छठा परिच्छेद

पन्चतत्त्व जय जय श्रीराधामाधव।
जय नवद्वीप व्रज यमुना वैष्णव ।।

हरिदास बले प्रभु करि निवेदन।
तृतीयापराध नामे येरूपे घटन ।।

विस्तारि’ बलिव आमि तोमारि आज्ञाय।
येइ सब अपराध गुरु – अवज्ञाय ।।

बहुयोनि भ्रमि’, मानव – शरीर, दुर्लभ शुभद अति ।
तथापि अनित्य, पाइलेक येइ, यावत् जीवने स्थिति ।।

परम मंगल, लभिवार तरे, यदि ना यतन करे।
पुनराय भवे, अनित्य शरीर, लभिया आबार मरे ।।

भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु, श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु, श्रीअद्वैताचार्य, श्रीगदाधर पंडित व श्रीवास पंडित इन पंचतत्त्व की जय हो, श्रीराधा-माधव जी की जय हो। श्रीनवद्वीप धाम, श्री व्रजधाम, श्रीयमुना जी और सभी वैष्णवों की जय हो।

श्रीहरिदास ठाकुर निवेदन करते हुये श्रीमन् महाप्रभु से कहने लगे-हे प्रभु! अब मैं आपकी आज्ञानुसार तीसरे अपराध ‘गुरु- अवज्ञा’ के बारे में विस्तार से कहूँगा कि ये कैसे घटित होता है तथा जीवन में किस प्रकार से गुरु – अवज्ञा होती है।

अनेक योनियों में भ्रमण करने के बाद जीव को ये मनुष्य शरीर मिलता है जो कि अति दुर्लभ एवं मंगल प्रदान करने वाला है। जितनी भी लम्बी अवधि के लिए ये शरीर मिले, परन्तु होता ये अनित्य ही है। मानव शरीर को धारण करने पर भी जब कोई भजन न करे तो उसे इस मानव देह को त्याग कर फिर से अनित्य संसार में जन्म लेना और मरना पड़ता है।

संसारी जीव को अवश्य गुरु का आश्रय ग्रहण करना चाहिए

सुबोध ये हय, दुर्लभ नृदेह,
लभिया भव-संसारे।
गुरु कर्णधार, समाश्रय करि,’
कृष्ण – आनुकूल्ये तरे ।।

शान्त कृष्णभक्त – लक्षण ये गुरु,
सदैन्य वचने ताँ रे।
सन्तोष करिया, कृष्णदीक्षा लय,
याय संसारेर पारे ।।

सहजे जीवेर, आछे कृष्णे मति,
वृथा तर्क ताहा याय।

वितर्क छाड़िया, सुमति आश्रये,
गुरु ह’ते मन्त्र पाय ।।

बुद्धिमान व्यक्ति जन्म-मुत्यु रूपी इस संसार में दुर्लभमनुष्य शरीर को पाकर शान्त स्वभाव के श्रीकृष्ण – भजन का गुरु रूप में आश्रय ग्रहण करता है तथा अपने विनम्र वचनों से उन्हें प्रसन्न करता है। भवसागर से पार जाने के लिए सद्‌गुरु रूपी मल्लाह से वह श्रीकृष्ण नाम की दीक्षा प्राप्त करके, प्रीतिपूर्वक श्रीकृष्ण का भजन करते हुये भवसागर पार हो जाता है। वैसे तो स्वाभाविक रूप से जीव की श्रीकृष्ण में रति-मति होती है परन्तु ज्यादा तर्क इत्यादि करने से यह प्रीति नष्ट हो जाती है। इसलिए कुतर्क को छोड़कर जब कोई सुमति का आश्रय लेता है तो वह सद्‌गुरु का चरण – आश्रय लेता है। सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करते हुये वह उनसे गुरुमन्त्र प्राप्त करता है। शरीर में आसक्त अथवा विषयों में आसक्त जीव को चाहिए कि वह अपने अपने वर्ण एवं आश्रम के नियमों का पालन करते हुये सद्‌गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करे।

ब्राह्मण आदि उच्च वर्ण में सत्पात्र होने पर ही वह गुरु होने के योग्य है

गृही जीवगण, वर्णाश्रमे थाकि’,
सद्गुरु आश्रय करे।
ब्राह्मण, आचार्य, सर्वर्णे हय,
यदि कृष्णभक्ति धरे ।।

