गदाइ गौरांग जय जाह्नवा – जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तगण ।।
महाप्रेमे हरिदास करेन रोदन ।
प्रेमे ता रे गौरचन्द्र दिला आलिङ्गन ।।
बलेन, तोमार सम भक्त कोथा आर।
सर्वतत्त्वज्ञाता तुमि सदा मायापार ।।
श्रीगदाधर पंडित, श्रीगौरांग महाप्रभु व श्रीजाह्नवा देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द जी की जय हो। सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि भक्तों की सर्वदा ही जय हो।
हरिनाम करते – करते हरिदास ठाकुर जी हरिनाम के प्रेम में विभोर होकर रो रहे थे। श्रीहरिदास ठाकुर जी को इस प्रकार प्रेम में डूबा देखकर श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने हरिदास ठाकुर जी को आलिंगन कर लिया और कहने लगे – हरिदास ! तुम्हारे जैसा भक्त मुझे और कहाँ मिलेगा, सचमुच तुम सब शास्त्रों के सार को जानने वाले हो तथा तुम हमेशा ही माया से परे हो।
अनन्य भजन की श्रेष्ठता
निचकुले अवतरि’ देखा ‘ले सकले।
धने माने कुले शीले कृष्ण नाहि मिले ।।
अनन्य भजने याँ’र श्रद्धा अतिशय ।
देवता अपेक्षा श्रेष्ठ सेइ महाशय ।।
नीचकुल में आकर तुमने सभी को दिखाया कि धन-दौलत, मान-सम्मान, ऊँचे कुल तथा शालीनता आदि से श्रीकृष्ण की प्राप्ति नहीं होती। भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभुजी कहते हैं कि हे हरिदास ! वैसे भी अनन्य श्रीकृष्ण – भजन में जिसकी प्रगाढ़ श्रद्धा होती है, वह तो देवताओं से भी अधिक श्रेष्ठ है।
श्रीहरिदास की नाम-आचार्यता
नामतत्त्व सर्वसार तोमार विदित ।
आचारे आचार्य तुमि, प्रचारे पण्डित ।।
बल हरिदास, नाममहिमा अपार ।
शुनिया तोमार मुखे आनन्द आमार ।।
हरिदास ! तुम जानते ही हो कि हरिनाम करना ही सभी शास्त्रों का सार है। आचरण की दृष्टि से आप तो श्रीहरिनाम के आचार्य हो और श्रीहरिनाम के प्रचार में भी तुम परम प्रवीण हो। हरिदास ! तुम अपने मुख से हरिनाम की जो अपार महिमा है, उसका वर्णन करो क्योंकि तुम्हारे मुख से श्रीहरिनाम की महिमा सुनकर मुझे बड़ा आनन्द मिलता है।
वैष्णव-लक्षण
एक नाम या’र मुखे वैष्णव से हय।
तारे गृही यत्न करि, मानिबे निश्चय ।।
जिसके मुख से एकमात्र कृष्ण-नाम का उच्चारण होता है उसे वैष्णव समझना चाहिए। गृहस्थ भक्तों को चाहिए कि वह अति यत्न के साथ इस सिद्धान्त को मानें।
वैष्णवतर के लक्षण
निरन्तर या’र मुखे शुनि कृष्णनाम ।
सेइ से वैष्णवतर सर्वगुणधाम ।।
निरन्तर जिसके मुख से कृष्ण-नाम सुनाई पड़ता है अर्थात् जो निरन्तर श्रीकृष्ण – नाम करता रहता है- वह श्रेष्ठ वैष्णव है। ऐसा वैष्णव सभी गुणों की खान होता है।
वैष्णवतम-लक्षण
वैष्णव उत्तम सेइ याहारे देखिले ।
कृष्णनाम आसे मुखे कृष्णभक्ति मिले ।।
हेन कृष्णनाम जीव किरूपे करिबे ।
ताहार विधान तुमि आमारे बलिबे ।।
