१० अक्टूबर, २०१० को, जब श्रील गुरुदेव बठिंडा में थे, तब श्रीकेशवजी गौड़ीय मठ के आचार्य, परम पूज्यपाद श्रील भक्ति वेदांत नारायण गोस्वामी महाराज (ग्रन्थ के इस भाग में ‘महाराजश्री’ नाम से संबोधित हैं) के एक शिष्य ने मुझे फ़ोन किया। उन्होंने महाराजश्री की अस्वस्थ-लीला के विषय में मुझे सूचना दी। मैंने उनसे पूरी जानकारी प्राप्त की। बाद में, जम्मू के श्रीरासविहारी प्रभु और मैंने, श्रील गुरुदेव को महाराजश्री के स्वास्थ्य के विषय में संक्षेप में बताया। श्रील गुरुदेव, महाराजश्री के स्वास्थ्य के बारे में विस्तार से जानना चाहते थे, इसलिए वह पूरी जानकारी मिलने तक हमसे प्रश्न पूछते रहे। पूरा वृत्तान्त सुनकर वे अत्यंत चिंतित हुए और उन्होंने महाराजश्री के सेवक के साथ फ़ोन पर वार्तालाप करने की इच्छा व्यक्त की। हमने महाराजश्री के एक सेवक, श्रीमाधव महाराज, को फ़ोन किया। उनसे, ‘पिछले कुछ दिनों में महाराजश्री के स्वास्थ्य में कुछ सुधार हुआ है’ यह सुनने के बाद ही श्रील गुरुदेव चिंता से थोड़ा मुक्त हुए। श्रील गुरुदेव ने उन्हें बताया कि महाराजश्री ने किस प्रकार अपनी सुख-सुविधाओं पर ध्यान नहीं देते हुए प्रचार के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी में व्यापक रूप से भ्रमण किया। कुछ वर्ष पूर्व वृंदावन में श्रीविनोद वाणी गौड़ीय मठ में, और उससे पहले कई अन्य अवसरों पर महाराजश्री के साथ उनके मिलन के क्षणों को भी उस वार्तालाप के बीच में उन्होंने स्मरण किया। अंत में उन्होंने श्रीमाधव महाराज से कहा कि भक्तों को महाराजश्री की अच्छी तरह से सेवा करनी चाहिए और उन्हें उत्तम चिकित्सा उपलब्ध करवानी चाहिए। उन्होंने श्रीमाधव महाराज को परामर्श दिया कि वे अपनी सेवा प्रचेष्टाओं को उत्साह के साथ जारी रखें क्योंकि महाराजश्री ने कृपा कर उन्हें सेवा का अवसर दिया है।

लगभग ३-४ महीनों के पंजाब और आसाम के प्रचार-कार्य समाप्त होने के बाद, दिसंबर में श्रील गुरुदेव कोलकाता लौट आए। कुछ ही दिनों के बाद, श्रीमाधवप्रिय प्रभु (महाराजश्री के एक और सेवक) ने मुझे श्रील गुरुदेव के चरणों में अपना यह निवेदन प्रस्तुत करने के लिए कहा, “यदि आपके स्वास्थ्य और समय की ओर से कोई असुविधा न हो, तो क्या आप महाराजश्री के सम्बन्ध में कुछ शब्द लिख सकते हैं? हम उसे फरवरी २०११ की पत्रिका में प्रकाशित करना चाहते हैं।”

अगले दिन श्रील गुरुदेव का सुबह का जलपान होने के बाद, मैंने श्रीमाधवप्रिय प्रभु के इस अनुरोध को उनके समक्ष प्रस्तुत किया। मैंने उनसे यह भी कहा कि इस कार्य के लिए पर्याप्त समय है क्योंकि पत्रिका को प्रकाशित होने में अभी दो मास का समय है। महाराजश्री के स्वास्थ्य के बारे में मुझसे पूछने के बाद उन्होंने कहा कि वे निश्चित रूप से उनके लिए कुछ स्नेह भरे शब्द लिखना चाहते हैं। जलपान के बाद उनकी दिनचर्या के अनुसार वे स्टडी टेबल के पास जाकर बैठ गए, और मैं उनकी भजन कुटीर से बाहर आ गया।

