गदाइ – गौराङ जय जाह्नवा – जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तजन ।।
हरिदासे महाप्रभु सदय हइया।
उठाय तखन पद्महस्त प्रसारिया ।।
श्रीगदाधर पंडित, श्रीगौरांग महाप्रभु व जाह्नवा देवी जी के जीवन स्वरूप – श्रीनित्यानन्द जी की जय हो। सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि भक्तों की सर्वदा ही जय हो। हरिदास जी से हरिनाम की महिमा सुनकर महाप्रभु जी बड़े प्रसन्न हो गये और गद्गद् होकर उन्होंने श्रीहरिदास ठाकुर जी को अपनी बाहों में उठा लिया।
बले – शुन हरिदास आमार वचन ।
नामाभास स्पष्ट रूपे बुझाओ एखन ।।
नामाभास बुझाइले नाम शुद्ध ह ‘बे।
अनायासे जीव नामगुणे तरे या ‘बे ।।
महाप्रभु जी कहने लगे कि हे हरिदास! तुम मेरी बात सुनो। अब आप मुझे “नामाभास क्या है”, इसे स्पष्ट रूप से समझाओ क्योंकि नामाभास के बारे में पूरी जानकारी होने से ही जीवों का शुद्ध नाम होगा और तब अनायास ही जीव हरिनाम के गुणों के प्रभाव से भवसागर से पार हो जायेंगे।
नामाभास
नाम सूर्यसम नाशे माया – अन्धकार।
मेघ – कुज्झटिका नामे ढाके बार बार ।।
जीवेर अज्ञान आर अनर्थसकल ।
कुज्झटिका – मेघ रूप हय त ‘प्रबल ।।
कृष्णनाम – सूर्य चित्त – गगने उठिल ।
कुज्झटिका – मेघ पुनः ताँहारे ढाकिल ।।
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हरिनाम रूपी सूर्य उदित होकर मायारूपी अन्धकार का नाश करता है परन्तु हरिनाम रूपी सूर्य को अज्ञान और अनर्थ रूपी कोहरा तथा बादल बार-बार ढक देते हैं। जीव के ये अज्ञान और अनर्थ रूपी कोहरा और बादल बड़े घने होते हैं। श्रीकृष्ण नाम रूपी सूर्य जीव के चित्त रूपी आकाश में जैसे ही उदित होता है, उसी समय अज्ञान रूपी कोहरा और अनर्थ रूपी बादल उसे ढक देते हैं।
अज्ञान रूपी कोहरा होता है स्वरूप-भ्रम
नामेर ये चित्स्वरूप ताहा नाहि जाने।
से अज्ञान – कुज्झटिका अन्धकार आने ।।
कृष्ण सर्वेश्वर बलि’ नाहि जाने येइ।
नाना देवे पूजि कर्ममार्गे भ्रमे सेइ ।।
जीवे चित्स्वरूप बलि’ नाहि यार ज्ञान।
माया जड़ाश्रये तार सतत अज्ञान ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि जीव हरिनाम के चिन्मय स्वरूप को नहीं जानता है। यही अज्ञानता रूपी कोहरा उसके आगे छा जाता है और जीव के आगे अन्धेरा सा हो जाता है। श्रीकृष्ण ही सर्वेश्वर हैं, जो यह नहीं जानता है, वह ही विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करता हुआ कर्म – मार्ग में भटकता रहता है। इसके इलावा जीवात्मा का भी चिन्मय स्वरूप है; जिसको यह ज्ञान भी नहीं है, वह तो समझो माया के द्वारा बुरी तरह जकड़ा हुआ, हर समय अज्ञान में ही रहता है।
तबे हरिदास बले आज आमि धन्य।
मम मुखे नाम – कथा शुनिबे चैतन्य ।।
कृष्ण जीव प्रभु – दास, जड़ात्मिका माया।
ये ना जाने, ता’र शिरे अज्ञानेर छाया ।।
तभी श्रीहरिदास जी आनन्द से कहने लगे- मैं तो आज धन्य हो गया हूँ क्योंकि आज मेरे मुख से स्वयं श्रीचैतन्य महाप्रभु जी हरिनाम महिमा सुनेंगे। हे गौरहरिजी ! श्रीकृष्ण नित्य प्रभु हैं और जीव उन्हीं श्रीकृष्ण का नित्य दास है तथा माया तो जड़ात्मिका है, जो जीव यह नहीं जानता उसके सिर पर अज्ञान रूपी छाया मंडराती रहती है अर्थात् श्रीकृष्ण प्रभु हैं, जीव उनका नित्यदास है तथा माया जड़ है इसे अच्छी तरह से जान लेने पर जीव का सारा अज्ञान खत्म हो जाता है।