कर युड़ि’ हरिदास बलेन वचन।
प्रेमे गद – गद स्वर सजल नयन ।।
जिस वैष्णव के दर्शनमात्र से ही जीवों के मुख से श्रीकृष्ण – नाम उदित हो जाता हो तथा जीव को श्रीकृष्ण की भक्ति की प्राप्ति हो, वही उत्तम वैष्णव है। भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी कहते हैं कि जीव किस रूप से श्रीकृष्ण का नाम करे, इस विधान को तुम मुझे विस्तार से बतलाओ। महाप्रभु जी के यह वचन सुनकर श्रीहरिदास ठाकुर जी प्रेम में गद्गद् होकर नेत्रों में आँसु भरकर कहने लगे।
नाम का स्वरूप
कृष्णनाम चिन्तामणि अनादि चिन्मय।
येइ कृष्ण, सेइ नाम – एकतत्त्व हय ।।
चैतन्य – विग्रह नाम नित्यमुक्त तत्त्व।
नाम नामी भिन्न नय, नित्य शुद्ध सत्त्व ।।
श्रीकृष्ण-नाम चिन्तामणि है, अनादि व चिन्मय है। जो श्रीकृष्ण हैं, वही श्रीहरिनाम है। श्रीकृष्ण और श्रीकृष्णनाम एक ही तत्त्व है। चेतन – विग्रह श्रीहरि का नाम नित्यमुक्त तत्त्व है। हरि नाम और नामी भगवान, भिन्न नहीं हैं, दोनों ही नित्य शुद्ध तत्त्व हैं।
ए जड़ – जगते ताँ ‘र अक्षर आकार।
रसरूपे रसिकेते सत्त्व अवतार ।।
कृष्ण वस्तु हय चारिधर्म परिचित ।
नाम, रूप, गुण, कर्म अनादि विहित ।।
इस जड़ – जगत में श्रीहरि, हरिनाम के अक्षर के आकार में प्रकट हैं। रसिक – भक्तों के हृदयों में ये हरिनाम के अक्षर ही रस से भरे शुद्ध – सात्विक अवतार हैं। जैसे किसी भी वस्तु को उसके नाम, रूप, गुण व कर्मों के द्वारा जाना जाता है, ठीक उसी प्रकार यह अक्षर श्रीकृष्ण के परिचायक अवतार हैं। श्रीकृष्ण नामक वस्तु चार प्रकार से – श्रीकृष्ण के नाम, श्रीकृष्ण के रूप, श्रीकृष्ण के गुण तथा श्रीकृष्ण की लीलाओं के रूप में प्रकाशित है। परन्तु हाँ, चूँकि श्रीकृष्ण अनादि हैं, दिव्य हैं इसलिए उनके नाम, रूप, गुण व लीलायें भी अनादि व दिव्य हैं।
हरिनाम नित्य सिद्ध हैं
नित्य – वस्तु रस – रूप कृष्ण से अद्वय।
सेइ चारि परिचये वस्तु सिद्ध हय ।।
सन्धिनी शक्तिते ताँर चारि परिचय।
नित्यसिद्धरूपे ख्यात सर्वदा चिन्मय ।।
कृष्ण आकर्षये सर्व विश्वगत जन ।
सेइ नित्य धर्मगत कृष्णनाम धन ।।
भगवान श्रीकृष्ण नित्य वस्तु हैं, आनन्द स्वरूप हैं तथा उनके जैसा और दूसरा कोई नहीं है। जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि किसी भी वस्तु का परिचय उसके नाम, रूप, गुण तथा कर्म से जाना जाता है। सन्धिनी शक्ति के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण का इन चारों के रूप में दिव्य व नित्य परिचय मिलता है। भगवान के नाम, रूप व गुण आदि हमेशा से ही चिन्मय व नित्य सिद्ध रूप में प्रसिद्ध हैं। जिस प्रकार श्रीकृष्ण सारे विश्व को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, ठीक उसी प्रकार श्रीकृष्ण – नाम रूपी परम धन में भी यह आकर्षण – धर्म नित्य विराजित है।
