अन्य देवी देवताओं को श्रीकृष्ण से अलग समझना भी अपराध है

जय गदाधरप्राण जाहवा – जीवन ।
जय सीतानाथ जय गौरभक्तगण ।।

हरिदास बले तबे करि’ योड़हात।
द्वितीयापराध एबे शुन जगन्नाथ ।।

श्रीगदाधर पंडित जी के प्राण श्रीगौराङ्ग. महाप्रभु जी, श्रीमती जाहवा देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द जी की जय हो। सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि भक्तों की जय हो।

श्रीहरिदास जी हाथ जोड़कर कहने लगे- हे जगन्नाथ! श्रीगौर हरि ! अब दूसरा अपराध सुनिए।

विष्णुतत्त्व

परम अद्वय – ज्ञान विष्णु परतत्त्व ।
चित्स्वरूप जगदीश सदा शुद्ध सत्त्व ।।

गोलोकविहारी कृष्ण से तत्त्वेर सार।
चतुःषष्टि गुणे अलंकृत रसाधार ।।

षष्टिगुण नारायण – स्वरूपे प्रकाश।
सेइ षष्टिगुण विष्णु – सामान्यविलास ।।

पुरुषावतारे आर स्वांश अवतारे ।
सेइ षष्टिगुण स्पष्ट कार्य – अनुसारे ।।

परम अद्वयज्ञान श्रीविष्णु ही परमतत्त्व हैं। वे चित्स्वरूप हैं, जगदीश हैं एवं सदा शुद्धसत्त्व स्वरूप हैं। वे पर- तत्त्व के सार हैं अर्थात् गोलोक – विहारी श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ तत्त्व हैं। ये श्रीकृष्ण ही 64 गुणों से अलंकृत एवं सभी रसों के आधार हैं। 60 गुण भगवान श्रीनारायण जी के रूप में प्रकाशित हैं। ये 60 गुण ही श्रीविष्णुजी में सामान्य रूप से विलास करते हैं। पुरुषावतार एवं स्वांश अवतारों में ये 60 गुण उनके कार्यानुसार स्पष्ट रूप से झलकते हैं।

श्रीविष्णु के विभिन्न अंशों का प्रकाश

विष्णुर ये विभिन्नांश दुइ त’ प्रकार।
पश्चात् गुण जीवे बिन्दु बिन्दु तार ।।

गिरिशादि देवे एइ गुण पन्चाशत्।
तदधिक परिमाणे सर्वदा संयुत ।।

तद्व्यतीत आर पन्चगुण अंश माने।
प्रकाशित आछे तवे विचित्रविधाने ।।

श्रीविष्णु के विभिन्न अंश दो प्रकार के हैं- साधारण जीव एवं देवता। जीव में भगवान के ही 50 गुण बिन्दु बिन्दु रूप से विद्यमान हैं जबकि शिव – आदि देवताओं में यह 50 गुण ही कुछ अधिक मात्रा में रहते हैं। भगवान का ये विचित्र सा विधान है कि इसके अतिरिक्त इन देवताओं में पांच और गुण आशिक रूप से विद्यमान होते हैं जो कि पूर्णमात्रा में केवल श्रीविष्णु जी में ही विद्यमान रहते हैं।