बादल रूपी हैं – असतृष्णा, हृदय की दुर्बलता और अपराध
असत्तृष्णा, हृदय – दौर्बल्य, अपराध।
अनर्थ ए सब मेघ रूपे करे बाध ।।
नाम – सूर्य – रश्मि ढाके, नामाभास हय।
स्वतःसिद्ध कृष्णनामे सदा आच्छादय ।।
श्रीकृष्ण नाम रूपी दिव्य सूर्य के सामने असद् – तृष्णा, हृदय की दुर्बलता एवं अपराध आदि के बादल रूपी अनर्थ आकर उसको ढकने लगते हैं। हरिनाम रूपी सूर्य की रोशनी को जब ये अनर्थ रूपी बादल ढक लेते हैं तो जीव का नामाभास होता है। ऐसी अनर्थयुक्त अवस्था में, स्वतः सिद्ध कृष्ण नाम हमेशा ही ढका रहता है।
नामाभास की अवधि
सम्बन्धतत्त्वेर ज्ञान यावत् ना हय।
तावत् से नामाभास जीवेर आश्रय ।।
साधक यद्यपि पाय सद्गुरू – आश्रय ।
भजन – नैपुण्ये मेघ आदि दूर हय ।।
जितने समय तक सम्बन्ध तत्त्व का ज्ञान नहीं होता है, उतने समय तक जीव का नामाभास ही होता है। यद्यपि ऐसी अवस्था में भी साधक सद्गुरु के आश्रय में ही रहता है। परन्तु जब तक वह दृढ़ता पूर्वक भजन नहीं करता, तब तक उसके ये अनर्थ रूपी बादल नहीं छटते अर्थात् साधक के भजन की निपुणता से ही ये अनर्थ रूपी बादल छिन्न-भिन्न होंगे।
सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन
मेघ – कुज्झटिका गेले नाम – दिवाकर ।
प्रकाश हइया भक्ते देन प्रेमवर ।।
सद्गुरु सम्बन्ध – ज्ञान करिया अर्पण ।
अभिधेय – रूपे करान
नामानुशीलन ।।
अज्ञान रूपी कोहरा व अनर्थ रूपी बादलों के हट जाने पर हरिनाम रूपी सूर्य प्रकाशित हो उठता है। ये हरिनाम रूपी सूर्य प्रकाशित होकर भक्तों को श्रीकृष्ण – प्रेम रूपी आनन्द प्रदान करता है। सद्गुरु जीव को सम्बन्ध ज्ञान प्रदान करके अभिधेय (साधना) के रूप में उससे हरिनाम का अनुशीलन करवाते हैं अर्थात् सद्गुरु उसे हरिनाम के श्रवण-कीर्तन व स्मरण के लिए कहते हैं।
नाम – सूर्य स्वल्पकाले प्रबल हइया।
अनर्थ – कुज्झटिका देन ताड़ाइया ।।
प्रयोजनतत्त्व तबे देन प्रेमधन ।
प्राप्तप्रेम जीव करे नामसंकीर्त्तन ।।
गुरु जी की कृपा से अल्प समय में ही हरिनाम रूपी सूर्य के तेज से अनर्थ रूपी कोहरा दूर हो जाता है। उसके बाद श्रीहरिनाम जीव को प्रयोजन तत्त्व – प्रेमधन प्रदान करते हैं। उस प्रेमधन को प्राप्त करके जीव श्रीकृष्ण नाम – संकीर्तन करता है।
सम्बन्ध-ज्ञान
सद्गुरू – चरणे जीव श्रद्धा – सहकारे।
प्रथमे सम्बन्धज्ञान पाय सुविचारे ।।
कृष्ण – नित्य प्रभु, आर जीव – नित्यदास।
कृष्णप्रेम – नित्य, जीव-स्वभाव प्रकाश ।।
कृष्ण – नित्यदास जीव, ताहा विस्मरिया ।
मायिक जगते फिरे सुख अन्वेषिया ।।
सद्गुरु के चरणों में जीव जब श्रद्धा के साथ उपस्थित होता है तो उसे सर्वप्रथम सद्गुरु से सम्बन्ध- ज्ञान की प्राप्ति होती है और उसे ये अच्छी तरह से मालूम पड़ जाता है कि श्रीकृष्ण ही नित्यप्रभु हैं और जीव उनका नित्यदास है तथा ये नित्य सिद्ध श्रीकृष्ण-प्रेम जीव के स्वरूप में प्रकाशित है। जीव श्रीकृष्ण का नित्यदास है, यह भूल कर ही वह माया के जगत में सुख की खोज कर रहा होता है।
मायिक जगत् हय जीव – कारागार।