श्रीकृष्ण का रूप नित्य
कृष्णरूप कृष्ण हैते सर्वदा अभेद।
नाम रूप एक वस्तु नाहिक प्रभेद ।।
श्रीनाम स्मरिले रूप आइसे सङ्गे सङ्गे।
रूप नाम भिन्न नय, नाचे नाना रंगे ।।
श्रीकृष्ण का रूप श्रीकृष्ण से सर्वदा अभेद है। उनका नाम और उनका रूप एक ही वस्तु हैं, इसमें कोई भेद नहीं है। श्रीनाम का स्मरण करने के साथ – साथ ही उनका रूप प्रकट होता है। श्रीकृष्ण के नाम और श्रीकृष्ण के रूप सर्वदा अभेद होते हैं तथा साधक के हृदय में भगवान के ये नाम व रूप आदि विभिन्न प्रकार से नृत्य करते हैं।
श्रीकृष्ण के गुण भी नित्य हैं
कृष्ण गुण चतुःषष्टि अनन्त अपार ।
याँर निज अंशरूपे सब अवतार ।।
याँर गुण अंशे ब्रह्मा – शिवादि ईश्वर ।
याँर गुणे नारायण षष्टि – गुणेश्वर ।।
सेइ सब नित्यगुणे नित्य नाम ताँर।
अनन्त संख्याय व्याप्त वैकुण्ठ व्यापार ।।
श्रीकृष्ण के सभी गुण नित्य हैं। श्रीकृष्ण के गुण अनन्त व अपार होने पर भी उनके मुख्य 64 गुण हैं। जिनके अपने अंश से तमाम अवतार प्रकट हुये हैं, जिनके गुण अंश से ब्रह्मा जी व शिवादि ईश्वर प्रकट हुए हैं, जिनके गुणों के कारण ही श्रीमन् नारायण 60 गुणों के मालिक हैं- ऐसे भगवान श्रीकृष्ण के अपने अनन्त नित्य गुण व अनन्त नित्य नाम हैं तथा ये सभी दुनियावी नहीं, बल्कि माया के गुणों से रहित वैकुण्ठीय हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ भी नित्य हैं
सेइ गुण – तरंगेते लीलार विस्तार।
गोलोके वैकुण्ठ व्रज सब चिदाकार ।।
नामाचार्य हरिदास ठाकुर जी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के गुण रूपी सागर की तरंगों से ही उनकी लीलाओं का विस्तार होता है। विशेष ध्यान देने योग्य बात ये है कि गोलोक में, वैकुण्ठ में अथवा व्रज में होने वाली उनकी सभी लीलायें चिन्मय हैं।
चिद् वस्तु के नाम, रूप, गुण, लीला वस्तु से अभिन्न
नाम – रूप – गुण – लीला अभिन्न उदय।
अचित् सम्पर्क बद्ध जीवे भिन्न हय ।।
भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला आदि वस्तुएँ भगवान से पृथक नहीं हैं। भगवान श्रीकृष्णके नाम, रूप, गुण व लीला हमेशा ही श्रीकृष्ण से अभिन्न हैं तथा इस जगत में भी वे उनसे अभिन्न रहकर ही उदित होती हैं। जबकि जीव जब माया के संसार में फंस जाता है तो उसका नाम, रूप, गुण आदि सब उससे भिन्न होता है।
शुद्ध जीवे नाम, रूप, गुण, क्रिया एक।
जड़ाश्रित देहे भेद एइ से विवेक ।।
कृष्णे नाहि जड़ – गन्ध अतएव ताँय ।
नाम – रूप – गुण लीला एकतत्त्व भाय ।।
माया के संस्पर्श से बद्धजीव के नाम, रूप, गुण व क्रिया- ये सब जीव से अलग होते हैं। जबकि शुद्ध जीव का नाम – रूप – गुण व क्रिया ये सब एक ही तत्त्व हैं। जीव का दुनियावी नाम व दुनियावी रूप इत्यादि जीवात्मा से अलग होता है। माया से बनी देह का अप्राकृत देही से भिन्न ज्ञान होना ही विवेक है, चूँकि श्रीकृष्ण में माया की गन्ध भी नहीं है, इसलिए श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण व लीला एक ही तत्त्व होते हैं।