60 गुण से श्रीविष्णु-तत्त्व परम ईश्वर हैं

सेइ पन्च – पन्चाशत् गुणपूर्ण ताय।
विष्णुते विराजमान सर्वशास्त्रे गाय ।।

तद्व्यतीत आर पन्चगुण नारायणे।
आछे तार सत्ता कभु नाहि अन्य जने ।।

षष्टिगुणे विष्णुतत्त्व परम ईश्वर।
गिरिशादि अन्यदेव ताँहार किंकर ।।

विभिन्नांश गिरिशादि जीव श्रेष्ठतर ।
विष्णु – सर्वजीवेश्वर सर्वदेवेश्वर ।।

उक्त 55 गुण श्रीविष्णु जी में पूर्ण रूप से विराजमान हैं, ऐसा सर्वशास्त्र में कहते हैं, इसके अलावा और 5 गुण श्रीविष्णु में पूर्ण रूप से हैं किन्तु शिव आदि देवता एवं जीव में ये गुण नहीं हैं। इन 60 गुणों से ही श्रीविष्णु – तत्त्व सभी ईश्वरों के ईश्वर अर्थात् परम ईश्वर हैं। अतः शिव आदि अन्य देवी-देवता, भगवान विष्णु जी के दास दासियाँ हैं। विष्णु जी के विभिन्नांश ये देवता श्रेष्ठत्तर जीव हैं, कहने का तात्त्पर्य यह है कि भगवान विष्णु जी सभी जीवों के तथा सभी देवताओं के ईश्वर हैं इसलिए उन्हें सर्वजीवेश्वर व सर्वदेवेश्वर कहते हैं।

अज्ञानी व्यक्ति देवी-देवताओं को विष्णु के समान समझते हैं

अन्यदेव सह सम विष्णुके ये माने।
से बड़ अज्ञान ईशतत्त्व नाहि जाने ।।

ए जड़ – जगते विष्णु परम ईश्वर।
गिरिशादि यत देव ताँ’र विधिकर।।

केह बले मायार त्रिगुणे त्रिदिवेश।
सर्वदा समान ब्रह्म तत्त्व सविशेष ।।

सचमुच वे बड़े अज्ञानी हैं जो अन्य देवी-देवताओं के साथ श्रीविष्णु को समान मानते हैं। ऐसे मानने वालों को ईश्वर-तत्त्व का ज्ञान नहीं हैं। इस जड़ – जगत में श्रीविष्णु ही परम ईश्वर हैं, शिव आदि देवता सब उनके अधीन व उनके किंकर हैं। कोई कहता है कि माया के तीन गुणों को लेकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह तीनों ही सविशेष देवता हैं जबकि हमेशा एक सा रहने वाला ब्रह्म तो निर्विशेष होता है। (यह मायावादियों का मत है, जो कि गलत है।)

