(पहला परिच्छेद)
गदाइ गौरांग जय जाहवा – जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तगण ।।
श्रीगदाधर पंडित जी व श्रीगौरांग महाप्रभुजी की जय हो। श्रीमती जाहवा देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभुजी, सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी तथा श्रीवास पडित आदि जितने भी भक्त हैं, सभी की जय हो।
लवण – जलधि – तीरे, नीलाचले श्रीमन्दिरे,
दारूब्रह्म पुरुषप्रधान।
जीवे निस्तारिते हरि, अर्चारूपे अवतरि’,
भोग मोक्ष करेन प्रदान ।।
समुद्र के तट पर नीलाचल धाम के मन्दिर में पुरुषोत्तम श्रीहरि, दारु ब्रह्म के रूप में अर्थात् दिव्य लकड़ी से बनी श्रीमूर्ति के रूप में जीवों के उद्धार के लिए अवतरित हुए हैं। भगवान श्रीहरि इस रूप में अवतरित होकर सभी को दुनियाँ की धन – सम्पदा व यश आदि सांसारिक वस्तुएँ तथा मोक्ष भी प्रदान करते हैं।
सेइ धामे श्रीचैतन्य, मानवे करिते धन्य,
संन्यासी – रुपेते भगवान्।
कलिते ये युगधर्म, बुझाइते तार मर्म,
काशीमिश्र – घरे अधिष्ठान ।।
भगवान के इसी धाम में अर्थात् श्रीजगन्नाथ पुरी धाम में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी, जो कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं, जीवों को भव सागर से पार उतारने के लिए एक संन्यासी के रूप में आये हुए हैं। भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी कलियुग के युगधर्म- श्रीहरिनाम संकीर्तन के उपदेश को समझाने के लिए काशी मिश्र के घर पर रहते हैं।
निज भक्तवृन्द ल’ये, निजे कल्पतरू ह’ये,
कृष्णप्रेम देन सर्वजने।
नानामते भक्तमुखे भक्तिकथा शुनि’ सुखे,
जीव – शिक्षा देन सुयतने ।।
यही नहीं, वे अपने भक्तों के साथ बड़े उदार कल्प वृक्ष बनकर सभी को श्रीकृष्ण – प्रेम प्रदान करते हैं। भक्तों के मुख से हरिकथा सुननी चाहिए, इस महान शिक्षा को देने के लिए आप स्वयं विभिन्न प्रकार के तत्त्वों की कथा बड़े ध्यान से व बड़े आनन्द के साथ सुनते हैं।
आपने श्रीरामानन्दराय जी के मुख से रस-तत्त्व की कथा, श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य जी के मुख से मुक्ति तत्त्व की कथा, श्रीरूप गोस्वामी जी के मुख से रस-विचार और श्रीहरिदास ठाकुर जी के मुख से श्रीहरिनाम की महिमा सुनी थी।
एक दिन भगवान्, समुद्रे करिया स्नान,
श्रीसिद्ध – बकुले हरिदासे।
मिलि’ आनन्दित मने, जिज्ञासिला सयतने,
किसे जीव तरे अनायासे ।।
एक दिन भगवान श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु समुद्र में स्नान करके सीधे सिद्ध बकुल की ओर चले आये, जहाँ उनकी भेंट श्रीहरिदास ठाकुर जी से हुई। बड़े आनन्द के साथ दोनों मिले। बात करते-करते बड़े सुन्दर ढंग से महाप्रभु जी ने श्रीहरिदास जी से पूछा – हरिदास जी ! ये बताओ कि, किस प्रकार जीव सुगमतापूर्वक भवसागर को पार कर सकता है ?
