कोलकाता मठ में रहते समय हमें श्रील गुरुदेव के मध्याह्न प्रसाद सेवन के बाद उनका थोड़ा खाली समय मिलता था, जिसमें भक्तों के इ-मेल या फ़ोन के माध्यम से आए आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर हम श्रील गुरुदेव से सुनते थे।

एक दिन दोपहर को, जब श्रील गुरुदेव अपनी आराम-कुर्सी (easy chair) पर विश्राम की मुद्रा में थे, तब ‘जीव-तत्त्व’ से सम्बंधित एक प्रश्न मैंने उनके सामने पढ़ा। प्रश्न सुनते ही, वे सजग हो गए और उन्होंने अपनी पीठ को सीधा कर लिया। उन्होंने राजा भरत के जीवन-चरित्र से उस प्रश्न का उत्तर देना आरम्भ किया। उन्होंने कहा कि राजा भरत ने हरिभजन करने के लिए अपने राज्य और परिवार को छोड़कर वानप्रस्थ ग्रहण किया था। किन्तु वन में एक हिरण के बच्चे को अत्यंत दयनीय स्थिति में देखकर उसका पालन करने लगे और उसके प्रति आसक्त हो गए। मृत्यु के समय उस हिरण का स्मरण होने के कारण उनका अगला जन्म एक हिरण का हुआ। इतना कहने के बाद, श्रील गुरुदेव ने हमें सावधान किया- इस अत्यंत दुर्लभ एवं बहुमूल्य मनुष्य जन्म को अपनी जागतिक इच्छाओं की पूर्ति करने में व्यर्थ नहीं कर पारमार्थिक मंगल के लिए चेष्टा करनी चाहिए।

उसके बाद श्रील गुरुदेव ने कहा, “भगवान् श्रीकृष्ण और जीवों का एक दूसरे के साथ नित्य सम्बन्ध है। भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु ने इस सम्बन्ध को अचिन्त्य-भेदाभेद कहा। अर्थात्, अपनी अचिन्त्य (कल्पना से अतीत) शक्तियों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण एक ही समय जीवों से भिन्न और अभिन्न हैं।

मैं जब अपने पूर्वाश्रम ग्वालपाड़ा में रहता था, तब जीव-तत्त्व, भगवद्-तत्त्व इत्यादि के विषय में मेरे अनेक प्रश्न थे। उन दिनों, मैं परम-आराध्यतम श्रील गुरुदेव ॐ विष्णुपाद श्रीश्रीमद्भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज को पत्र लिखता था। मेरे एक पत्र का उत्तर देते हुए गुरु महाराज ने मुझे श्रील भक्तिविनोद ठाकुर महाशय द्वारा रचित ‘जैव धर्म’ ग्रन्थ पढ़ने के लिए कहा था। मैंने ग्वालपाड़ा के एक पुस्तकालय से उस ग्रन्थ को लाकर जब उसका गहन अध्ययन किया, तो मुझे मेरे सभी प्रश्नों के उत्तर मिल गए। अतः आप भी उस ग्रन्थ को पढ़ें।”

इतना कहकर श्रील गुरुदेव सम्पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हुए। वे प्रश्नकर्ता और हम सभी पर और भी अधिक कृपा करना चाह रहे थे, किन्तु समय को ध्यान
में रखते हुए मैंने उनसे थोड़ी देर विश्राम करने का आग्रह किया। मैंने उनसे यह भी कहा कि उन्होंने प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसकी एक रूप-रेखा (draft) तैयार करके मैं उनके विश्राम के बाद उन्हें दिखा दूँगा। मैंने कमरे का प्रकाश कम कर दिया, तो वे अनिच्छा से आराम-कुर्सी से उठकर शय्या पर लेट गए। मैं उन्हें दंडवत प्रणाम कर उनके कमरे से बाहर आ गया। बाहर आकर, मैं उनके उत्तर का ड्राफ्ट तैयार करने के बजाय कुछ अन्य कम आवश्यक कार्यों में व्यस्त हो गया।

लगभग पाँच मिनट के बाद, श्रील गुरुदेव ने घण्टी बजाकर मुझे उनकी भजन-कुटीर में बुलाया। जब मैं अंदर गया, तब वे चिंतनशील स्थिति में मुझसे कहने लगे-

“इस पृथ्वी पर ८,४००,००० प्रकार के प्राणी हैं।

जलजा नव-लक्षाणि, स्थावरा लक्ष-विंशति, कृमयो रुद्र-संख्यकः ।
पक्षिणाम दश-लक्षणं, त्रिंशल्लक्षाणि पशवः, चतुर्लक्षाणि मानवः ॥
(श्रीविष्णु पुराण)