विभिन्न-वादों के सिद्धान्त

शास्त्रेर सिद्धान्ते तबु पूज्य नारायण।
ब्रह्मा शिव सृष्टिलय कार्यर कारण ।।

वासुदेव छाड़ि’ येइ अन्यदेवे भजे।
ईश्वर छाड़िया सेइ संसारेते मजे ।।

केह बले, “विष्णु परतत्त्व बटे जानि ।
सर्वविष्णुमय विश्व वेदवाक्य मानि ।।

अतएव सर्वदेवे विष्णु अधिष्ठान।
सर्व देवार्चने हय विष्णुर सम्मान ।।

एइ त’ निषेधपर वाक्य, विधि न्य।
अन्यदेवपूजार निषेध एइ हय ।।

सर्व विष्णुमय विश्व, ए कथा बलिले।
विष्णुपूजा कैले सब देवे पूजा मिले ।।

तरुमूले जैल दिले शारवार उल्लास।
पल्लवे ढालिले जल वृक्षेर विनाश ।।

अतएव पूजि विष्णु अन्यदेव त्यजि’।
ताहातेइ अन्यदेव काये काये पूजि ।।

एइ विधि – वेदेर सम्मत चिरदिन।
दुर्विपाके एइ विधि छाड़े अर्वाचीन ।।

मायावाददोषे जीव कलि आगमने।
बहुदेव पूजे विष्णु सामान्य दर्शने ।।

एक एक देव एक एक फलदाता।
सर्वफलदाता विष्णु सकलेर पाता ।।

कामिजन यदि तत्त्व जानिवारे पारे।
विष्णु पूजि’ फल पाय, छाड़े देवान्तरे ।।

शास्त्रों के सिद्धान्त के अनुसार श्रीनारायण ही सर्व पूज्य हैं, जबकि ब्रह्माजी व शिवजी तो इस संसार की सृष्टि करने के लिए व प्रलय करने के कार्य के लिए हैं। जबकि सच्चाई यह कि भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर जो और – और देवताओं का भजन करते हैं, वे ईश्वर कर्को छोड़कर संसार में ही फसे रहते हैं। कोई कहता है कि ये ठीक है कि श्रीविष्णु तत्त्व ही परतत्त्व हैं, यह – वेद-वाणी है; इसे मैं मानता हूँ परन्तु ये सारा विश्व ही विष्णुमय है इसलिए वेद के इस सिद्धान्त के अनुसार सब देवताओं में ही श्रीविष्णु का अधिष्ठान है, अतः सभी देवताओं का अर्चन होने से वह श्रीविष्णु का ही सम्मान होता है।’ यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि उपरोक्त शास्त्र सिद्धान्त है परन्तु प्ग्ने विधि का सिद्धान्त नहीं है, ये तो निषेध का सिद्धान्त है अर्थात् सारा विश्व विष्णुमय होता है या सभी देवताओं में विष्णु भगवान का अधिष्ठान होता है- इसका मतलब यह नहीं कि किसी भी देवता की पूजा करने से या सब देवताओं की पूजा करने से भगवान विष्णु की पूजा हो जाती है, इसे शास्त्र – वाक्य का तात्पर्य है कि भगवान विष्णु की पूजा करने से सभी देवी-देवताओं की पूजा हो जाती है। ठीक उसी प्रकार जैसे वृक्ष की जड़ को सींचने से उसका तना, उसकी शास्वाएँ, टहनियाँ व पत्तों आदि का पोषण हो जाता है अर्थात् सभी को पानी मिल जाता है, जबकि पत्तों पर जल डालने से वृक्ष सूख जाता है, उसे पानी नहीं मिलता। इसलिए अन्य देवताओं की पूजा त्यागकर, श्रीविष्णु जी की पूजा करनी चाहिए, इस से अन्य देवताओं की पूजा तो अपने आप हो जाती है। प्राचीन काल से, वेद – सम्मत यह विधि ही चली आ रही थी; किन्तु दुर्भाग्यवश अब कुछ नये मूढ़ व्यक्तियों ने यह विधि छोड़ दी। मायावाद के दोष से व कलियुग के आने से लोग भगवान विष्णु को सभी देवताओं के समान जानकर अन्य देवी-देवताओं की पूजा करने लग पड़े हैं। एक-एक देवता, एक-एक फल को देने वाला है, किन्तु श्रीविष्णु सर्वफलदाता एवं सबके पालक हैं। सकामी व्यक्ति भी यदि इस तत्त्व को समझ लें तो वे भगवान श्रीविष्णु जी की पूजा करके अपने-अपने फलों को पा लेगें तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा छोड़ देंगे।’

गृहस्थ-वैष्णवों के कर्त्तव्य

गृहस्थ हइया येइ विष्णुभक्त हय।
सर्वकार्य कृष्ण पूजे छाड़िया संशय ।।

निषेकादि श्मशानान्त संस्कार यत।
ताहाते पूजयें कृष्ण वेदमन्त्रमत ।।

विष्णु – वैष्णवेर पूजा वेदेते विधान।
देवपितृगणे कृष्णनिर्माल्यप्रदान ।।

माँयावादिमते पितृश्राद्ध येइ करे।
येवा अन्यदेव पूजे, अपराधे मरे ।।

विष्णुतत्त्वे द्वैतबुद्धि नाम – अपराध ।
सेइ अपराधे ता’र हय भक्तिबाध ।।

शिवादि देवतागणे पृथक् ईश्वर।
मानिले नामापराध हय भयंकर ।।

विष्णुशक्ति पराशक्ति हैते देव यत।
भिन्न शक्ति सिद्ध नय वेदेर सम्मत ।।

शिव – ब्रह्मा – गणपति – सूर्य – दिक्पाल ।
कृष्णशक्ति – बलेते ईश्वर चिरकाल ।।

अतएव परेश्वर एकमात्र जानि।
आर सब देवे ताँ’र शक्तिमध्ये गणि ।।

अतएव सर्वकार्य कर्म – जड़भाव ।
छाड़िया गृहस्थ पाय भक्तिर सद्भाव ।।

गृहस्थ होकर जो, श्रीविष्णु – भक्त होता है वह सभी संशय त्यागकर हर परिस्थिति में श्रीकृष्ण की पूजा करता है। जन्म से मरने तक जितने भी संस्कार हैं, गृहस्थ व्यक्ति उन सभी में वेद मन्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। भगवान विष्णु व वैष्णवों की पूजा का तथा देवी-देवताओं व पितृगणों को श्रीकृष्ण का प्रसाद देने का, वेद में विधान है।

