इसे असत्संग या स्त्रीसंगी नहीं कहा गया। अधर्म से स्त्री-पुरुष आपस में मिले हों अथवा शास्त्रानुसार अपने वर्ण में अग्नि, पुरोहित, माता – पिता व रिश्तेदारों को साक्षी के रूप में रखकर विवाह करके भी जो व्यक्ति बहुत अधिक स्त्री के पराधीन होता है, शास्त्रों में उसे स्त्री-संगी कहा गया है। यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस प्रकार पुरुष के लिए अवैध स्त्री-संग व स्त्री में बहुत ज्यादा आसक्ति गलत है, उसी प्रकार स्त्री के लिए भी अवैध पुरुष का संग अथवा अपने पति से बहुत ज्यादा आसक्ति गलत है।

दूसरे प्रकार का असत् संग; तीन प्रकार के कृष्ण-अभक्त

कृष्णेते अभक्त – असत् द्वितीय प्रकार।
मायावादी, धर्मध्वजी, निरीश्वर आर ।।

एक और प्रकार का असत्संग होता है वह यह है कि जो श्रीकृष्ण के भक्त नहीं हैं, ऐसे व्यक्तियों का संग। अर्थात् जो श्रीकृष्ण के भक्त नहीं हैं ऐसे अभक्त लोगों के संग को भी असत्संग कहते हैं। ये श्रीकृष्ण – अभक्त संग तीन प्रकार के होते हैं- मायावादी, धर्मध्वजी तथा निरीश्वरवादी व्यक्तियों का संग।

मायावादी व धर्मध्वजी आदि के दोष कहने को साधु-निन्दा नहीं कहते

वर्जिले ए सब संग साधुनिन्दा नय।
इहाके ये निन्दा बले, सेइ वर्जय हय ।।

एइ सब संग छाड़ि’ अनन्यशरण।
कृष्णनाम करि’ पाय कृष्णप्रेमधन ।।

इन सबका अर्थात् मायावादी, धर्मध्वजी तथा निरीश्वरवादी के संग का त्याग करने को साधु का अपमान या साधु निन्दा नहीं कहते बल्कि जो व्यक्ति इनके संग को त्याग करने को साधुनिन्दा कहता है, उसका संग वर्जनीय है। ऐसे व्यक्तियों के संग का भी परित्याग कर देना चाहिए।

असत् – संग छोड़कर जो श्रीकृष्ण की अनन्य भाव से शरण लेकर श्रीकृष्ण नाम करते हैं, वही श्रीकृष्ण -प्रेम-धन को प्राप्त करते हैं।

*जो भगवान के नित्यस्वरूप को स्वीकार नहीं करता, जो श्रीकृष्ण की श्रीमूर्ति को माया की, अर्थात् लकड़ी व पत्थर आदि की बनी समझते हैं एवं जीव को भी माया – निर्मित तत्त्व कहते है, उन्हें मायावादी कहते हैं। ऐसे लोग जिनके अन्दर में भक्ति व वैराग्य लेशमात्र भी नहीं है, केवल अपने दुनियावी स्वार्थों को पूरा करने के लिए कपटता सहित साधु का वेश धारण करते हैं, उन्हें धर्मध्वजी कहते हैं तथा जो भगवान को न मानने वाले नास्तिक हैं उन्हें निरीवरवादी कहा जाता है।

वैष्णव आभास, प्राकृत-वैष्णव, वैष्णवप्राय और कनिष्ठ-वैष्णव ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं

साधुसेवाहीन अर्चे लोकिक श्रद्धाय ।
प्राकृत वैष्णव हय वैष्णवेर प्राय ।।

वैष्णव – आभास सेइ, नहे त’ वैष्णव ।
केमने पाइबे साधुसंगेर वैभव ।।

अतएव कनिष्ठ मध्येते तारे गणि।
तारे कृपा करिवेन वैष्णव आपनि ।।

जिनकी साधुसेवा में रुचि नहीं है किन्तु जो लौकिक – श्रद्धा से श्रीमूर्ति का अर्चन करते हैं, ऐसे वैष्णवों को प्राकृत वैष्णव कहते हैं। ये वैष्णव वास्तविक वैष्णव नहीं होते, हाँ, ये वैष्णवों की तरह ही होते हैं; वैष्णव- आभास कहा जा सकता है ऐसे वैष्णवों को। यही कारण है कि इनकी गिनती कनिष्ठ वैष्णवों में होती है। ऐसों पर श्रेष्ठ वैष्णव लोग स्वयं ही कृपा करते हैं।