ब्राह्मण – कुलेते, सुपात्र अभावे,
अन्य कुले दीक्षा पाय।
उच्चवर्ण गुरु, गृहीर उचित,
गुरु – शिष्य परीक्षाय ।।

ब्राह्मण यदि श्रीकृष्ण भक्त है तो वह सभी वर्णों का गुरु हो सकता है परन्तु यदि ब्राह्मण कुल में ऐसा सुपात्र न मिले तो अन्य कुल में उत्पन्न व्यक्ति से भी दीक्षा ग्रहण की जा सकती है। दीक्षा देने या लेने से पहले गुरु को शिष्य की व शिष्य को गुरु की भली भाँति परीक्षा कर लेनी चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो, उच्चवर्ण के गुरु से ही दीक्षा लेनी चाहिए।

वर्ण-विचार की अपेक्षा सुपात्र-विचार करना अधिक उचित है

कृष्णतत्त्वेत्ता, प्रकृत ये हय,
से हइते पारे गुरु।
किवा विप्र, शुद्र, कि गृही, संन्यासी,
गुरु हन कल्पतरु ।।

वर्णर मर्यादा, पात्रेर विचारे,
परमार्थ लघु अति ।
सुपात्र मिलन, प्रयोजन सदा,
यदि चाइ शुद्ध रति ।।

सुपात्रेर प्राप्ति, मूल प्रयोजन,
पवित्र सुवर्ण हेन।
ताहे उच्च वर्ण, लभिले संयोग,
सोहागा सुवर्णे येन ।।

जो कृष्ण – तत्त्व को भली भांति समझता है, वही वास्तविक गुरु हो सकता है, चाहे वह ब्राह्मण हो, शूद्र हो, गृहस्थी हो अथवा संन्यासी हो। सद्‌गुरु तो तमाम इच्छाओं को पूर्ण करने वाले कल्पतरु के समान होते हैं। यदि हमें श्रीकृष्ण – प्रेम प्राप्त करना है तो सद्‌गुरु के वर्ण की ओर अधिक ध्यान न देकर उसकी कृष्ण – भक्ति देखनी चाहिए क्योंकि परमार्थ के मार्ग में केवलमात्र उच्चवर्ण को ही मर्यादा देना उचित नहीं है। शुद्ध सोने की तरह सुपात्र की प्राप्ति करना अर्थात् सद्‌गुरु की प्राप्ति करना ही मूल प्रयोजन है। अगर कोई गुरु, सुपात्र होने के साथ – साथ उच्चवर्ण का भी है, तो यह सोने पर सुहागे के समान है।

गृहत्यागी, गृहत्यागी गुरु का आश्रय कर सकता है

ये कोन कारणे, सेइ गृहि – धर्म,
छाड़ि’ अन्याश्रम लय।
ताहे परमार्थ, ना पाइया शेषे,
साधुगुरु अन्वेषय ।।

ताहार पक्षेते, अगृही आचार्य,
प्रशस्त सकल मते ।
ताँ’र दीक्षा शिक्षा, पाइया से – जन,
भासे नामरसामृते ।।

यदि किसी भी कारण वश कोई जीव गृहस्थ आश्रम का परित्याग करके अन्य आश्रम को ग्रहण करता है तो उसके ऐसा करने मात्र से ही उसे पारमार्थिक उन्नति प्राप्त नहीं होगी। पारमार्थिक उन्नति प्राप्त करने के लिए उसे सद्‌गुरु का आश्रय ग्रहण करना ही पड़ेगा। गृहत्यागी – व्यक्ति को गृहत्यागी गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करना ही उचित है। उनसे शिक्षा – दीक्षा ग्रहण करके ही वह श्रीकृष्ण नाम का रसास्वादन कर सकता है।

गृहस्थ-व्यक्ति को अपना गृहस्थाश्रम छोड़ने पर भी अपने पूर्व सद्‌गुरु का चरणाश्रय नहीं छोड़ना चाहिए

गृही भक्तजने, विराग लभिले,
छाड़ये संसार – विधि।
तबु पूर्वगुरु, चरण – आश्रय,
करिवे जीवनावधि ।।

गृहिजनमध्ये, गृहिगुरु शस्त,
यदि शुद्धभक्त हन।
नतुवा अगृही, सुयोग्य हइले,
गुरुयोग्य सर्वक्षण ।।