मायावादियों के मत के अनुसार जो व्यक्ति पितृश्राद्ध एवं अन्य देवों की पूजा करते हैं, वे अपराधी हैं तथा इस अपराध के कारण उनकी दुर्गति होती है। हरिदास ठाकुर जी कहते है, हे गौरहरि ! जैसे विष्णु जी एक ईश्वर हैं, उसी प्रक्रार शिव जी इत्यादि भी अलग अलग ईश्वर हैं विष्णु तत्त्व में इस प्रकार की भेद-बुद्धि करना भी एक प्रकार का भयंकर नामापराध है। भगवान विष्णु की शक्ति पराशक्ति है, इसी से सभी देवी-देवता आये हैं। वेदों के अनुसार भगवान की शक्ति के इलावा और कोई शक्ति नहीं हैं। शक्ति को शक्तिमान से कभी भी अलग नहीं किया जा सकृत्ता, यही वेद का सिंद्धान्त है। शिव, ब्रह्माजी, गणेश जी तथा सूर्य व अलग अलग दिशाओं के देवता हमेशा से ही श्रीकृष्ण के द्वारा शक्ति प्रदान करने पर ही कुछ सामर्थ्य रखते हैं। हरिदास जी कहते हैं कि इन्हें ईश्वर कहा जा सकता है परन्तु मैं समझता हूँ कि परमेश्वर एक है तथा जितने भी देवी-देवता हैं, सभी इन्हीं परमेश्वर की शक्ति हैं। अतः गृहस्थ – भक्त यदि कर्मकाण्ड के जड़ भाव का परित्याग कर दें तो वहु भगवान की भक्ति के सद्भाव को ग्रहण करेंगे।

वैष्णव लोग किस तरह से वैष्णव-धर्म पालन करेंगे

भक्तिर सद्भावे थाकि’ स‌त्क्रिया-करणे।
देवपितृगणे तुषे निर्माल्य – अर्पणे ।।

बहुदेवदेवी – पूजा करिबे वर्जन ।
कृष्णभक्त बलि’ सबे करिबे तर्पण ।।

श्रीकृष्ण – वैष्णवार्चने सर्वफल पाय।
नामे अपराध नहे, सदा नाम गाय ।।

भगवान की भक्ति के सद्- भावों में रहकर भगवान की भक्ति की विभिन्न क्रियाओं को करते रहना चाहिए तथा देवताओं व अपने पितरों की प्रसन्नता के लिए उन्हें भगवान का प्रसाद निवेदन करना चाहिए। बहुत से देवी-देवताओं की पूजा नहीं करनी चाहिए। सभी देवी-देवता भगवान श्रीकृष्ण के दास व दासियाँ हैं, यह जानकर केवल श्रीकृष्ण भजन ही करते रहना चाहिए और यह भावना हृदय में रखनी चाहिए कि इस कृष्ण भजन के द्वारा सभी देवी – देवताओं की प्रसन्नता हो रही है। जीव, भगवान श्रीकृष्ण की पूजा व वैष्णवों की सेवा से सर्वसिद्धि प्राप्त कर लेता है, साथ ही इससे साधक का नाम अपराध भी नहीं होता है व हर समय उसके मुख से श्रीकृष्ण नाम निकलता रहता है या वह हर समय श्रीकृष्ण-नाम् गाता रहता है।

चारों वर्णों की जीवनयात्रा की विधि

जगते मानवगण वर्णधर्माचरि’।
करिवेक देहयात्रा धर्मपथ धरि’ ।।

मनुष्य को चाहिए कि इस संसार में वह अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि वर्णों, तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थादि आश्रमों के नियमों के अनुसार आचरण करे। अपने अपने वर्ण तथा आश्रम के नियमों को पालन करते हुए अपनी देहयात्रा को चलाना भी सनातन धर्म ही कहलाता है क्योंकि ये क्रियाएँ साधक को सनातन धर्म अर्थात् आत्म-धर्म की ओर ले जाती हैं।