उसके बाद, मैंने श्रील गुरुदेव की भजन कुटीर में लगभग ११ बजे प्रवेश किया, यह देखने के लिए कि वे स्नान करने के लिए प्रस्तुत हैं या नहीं। मैंने देखा कि वे पूरी तन्मयता से महाराजश्री को पत्र लिखने में व्यस्त हैं। उनके कार्य में बाधा दिए बिना ही मैं उनकी भजन कुटीर से बाहर आ गया। आधे घंटे के बाद : अंदर गया, तो उन्होंने मुझे वह अधूरा लिखा हुआ पत्र दिखाया। उन्होंने मुझे कहा, “यह ठीक हुआ कि नहीं आप देखिए।” मैंने उसे जल्दी से पढ़कर ‘हाँ’ में सिर हिला दिया और उनसे स्नान करने के लिए आग्रह किया, किन्तु वे उसी समय उस पत्र को पूरा लिखना चाहते थे।

श्रील गुरुदेव की भजन कुटीर से बाहर आए हुए मुझे १५ मिनट ही हुए होंगे कि मैं फिर अंदर चला गया। वे अभी भी बहुत एकाग्रता के साथ अपने कार्य में मग्न थे। उनके दोपहर के प्रसाद और औषध सेवन के लिए विलम्ब होता हुआ देखकर मैं चिंतित हो गया और उनकी भजन कुटीर में बार-बार आना-जाना करने लगा। थोड़ी आवाज़ कर उनका ध्यान बटाने का प्रयास भी किया, किन्तु वे बिना सिर उठाए क्षण भर मेरी ओर एक असंतुष्ट दृष्टि डालकर अपने कार्य में लीन हो जाते। मेरी अधीरता ने उनकी एकाग्रता को भंग किया, किन्तु उस समय उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा।

लगभग १ बजे के बाद, श्रील गुरुदेव स्टडी टेबल से उठें। उन्होंने जो कुछ भी लिखा था, वह मुझे दिखाना चाह रहे थे। मैं उनकी दिनचर्या में विलम्ब को लेकर बहुत चिंतित था। इसलिए, मैंने उनसे कहा, “गुरुजी, पहले ही बहुत देरी हो चुकी है। आपको उचित समय पर प्रसाद और दवाईयां लेनी होंगी। नहीं तो, आपके स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होगा। हम इसे बाद में देख सकते हैं। अभी कृपया आप स्नान कर लीजिए।”

श्रील गुरुदेव कुछ समय से मेरी चंचलता को देख ही रहे थे और जब मैंने उनसे यह सेवा छोड़कर उनके दैनिक कार्यों को पूरा करने का आग्रह किया, तो वे क्रोध प्रदर्शित करते हुए बोलने लगें, “जो दायित्व हमने लिया है उसे पूरा करना चाहिए। लोगों को दिखाने के लिए दायित्व लेने से क्या लाभ मिलेगा? यदि आप दायित्व को नहीं निभा सकते, तो उसे लेना ही नहीं चाहिए। और यदि लिया है, तो स्वयं को इसके लिए प्रतिबद्ध करना चाहिए। हड़बड़ी में कोई काम करना ठीक नहीं होगा।”

मैंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “किन्तु गुरुजी, हमारे पास तो दो मास का समय है।”

यह सुनकर श्रील गुरुदेव ने स्पष्ट रूप से कहा, “इसी क्षण इसे पूरा करना अच्छा है। कल मेरा स्वास्थ्य बिगड़ सकता है या कुछ और हो सकता है। किसी भी समय मुझे अपना शरीर छोड़ना पड़ सकता है। इसलिए, विलम्ब करना ठीक नहीं है। यदि आपने किसी कार्य का दायित्व लिया है, तो उसे अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए।”