हरिनाम ही सभी का मूल
एइ चारि परिचय – मध्ये नाम ताँ ‘र।
सकलेर आदि से प्रतीति सबाकार ।।
अतएव नाम मात्र वैष्णवेर धर्म।
नामे प्रस्फुटित हय रूप, गुण, कर्म ।।
कृष्णेर समय लीला नामे विद्यमान।
नामे से परम तत्त्व तोमार विधान ।।
भगवान के नाम, रूप, गुण व लीला इन चार परिचयों के बीच में उनका नाम सभी का आदि है अर्थात् मूल है। इसलिए हरिनाम करना ही वैष्णवों का एकमात्र धर्म है। हरिनाम करते रहने से उसके अन्दर से ही उनके रूप, गुण और लीला प्रकाशित होती है। श्रीकृष्ण की समस्त लीलाएँ नाम में ही विद्यमान हैं। श्रीहरिदास ठाकुर जी श्रीचैतन्य महाप्रभु को कहते हैं कि हे गौर हरि! आपका ही ये विधान है कि हरिनाम ही सर्वश्रेष्ठ तत्त्व है।
वैष्णव और वैष्णव-प्राय में भेद
सेइ नाम बद्ध जीव श्रद्धा सहकारे।
शुद्ध रूपे लइले वैष्णव बलि ता रे ।।
नामाभास या रे हय, से वैष्णव – प्राय ।
कृष्णकृपा-बले क्रमे शुद्ध भाव पाय ।।
भगवान के उसी सर्वश्रेष्ठ नाम को जो बद्धजीव जब श्रद्धा एवं शुद्ध रूप से करता है तो उसे वैष्णव कहा जाता है। परन्तु जिसका नामाभास हुआ करता है, उस को वैष्णव- प्रायः कहा जाता है। इस प्रकार का वैष्णव – प्रायः व्यक्ति हरिनाम करते-करते धीरे-धीरे शुद्ध वैष्णव बनकर शुद्ध – भाव लाभ करता है।
इस मायिक जगत में कृष्णनाम और जीव दोनों चिन्मय वस्तु हैं
नाम – सम वस्तु नाइ ए भव संसारे।
नाम से परम धन कृष्णेर भण्डारे ।।
जीव निजे चिद्व्यापार, कृष्णनाम आर।
आर सब प्रापन्चिक जगत् संसार।।
श्रीकृष्णनाम के बराबर इस संसार में कोई वस्तु नहीं है। श्रीकृष्ण जी के भंडार में हरिनाम ही परम धन है। इस संसार में एक तो जीव स्वयं चिन्मय है और दूसरा श्रीकृष्णनाम भी चिन्मय वस्तु है तथा बाकी सारा संसार ही मायिक जगत है।
मुख्य और गौण रूप से नाम दो प्रकार के हैं
मुख्य ओ गौण भेदे कृष्णनाम द्विप्रकार।
मुख्य नामाश्रये जीव पाय सर्वसार ।।
चिह्नीला आश्रय करि’ यत कृष्ण – नाम ।
सेइ सेइ मुख्य नाम सर्वगुणधाम ।।
मुख्य और गौण भेद से श्रीकृष्ण के नाम भी दो प्रकार के हैं। मुख्य नाम के आश्रय से ही जीव सभी वस्तुओं को प्राप्त करता है। भगवान की चिन्मय लीलाओं का आश्रय करके जितने भी श्रीकृष्ण के नाम हैं, सभी भगवान के मुख्य नाम हैं तथा ये नाम ही तमाम गुणों की खान हैं।
मुख्य नाम
गोविन्द गोपाल राम श्रीनन्दनन्दन ।
राधानाथ हरि यशोमती प्राणधन ।।
मदनमोहन श्यामसुन्दर माधव ।
गोपीनाथ वजगोप राखाल यादव ।।
एइ रूप नित्यलीला – प्रकाशक नाम।
ए सब कीर्त्तने जीव पाय कृष्णधाम ।।