अन्त्यज लोगों की जीवन-यात्रा विधि

संकर अन्त्यज सबे त्यजि’ नीचधर्म
शूद्राचारे करे सदा संसारेर कर्म ।।

संकर अन्त्यज थाकिवेक शूद्राचारे।
चातुर्वर्ण बिना धर्म नाहिक संसारे ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्णों से अलग वर्णसंकर (जहाँ पर स्त्री उच्चवर्ण की व पुरुष निम्न वर्ण का हो, ऐसे विवाह को प्रतिलोम विवाह कहते हैं तूथा इस प्रकार के वैवाहिक जीवन से उत्पन्न सन्तान को वर्णसंकर कहते हैं) तथा अन्त्यज जाति के लोग अपनी जीवन यात्रा को चलाने के लिए अपने नीच कार्यों को छोड़कर शूद्र के नियमों का पालन करेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि इस संसार में चार वर्णों को छोड़कर अन्य और कोई भी वर्ण नहीं है जिसका कि वे वह पालन कर सकें।

संसारी व्यक्ति अपनी जीवन यात्रा में अपने-अपने वर्ण के धर्मों का पालन करें

चातुर्वर्ण वर्णधर्म करिबे संसार।
शुद्ध कृष्णभक्ति -बले हबे सदाचार ।।

चातुर्वर्ण यद्यपि श्रीकृष्ण नाहि भजे।
वर्णधर्माचारे थाकि’ रौरवेते मजे ।।

वर्ण बिना गृहस्थेर नाहि आर धर्म।
वर्णधर्माचारे गृहस्थेर सब कर्म ।।

वर्णधर्म ए संसार निर्वाह करिबे ।
यावदर्थ – परिग्रहे श्रीकृष्ण भजिबे ।।

निसर्गतः विधिवाक्य ये पर्यन्त नर।
वर्णधर्म स्वनिर्वाहे करिबे आदर ।।

भक्तियोग – नामे एइ तत्त्वनिरूपण।
भक्तियोगे भावोदय सिद्धान्तवचन ।।

भावोदये विधिर प्रवृत्ति नाहि रय।
भावोदित कार्य देहयात्रा सिद्ध हय ।।

गृहिवैष्णवेर एइ अद्वयसाधन ।
श्रीविष्णु अद्वयतत्त्वे द्वैतनिवर्त्तन ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र अपने वर्ण-धर्म का पालन करते हुये शुद्ध श्रीकृष्ण – भक्ति का आचरण करेंगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी- ये चारों वर्णाश्रमी अपने. आश्रम और वर्ण का पालन करते हुए भी यदि श्रीकृष्ण का भजन नहीं करते हैं, तब उन्हें रौरव नरक में जाना पड़ेगा। गृहस्थ अपने वर्ण-धर्म का आचरण करते हुए. जिससे जीवन-यात्रा का निर्वाह हो सके, उतना कमाते हुए श्रीकृष्ण का भजन करेंगे। संसार के विषयों से जब तक किसी का स्वाभाविक वैराग्य न हो जाये तब तक उसे अपने वर्ण व आश्रम के नियमों का आदर तथा पालन करना चाहिए। भक्ति योग में इसी तत्त्व को समझाया गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि भक्तियोग ही हमारे हृदय में भगव‌द्भावों को उदय करवायेगा जिसके द्वारा सांसरिक नियमों के प्रति हमारी प्रवृति स्वाभाविक ही खत्म हो जायेगी अर्थात् हरिभजन करते – करते जब जीव के हृदय में भगवद् – भाव उत्पन्न होने लगते हैं तो उसमें सारी भोग प्रवृतियाँ खत्म हो जाती हैं और उसकी देह-यात्रा तो स्वाभाविक रूप से ही चलने लगती है। अपने घर में, स्त्री में व अपने शरीर सम्बन्धी व्यक्तियों में आसक्त वैष्णवों को भक्ति योग रूपी अद्धितीय साधना को करना चाहिए। इस प्रकार की विष्णु भक्ति के द्वारा ही जीव का संसार के प्रति ‘मैं और मेरा’ का झूठा भाव समाप्त हो जाता है।