श्रील गुरुदेव के इस उत्तर से में पूरी तरह स्तब्ध रह गया। साधारणतः हम दूसरों को बोलते रहते हैं कि ‘हम शरीर नहीं हैं’, ‘यह शरीर अनित्य है’, इत्यादि। किन्तु जब इस पर अमल करने की बात आती है, तो हम इससे कोसों मील दूर होते हैं। हम शीघ्रातिशीघ्र हरिभजन करने की आवश्यकता को समझते ही नहीं इसलिए हम भक्ति-सम्बंधित कार्यों में पीछे रह जाते हैं, और उन्हें किसी और दिन के लिए टाल देते हैं। मैं ऐसा समझता हूँ कि इस सीमा के माध्यम से श्री गुरुदेव ने हमें यह शिक्षा दी है, ‘हमारे अंदर भजन करने की तत्परता और ढ़ता होनी चाहिए। जो सेवा हम अभी कर सकते हैं उसे अगले क्षण पर भी न छोड़े, क्योंकि अगले क्षण क्या होने वाला है ये कोई नहीं जानता है। और जब हम किसी एक सेवा कार्य में नियुक्त है, तो स्वयं को शत-प्रतिशत उसी कार्य में लगा है, उस समय अन्य-अन्य कार्यों के बारे में चिंता ना करें। सारार्थ यह है कि प्रत्येक सेवा कार्य को हम ध्यान से करें और पूरा करें।’

मैंने धील गुरुदेव के आदेश पर उनके द्वारा लिखा हुआ पत्र पड़ा। पत्र में उनके द्वारा व्यवहार किए गए शब्द हृदय को छू लेने वाले थे और साथ-ही-साथ के प्रति उनके अत्यधिक स्नेह को विशेष रूप से प्रदर्शित कर रहे थे। पत्र लिखते समय, महाराजश्री के साथ पूर्वकाल में उनके मिलन के सभी क्षणों को स्मरण करते हुए कदाचित वे पूरी तरह उस समय में ही पहुँच गए थे, इसलिए उन्हें वह पत्र लिखने में कुछ घंटे लग गए। लिखते समय, वे उपयुक्त शब्द मिलने तक संतुष्ट नहीं होते और अपने प्रयासों को विश्राम नहीं देते। उनकी विशेषता यह थी कि किसी अन्य कार्य के लिए समय बचाने के लिए, उन्होंने उस समय के कार्य पर शत-प्रतिशत ध्यान देने पर कभी समझौता नहीं किया। इस प्रकार प्रत्येक कार्य को सम्पूर्ण प्रयास और एकाग्रता के साथ करने की उनकी यह विशेषता, सब के लिए एक उत्तम शिक्षा है।

श्रील गुरुदेव ने महाराजश्री को निम्न लिखित पत्र (बंगाली से अनुवादित) भेजा।

श्री चैतन्य गौड़ीय मठ, कोलकाता
१९ दिसंबर २०१०

श्रीजगन्नाथ पुरी धाम,
चक्रतीर्थं
श्रीश्रीगुरु गौरांग राधा दामोदर जीउ
पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति वेदांत नारायण महाराज, जो पहले श्रीकेशवजी गौड़ीय मठ, कंस-टीला में और उसके बाद श्रीरूप-सनातन गौड़ीय मठ, सेवाकुंज में निवास करते थे।

आपने मुझ पर जो स्नेह वर्षण किया, उसका स्मरण मेरे हृदय को आज भी आनंदित करता है, हालांकि मैं इस तरह के स्नेह के लिए नितान्त अयोग्य हूँ। श्रीकेशवजी गौड़ीय मठ, कंस-टीला में आपने अपने निज स्थान पर मुझे रखकर जिस तरह उदार हृदय से मेरा उत्साह वर्धन एवं मेरे कल्याण के लिए सभी प्रकार के प्रयास किए, उनका स्मरण आपके स्मृति-पटल पर भी अवश्य ही अंकित हुआ होगा।

आपकी गंभीर अस्वस्थता के दुःसंवाद से हम सब चिंतित हुए, किन्तु श्रीकृष्ण की इच्छा से आपके स्वास्थ्य में पहले से कुछ सीमा तक सुधार हुआ है, यह सुनकर हम उत्साहित हुए। आपने मेरी गंभीर अस्वस्थता के विषय में सुना ही होगा। मेरी धमनियों (arteries) की रुकावटों को खोलने के लिए angioplasty करते समय पांच stent डाले गए। डॉक्टर ने मुझे उचित और नियमित आराम का परामर्श दिया है। मेरी गतिविधियां अब नियंत्रित हो गई हैं।