गोविन्द, गोपाल, राम, श्रीनन्दनन्दन, राधानाथ, हरि, यशोमति -प्राणधन, मदनमोहन, श्यामसुन्दर, माधव, गोपीनाथ, वृजगोप, राखाल तथा यादव यह सब नाम नित्यलीला के प्रकाशक हैं। इनके कीर्तन से जीव श्रीकृष्ण के धाम को प्राप्त करता है।
गौण नाम और उनके लक्षण
जड़ा प्रकृतिर परिचये नाम यत।
प्रकृतिर गुणे गौण वेदेर सम्मत ।।
सृष्टिकर्त्ता परमात्मा ब्रह्म स्थितिकर ।
जगत्संहर्त्ता पाता – यज्ञेश्वर हर ।।
वेदों के अनुसार जड़ प्रकृति के परिचय और गुणों से सम्बन्धित जितने भी भगवान के नाम हैं, उनको गौण नाम कहते हैं। जैसे – सृष्टिकर्ता, परमात्मा, ब्रह्म, स्थितिकर, जगत संहारकर्ता, पालनकर्ता तथा यज्ञेश्वर श्रीहरि आदि।
मुख्य नामों और गौण नामों के फल का भेद
एइ रूप नाम, कर्मज्ञानकाण्डगत ।
पुण्य मोक्ष दान करे शास्त्रेर सम्मत ।।
नामेर ये मुख्य फल कृष्णप्रेमधन ।
तार मुख्य नामे मात्र लभे साधुगण ।।
शास्त्रों के मतानुसार कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के भीतर जो नाम आते हैं, ये सभी पुण्य और मोक्ष प्रदान करते हैं। हरिनाम का मुख्य फल एकमात्र श्रीकृष्ण – प्रेमधन को प्राप्त करवाना है और मुख्य नाम के द्वारा ही यह फल मिलता है, ऐसा साधुगण कहते हैं।
नाम और नामाभास में फल-भेद
एक कृष्णनाम यदि मुखे बाहिराय।
अथवा श्रवण – पथे अन्तरेते याय ।।
शुद्ध वर्ण हय वा अशुद्ध वर्ण हय।
ता’ते जीव तरे, एइ शास्त्रेर निर्णय ।।
किन्तु एक कथा इथे आछे सुनिश्चित ।
नामाभास हइले विलम्बे हय हित ।।
शास्त्रों के मतानुसार यदि एक कृष्ण नाम किसी के मुख से निकले अथवा कानों के रास्ते से किसी के अन्दर प्रवेश करे तो वह चाहे शुद्ध वर्ण हों या अशुद्ध वर्ण, हरिनाम के प्रभाव से वह जीव भवसागर से पार हो जाता है। किन्तु इसमें एक बात सुनिश्चित है कि नामाभास होने पर वास्तविक फल की प्राप्ति में विलम्ब होता है।
नामाभास हइलेओ अन्य शुभ हय।
प्रेमधन केवल विलम्बे उपजय ।।
नामाभासे पापक्षये शुद्ध नाम हय।
तरखनइ श्रीकृष्ण – प्रेम लभये निश्चय ।।
नामाभास होने पर अन्य शुभ फल तो शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं लेकिन प्रेमधन की प्राप्ति में विलम्ब होता है। हरिनाम करने वाले के नामाभास द्वारा जब सारे पाप और अनर्थ खत्म हो जाते हैं तब शुद्ध नाम, भक्त की जिह्वा पर नृत्य करता है। उसी समय शुद्धनाम के प्रभाव से जीव को श्रीकृष्ण – प्रेमधन की प्राप्ति होती है।
हरिनाम में व्यवधान होने से दोष होता है
किन्तु व्यवहित ह ‘ले हय अपराध ।
सेइ अपराधे हय प्रेमलाभ बाध ।।
नाम-नामी भेद – बुद्धि व्यवधान हय।
व्यवहित थाकिले कदापि प्रेम नय ।।
किन्तु हरिनाम को कोई व्यक्ति भगवान श्रीहरि से अलग समझे तो उससे अपराध होता है तथा इसी अपराध के कारण साधक को भगवद् प्रेम की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है। नाम और नामी में भेद बुद्धि होने से ही रुकावट होती है, ऐसी रुकावट रहने पर साधक के हृदय में प्रेम कभी भी उदित नहीं होता।