जीवेर वैमुख्य – दोषे दण्ड प्रतिकार ।।
तबे यदि जीव साधु – वैष्णव – कृपाय ।
सम्बन्ध – ज्ञानेते पुनः कृष्णनाम पाय ।।
तबे पाय प्रेमधन सर्वधर्मसार ।
याहार निकटे सायुज्यादिर धिक्कार ।।
यावत् सम्बन्ध – ज्ञान स्थिर नाहि हय।
तावत् अनर्थ नामाभासेर आश्रय ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते है कि यह मायिक जगत तो जीव का कारागार है। जीव की भगवद् – विमुखता नामक दोष के कारण उसको यह दण्ड देकर शोधन किया जाता है। इस परिस्थिति में यदि जीव साधु – वैष्णवों की कृपा प्राप्त करता है तो वह पुनः सम्बन्ध ज्ञान के द्वारा श्रीकृष्ण नाम प्राप्त करता है तथा हरिनाम करते-करते सभी धर्मों के सार – स्वरूप, श्रीकृष्ण – प्रेमधन को प्राप्त करता है, जिसके सामने सायुज्य, सामीप्य आदि मुक्तियाँ तुच्छ सी प्रतीत होती हैं। जब तक किसी का सम्बन्ध ज्ञान पूरी तरह पक्का नहीं हो जाता, तब तक वह अनर्थो से रहित होकर शुद्ध हरिनाम नहीं कर सकता, ऐसी स्थिति में उसके द्वारा किया गया हरिनाम केवल मात्र नामाभास ही होता है।
नामाभास का फल
नामाभास – दशातेओ अनेक मङ्गल।
जीवेर अवश्य हय सुकृति प्रबल ।।
नामाभासे नष्ट हय आछे पाप यत।
नामभासे मुक्ति हय कलि हय हत ।।
नामाभासे नर हय सुपंक्ति – पावन ।
नामाभासे सर्वरोग हय निवारण ।
सकल आशङ्का नामाभासे दूर हय।
नामाभासी सर्वरिष्ट हैते शान्ति पाय ।।
नामाभास की स्थिति में भी बहुत मंगल होता है। एक तो जीव की सुकृति प्रबल होती चली जाती है। दूसरा नामाभास से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा साथ ही मनुष्य के अन्दर भरी हुई भोगों की वासनाएँ हर तरह का छल-कपट व झगड़े की भावनाएँ भी समाप्त हो जाती हैं। नामाभास के प्रभाव से पतित से पतित जीव भी अपने कुल के साथ पवित्र हो जाता है। नामाभास से जीव आसानी से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है और साथ ही उसके सभी रोगों का निवारण हो जाता है। नामाभास से जीव के अन्दर भरे हुए सभी प्रकार के सदेह समाप्त हो जाते हैं। नामाभासी व्यक्ति सभी प्रकार के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रुओं से मुक्त होकर पूर्ण शान्ति को प्राप्त कर लेता है।
यक्ष, रक्ष, भूत, प्रेत, ग्रहसमुदय।
नामाभासे सकल अनर्थ दूरे याय ।।
नरके पतित लोक सुखे मुक्ति पाय।
समस्त प्रारब्ध कर्म नामाभासे याय ।।
सर्ववेदाधिक सर्व तीर्थ हइते बड़।
नामाभास – सर्वशुभकर्म – श्रेष्ठतर ।।
नामाभास के प्रभाव से यक्ष, रक्ष, भूत, प्रेत, ग्रह और अनर्थ सब दूर हो जाते हैं। नामाभास के प्रभाव से सभी प्रकार के प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं और नामाभास के द्वारा नरकगामी व्यक्ति को भी मुक्ति की प्राप्ति होती है। सभी वेदों को पढ़ने, सभी तीर्थों की यात्रा करने तथा अनेक प्रकार के शुभ कर्मों को करने से भी अधिक है- नामाभास की महिमा अर्थात् इन सभी से नामाभास श्रेष्ठ है।
नामाभास से वैकुण्ठादि की प्राप्ति
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्वर्गदाता।
सर्वशक्ति धरे नामाभास जीवत्राता ।।
जगत् – आनन्दकर – श्रेष्ठपदप्रद ।
अगतिर एक गति सर्वश्रेष्ठ पद ।।
वैकुण्ठादि – लोकप्राप्ति नामाभासे हय।