सद्गुरु पाइया, भजिते भजिते,
भावेर उदय यबे।
संसार – विरक्ति, संसार छाड़िया,
वैरागी हइवे तबे ।।

गृहस्थ – भक्त को वैराग्य प्राप्त करके संसार छोड़ देने पर भी अपने पूर्व सद्गुरु का चरणाश्रय जीवन के अन्तिम क्षणों तक नहीं छोड़ना चाहिए। गृहस्थ व्यक्ति गृहस्थाश्रम के सद्‌गुरु का चरणाश्रय ग्रहण कर सकते हैं यदि वह शुद्ध श्रीकृष्ण भक्त हों तो, अन्यथा उसे सुयोग्य त्यागी – सद्‌गुरु के चरणों का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिए। सद्‌गुरु को प्राप्त करके हरिभजन करते-करते हृदय में जब भगवद्- भावों का उदय होता है तो स्वाभाविक रूप से संसार परित्याग करने से वह वैरागी भक्त बन जाता है।

जो वैराग्य-आश्रम ग्रहण करेंगे, वे वैरागी-सद्‌गुरु का ही चरणाश्रय ग्रहण करेंगे

वैराग्य – आश्रम, ग्रहणेते त्यागी,
पुरुष हइवे गुरु।
ताँहार चरणे, शिखिवे विराग,
गुरु शिक्षा – कल्पतरु ।।

वैराग्याश्रम ग्रहण कर लेने के बाद उस व्यक्ति को चाहिए कि वह वैरागी गुरु का ही चरणाश्रय ग्रहण करे क्योंकि वैरागी गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करने पर उसे वैराग्य की शिक्षा प्राप्त होगी। शिक्षा देने के लिए तो गुरु कल्पतरु के समान होते हैं जो कि विभिन्न प्रकार की शिक्षा प्रदान करते हैं।

दीक्षागुरु और शिक्षागुरु समान रूप से सम्माननीय हैं

दीक्षा – शिक्षा – भेदे, गुरु दु’प्रकार,
उभये समान मान।
अर्पिवे सुजन, परमार्थ – धन,
अनायासे यदि चान ।।

कृष्णनाम – मन्त्र, देन दीक्षागुरु,
शिक्षागुरु – तत्त्वदाता।
वैष्णव – सकल, शिक्षागुरु हन,
सर्व शुभजनयिता ।।

शिक्षा और दीक्षा के भेद से गुरु दो प्रकार के होते हैं। अतः जो व्यक्ति अनायास उस परमार्थ धन को प्राप्त करना चाहते हैं, वे शिक्षा गुरु व दीक्षा गुरु, दोनों को बराबर सम्मान प्रदान करते हैं। दीक्षा गुरु श्रीकृष्ण नाम प्रदान करते हैं जबकि शिक्षा गुरु भजन तत्त्व की शिक्षा देते हैं। सभी वैष्णव, शिक्षा – गुरु होते हैं। उनका यथायोग्य सम्मान करना चाहिए।

सम्प्रदाय के आदिगुरु की शिक्षाओं को अवलम्बन करके आचरण करें

साधु – सम्प्रदाये, आचार्य सकल,
शिक्षागुरु प्रतिष्ठित ।

आद्याचार्य यिनि, गुरु – शिरोमणि,
पूजि’ ताँ रे यथोचित ।।

ताँ रे सुसिद्धान्त, अनुगत ह’ये,
ना मानिव अन्य शिक्षा।
ताँहार आदेश, पालिव यतने,
ना लइव अन्य दीक्षा ।।

वैष्णव – सम्प्रदाय के सभी आचार्य, शिक्षा गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हैं किन्तु जो आदि – आचार्य हैं, वे गुरु शिरोमणि हैं। उनकी यथोचित पूजा करनी चाहिए। इधर-उधर की बातें न सुनकर आदि आचार्यों के सुसिद्धान्तों का ही अनुसरण करना चाहिए एवं बड़े यत्न के साथ उनके आदेशों का पालन करना चाहिए तथा किसी वैष्णव- परम्परा से ही दीक्षा लेनी चाहिए, अन्य कहीं से नहीं।