व्यवधान दो प्रकार का है
वर्ण व्यवधान आर तत्त्व व्यवधान ।
व्यवधान द्विप्रकार वेदेर विधान ।।
वेदों के अनुसार वर्ण व्यवधान और तत्त्व व्यवधान – हरिनाम में ये दो प्रकार के व्यवधान होते हैं। अर्थात् शुद्ध हरिनाम में वर्ण और तत्त्व का व्यवधान होने से अर्थात् रुकावट होने से जीव के द्वारा शुद्ध हरिनाम नहीं हो पाता।
मायावाद हरिनाम में तत्त्व-व्यवधान करता
तत्त्व – व्यवधान मायावाद – दुष्ट मत।
कलिर जन्जाल एइ शास्त्र असम्मत ।।
श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण नाम में भेद करना ही मायावाद दोष है। शास्त्रों का विचार है कि यह कलि का ही फैलाया हुआ जंजाल है। जबकि वास्तविकता यह है कि श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के नाम में कोई अन्तर नहीं है।
व्यवधान-रहित नाम ही शुद्ध नाम
अतएव शुद्ध कृष्णनाम याँ ‘र मुखे।
ताँहाके वैष्णव जानि’ सदा सेवि सुखे ।।
अतएव शुद्ध श्रीकृष्ण नाम जिसके मुख से निकलता है, वही शुद्ध वैष्णव है। ऐसे हरिनाम करने वाले की आदर के साथ सेवा करनी चाहिए।
जितनी मात्रा में अनर्थ नष्ट होते हैं, उसी मात्रा में नामाभासत्त्व दूर होता है तथा चिन्मय नाम प्रकाशित होता है
नामाभास भेदि’ शुद्ध नाम लभिवारे।
सद्गुरू सेविवे जीव यत्न सहकारे ।।
भजने अनर्थ नाश येइ क्षणे पाय।
चित्स्वरूप नामे नाचे भक्तेर जिह्वाय ।।
जितनी मात्रा में अनर्थ नष्ट होते हैं, उसी मात्रा में नामाभासत्त्व दूर होता है तथा चिन्मय नाम प्रकाशित होता है। नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि नामाभास छोड़कर शुद्ध नाम को प्राप्त करने के लिए जीव को यत्न के साथ सद्गुरु की सेवा करनी चाहिए। भजन करते-करते जिस समय सारे अनर्थ नाश हो जाते हैं, उसी समय चित्-स्वरूप श्रीहरिनाम भक्त की जिहा पर नृत्य करता है।
नाम से अमृत – धारा नाहि छाड़े आर।
नामरसे मत्त जीव नाचे अनिवार ।।
नाम नाचे, जीव नाचे, नाचे प्रेमधन।
जगत् नाचाय, माया करे पलायन ।।
हरिनाम तो अमृत की धारा है, इसे पान करके, उसे छोड़ने का विचार ही नहीं होता। जीव तो हरिनाम के आनन्द में मत्त होकर अवश्य ही नृत्य करने लगता है। श्रीहरिनाम के प्रभाव से जीव तो नाचता ही है, जीव के हृदय में श्रीकृष्ण – प्रेम भी उसके साथ नृत्य करता है। यही नहीं ऐसा भक्त स्वयं तो नाचता ही है, साथ ही जगत् के लोगों को भी नचाता है और ऐसे में माया तो वहाँ से कोसों दूर चली जाती है।
हरिनाम में स्थान, समय व अशौच आदि की कोई बाधा नहीं है
देशकाल अशौचादिर बाधा नामे नाइ,
देश काल अशौचादि नियम सकल ।
श्रीनाम – ग्रहणे नाइ, नाम से प्रबल ।।