विशेषतः कलियुगे सर्वशास्त्र कय ।।
नामाभास धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष, इन चारों को देने वाला है। इसके अतिरिक्त नामाभास जीव को उद्धार करने की पूर्ण शक्ति रखता है। ये दुनियाँ के तमाम सुखों को देने वाला तथा श्रेष्ठ पद प्रदान कराने वाला है। जिसका किसी तरह से कल्याण नहीं हो सकता, उसका भी नामाभास से कल्याण संभव है। नामाभास की स्थिति को प्राप्त करना अपने आप में ही सर्वश्रेष्ठ पद है। तमाम शास्त्र कहते हैं कि विशेषतः इस कलियुग में तो नामाभास से ही वैकुण्ठादि की प्राप्ति होती है।
नामाभास के चार प्रकार
चर्तुविध नामाभास एइमात्र जानि।
संकेत ओ परिहास, स्तोभ, हेला मानि ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि जहाँ तक मुझे ज्ञात है-संकेत, परिहास, स्तोभ और हेला ये चार प्रकार के नामाभास होते हैं।
संकेत रूपी नामाभास दो प्रकार के होते हैं
विष्णु लक्ष्य करि’ जङबुद्धये नाम लय।
अन्य लक्ष्य करि’ विष्णु नाम उच्चारय ।।
संकेते द्विविध एइ हय नामाभास।
अजामिल साक्षी तार शास्त्रेते प्रकाश ।।
यवनसकल मुक्त हबे अनायासे।
‘हाराम’, ‘हाराम’ बलि’ कहे नामाभासे ।।
अन्यत्र संकेते यदि हय नामाभास ।
तथापि नामेर तेज ना हय विनाश ।।
पहला संकेत नामाभास तो तब होता है जब भगवान विष्णु को लक्ष्य करके दुनियावी बुद्धि से जब भगवान का नाम उच्चारण किया जाता है तथा दूसरा तब, जब भगवान के अतिरिक्त कहीं और ध्यान हो (या चिन्तन हो) और मुख से भगवान का नाम उच्चारण किया जायेगा। संकेत रूपी नामाभास इन्हीं दो प्रकार का होता है। सांकेतिक नामाभास के सम्बन्ध में अजामिल का उदाहरण शास्त्रों में प्रकाशित है। ‘हा राम’! ‘हा राम’! उच्चारण से सभी यवन अनायास ही मुक्त हो जायेंगे। अन्यत्र किसी वस्तु को संकेत करते हुये भी यदि भगवद् नाम उच्चारण किया जाता है, तो इस तरह से हरिनाम के उच्चारण में भी हरिनाम का प्रभाव है, वह खत्म नहीं होता।
परिहास-नामाभास
परिहासे कृष्णनाम येइ जन करे।
जरासन्ध – सम सेइ ए संसारे तरे ।।
जो जीव परिहास (मज़ाक) करते हुये भी श्रीकृष्ण नाम ले लेते हैं, जरासन्ध की तरह वे भी इस संसार से पार हो जाते हैं।
स्तोभ नामाभास
अङ्गभङ्गी चैद्य सम करे नामाभास ।
स्तोभ मात्र हय, तबु नाशे भवपाश ।।
शिशुपाल की तरह और किसी उद्देश्य से लिया गया हरिनाम, स्तोभनामाभास कहलाता है। इससे भी जीव का भवबन्धन दूर हो जाता है।
हेला नामाभास
मन नाहि देय आर अवज्ञा – भावेते।
कृष्ण राम बले, हेला – नामाभास ता ‘ते ।।
एइ सब नामाभासे म्लेच्छगण तरे।
विषयी अलस जन एइ पथ धरे ।।
हरिनाम में अपने मन को न लगाकर सहज भाव से यदि कोई कृष्ण या राम नाम उच्चारण करता है तो इससे उसका हेला नामाभास होता है। ऐसे नामाभास के द्वारा सभी म्लेच्छ संसार से तर जाते हैं अधिकतर विषयी एवं आलसी लोगों के द्वारा यह नामाभास होता है।
श्रद्धा पूर्वक नाम-ग्रहण और हेला नामाभास में भेद
श्रद्धा करि’ करे नाम अनर्थ सहित ।
श्रद्धा – नाम हय सेइ तोमार विहित ।।
संकेतादि अवज्ञा पर्यन्त भाव धरि’।
नाम करे हेलाय ये श्रद्धा परिहरि’ ।।
नामाभास – अवधि से हेला – नाम हय।
ताहातेओ मुक्ति लभे, पाप हय क्षय ।।