प्रभुर चरण धरि’, अनेक विनय करि’,
गलदश्रु पुलक शरीर।
हरिदास महाशय, काँदिते काँदिते कय,
प्रभु तव लीला सुगंभीर ।।
महाप्रभु जी का प्रश्न सुनकर श्रीहरिदास ठाकुर जी के नेत्रों से आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं और उनका सारा शरीर पुलकायमान हो गया। बड़ी श्रद्धा के साथ उन्होंने महाप्रभु जी के चरणों में प्रणाम किया और उनके चरण पकड़ कर अपनी स्वाभाविक दीनता के साथ आँसु बहाते हुए भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभुजी से कहने लगे – हे प्रभु! आपकी लीला सुगम्भीर है।
आमि अति अकिन्चन, नाहि मोर विद्याधन,
तव पद आमार सम्बल।
एहेन अयोग्य जने, प्रश्न करि’ अकारणे,
बल प्रभु ह ‘बे किबा फल ।।
मैं तो अति अकिंचन हूँ, मेरे पास भला विद्यारूपी धन कहाँ! आपके श्रीचरण ही मेरा सहारा हैं व सर्वस्व हैं। ऐसे अयोग्य व्यक्ति को आपने ऐसे ही यह प्रश्न कर दिया। अब आप ही बतायें कि इसका क्या फल होगा।
तुमि कृष्ण स्वयं प्रभो, जीव-उद्घारिते विभो,
नवद्वीप – धामे अवतार।
कृपा करि रांगा पाय, राख मोरे गौरराय,
तबे चित्त प्रफुल्ल आमार ।।
हे प्रभो! आप तो स्वयं विभु अर्थात् सर्वव्यापक श्रीकृष्ण ही हो एवं जीवों का उद्धार करने के लिए आपने नवद्वीप धाम में अवतार लिया है। हे गौरचन्द्र ! आप अपने इन लालिमा – युक्त दिव्य चरणों में कृपा करके मुझे स्थान दीजिए, तभी तो मेरा चित्त प्रफुल्लित होगा।
तोमार अनन्त नाम, तवानन्त गुणग्राम,
तव रूप सुखेर सागर।
अनन्त तोमार लीला, कृपा करि’ प्रकाशिला,
ताइ आस्वादये ए पामर ।।
हे गौरहरि जी ! आपके अनन्त नाम हैं, आपके गुण भी अनन्त हैं और आपका रूप तो सुखों का सागर है। यही नहीं, आपकी लीलाएँ भी अनन्त हैं। आप मुझ पर कृपा करें, आप अपने श्रीचरणों में मुझे स्थान दें, तभी मेरे जैसा ये पामर जीव आपकी दिव्य लीलाओं का आस्वादन कर सकता है।
चिन्मय भास्कर तुमि, किरणेर कण आमि,
तुमि प्रभु, आमि नित्यदास ।
चरण – पीयूष तब, मम सुख सुवैभव,
तव नामामृते मोर आश ।।
हे गौरहरि ! आप चिन्मय सूर्य हो, मैं तो उस सूर्य की किरण का एक कणमात्र हूँ। हे गौरहरि ! आप मेरे नित्य प्रभु हो और मैं आपका नित्यदास हूँ। आपके चरणों का अमृत ही मेरा आनन्दमय वैभव है। बस, आपके नामामृत का रसास्वादन करने की मेरी बड़ी इच्छा है तथा आशा है कि कभी तो आप अपने नामामृत का मुझे पान करवाओगे।
एमत अधम आमि, कि बलिते जानि स्वामी,
तबु आज्ञा करिब पालन।
या’ बलावे मोर मुखे, तोमारे बलिब सुखे,
दोष गुण ना करि गणन ।।
आपने जो प्रश्न किया, उस विषय में मैं भला क्या जानता हूँ, जो कुछ कहूँ। मैं तो बस आपकी आज्ञा का पालन करूँगा और आज्ञा पालन करते हुए आप मेरे मुख से जैसा बुलवाओगे, वैसा ही बड़ी खुशी-खुशी बोलता चला जाऊँगा। बस इतनी कृपा करना कि मेरे द्वारा दिये उत्तर के गुण अथवा दोष न देखना।
कृष्णतत्त्व
एकमात्र इच्छामय कृष्ण सर्वेश्वर।
नित्य शक्तियोगे कृष्ण विभु परात्पर ।।
इच्छामय भगवान श्रीकृष्ण ही एकमात्र सर्वेश्वर हैं। वे श्रीकृष्ण नित्य हैं, सर्वशक्तिमान हैं, सर्वव्यापक हैं तथा सर्वश्रेष्ठ तत्त्व हैं। श्रीकृष्ण स्वतन्त्र व स्वेच्छामय पुरुष हैं तथा वे स्वाभाविक रूप से ही अचिन्त्य शक्तियुक्त हैं।
कृष्ण-श्रीकृष्णशक्ति
कृष्णशक्ति कृष्ण हइते ना हय स्वतन्त्र।
येइ शक्ति, सेइ कृष्ण-कहे वेदमन्त्र ।।