हरिनाम में इतनी शक्ति है कि हरिनाम करने वाले को स्थान, समय व अशौच आदि के जितने भी नियम हैं, वे पालन नहीं करने पड़ते क्योंकि हरिनाम इतना प्रभावशाली है कि वह अपवित्रों को भी पवित्र कर देता है।
कलि से ग्रस्त जीवों का नाम में निष्कपट विश्वास होने पर ही उन्हें हरिनाम करने का अधिकार होता है
दाने, यज्ञे, स्नाने, जपे, आछे त ‘विचार।
कृष्णसंकीर्त्तने मात्र श्रद्धा अधिकार ।।
युगधर्म हरिनाम अनन्य श्रद्धाय ।
ये करे आश्रय, ता’र सर्वलाभ हय ।।
कलिजीव निष्कपटे कृष्णेर संसारे।
अवस्थित ह’ये कृष्णनाम सदा करे ।।
दान, यज्ञ, स्नान, जप आदि करने में तरह-तरह के विचार हैं। किन्तु श्रीकृष्ण संकीर्तन में श्रद्धा होने मात्र से ही जीव का उसमें अधिकार हो जाता है। युगधर्म हरिनाम का, अनन्य श्रद्धा से जो आश्रय करता है, उस को सभी कुछ प्राप्त होता है। हम कलियुग के जीवों के लिए नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि कलियुग के जीव निष्कपट रूप से श्रीकृष्ण के संसार में रहकर हमेशा श्रीकृष्ण नाम ही करेंगे।
हरिनाम के अनुकूल विषय-ग्रहण और प्रतिकूल विषय-वर्जन
भजनेर अनुकूल सर्वकार्य करि’।
भजनेर प्रतिकूल सब परिहरि’ ।।
कृष्णेर संसारे थाकि’ काटाये जीवन ।
निरन्तर हरिनाम करेन स्मरण ।।
भजन के अनुकूल जितने कार्य हैं, उनको स्वीकार करते हुए तथा भजन के प्रतिकूल जितने कार्य हैं, उनको त्याग करते हुये श्रीकृष्ण के संसार में रहकर जो जीवन यात्रा निर्वाह करता है, उसके हृदय में निरन्तर श्रीकृष्णनाम उदित होता है। शुद्ध हरिनाम करने वाला श्रीकृष्ण के संसार में रहकर अपना जीवन निर्वाह करता है और निरन्तर भगवद् – स्मरण के साथ हरिनाम करता रहता है।
अनन्य-बुद्धि के साथ हरिनाम करना
आर कोन धर्म कर्म कभु ना करिबे।
स्वतन्त्र ईश्वरज्ञाने अन्ये ना पूजिबे ।।
कृष्णनाम, भक्तसेवा सतत करिबे।
कृष्ण – प्रेम – लाभ ता’र अवश्य हइबे ।।
श्रीनामाचार्य हरिदास ठाकुर जी हरिनाम करने वालों को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हरिनाम करने वाले को चाहिए कि वह हरिनाम के इलावा और कोई धर्म-कर्म न करें। श्रीकृष्ण से स्वतन्त्र भी कोई और ईश्वर है, इस भावना से किसी की भी पूजा न करें। बस, कृष्ण नाम और भक्त-सेवा’ हमेशा करते रहें। ऐसा करने पर श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति अवश्य होगी।
हरिदास काँदि’ प्रभु – चरणे पड़िया।
नामे अनुराग मागे चरण धरिया ।।
हरिदासपदे भक्तिविनोद याहार।
हरिनाम – चिन्तामणि जीवन ताहार ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी रोते हुये महाप्रभु जी के चरणों में गिरकर हरिनाम में अनुराग होने का वरदान माँगने लगे।
श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के चरणकमलों में जिनका अनुराग है, ‘श्रीहरिनाम चिन्तामणि’ उनका ही जीवन-स्वरूप है।