वैष्णव-सम्प्रदाय के गुरु का वरण करना ही अनिवार्य है

सम्प्रदाय गुरुगणे शिक्षा – गुरु जानि’।
अन्यमत पण्डितेर शिक्षा नाहि मानि ।।

सेइ मते सुशिक्षित साधु सुचरित ।
दीक्षा – गुरु – योग्य सदा जाने सुपण्डित ।।

वैष्णव – सम्प्रदाय के आचार्यों को ही शिक्षा गुरु मानना चाहिए। अन्य – मतों के विद्वानों की शिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। वैष्णव सम्प्रदाय के सिद्धान्तों में सुशिक्षित एवं चरित्रवान ही दीक्षा गुरु होने के योग्य हैं, ऐसा वैष्णव – विद्वानों का मत है।

शुद्ध-भक्त को छोड़ कर और किसी को भी गुरु मत बनाना

मायावादिमते थाके, कृष्णमन्त्र लय।
ता’र परमार्थ कभु नाहि हय ।।

ये अन्याय शिवे, येइ शिक्षा देय आर।
उभये नरके याय, ना पाय उद्धार ।।

शुद्ध भक्ति छाड़ि’ यिनि शिखिलेन वाद।
ताँहार जीवनमात्र वाद – विसंवाद ।।

से केमने गुरु ह ‘बे, उद्घारिवे जीवे।
आपनि असिद्ध अन्ये किवा शुभ दिवे ।।

अतएव शुद्ध भक्त ये से केने नय।
उपयुक्त गुरु हय, सर्वशास्त्रे कय ।।

मायावादियों से श्रीकृष्ण – मन्त्र प्राप्त करने पर जीव कभी भी परमार्थ- पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। जो व्यक्ति श्रीकृष्ण भक्ति को छोड़कर और – और शिक्षा लेते हैं या शिक्षा देते हैं, दोनो ही नरक में जाते हैं। शुद्धभक्ति को छोड़कर जो अन्य – अन्य मतवादों की शिक्षा ग्रहण करते हैं, उनका जीवन यूँ ही तर्क-वितर्क में बीत जाता है। ऐसे तर्क-वितर्क में फंसा जीव भला कैसे गुरु हो सकता है और कैसे जीवों का भला करेगा? जो स्वयं ही सिद्ध नहीं है एवं अमंगलों से घिरा हुआ है, वह दूसरों का क्या मंगल करेगा। अतः जो शुद्ध भक्त है, चाहे वह किसी भी कुल का क्यों न हो, वह गुरु होने के उपयुक्त है, ऐसा सभी शास्त्र कहते हैं।

गरु-तत्त्व

दीक्षागुरु, शिक्षागुरु दुहे कृष्णदास ।
मुँह वजजन, कृष्णशक्तिर प्रकाश ।।

गुरुके सामान्य जीव ना जानिवे कभु।
गुरु – कृष्णशक्ति, कृष्णप्रेष्ठ, नित्यप्रभु ।।

एइ बुद्धि – सह सदा गुरुभक्ति करे।
सेइ गुरुभक्तिबले संसारेते तरे ।।

शिक्षागुरु तथा दीक्षागुरु दोनों ही श्रीकृष्ण के दास हैं। तत्त्व से दोनों ही व्रजवासी हैं एवं श्रीकृष्ण की शक्ति के प्रकाश हैं। शिष्यों को चाहिए कि वह अपने गुरुदेव को कभी भी सामान्य जीव न समझें क्योंकि श्रील गुरुदेव श्रीकृष्ण की शक्ति हैं, श्रीकृष्ण के प्रिय हैं एवं शिष्यों के लिए तो वे उनके नित्य सेव्य हैं। शुद्ध – वैष्णवों का ऐसा मत है कि गुरुदेव को साक्षात् श्रीकृष्ण नहीं समझना चाहिए। गुरुदेव को श्रीकृष्ण समझना शास्त्रीय दृष्टि से अनुचित है। इसे मायावादी मत कहते हैं। अतः गुरुदेव को श्रीकृष्ण की शक्ति व श्रीकृष्ण का अति प्रिय जान कर जो शिष्य सदैव उनकी सेवा करता है, वह गुरु-सेवा के प्रभाव से इस संसार से पार हो जाता हैं।