भगवान के नाम और नामी अर्थात् भगवान में कोई अन्तर नहीं होता

आर एक कथा आछे द्वैतनिवर्त्तने।
विष्णुनाम, विष्णुरूप विष्णुगुणगणे ।।

विष्णु हैते पृथग्रूपे ना मानिबे कभु।
अद्वय अखण्ड विष्णु चिन्मयत्वे विभु ।।

अज्ञानेते यदि हय द्वैत उपद्रव ।
नामाभास हय तार, प्रेम असम्भव ।।

सद्‌गुरुकृपाय सेइ अनर्थविनाश।
भजिते भजिते शुद्धनामेर प्रकाश ।।

भेदबुद्धि के निवारण के लिए एक बात और भी है कि भगवान विष्णु का नाम, उनका रूप, उनके गुण में कोई अन्तर नहीं है, इन्हें श्रीविष्णु से कभी भी पृथक नहीं मानना चाहिए। श्रीविष्णु तत्त्व अपने आप में चिन्मय है, अखंड है तथा विभु है। विष्णु तत्त्व से न तो कोई बड़ा है और न ही कोई उसके बराबर है। अज्ञानता से भी यदि विष्णु के नाम, रूप, गुण आदि में भेदबुद्धि हो जाये अर्थात् कोई भगवान को व उनके नाम आदि को उनसे अलग समझे, तो ऐसे जीव के लिए भगवद् प्रेम की प्राप्ति असंभव है। हाँ, ऐसी स्थिति में उसका नामाभास हो सकता है। सद्‌गुरु की कृपा से यदि उसकी भेदबुद्धि रूपी अनर्थ खत्म हो जाये तो उसके हृदय में शुद्ध नाम प्रकाशित हो जायेगा।

मायावादियों के कुतर्क एवं अपराध

मायावादज्ञाने द्वैत हैल प्रवर्त्तन।
अपराध हय, आर नहे निवर्त्तन ।।

मायावादी बले- बह्म हय परतत्त्व ।
निर्विशेष – निर्विकार निराकार सत्त्व ।।

“विष्णुरूप, विष्णुनाम माया कल्पित।
माया अन्तर्द्धाने विष्णु हन ब्रह्मगत ।।

ए सब कुतर्क मात्र, सत्य शून्यवाद।
परतत्त्वे सर्वशक्ति अभाव प्रमाद ।।

शक्तिमान् बह्म येइ, सेइ विष्णु हय।
नामेर विवादमात्र, वेदेर निर्णय ।।

मायावादियों की शिक्षा के प्रभाव से अगर विष्णु और विष्णु के नाम, रूप, गुण आदि में भेद का भाव प्रकट होता है तो इससे श्रीकृष्ण के चरणों में अपराध होत्य है। ऐसे अपराधों से कभी निवृति नहीं मिलती। मायावादी कहते हैं- निर्विशेष – निर्विकार निराकार ब्रह्म ही परत्तत्त्व है तथा उनके अनुसार है कि शून्यवाद ही सत्य है, बाकी सब केवल कुतर्क ही हैं। मायावादियों का यह भी कहना है कि भगवान के रूप व उनके नाम आदि सब माया में ही कल्पित हैं। अर्थात् अभी जो आप भगवान का स्वरूप देख रहे हो, ये माया से बना है, जैसे ही माया हट जाएगी तो भगवान विष्णु निराकार ब्रह्म बन जाते हैं। परतत्त्व भगवान को सर्वशक्तिमान न मानना अर्थात् परत्तत्त्व में सर्वशक्ति को ना मानना ही प्रमाद है। जबकि सत्य ये है कि जो शक्तिमान ब्रह्म हैं वही भगवान विष्णु हैं, सिर्फ नाम का ही अन्तर है, यही वेदों का निर्णय है।