कृष्ण विभु, शक्तिं ताँ र वैभव – स्वरूप ।
अनन्त वैभवे कृष्ण हय एक रूप ।।
श्रीकृष्ण की शक्ति श्रीकृष्ण से कभी भी अलग नहीं है। वेदमन्त्रों में कहा गया है कि जो शक्ति है, वे ही श्रीकृष्ण हैं, अन्तर केवल इतना है कि श्रीकृष्ण विभु हैं और शक्ति उनका वैभव स्वरूप है। अनन्त वैभव के द्वारा अर्थात् अनन्त शक्तियों से युक्त होकर भी श्रीकृष्ण ‘एक’ स्वरूप कहे जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण अनन्त शक्ति स्वरूप हैं, इसीलिए उन्हें सर्वशक्तिमान कहा जाता है। शक्ति से श्रीकृष्ण नहीं बल्कि श्रीकृष्ण से अनन्त शक्तियाँ प्रकाशित होती हैं।
तीन प्रकार के वैभव शक्तिर प्रकाश येइ सेइ त वैभव
विभुर वैभव मात्र हय अनुभव ।।
वैभव त्रिविध तव गौरांग सुन्दर।
चिदचित् जीव तिन शास्त्रेर गोचर ।।।
शक्ति का जो प्रकाश है, उसी को वैभव कहा जाता है। विभु का वैभव ही केवल अनुभव में आता है। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे गौरसुन्दर ! तुम्हारा वैभव शास्त्र में चिद् – वैभव, अचिद् – वैभव (माया – वैभव) तथा जीव – वैभव- इन तीन रूपों में वर्णित है।
चिद्-वैभव
अनन्त वैकुण्ठ आदि यत कृष्णधाम ।
गोविन्द श्रीकृष्ण हरि आदि यत नाम ।।
द्विभुज – मुरलीधर आदि यत रूप।
भक्तानन्दप्रद आदि गुण अपरूप ।।
व्रजे रासलीला, नवद्वीपे संकीर्त्तन ।
एइरूप कृष्णलीला विचित्र गणन ।।
अनन्त वैकुण्ठ इत्यादि जितने भी श्रीकृष्ण के असंख्य धाम हैं, ‘गोविन्द’, ‘श्रीकृष्ण’, ‘हरि’ आदि जितने भी भगवान के नाम हैं, द्विभुज -वंशीधर, द्विभुज – मुरलीधर, धर्नुधर, चतुर्भुज नारायण इत्यादि जितने भी भगवान के स्वरूप हैं, भक्त – वात्सल्य इत्यादि जितने भी श्रीकृष्ण के मनोहर गुण हैं, व्रज में रासलीला, नवद्वीप में नाम संकीर्तन, इस प्रकार जितनी भी श्रीकृष्ण की लीलाएँ हैं- ये सभी भगवान श्रीकृष्ण के अप्राकृत चिद् – वैभव हैं।
ए समस्त चिद्वैभव अप्राकृत हय।
आसियाओ ए प्रपन्चे प्रापन्चिक नय ।।
चिद्व्यापार समुदय विष्णुतत्त्वसार।
विष्णुपद बलि’ वेदे गाय बार बार ।।
प्राकृत जगत में आने पर भी ये प्राकृत नहीं हैं, ये सभी अप्राकृत हैं या यूँ कहें कि ये उनके चिन्मय – वैभव हैं। श्रीकृष्ण के ये सब चिन्मय धाम, नाम, रूप, गुण व लीला इत्यादि सभी विष्णु तत्त्व का सार स्वरूप हैं। वेद इन सभी को विष्णुपद कहकर बार-बार इनकी महिमा वर्णन करते रहते हैं।
श्रीकृष्ण की चिद्-विभूति ही शुद्ध-सत्व है
नाहि ताहे जड़धर्म मायार विकार।
जड़ातीत विष्णुतत्त्व शुद्धसत्त्वसार ।।
शुद्ध सत्त्व रजस्तमो गन्धविरहित।
रजस्तमोमिश्र मिश्रसत्त्व सुविदित ।।
श्रीकृष्ण के चिद् – वैभव स्वरूप जो श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण, धाम, लीला व परिकर आदि हैं, उनमें दुनियावी माया का विकार नहीं रहता है क्योंकि वह जड़ से परे हैं। ये विष्णु तत्त्व, शुद्ध सत्त्व का सार होता है। इस शुद्ध – सत्त्व में रजोगुण और तमोगुण की कोई गन्ध भी नहीं रहती। ये सभी जानते हैं कि मिश्र – सत्त्व में रजोगुण और तमोगुण मिले होते हैं।
गोविन्द, वैकुण्ठनाथ, कारणोदशायी।
गर्भादकशायी आर क्षीरसिन्धुशायी ।।
आर यत स्वांश – परिचित अवतार।
सेइ सब शुद्धसत्त्व विष्णुतत्त्वसार ।।