मध्यम-वैष्णव

कृष्णप्रेम, कृष्णभक्ते मैत्री आचरण।
बालिशेते कृपा आर द्वेषी – उपेक्षण ।।

करिले मध्यमभक्त शुद्ध भक्त ह’न।
कृष्णनामे अधिकार करेन अर्जन ।।

श्रीकृष्ण में प्रेम, श्रीकृष्ण भक्तों से मित्रता, अज्ञानी पर कृपा एवं द्वेषी की उपेक्षा, ये चार गुण मध्यम भक्त में होते हैं। मध्यम – भक्त ही शुद्ध भक्त हैं, ऐसे भक्त श्रीकृष्ण नाम करने का अधिकार प्राप्त कर लेते हैं।

उत्तम-वैष्णव

सर्वत्र याँहार हय कृष्ण – दरशन।
कृष्णे सकलेर स्थिति, कृष्ण – प्राणधन ।।

वैष्णवावैष्णव – भेद नाहि थाके ताँ ‘र।
वैष्णव-उत्तम तिनि कृष्णनामसार ।।

जिन्हें सर्वत्र ही श्रीकृष्ण – दर्शन होता है, जो सभी प्राणियों में श्रीकृष्ण का दर्शन करते हैं, श्रीकृष्ण ही जिनके प्राणधन हैं, जो वैष्णव व अवैष्णव में भेद नहीं देखते, वे ही उत्तम वैष्णव हैं। श्रीकृष्ण नाम ही उनका सार – सर्वस्व होता है।

मध्यम-वैष्णव ही साधु-सेवा करते है

अतएव मध्यम वैष्णव महाशय।
साधु – सेवारत सदा थाकेन निश्चय ।।

इसलिए मध्यम वैष्णव ही हर समय साधु-सेवा में रत रहते हैं।

प्राकृत-वैष्णव नामाभास के अधिकारी हैं

प्राकृत – वैष्णव येइ वैष्णवेर प्राय।
नामाभासे अधिकारी सर्वशास्त्र गाय ।।

प्राकृत – वैष्णव, जो वैष्णवप्रायः या कनिष्ठ – वैष्णव हैं, वे नामाभास के अधिकारी हैं शास्त्र ऐसा कहते हैं।

मध्यम-वैष्णव ही नाम के अधिकारी है तथा वे ही नामभजन में होने वाले अपराधों पर विचार करते है

मध्यम – वैष्णव मात्र नामे अधिकारी।
श्रीनामभजने अपराधेर विचारी ।।

उत्तम वैष्णवे अपराध असम्भव ।
सर्वत्र देखेन तिनि कृष्णेर वैभव ।।

निज निज अधिकार करिया विचार।
साधुनिन्दा – अपराध करि’ परिहार ।।

साधुसंग, साधु – सेवा, नाम – संकीर्त्तन।
सर्व जीवे दया-एइ भक्त आचरण ।।

मध्यम – वैष्णव ही एकमात्र हरिनाम करने के अधिकारी हैं तथा वे ही श्रीनाम – भजन में अपराध का विचार करते हैं। उत्तम वैष्णव के अपराध की सम्भावना ही नहीं रहती क्योंकि वे सर्वत्र ही श्रीकृष्ण का वैभव देखते हैं। अपने – अपने अधिकारों का विचार करके साधु – निन्दा छोड़नी चाहिए। साधु-संग, साधु-सेवा, श्रीनाम संकीर्तन तथा सभी जीवों पर दया करना ही भक्तों का आचरण है।

साधु-निन्दा होने पर क्या करना चाहिए

प्रमादे यद्यपि घटे साधुविगर्हण।
तबे अनुतापे धरि’ से साधुचरण ।।

काँदिया बलिब – “प्रभो, क्षमि’ अपराध।
ए दुष्टनिन्दके कर वैष्णवप्रसाद ।।

साधु बड़ दयामय तबे आर्द्रमने ।
क्षमिवेन अपराध कृपा – आलिंगने ।।

एइ त’ प्रथम अपराधेर विचार।
श्रीचरणे निवेदिनु आज्ञा अनुसार ।।

हरिदास – पादपद्ये भ्रमर ये जन।
हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन ।।

असावधानी वश यदि अचानक कभी साधुनिन्दा हो जाये, तब प्रायश्चित के साथ, उस साधु के चरणों को पकड़ लेना चाहिए तथा उनके चरणों में पड़कर रोते – रोते कहना चाहिए- “हे प्रभो! मेरा अपराध क्षमा करो। हे वैष्णव ! इस दुष्ट – निन्दक पर कृपा करो।” साधु बड़े दयालु होते हैं, उनका हृदय बड़ा कोमल होता है। इतना करने मात्र से वे तुम्हें क्षमा कर देंगे तथा कृपा पूर्वक तुम्हें आलिंगन कर लेंगे।

भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के पादपद्मों के जो भौरे हैं. ‘श्रीहरिनाम चिन्तामणि’ उनका ही जीवन है।

इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ साधुनिन्दापराधविचारो नाम चतुर्थः परिच्छेदः ।