विष्णु और ब्रह्म तत्त्व में सम्बन्ध

विष्णु परतत्त्व, ताँ ‘र निर्विशेष धर्म।
सविशेष – धर्म सह हय एक मर्म ।।

विष्णुर अचिन्त्यशक्ति विरोधभजन ।
अनायासे करि’ करे सौन्दर्य स्थापन ।।

जीवबुद्धि सहजेते अति अल्पतर।
अचिन्त्यशक्तिर भाव ना करे गोचर ।।

मिजबुद्ये चाहे एक स्थापिते ईश्वर।
खण्डज्ञाने पाय, ब्रह्मतत्त्वेते अवूर ।।

विष्णुर परम पद छाड़ि’ देवार्चित ।
बह्मे बड़ हय, नाहि बुझे हिताहित ।।

चिन्मयस्वरूपज्ञान ये बुझिते जाने।
विष्णु, विष्णुनामगुण एक करि’ माने ।।

एइ त’ विशुद्ध – ज्ञान श्रीकृष्णस्वरूप।
सम्बन्ध – बुद्धिते लभि’ भजे नामरूप ।।

भगवान विष्णु ही परतत्त्व हैं, एवं सविशेष हैं, किन्तु ज्ञान – मार्गीय साधन से, “वे भगवान को निर्विशेष के रूप में अनुभव करते हैं। भगवान की अचिन्त्य शक्ति ही विचारों के इस विरोध का नाश करती है तथा साधक के हृदय में भगवान के प्रति एक सुन्दर छवि को स्थापित करती है। जीव की बुद्धि, स्वाभाविक ही अल्पकर है अर्थात् बड़ी मूढ़ है इसलिए वह परमेश्वर की अचिन्त्य शक्त्ति के भाव को ग्रहण करने में असमर्थ रहती है। अपनी बुद्धि से ईश्वर को स्थापन करने की कोशिश खण्डज्ञान होने के कारण ब्रह्मतत्त्व को भी छोटा कर देती है। मायावादी लोग तमाम देवताओं द्वारा आराधित भगवान श्रीविष्णु के परमपद को छोड़कर, एक कल्पित ब्रह्म में उलझकर भ्रमित से हो जाते हैं तथा अपना हित व अहित भी नहीं समझते। हाँ, आत्मा के स्वरूपज्ञान को जो समझते हैं अर्थात् जिन्हें अपने चिन्मय स्वरूप का ज्ञान है, वे भगवान के नाम व गुण इत्यादि को भगवान से अभिन्न मानते हैं। यही श्रीकृष्ण स्वरूप का विशुद्ध ज्ञान है, ये विशुद्धज्ञान श्रीकृष्ण से नित्य सम्बन्ध को जान लेने पर ही हो सकता है और ऐसा होने पर जीव, भगवान की हरिनाम के स्मरण व कीर्तन रूपी भक्ति को करता है।

शिव और विष्णु-तत्त्व में अभेदबुद्धि कैसे करें

जड़नाम, जड़रूपगुणे येइ भेद।
से भेद चित्तत्त्वे नाइ, एइ त’ प्रभेद ।।

विष्णुतत्त्वे भेदज्ञान अनर्थ – विकार।
शिवेते विष्णुते भेद अति अविचार ।।

जड़ीय अर्थात् दुनियावी नाम, रूप व गुण में जो भेद होता है, चिन्मयतत्त्व में वैसा भेद नहीं है। चिन्मय तत्त्व की यही तो विशेषता है। श्रीविष्णुतत्त्व में भेदज्ञान ही अनर्थ है। शिव आदि देवताओं को भगवान से स्वतन्त्र समझना बिल्कुल गलत है।