श्रीगोविन्द, श्रीवैकुण्ठनाथ, श्रीनारायण, श्रीकारणोदशायी महाविष्णु, गर्भादशायी विष्णु, क्षीरोदशायी विष्णु और जितने भी ‘स्वांश’ नाम से परिचित भगवान के अवतार हैं, वे सभी शुद्ध-सत्त्व-स्वरूप हैं तथा विष्णु – तत्त्व का सार – स्वरूप हैं।
गोलोके, वैकुण्ठे आर कारण – सागरे।
अथवा ए जड़े थाके, विष्णु नाम धरे ।।
प्रवेशि ए जड़ विश्व मायार अधीश।
विष्णुनाम प्राप्त विभु सर्वदेव ईश ।।
यह सब विष्णु – तत्त्व, गोलोक में, वैकुण्ठ में, कारण – समुद्र में अथवा -इस जड़ – जगत में प्रवेश होने पर भी माया के अधीश्वर रहते हैं। विष्णु नाम ही विभु हैं, ये सभी देवताओं के ईश्वर हैं।
मिश्र-सत्त्व
मायार ईश्वर मायी शुद्धसत्त्वमय।
मिश्रसत्त्व ब्रह्मा शिव आदि सब हय ।।
मायाधीश – प्रभु, शुद्ध सत्त्वमय हैं तथा वे माया के भी ईश्वर हैं जबकि ब्रह्मा, शिव इत्यादि सभी त्रिगुणात्मक देवता हैं, ये सभी मिश्र सत्त्व हैं।
चिद्-वैभव विस्तृति
ए समस्त विष्णुतत्त्व आर विष्णुधाम ।
तब चिद्वैभव नाथ तब लीलाग्राम ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को कहते हैं कि जितने भी विष्णु – तत्त्व और विष्णु धाम व आपकी लीलाएँ हैं, वे सभी आपके चिद् – वैभव हैं।
अचिद्वैभव मायातत्त्व
विरजार एइ पारे यत वस्तु हय।
अचित् वैभव तब चौद्दलोकमय ।।
मायार वैभव बलि’ बले देवीधाम ।
पन्चभूत मनोबुद्धि अहंकार नाम ।।
विरजा नदी, जो कि भौतिक जगत और आध्यात्मिक – जगत की सीमा है, के इस पार चौदहों लोकों में जो कुछ भी है, सभी अचिद् – वैभव है। इसे माया का वैभव भी कहते हैं अथवा इन्हें देवी- धाम भी कहा जाता है। इनमें जो कुछ भी बना है, वह आकाश, मिट्टी, जल, वायु तथा अग्नि नामक पंच – महाभूतों एवं मन, बुद्धि व अहंकार से बना है।
ए भूर्लोक, भुवर्लोक आर स्वर्गलोक ।
महर्लोक, जन-तप- सत्य – ब्रह्मलोक ।।
अतल – सुतल – आदि निम्न लोक सात।
मायिक वैभव तव शुन जगन्नाथ ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं- हे जगन्नाथ गौरहरि ! भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोक नामक ऊपर के लोक तथा अतल – वितल आदि नीचे के सातों लोक आपकी माया के वैभव हैं।
जीव-वैभव
चिद्वैभव पूर्णतत्त्व माया छाया ता’र।
चिदणुस्वरूप जीव – वैभव प्रकार ।।
चिद्धर्म वशतः जीव स्वतन्त्र – गठन।
संख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन ।।
सत्य ये है कि आपका चिद् – वैभव तो अपने आप में पूर्ण – तत्त्व है, चेतन – तत्त्व है, जबकि माया- वैभव तो इस चिद् – वैभव की छाया है। आकार की दृष्टि से देखा जाये तो ये जीव अति अणु-स्वरूप है परन्तु चिन्मय होने के कारण जीव के गठन में ही स्वतन्त्रता है तथा संख्या में ये जीव अनन्त हैं एवं सुख की प्राप्ति करना ही इन जीवों का लक्ष्य होता है।
मुक्त-जीव
सेइ सुखहेतु या’रा कृष्णेरे बरिल।
कृष्णपारिषद मुक्तरूपेते रहिल ।।
उस नित्य सुख को प्राप्त करने के लिए जिन्होंने आनन्द – स्वरूप श्री कृष्ण को वरण किया, वे तो श्रीकृष्ण के पार्षद बन गये तथा मुक्त जीव के रूप में रहने लगे।
बद्ध अथवा बहिर्मुख जीव
या’रा पुनः निज-सुख करिया भावना।
पार्श्वस्थिता माया- प्रति करिल कामना ।।
सेइ सब नित्यकृष्णबहिर्मुख हैल।
देवीधामे मायाकृत शरीर पाइल ।।