श्रीहरिदास जी महाप्रभु जी से कहते हैं कि अनर्थयुक्त जीव भी यदि श्रद्धा के साथ श्रीकृष्ण नाम करता है तो उसे भी आप श्रद्धापूर्वक लिया गया हरिनाम ही कहते हो। हेला नामाभास तक जितने भी प्रकार के नामाभास हैं, उनमें से किसी भी तरह का नामाभास यदि हो जाता है तो इस प्रकार श्रद्धा – रहित हरिनाम उच्चारण से भी जीवों के तमाम पाप खत्म हो जाते हैं और उनको मुक्ति की प्राप्ति होती है।
अनर्थ समाप्त होने पर नामाभास करते-करते शुद्ध नाम होने से प्रेम प्रदान कराता है
कृष्ण – प्रेम छाड़ि’ सब नामाभासे पाय।
नामाभासे पुनः शुद्ध नाम ह ‘ये याय ।।
अनर्थ – विगते यबे शुद्ध नाम हय।
कृष्णप्रेम तबे तार हइबे निश्चय ।।
नामाभास साक्षात् से प्रेम दिते नारे।
नाम ह ‘ये प्रेम देय विधि – अनुसारे ।।
श्रीकृष्ण – प्रेम को छोड़कर बाकी सब कुछ नामाभास से ही प्राप्त किया जा सकता है और यह नामाभास भी धीरे-धीरे शुद्ध हरिनाम में परिवर्तित हो जाता है। अनर्थों के समाप्त हो जाने पर जब साधक के मुख से शुद्ध-नाम होने लगता है तब उसे निश्चित रूप से श्रीकृष्ण – प्रेम प्राप्त हो जाता है। नामाभास साक्षात् रूप से प्रेम प्रदान नहीं कर सकता परन्तु इस प्रकार का हरिनाम ही क्रमानुसार प्रेम – मार्ग (अर्थात् श्रीकृष्ण – प्रेम) तक पहुँचा देता है।
नामाभास और नाम-अपराध में भेद
अतएव नाम – अपराध परिहरि’।
नामाभास करे येइ, तारे नति करि ।।
कर्म ज्ञान हइते अनन्त श्रेष्ठतर ।
बलि’ नामाभासे जानि, ओहे सर्वेश्वर ।।
रतिमूला श्रद्धा यदि शुद्ध भावे हय।
तबे त’ विशुद्ध नाम हइबे उदय ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे सर्वेश्वर! हे प्रभु! जो व्यक्ति नामापराध को छोड़कर नामाभास भी करते हैं, उन्हें भी मैं प्रणाम करता हूँ क्योकि ये नामाभास कर्म मार्ग व ज्ञान मार्ग से अनन्त गुणा श्रेष्ठ है। श्रीहरिदास जी कहते हैं कि भगवद्-प्रेम उत्पन्न कराने वाली श्रद्धा यदि किसी के हृदय में शुद्धभाव से विद्यमान हो तो तभी उसके मुख से विशुद्ध श्रीकृष्ण – नाम उच्चारित होगा।
छाया और प्रतिबिम्ब भेद से आभास दो प्रकार का होता है छाया नामाभास
आभास द्विविध हय – प्रतिबिम्ब, छाया।
श्रद्धाभास द्विप्रकार, सब तब माया ।।
छाया श्रद्धाभासे छाया- नामाभास हय।
सेइ नामाभासे जीवेर शुभ प्रसवय ।।
आभास दो प्रकार के होते हैं प्रतिबिम्ब – आभास तथा छाया आभास। हे प्रभु! यह आपकी माया है कि श्रद्धा का आभास भी दो प्रकार से होता है। छाया श्रद्धाभास से छाया नामाभास होता है और इसी से जीव का शुभ उदित होने लगाता है।
प्रतिबिम्ब नामाभास
अन्य जीवे शुद्धा श्रद्धा करिया दर्शन ।
निज मने श्रद्धाभास आने येइ जन ।।
‘भोग – मोक्ष वान्छा ताहे थाके नित्य मिशि’।
अश्रमे अभीष्ट – लाभे यते दिवानिशि ।।
श्रद्धा लक्षण मात्र, श्रद्धा ताहा नय।
ता ‘के प्रतिबिम्ब – श्रद्धाभास शास्त्रे कय ।।
प्रतिबिम्ब – श्रद्धाभासे नामाभास यत।
प्रतिबिम्ब – नामाभास हय अविरत ।।