भक्त और मायावादी के आचरण

नामैकशरण येइ भक्त महाजन ।
एकेश्वर कृष्णे भजि’ छाड़े अन्य जन ।।

अन्यदेव, अन्यशास्त्र निन्दा नाहि करे।
कृष्णदास बलि’ अन्ये पूजे समादरे ।।

प्रतिदिन गृहिभक्त निर्माल्य – अर्पणे।
देवपितृसर्वजीवे करेन तर्पणे ।।

यथा यथा अन्य देवे करेन दर्शन ।
कृष्णदास बलि’ ताँ रे करेन वन्दन ।।

मायावादिगण यदि विष्णुपूजा करे।
प्रसाद – निर्माल्य भक्त नाहि लय डरे ।।

मायावादी हरिनामे अपराधी हय।
ताहार प्रदत्त पूजा हरि नाहि लय ।।

अन्यदेवनिर्माल्य – ग्रहणे अपराध ।
शुद्ध भक्तिसाधने सर्वदा साधे बाध ।।

तबे यदि शुद्धभक्त श्रीकृष्ण पूजिया।
अन्यदेवे पूजा करे तत्प्रसाद दिया ।।

से प्रसाद ग्रहणेते नाहि अपराध ।
सेइरूप देवाचे नाहि भक्तिबाध ।।

शुद्धभक्त नाम – अपराधी नाहि हय।
नाम करि’ प्रेम पाय, नामे देय जय ।।

जिन भक्तों ने भगवान श्रीकृष्ण के नाम की शरण ले ली है वे अन्य देवता को छोड़कर एकमात्र श्रीकृष्ण का ही भजन करते हैं। हाँ, वे अन्य देवताओं एवं अन्य शास्त्रों की निन्दा नहीं करते बल्कि वे तो सभी देवताओं को श्रीकृष्ण का दास जानकर उनका आदर करते हैं। गृहस्थ – भक्त भगवान का प्रसाद अपने पितरों व देवी-देवताओं को अर्पण करके उन्हें प्रसन्न करते हैं।

वैष्णव लोग जहाँ – जहाँ भी किसी देवी या देवता का दर्शन करते हैं तो वे उन्हें श्रीकृष्ण का दास जानकर प्रणाम करते हैं। मायावादी लोग यदि भगवान की पूजा करते हैं, तो वैष्णव लोग उनका दिया हुआ प्रसाद इस भय से नहीं लेते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि मायावादी श्रीहरिनाम के चरणों में अपराधी होते हैं और उनके द्वारा की गई पूजा भगवान श्रीहरि ग्रहण नहीं करते हैं। इसके इलावा और – और देवी-देवताओं का प्रसाद भी नहीं लेना चाहिए; देवी-देवताओं का प्रसाद लेने से अपराध होता है, जो कि शुद्धभक्ति की साधना में बाधा पहुँचाता है। भक्त श्रीकृष्ण की पूजा करके उनका प्रसाद और- और देवी – देवताओं को अर्पित करते हैं। देवी-देवताओं को दिया हुआ श्रीकृष्ण का प्रसाद लेने से अपराध नहीं होता तथा इस प्रकार का देवी-देवताओं का प्रसाद लेना हरिभक्ति में बाधक भी नहीं होता। शुद्धभक्त श्रीनाम के चरणों में अपराधी नहीं होते हैं। वे हरिनाम संकीर्तन करकके भगवद् – प्रेम प्राप्त करते हैं तथा हमेशा हरिनाम की जय जयकार करते रहते हैं।

अपराध से मुक्त होने का उपाय

प्रमादे यद्यपि हय अन्ये विष्णु – ज्ञान।
तबे अनुतापे करि विष्णुतत्त्वध्यान ।।

श्रीविष्णु स्मरिया करि अपराध क्षय।
यत्ने देखि, आर ना से अपराध हय ।।

पूर्व – दोष – क्षमाशील भक्तेर बान्धव ।
दयार सागर कृष्ण क्षमार अर्णव ।।

बहुदेवसेविसंग करिव वर्जन।
एकेश्वर वैष्णवेर करिव पूजन ।।

हरिदासपदे भक्तिविनोद ये जन।
हरिनाम – चिन्तामणि ताहार जीवन ।।

प्रमाद से यदि किसी और में विष्णु ज्ञान हो जाये, तब अनुताप करके, विष्णुतत्त्व का स्मरण करके, फिर से अपराध न हो जाये, इसके लिए सावधान रहना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण भक्तों के बान्धव हैं, दया के सागर हैं। भगवान श्रीकृष्ण क्षमा के समुद्र हैं इसलिए वे अपने भक्तों के पिछले किये दोषों को क्षमा कर देते हैं। बहुत से देवी-देवताओं की सेवा करने वाले का संग त्याग करना चाहिए तथा अनन्य भाव से एकमात्र भगवान की सेवा करने वाले वैण्श्व की सेवा-पूजा करनी चाहिए। श्रीभक्तिविनोद ठाकुर जी कहते हैं कि जो लोग नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी के चरणों में शरणागत होंगे, ये हरिनाम चिन्तामणि उनका जीवन स्वरूप होगा।

इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ देवान्तरे स्वातन्त्र्यज्ञानापराध -विचारोनाम पन्चमः परिच्छेदः।