गुरु-पूजा

अग्रे गुरुपूजा, परे श्रीकृष्णपूजन ।
गुरुदेवे श्रीकृष्णप्रसाद समर्पण ।।

गुरु – आज्ञा ल’ये कृष्ण पूजिवे यतने ।
श्रीगुरु स्मरिया कृष्ण वलिवे वदने ।।

सबसे पहले गुरु-पूजा करनी चाहिए। उसके पश्चात् श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए। गुरु-पूजा के समय गुरुदेव को श्रीकृष्ण का प्रसाद अर्पण करना चाहिए। अर्थात् पूजा के समय तो पहले गुरु-पूजा करें तथा गुरुजी से अनुमति लेकर श्रीराधा कृष्णजी की पूजा करें। परन्तु भोग लगाते समय पहले भोग भगवान श्रीराधा कृष्ण जी को अर्पित करें तत्पश्चात् उनका प्रसाद श्रीगुरुदेव जी को अर्पित करें। गुरुदेव जी से आज्ञा लेकर बड़े यत्न के साथ श्रीकृष्ण की पूजा करें तथा श्रील गुरुदेव को स्मरण करते हुये मुख से भगवद् – नाम का कीर्तन करें।

गुरु के प्रति किस प्रकार की श्रद्धा रखना उचित

गुरुते अवज्ञा या’र ता’र अपराध ।
सेइ अपराधे ता’र हय भक्तिबाध ।।

गुरु – कृष्ण – वैष्णवेते समभक्ति करि’।
नामाश्रये शुद्ध भक्त शीघ्र याय तरि’ ।।

गुरुते अचला श्रद्धा करे येइ जन।
शुद्धनामबले सेइ पाय प्रेमधन ।।

यदि कोई गुरु की अवज्ञा करता है तो उसका अपराध होता है, तब इस प्रकार के अपराध से उसके भक्ति मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है। गुरु, श्रीकृष्ण तथा वैष्णवों में समबुद्धि करते हुये अर्थात् उनकी पूज्य भाव से सेवा करते हुये जो श्रीहरिनाम का आश्रय ग्रहण करते हैं, वे ही शुद्ध – भक्त हैं और वे शीघ्र ही भवसागर से पार हो जाते हैं। जो साधक अपने गुरु में दृढ़ श्रद्धा रखते हैं, वे हरिनाम के प्रभाव से श्रीकृष्ण प्रेम रूपी महाधन को प्राप्त कर लेते हैं।

कौन सी परिस्थिति में गुरु का त्याग करना चाहिए

तबे यदि एरूप घटना कभु हय।
असत्संगे गुरुर योग्यता हय क्षय ।।

प्रथमे छिलेन तिनि सद्गुरु – प्रधान।
परे नाम – अपराधे हञा हतज्ञान ।।

वैष्णवे विद्वेष करि’ छाड़े नाम-रस।
क्रमे क्रमे हन अर्थ कामिनीर वश ।।

सेइ गुरु छाड़ि’ शिष्य श्रीकृष्णकृपाय ।
सद्गुरु लभिया पुनः शुद्ध नाम गाय ।।

दुर्भाग्यवश यदि कभी ऐसा हो कि गुरु असत्संग में पड़ जाये तो असत् – संग के दुष्प्रभाव से उनकी योग्यताएँ खत्म हो जाती हैं। यह ठीक है कि पहले वह एक अच्छे सद्‌गुरु थे परन्तु बाद में नामापराध के प्रभाव से उनका ज्ञान नष्ट हो गया। ऐसे में यदि वे वैष्णवों से विद्वेष करके, श्रीहरिनाम रूपी श्रेष्ठ – भजन छोड़कर, धन-दौलत एवं कामिनी के वशीभूत हो जाये तो ऐसे गुरु का त्याग कर देना चाहिए और पुनः श्रीकृष्ण की कृपा से प्राप्त सद्‌गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करते हुये शुद्ध रूप से श्रीहरिनाम करना चाहिए।

परीक्षा के बाद ही सद्‌गुरु वरण करना चाहिए

अयोग्यशिष्येरे गुरु करिबेन दण्ड।
भजिया अयोग्यगुरु शिष्य हय पण्ड ।।

मुँहेर योग्यता यतदिन स्थिर रय।
परस्पर सम्बन्ध कखन त्यज्य नय ।।

इधर सद्‌गुरु को भी चाहिए कि वह अपने अयोग्य शिष्य को दण्ड दे क्योंकि अयोग्य शिष्य को पालते रहने से वह और अधिक उद्दण्ड हो जाता है। जबकि दूसरी ओर शिष्य को भी चाहिए कि वह अयोग्य गुरु को छोड़ दे अन्यथा अयोग्य गुरु के पास रहने से शिष्य पाखण्डी बन जाता है। जब तक गुरु व शिष्य दोनों की योग्यता ठीक रहती है, तब तक ही दोनों को आपसी सम्बन्ध बनाए रखना चाहिए और उस सम्बन्ध का त्याग नहीं करना चाहिए।