अन्य लोगों की भगवान में शुद्ध श्रद्धा को देखकर जो व्यक्ति अपने मन में भी श्रद्धा का आभास लाता है, उसे प्रतिबिम्ब नामाभास कहा जाता है। उस जीव के अन्दर इस श्रद्धा के साथ साथ दुनियावी भोग तथा मोक्ष आदि की इच्छाएँ भी रहती हैं और वह बिना प्रयास के ही अपनी अभीष्ट वस्तु श्रीकृष्ण – प्रेम को प्राप्त करने के लिए दिन-रात हरिनाम करता है। यह श्रद्धा का लक्षण मात्र है, इसे वास्तविक श्रद्धा नहीं कहा जा सकता। शास्त्रों में इसे प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास कहा गया है। प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास की स्थिति में जितना भी हरिनाम उच्चारित होता है, वह सब प्रतिबिम्ब नामाभास ही होता है।
प्रतिबिम्ब नामाभास मायावाद रूपी कपटता को उत्पन्न करता है?
एइ नामाभासे मायावाद दुष्टमत।
प्रवेशिया शठताय हय परिणत ।।
इस नामाभास में मायावाद रूपी दुष्ट मतों का प्रवेश हो जाये तो यह नामाभास धूर्तता में बदल जाता है।
कपट प्रतिबिम्ब नामाभास ही नामापराध है
नित्य साध्य नामे साधन बुद्धि करि’।
नामेर महिमा नाशि’ अपराधे मरि ।।
नित्य साध्य हरिनाम को सिर्फ साधन समझने से हरिनाम की महिमा को कम आँकना है। यह भी नामापराध है। जो व्यक्ति हरिनाम को सिर्फ साधन समझता है, वह बेचारा अपराधों में उलझ कर खत्म हो जाता है क्योंकि हरिनाम तो साक्षात् हरि हैं। ये साधन के साथ-साथ साध्य भी हैं।
छाया नामाभास और प्रतिबिम्ब नामाभास में भेद
छाया नामाभासे मात्र हयत अज्ञान।
हृदय – दौर्बल्य हैते अनर्थ – विधान ।।
सेइ सब दोष नाम करेन मार्जन।
प्रतिबिम्ब – नामाभासे दोषेर वर्द्धन ।।
छाया नामाभास में केवल अज्ञान ही होता है, ये अनर्थ हृदय की दुर्बलता से ही होता है। एकमात्र हरिनाम ही ऐसी साधना है जिससे सारे दोष समाप्त हो जाते हैं जबकि प्रतिबिम्ब नामाभास में ये दोष बढ़ जाते हैं।
मायावाद और भक्ति-परस्पर विपरीत-धर्म हैं-मायावाद ही अपराध है
कृष्ण – नाम – रूप-गुण- लीलादि सकल।
मायावादिमते मिथ्या नश्वर सकल ।।
सेइ मते प्रेमतत्व नित्य नाहि हय।
भक्ति – विपरीत मायावाद सुनिश्चय ।।
भक्तिवैरी – मध्ये मायावादेर गणन।
अतएव मायावादी अपराधी हन ।।
मायावादियों के मतानुसार श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण व लीला आदि सभी झूठे तथा नाशवान हैं। इनके मतानुसार भगवद् – प्रेम – तत्त्व नित्य नहीं होता, इसीलिए यह मायावादी मत शत-प्रतिशत भक्ति मार्ग के विपरीत है। भक्ति के शत्रु के रूप में मायावाद की गणना होती है, इसीलिए मायावादी भगवद् – चरणों में अपराधी होते हैं।
मायावादिमुखे नाम नाहि बाहिराय।
नाम बाहिराय तबु नामत्व ना पाय ।।
मायावादी यदि करे नाम – उच्चारण।
नामके अनित्य बलि’ लभये पतन ।।
नामेर निकटे भोग – मोक्षेर प्रार्थना।
नामेर निकटे शाठ्य फलेते यातना ।।
मायावादी के मुख से भगवान का नाम नहीं निकलता या यूँ कहें कि उनके मुख से भगवद् नाम निकलने पर भी वह नामत्त्व को प्राप्त नहीं होता अर्थात् मायावादी द्वारा किया हुआ हरिनाम फलीभूत नहीं होता। मायावादी यदि भगवान के नाम का उच्चारण भी करता है तो वह मन ही मन में भगवद् – नाम को अनित्य समझता है जिससे उसका पतन हो जाता है। हरिनाम करते हुये मन में श्रीहरिनाम से दुनियावी भोगों की व मोक्ष की प्रार्थना करना हरिनाम के प्रति धूर्तता है जिसका परिणाम दुःख होता है।
अपराध मायावादी को कब छोड़ते हैं
तबे यदि मायावादी भुक्ति – मुक्ति – आश !