इनके इलावा जिन जीवों ने अपने सुख की भावना से भगवान के पीछे रहने वाली माया को वरण किया अर्थात् अपने सुख के लिये जिन्होंने माया के भोगों की कामना की, वे सभी जीव नित्य काल के लिए श्रीकृष्ण से विमुख हो गये और उन्होंने माया के इस देवी धाम में माया के द्वारा बना शरीर प्राप्त किया।
पुण्य – पाप – कर्मचक्रे पड़िया एखन।
स्थूल – लिंग – देहे सदा करेन भ्रमण ।।
कभु सर्गे उठे, कभु निरये पड़िया।
चौराशि – लक्ष योनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया ।।
अब वे भगवान से विमुख जीव, पाप – पुण्य रूपी कर्म के चक्र में पड़कर स्थूल व सूक्ष्म शरीर धारण करके इस संसार में भटक रहे हैं। वे कभी स्वर्ग आदि लोकों में तो कभी नरक की प्राप्ति करते हुए चौरासी लाख योनियों को भोगते हुए भटकते रहते हैं।
तब भी श्रीकृष्ण की दया
तुमि विभु, तोमार वैभव जीव हय।
दासेर मंगल चिन्ता तोमार निश्चय ।।
दास याहा सुख मानि’ करे अन्वेषण।
तुमि ताहा कृपा करि’ कर वितरण ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को कहते हैं कि हे प्रभु! मेरा ऐसा विश्वास है कि आप विभु हो और ये जीव आपका ही वैभव हैं। ये आपके नित्य दास हैं। अपने दास के मंगल की चिन्ता करना आपका स्वभाव है। आपके दास अपने सुख की खोज करते हुए आपसे जो कुछ भी माँगते हैं, आप कल्पतरु की भांति अपनी कृपा रूपी बरसात को बरसाते हुए, उसे प्रदान करते रहते हो।
प्राकृत शुभकर्म व कर्मकाण्ड
मायार वैभवे ये अनित्य सुख चाय।
तोमार कृपाय से अनायासे पाय ।।
सेइ सुख प्राप्त्युपाय शुभकर्म यत।
निरमिले धर्म – यज्ञ योग होम व्रत ।।
सेइ सब शुभकर्म सदा जड़मय।
चिन्मयी प्रवृत्ति ताहे कभु ना मिलय ।।
माया के वैभव में फँसकर जीव जब जिस प्रकार का भी अनित्य सुख चाहता है, आपकी कृपा से वह उसे अनायास ही पा लेता है। उसी सुख को प्राप्त करने के लिए ही धर्म – कर्म, यज्ञ, योग, होम व व्रत इत्यादि शुभकर्म बनाये गये हैं। ये सभी शुभकर्म सदा ही जड़मय (प्राकृत) रहते हैं। चिन्मय प्रकृति इन सब से कभी नहीं मिलती।
ताहार साधने साध्य जड़मय फल।
उच्चलोक, भोग – सुख ताहाते प्रबल ।।
सेइ सब कर्मभोगे नाहि आत्मशान्ति।
ताहाते प्रयास करा अतिशय भ्रान्ति ।।
सेइ सब शुभकर्म उपाय हइया।
अनित्य उपेय साधे लोकसुख दिया ।।
इन शुभ कर्मों को करने से दुनियावी नाशवान फल ही प्राप्त होते हैं। इनसे तो स्वर्ग आदि उच्च लोक तथा सांसारिक भोगों से मिलने वाला सुख ही मिलता है। आत्मा की शान्ति इनसे नहीं मिलती। इन सबका प्रयास करना अतिशय भ्रान्तिमय है। इन सब अनित्य उपायों को करने से अनित्य सुख ही मिलते हैं।
इस अवस्था से उद्धार का उपाय
कभु यदि साधुसंगे जानिते से पारे।
आमि जीव कृष्णदास, याय माया – पारे ।।
से विरल फल मात्र सुकृतिजनित।
तुच्छ कर्मकाण्डे नाहि करिले विहित ।।
सौभाग्यवश यदि कोई जीव साधु-संग प्राप्त करके यह जान लेता है कि वह भगवान श्रीकृष्ण का दास है तो इस महान ज्ञान को प्राप्त करके वह माया से पार हो जाता है परन्तु ये साधु-संग पूर्वजन्मों की सुकृति के अनुसार ही मिलता है। तुच्छ कर्मकाण्ड के द्वारा ये सब ज्ञान नहीं मिलता।
ज्ञानकाण्ड-ब्रह्मलय सुख
आर यिनि मायार यन्त्रणामात्र जानि’।
मुक्तिलाभे यत्नवान्, तिनि ह’न ज्ञानी ।।
से-सब लोकेर जन्य तुमि दयामय।
ज्ञानकाण्ड ब्रह्मविद्या दियाछ निश्चय ।।
सेइ विद्या मायावाद करिया आश्रय।
जड़ मुक्त ह’ये ब्रह्मे जीव हय लय ।।