गुरु-सेवा की प्रक्रिया

गुरु – शय्यासन, आर पादुकादि, यान।
पादपीठ स्नानोदक, छायार लंघन ।।

गुरुर अग्रेते अन्य पूजा द्वैतज्ञान।
दीक्षा, व्याख्या, प्रभुत्वादि करिवे वन्दन ।।

यथा यथा गुरुर पाइवे दरशन।
दण्डवत् पड़ि भूमे करिवे वन्दन ।।

गुरुनाम भक्तेि करिवे उच्चारण।
गुरु – आज्ञा हेला ना करिवे कदाचन ।।

गुरुर प्रसाद सेवा अवश्य करिवे।
गुरुर अप्रिय वाक्य कभु ना कहिवे ।।।

गुरुर चरणे दैन्ये लइवे शरण।
करिवे गुरुर सदा प्रिय आचरण ।।

एरूप आचारे कृष्णनामसंकीर्त्तने।
सर्वसिद्धि हय प्रभो बले श्रुतिगणे ।।

नामगुरु प्रति यदि अवज्ञा घटाये।
दुष्टसंगे दुष्टशास्त्र – मत समाश्रये ।।

तबे सेइ संग, सेइ शास्त्र दूर करि’।
विलाप करिवे सेइ गुरुपदे धरि’ ।।

कृपा करि’ गुरुदेव हइवे सदय।
नामे प्रेम दिवे से वैष्णव दयामय ।।

हरिदासपदरेणु भरसा याहार।
नामचिन्तामणि गाय तृणाधिक छार ।।

गुरुदेव के विश्राम करने वाला बिस्तर, उनकी पादुका, उनका वाहन, उनका चरण रखने वाला आसन तथा उनके स्नान जल का कभी भी निरादर नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि उनकी परछाईं को भी नहीं लाँघना चाहिए। अपने गुरुदेव के सामने किसी और की अलग से पूजा नहीं करनी चाहिए, न ही किसी को दीक्षा देनी चाहिए। गुरुदेव के आगे कभी भी अपना बड़प्पन नहीं दिखाना चाहिए। जहाँ कहीं भी गुरुदेव जी के दर्शन हों तो भूमि पर लेट कर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके उनकी वन्दना करनी चाहिए। गुरुदेव जी का नाम बहुत ही आदरपूर्वक उच्चारण करना चाहिए। गुरुदेवजी की आज्ञा को कभी भी टालना नहीं चाहिए। गुरु जी का प्रसाद अवश्य ग्रहण करना चाहिए। श्रील गुरुदेव को कभी भी कड़वे वचन नहीं बोलने चाहिएँ। श्रुतियाँ कहती हैं कि अति दीनता के साथ गुरु जी के चरणों में शरणागत होकर उनको प्रसन्न करने वाला आचरण करना चाहिए। इस प्रकार के आचरण के साथ श्रीकृष्णनाम संकीर्तन करने से सर्वसिद्धि की अर्थात् भगवान की प्राप्ति होती है। दुष्ट- संग के प्रभाव से अथवा अप्रामाणिक शास्त्रों को पढ़कर यदि किसी व्यक्ति से श्रीहरिनाम प्रदान करने वाले गुरु का अनादर हो जाये तो उसे चाहिए कि वह उस दुष्ट संग तथा अप्रामाणिक शास्त्रों का त्याग करके अपने गुरु के पादपद्मों में विलाप करते हुये अपने अपराधों के लिए क्षमा प्रार्थना करे। दयालु गुरुदेव कृपा करके उस साधक के अपराधों को क्षमा करके उसे शुद्ध श्रीकृष्ण नाम प्रदान करेंगे।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी की चरण-रेणु ही जिनका भरोसा है, ऐसा तिनके से भी छोटा, अति तुच्छ जीव ‘श्रीहरिनाम चिन्तामणि’ का गान करता है।

इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ गुर्ववज्ञा विचारो नाम षष्ठः परिच्छेदः ।