छाड़िया करये नाम ह ‘ये कृष्णदास ।।
तबे ता रे छा ‘ड़े मायावाद – दुष्टमत ।
अनुताप सह हय नामे अनुगत ।।
साधुसद्धे करे पुनः श्रवण – कीर्तन ।
सुसम्बन्ध – ज्ञान तार उदे ततक्षण ।।
अविश्रान्त नाम करे, पड़े चक्षुजल ।
नामकृपा पाय, चित्त हय त’ सबल ।।
हाँ, यदि मायावादी भोग और मोक्ष की इच्छा को छोड़कर, स्वयं को श्रीकृष्ण का दास समझकर व पश्चाताप के साथ हरिनाम करता है तो मायावाद रूपी दुष्ट मत से उसका छुटकारा हो जाता है। इतना ही नहीं, साधु-संग करते हुये जब वह भगवद्-कथा श्रवण एवं कीर्तन करता है तो उसके हृदय में सम्बन्ध ज्ञान का अनुभव उदित होता है। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि जब वह सम्बन्ध-ज्ञान के साथ निरन्तर हरिनाम करता रहता है तो उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है। वह हरिनाम की कृपा को प्राप्त करता है तथा उसका चित् आत्मबल से परिपूर्ण हो जाता है।
भक्ति को अनित्य बोलने के कारण ही मायावाद रूपी अपराध होता है
कृष्ण रूप – कृष्णदास्य जीवेर स्वभाव ।
मायावाद अनित्य कल्पित बले सब ।।
हेन मायावाद नाम – अपराधे गणि।
मायावाद हय सर्व विपदेर खनि ।।
श्रीकृष्ण की शक्ति के अंश स्वरूप जीव का, श्रीकृष्ण की सेवा करना ही स्वभाव होता है जबकि मायावादी इसे अनित्य और कल्पित समझते हैं। ऐसे मायावाद की नाम अपराध के अन्तर्गत गणना होती है। गम्भीरता से देखा जाये तो यह मायावाद तमाम मुसीबतों की खान है।
मायावादी नामाभास के द्वारा मुक्ति का आभास रूपी सायुज्य मुक्ति की प्राप्ति
नामाभास कल्पतरू मायावादिजने।
अभीष्ट अर्पण करे सायुज्य – निर्वाणे ।।
सर्वशक्ति नामे आछे ताइ नामाभास।
प्रतिबिम्ब हइलेओ देन मुक्त्याभास ।।
पन्चविध मुक्ति – मध्ये ‘सायुज्य’ – आभास ।
भव – क्लेश नाशे, मात्र, फले सर्वनाश ।।
नामाभास कल्पतरु के समान है, इसलिए मायावादी को भी उसका अभीष्ट – सायुज्य मुक्ति प्रदान करता है। हरिनाम सर्वशक्तिमान है, इसलिए प्रतिबिम्ब नामाभास होने पर भी यह हरिनाम मायावादी को मुक्ति का आभास प्रदान करता है। पाँच प्रकार की मुक्तियों में सायुज्य तो मुक्ति का आभास मात्र है, जिससे केवल संसारी चक्र समाप्त होता है परन्तु भक्त की दृष्टि में उसका यह फल सर्वनाश के समान है क्योंकि सायुज्य मुक्ति को प्राप्त हुआ जीव कभी भी श्रीकृष्ण-प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकता।
मायावादी कभी भी नित्य सुख को प्राप्त नहीं कर पाता
मायाय मोहित जन ताहे सुख माने।
सुखाभास मात्र पाय सायुज्य – निर्वाणे ।।
सच्चित् – आनन्द – सेवा परम – निवृति ।
सायुज्ये ना पाय कभु हतकृष्णस्मृति ।।
याँहा नाहि भक्ति, प्रेम, नित्यता विश्वास।
नित्यसुख कैछे ताहे हइबे प्रकाश ।।