इनके इलावा जो जीव माया के संसार को यंत्रणामय जानते हैं और इससे बचने के लिए मुक्ति को प्राप्त करने का यत्न करते रहते हैं, ऐसे जीवों को ज्ञानी कहा जाता है। ऐसे लोगों के लिए ही तुमने दयामय होकर ज्ञानकाण्ड नामक ब्रह्मविद्या प्रदान की है। उसी मायावाद रूपी विद्या को आश्रय करके इस संसार से मुक्त होकर जीव ब्रह्म में लय हो जाता है।
ब्रह्म क्या वस्तु है
सेइ ब्रह्म तव अंगकान्ति ज्योतिर्मय ।
विरजार पारे स्थित ता’ते हय लय ।।
ये – सब असुरे विष्णु करेन संहार।
ताहाराओ सेइ ब्रह्मे याय मायापार ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं- हे गौरहरि ! वह ब्रह्म आपके अंगों की कान्ति (चमक) है, जो कि ज्योतिर्मय है। विरजा नदी के उस पार जो ज्योतिर्मय ब्रह्म – धाम है, उसमें ब्रह्मज्ञानी लीन हो जाते हैं। इनके इलावा जिन असुरों का भगवान विष्णु अपने हाथों से संहार करते हैं। वे सब असुर भी माय। से पार होकर उसी ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण-बहिर्मुख जीव
कर्मी ज्ञानी उभयेइ कृष्णबहिर्मुख ।
कभु नाहि आस्वादय कृष्णदास्यसुख ।।
वैसे देखा जाये तो कर्मी और ज्ञानी दोनों ही श्रीकृष्ण से बहिर्मुख हैं। ये जीव कभी भी श्रीकृष्ण की दासता को अर्थात् श्रीकृष्ण की सेवा के सुख का आस्वादन प्राप्त नहीं कर सकते।
भक्ति-उन्मुखी सुकृति
भक्तिर उन्मुखी सेइ सुकृति प्रधान।
ता’र फले जीव भक्तसाधुसंग पान ।।
श्रद्धावान् ह’ये कृष्णभक्त – संग करे।
नामे रूचि, जीवे दया, भक्तिपथ धरे ।।
कर्मोन्मुखी, ज्ञानोन्मुखी व भक्ति-उन्मुखी- ये तीन प्रकार की सुकृतियाँ होती हैं। इनमें भक्ति उन्मुखी सुकृति ही प्रधान है, जिसके फलस्वरूप जीव साधु – भक्तों की संगति को प्राप्त करता है। श्रद्धावान होकर जब कोई जीव श्रीकृष्ण के भक्तों का संग करता है तब उस जीव की साधु-संग के प्रभाव से हरिनाम में रुचि उत्पन्न हो जाती है तथा साथ ही उसके हृदय में जीवों के प्रति दया का भाव उमड़ पड़ता है। इस प्रकार साधु – संग के फल से उस श्रद्धावान जीव को भक्ति पथ की प्राप्ति व इस सुन्दर कल्याणकारी पथ पर चलने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
कर्मी और ज्ञानी के प्रति कृपा से गौण भक्ति-पथ का विधन
दयार सागर तुमि जीवेर ईश्वर।
कर्मी, ज्ञानी, बहिर्मुख – उद्धारे तत्त्पर ।।
कर्मपथे ज्ञानपथे पथिक ये-जन ।
ताहार उद्धार लागि’ तोमार यतन ।।
सेइ सेइ पथिकेर मङ्गल चिन्तिया ।
गौणभक्तिपथ एक राखिल करिया ।।
भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को नामाचार्य हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे गौरहरि ! आप दया के सागर हो और जीवों के ईश्वर हो। कर्मी, ज्ञानी और भगवान के विमुख जीवों के उद्धार के लिए भी आप तत्पर रहते हो। कर्म – मार्ग और ज्ञान मार्ग पर चलने वाले पथिक का भी उद्धार करने के लिए आप यत्न करते हो। उन पथों के पथिकों के मंगल की चिन्ता करते हुये आपने एक गौण भक्ति मार्ग भी बना रखा है।
कर्मियों के पक्ष में कर्म का गौण भक्ति मार्ग
कर्मी वर्णाश्रमे थाकि’ साधुसद्ध करि’।
कर्म माझे भक्ति करे गौणपथ धरि’ ।।
तार कृत कर्म सब हृदय शोधिया।
तिरोहित हय श्रद्धा- बीजे स्थान दिया ।।