मेरी आपसे मिलने की बड़ी इच्छा है। यदि आप चाहें, तो सब कुछ संभव है।

आपके चरणों में मेरे असंख्य दंडवत् प्रणाम स्वीकार करें।
इति दासाभास,
भक्ति बल्लभ तीर्थ

यह स्नेहभरा पत्र भेजने के दस ही दिनों के बाद, २९ दिसंबर, २०१० को, सुबह मुझे संदेश मिला कि महाराजश्री ने सुबह ३ बजे अपना शरीर छोड़ दिया। है। सुबह के लगभग ९. ३० बजे, श्रील गुरुदेव का जलपान हो जाने के बाद, मैंने उनको यह संदेश दिया। जैसे ही श्रील गुरुदेव ने सुना, वे अचंभित रह गए, “शरीर छोड़ दिया? किन्तु मुझे तो बताया गया था कि उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ है?” मैंने कहा कि महाराजश्री के स्वास्थ्य में थोड़ा सुधार हुआ था, किन्तु वह बहुत कम समय के लिए ही था, और अब उन्होंने शरीर छोड़ दिया है। थोड़े समय के मौन के बाद श्रील गुरुदेव कहने लगे, “कभी भी कुछ भी हो सकता है। सभी को एक न एक दिन इस अनित्य संसार को छोड़कर जाना ही होगा।” इतना कहकर श्रील गुरुदेव ने यह संकेत दिया कि इस संसार से अप्रकट-लीला द्वारा भक्त हमें शिक्षा देते हैं कि यह अनित्य संसार हमारे नित्य रहने का स्थान नहीं है।

श्रील गुरुदेव को स्मरण हुआ कि कुछ दिन पहले ही उन्होंने महाराजश्री को एक पत्र लिखा था और उन्होंने उस विषय में मुझसे पूछा। मैंने कहा, “महाराजश्री को आपका पत्र मिल गया था, और पत्र में आपके वाक्य, ‘मेरी आपसे मिलने की इच्छा है’ के उत्तर में उन्होंने कहा था कि यदि कृष्ण की इच्छा हो तो यह संभव है।”

श्रील गुरुदेव ने कहा, “अब यह संभव नहीं है।” थोड़ी ही देर के बाद वे दुबारा कहने लगे, “ऐसा नहीं है कि यह असंभव है। कुछ अवसरों पर यह संभव होता है। श्रील नरोत्तम दास ठाकुर को श्रीरूप गोस्वामी के साक्षात् दर्शन प्राप्त हुए थे, जबकि उस समय तक श्रीरूप गोस्वामी इस धरातल से अंतर्धान हो चुके थे। उस समय श्रीरूप गोस्वामी ने श्रील नरोत्तम दास ठाकुर को अपने हाथों से दूध भी पिलाया था।” भगवान् और उनके पार्षद नित्य हैं, उनके शरीर भौतिक नहीं है। हृदय से प्रार्थना किए जाने पर वे किसी भी समय, कोई भी स्थान पर प्रकट हो सकते हैं।

इस सम्पूर्ण घटना के पुनरावलोकन से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ही श्रील गुरुदेव को महाराजश्री के उद्देश्य से एक पत्र भेजने के लिए कहा गया था, उन्हें उसकी त्वरितता का आभास हो चुका था। वे बहुत अच्छे से जान गए थे कि यह अवसर दुबारा मिलने वाला नहीं है जैसे कि उन्होंने पहले ही कह दिया। था, “कल मेरा स्वास्थ्य बिगड़ सकता है या कुछ और हो सकता है। इसलिए, विलम्ब करना ठीक नहीं होगा।” इस लीला के माध्यम से हमें इन दोनों वैष्णवों के बीच इस अंतिम स्नेहपूर्ण आदान-प्रदान को देखने का अवसर तो मिला ही था, और तो और, श्रील गुरुदेव का यह उत्कृष्ट सन्देश भी मिला कि जैसे ही अवसर मिलता है उसका लाभ तुरंत उठा लेना चाहिए, क्योंकि यह अवसर दुबारा नहीं भी मिल सकता है। एक बार खोया हुआ अवसर सदा के लिए खो सकता है। इसलिए इस दुर्लभ और बहुमूल्य मानव जन्म की क्षणभंगुरता जानते हुए भी भजन को किसी अन्य दिन के लिए टाल देना बुद्धिमानी नहीं है।