माया से मोहित व्यक्ति उसी को ही अर्थात् सायुज्य – मुक्ति को ही सुख समझता है क्योंकि सायुज्य मुक्ति में उसे सुख का आभास होता है। वास्तविक मुक्तावस्था तो सच्चिदानन्द भगवान की सेवा की प्राप्ति में है। श्रीकृष्ण – स्मृति के अभाव में सायुज्य – मुक्ति को प्राप्त होने वाला जीव कभी भी श्रीकृष्ण – सेवा प्राप्त नहीं कर सकता। जहाँ पर भक्ति की नित्यता अथवा कृष्ण – प्रेम की नित्यता में विश्वास नहीं है, वहाँ पर नित्यसुख की प्राप्ति कैसे संभव है।
छाया नामाभास धीरे-धीरे जीव को शुद्ध नाम की ओर ले जाता है यदि वह दुष्ट मत में प्रवेश न करे तो
छाया – नामाभासी नाहि जाने दुष्टमत।
मतवादे चित्तबल नहे तार हत ।।
से केवल नाहि जाने यथार्थ प्रभाव।
से प्रभाव ज्ञानदान नामेर स्वभाव ।।
मेघाच्छने, सूर्यप्रभा प्रतीत ना हय।
किन्तु मेघे नाशि’ सूर्य करेन उदय ।।
छाया – नामाभासी धन्य सद्गुरू – प्रभावे।
अल्पदिने नाम – प्रेम अनायासे पाबे ।।
चूंकि छाया – नामाभासी व्यक्ति का मायावाद रूपी दुष्ट मत से कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए मतवादों के चक्कर में पड़कर उसका चिद्दल नष्ट नहीं होता। छाया नामाभासी व्यक्ति में केवल यह कमी होती है कि वह हरिनाम के वास्तविक प्रभाव को नहीं जानता जबकि हरिनाम का स्वभाव है कि वह अपने आश्रित को अपनी महिमा से अवगत करवा देता है। घने बादलों से ढक जाने के कारण सूर्य का तेज दिखाई नहीं पड़ता परन्तु यदि बादल छिन्न-भिन्न हो जायें तो सूर्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है। वैसे देखा जाये तो छाया नामाभासी व्यक्ति धन्य है क्योंकि सद्गुरु की कृपा से थोड़े ही दिनों में अनायास ही वह भगवद् – प्रेम प्राप्त कर लेता है।
भगवद्भक्तों को अवश्य ही मायावादियों के संग का परित्याग करना चाहिए
मायावादि – संग तेह सतर्क छाड़िया।
शुद्ध नामपरायणे तुषिबे सेविया ।।
एइ त’ तोमार आज्ञा श्रीकृष्णचैतन्य।
सेइ आज्ञा जेइ पाले, सेइ जीव धन्य ।।
ये ना पाले तब आज्ञा, सेइ जीव छार।
कोटी जन्मे किछुतेइ ना ह ‘बे उद्धार ।।
कुसंग छाड़िये प्रभु राख तब पाय।
तव पादपद्म बिना ना देखि उपाय ।।
हरिदास – पदद्वन्द्वे विनोद याहार।
‘हरिनामचिन्तामणि’ सदा गान ता’र ।।
हरिदास ठाकुर जी कहते हैं- हे महाप्रभु जी! आपकी आज्ञा है कि भगवद् – भक्तों को मायावादियों का संग सावधानीपूर्वक छोड़ देना चाहिए तथा शुद्ध – नाम परायण होकर भगवान को प्रसन्न करने की चेष्टा करते रहना चाहिए। आपकी इस आज्ञा का जो जीव पालन करता है, वही जीव धन्य है। जो अधम जीव आपकी इस आज्ञा का पालन नहीं करता है, वह चाहे किसी भी प्रकार के साधन करे, उस जीव का करोड़ों जन्मों में भी उद्धार नहीं होगा। हे प्रभु! आप हमें कुसंग से बचाकर अपने चरणकमलों में रखिए, क्योंकि आपके पादपद्मों की कृपा के अतिरिक्त हमारे कल्याण का और कोई उपाय नहीं है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के पादपद्मों में ही जिन्हें वास्तविक आनन्द की अनुभूति होती है, वे इस ‘हरिनाम चिन्तामणि’ का हमेशा गुणगान गाते रहते हैं।
इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ नामाभासवर्णनं नाम तृतीयः
परिच्छेदः।