अपने – अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण व ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि आश्रम के धर्मों को पालन करते हुए कर्मी व्यक्ति भी भगवान को प्रसन्न करता है क्योंकि वर्णाश्रम धर्मों को पालन करने का विधान भी भगवान श्रीहरि ने ही बताया है। अपने इन्हीं कार्यों को निष्काम भाव से करने से उसे सुकृति व उसके फलस्वरूप सच्चे साधु का संग प्राप्त होता है। वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले कर्म मार्ग के पथिक का आप हृदय शोधन कर देते हैं जिससे उसके अन्दर पुण्यादि करने की व उसके फल से मिलने वाले स्वर्गादि को प्राप्त करने की प्रवृति खत्म हो जाती है और उस स्थान पर श्रद्धा का बीज आरोपित हो जाता है।
ज्ञानी का गौण भक्ति-पथ
ज्ञानी सुकृतिर बले भक्तेरकृपाय
अनन्य भक्तिते श्रद्धा अनायासे पाय ।।
तुमि बल, मोर दास मायार विपाके।
चाहे अन्य तुच्छ फल छाड़िया आमाके ।।
आमि जानि’ ता’र याते हय सुमंगल।
भुक्ति मुक्ति छाड़ाइया दिइ भक्ति फल ।।
इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान मार्ग पर चलते हुए अपनी सुकृति के प्रभाव से तथा भक्तों की कृपा से अनन्य भक्ति के मार्ग में आ जाता है। साधु-संग के प्रभाव से उस ज्ञानी भक्त की अनन्य भक्ति में अनायास ही श्रद्धा हो जाती है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी श्रीहरिदास ठाकुर जी को कहते हैं कि हरिदास ! तुम ही तो बोलते हो कि मेरा दास मुझे भूलकर माया की दुर्गति में पड़कर अन्य तुच्छ फलों की आशा करता है परन्तु मैं जानता हूँ कि उसका कैसे मंगल होगा। इसलिए मैं उनकी भोग की व मुक्ति की इच्छा छुड़ाकर उनको भक्ति का फल प्रदान करता हूँ।
गौण पथ की प्रक्रिया
ता’र काम अनुसारे चालाया ताहारे।
गौणपथे भक्तिमार्ग श्रद्धा दिइ ता’ रे ।।
ए तोमार कृपा प्रभु तुमि कृपामय ।
कृपा ना करिले किसे जीव शुद्ध हय ।।
हे गौरहरि ! आप बड़े दयालु हो। आप जीव की कामना के अनुसार उसे चलाते हुए भी किसी न किसी तरह से गौण भक्ति के मार्ग में उसकी श्रद्धा उत्पन्न करा देते हो। हे प्रभो! आप कृपामय हो, आपकी कृपा के बिना जीव भला कैसे शुद्ध हो सकता है।
कलियुग में गौणपथ की दुर्दशा
सत्ययुगे ध्यानयोगे कत ऋषिगणे।
शुद्ध करि’ दिले प्रभु निज – भक्ति – धने ।।
त्रेतायुगे यज्ञ – कर्म अनेक शोधिले।
द्वापरे अर्चनमार्ग भक्ति बिलाइले ।।
कलि – आगमने नाथ जीवेर दुर्दशा।
देखि’ ज्ञान, कर्म, योग छाड़िल भरसा ।।
सत्ययुग में ध्यानयोग के द्वारा आपने न जाने कितने ऋषियों को शुद्ध करके अपनी भक्ति प्रदान की। त्रेतायुग में यज्ञादि कर्मों के द्वारा अनेक जीवों का शोधन किया तथा द्वापर युग में अर्चन मार्ग के द्वारा बहुत से जीवों को आपने अपनी भक्ति प्रदान की। हे नाथ! कलिकाल के आगमन पर तो जीवों की बड़ी दुर्दशा हो गयी है। अभी देखा जाता है कि कर्म, ज्ञान और योग मार्ग जीवों की दुर्दशा देखकर असहाय से हो गये हैं, वे जीवों का उद्धार कर पायेंगे; ऐसा भरोसा उन्होंने छोड़ दिया है।
अल्प आयु, बहु पीड़ा, बल-बुद्धि – हास।
एइ सब उपद्रव जीवे कैल ग्रास ।।
वर्णाश्रम – धर्म आर सांख्य, योग, ज्ञान।
कलिजीवे उद्घारिते नहे बलवान् ।।
ज्ञानकर्मगत ये भक्तिर गौणपथ।
कण्टके सङ्कीर्ण हैया हइल विपथ ।।
पृथक् उपाय धरि’ उपेय – साधने ।
विघ्न बहुतर हैल जीवेर जीवने ।।
इतना ही नहीं, हे प्रभु! इस युग में मनुष्यों की आयु भी बड़ी कम हो गयी है, न जाने कितनी बिमारियों से ये जीव घिरा रहता है, इसका बल व इसकी बुद्धि भी बहुत कम हो गयी है। वर्णाश्रम धर्म, सांख्य, योग व ज्ञान इत्यादि की साधनाएँ कलियुग के जीवों का उद्धार करने में समर्थ नहीं हैं। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग का जो गौण भक्ति-मार्ग है, वह इतना संकीर्ण है कि उस पर चलना असम्भव सा हो गया है; कहने का तात्पर्य है कि कर्म मार्ग में जो निष्काम भाव से वर्णाश्रम धर्म के पालन वाली बात है, उसमें बाधा ये है कि लोगों के अन्दर विषय – भोगों की लालसा इतनी बढ़ गयी है कि वे निष्काम हो ही नहीं पा रहे हैं। ज्ञान-चर्चा की बात जहाँ तक है, वहाँ समस्या ये है कि दुनियाँ में वास्तविक साधु बड़े दुर्लभ हैं, चारों ओर धर्म-ध्वजी कपटी साधुओं का ही बोलबाला है। इन सब समस्याओं को देखकर हे प्रभु! आपने इन सबसे अलग और सर्वोत्तम हरिनाम की साधना बतायी है, क्योंकि हरिनाम में स्वयं भगवान श्रीहरि विराजित रहते हैं। बड़े सौभाग्य से ही ये विशेष हरिनाम तत्त्व समझा जाता है।
हरिनाम-संकीर्तन ही मुख्य पथ
प्रभु तुमि जीवेर मंगल चिन्ता करि’।
कलियुगे नाम – सद्धे स्वयं अवतरि’ ।।
युगधर्म प्रचारिले नाम – संकीर्त्तन ।
मुख्यपथे जीव पाय कृष्ण – प्रेमधन ।।
नामेर स्मरण आर नाम – संकीर्त्तन ।
एइ मात्र धर्म जीव करिबे पालन ।।
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर श्रीमन् महाप्रभु जी को कहते हैं कि हे प्रभो! आप जीवों के मंगल की चिन्ता करके ही इस कलियुग में हरिनाम के रूप में स्वयं अवतरित हुये हो। आपने ही इस युग के युगधर्म – श्रीहरिनाम – संकीर्तन का प्रचार किया है। हे प्रभो! ये मार्ग ही जीवों की आध्यात्मिक साधना का मुख्य पथ है, जिस पर चलकर जीव श्रीकृष्ण – प्रेमरूपी महाधन को प्राप्त कर सकते हैं। नाम – स्मरण और नाम – संकीर्तन ही इस युग का परम – धर्म व एकमात्र धर्म है इसलिए इस कलियुग में जीव इसी का पालन करेंगे।
साध्य-साधन या उपाय-उपेय में अभेदता होने पर हरिनाम की ही मुख्यता
येइत’ साधन, सेइ साध्य यबे हैल ।
उपाय उपेय मध्ये भेद ना रहिल ।।
साध्येर साधने आर नाहि अन्तराय।
अनायासे तरे जीव तोमार कृपाय ।।
आमि त’ अधम अति मजिया विषये।
ना भजिनु नाम तव अति मूढ़ ह ‘ये ।।
जो साधन है, वही अब साध्य भी है, इस उपाय और उपेय के बीच में अब कोई भेद नहीं रहा अर्थात् साध्य और साधन के बीच अब कोई अन्तर नहीं रहा- इसलिए अनायास ही जीव आपकी कृपा से भवसागर से तर जाते हैं।
मैं अति अधम हूँ, मैं विषयों में डूबकर बिल्कुल मूढ़ सा बन गया हूँ, यही कारण है कि मैंने आपका भजन नहीं किया।
दर दर धारा चक्षे ब्रह्म – हरिदास ।
पड़िल प्रभुर पदे छाड़िया निःश्वास ।।
हरि भक्त भक्ति मात्रे विनोद याहार।
हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार ।।
इस प्रकार बोल कर व नेत्रों से आँसु बहाते हुये श्रीहरिदास ठाकुर जी लम्बी – लम्बी साँसें लेकर महाप्रभुजी के चरणों में गिर पड़े।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि भगवान के भक्तों की सेवा करना ही जिनका आनन्द है, अर्थात् भगवान के भक्तों की सेवा करने में जिन्हें आनन्द मिलता है, ये ‘हरिनाम – चिन्तामणि’ उन्हीं का जीवन स्वरूप हैं।
इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ नाममाहात्म्यसूचनं नाम प्रथमः परिच्छेदः।