‘जलचर प्राणी ९ लाख प्रकार के हैं। वृक्ष और अन्य पौधों की २० लाख योनियां हैं। कीटों और सरीसृपों की ११ लाख प्रजातियां और पक्षियों की १० लाख प्रजातियां हैं। ३० लाख प्रकार की पशु योनियां और मात्र ४ लाख प्रकार की मनुष्य योनियां हैं। इस प्रकार, हमें ८० लाख अलग-अलग योनियों में भ्रमण करने के बाद मनुष्य जन्म प्राप्त होता है।’

3 पहले, वे वैष्णवों को बुलाने के लिए घण्टी का उपयोग करना अच्छा नहीं समझते थे। वे कहते थे कि यह शैली अनुचित है और वैष्णव शिष्टाचार के विरुद्ध है। वे कहा करते थे, “वैष्णव-जन मठ के सेवक हैं। मैं उनका प्रभु (boss) नहीं हूँ कि में उन्हें घण्टी बजाकर अपने पास बुलाऊँ।” वैसे भी, वे किसी से अपनी व्यक्तिगत सेवा करवाना पसंद नहीं करते थे, बल्कि सब कुछ अपने से ही करते थे। यदि कभी बहुत आवश्यकता पड़ती, तो वे व्यक्तिगत रूप से उस वैष्णव के पास जाते और विनम्रता से उनसे सहायता के लिए प्रार्थना करते। कई वर्षों तक वैष्णवों के द्वारा बार-बार अनुरोध करने पर, उन्होंने अपने सेवकों को बुलाने के लिए घण्टी का उपयोग करना आरम्भ किया और वह भी जब अत्यंत आवश्यक होता तब ही। किन्तु वे कभी भी अपने सेवकों को ‘मेरे सेवक’ नहीं कहते थे। वे उन्हें ‘मठ के सेवक’ या ‘मेरे सहायक’ या ‘मेरे शुभ-चिंतक’ कहा करते थे।

यह मनुष्य-जन्म बहुत दुर्लभ है। इस बहुमूल्य अवसर को नहीं खोना चाहिए। मनुष्य की सृष्टि करने के बाद भगवान् प्रसन्न हुए क्योंकि केवल मनुष्य ही उनका भजन कर सकते हैं। इसलिए, संसार के नाशवान सुखों के लिए इस मूल्यवान मानव-जन्म को व्यर्थ में गंवा देना बुद्धिमानी नहीं है। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद ने कहा है कि इस मानव जन्म में नित्य-कल्याण के लिए प्रयास करना ही हमारा एकमात्र कर्तव्य है।

लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-न्निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥
(श्रीमद्भागवतम् ११/९/२९)

‘असंख्य योनियों में भ्रमण करने के बाद, हमें यह दुर्लभ मानव-जन्म प्राप्त हुआ है। मानव देह नश्वर होते हुए भी भगवान् की सेवा करने एवं जीवों के चरम-उद्देश्य को स्थायी रूप से प्राप्त करने का सर्वोत्तम अवसर प्रदान करता है। इसलिए, एक बुद्धिमान व्यक्ति एक क्षण भी व्यर्थ नहीं करते हुए अपने सर्वोत्तम नित्य-कल्याण के लिए प्रयास करेगा, क्योंकि वह जानता है कि अन्य सभी योनियों में अनित्य सांसारिक वस्तुओं को लाभ कर सकते हैं, जो अंत में अत्यंत दुःख का ही कारण बनती हैं, किन्तु उन जन्मों में वास्तविक मंगल प्राप्त करना संभव नहीं है।”

श्रील गुरुदेव ने कहा, “इस प्रश्न के उत्तर में आपको यह भी लिखना चाहिए।”

मैं उनसे आज्ञा लेकर कमरे से बाहर आ गया जिससे कि उन्हें विश्राम करने के लिए पर्याप्त समय मिले। उन्होंने पाँच मिनट के बाद फिर से घण्टी बजाई। मेरे अंदर जाने पर उन्होंने कहा, –

“हमारे परम-आराध्यतम परम-गुरु-पादपद्म नित्य-लीला-प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद १०८ श्रीश्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद ने उल्टाडांगा रोड़, कोलकाता में एक मास तक ‘लब्ध्वा सु-दुर्लभम्’ श्लोक की व्याख्या की। तथापि वे पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि उन्हें लगा कि वे उस श्लोक की व्याख्या सम्पूर्ण रूप से नहीं कर पाए। एक दिन, कोलकाता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज के दो छात्र वहाँ आए। उनके ऊपर अपनी करुणामय दृष्टि डालकर श्रील प्रभुपाद ने कहा कि मनुष्य जन्म का एक क्षण भी हरिभजन किए बिना व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। दोनों छात्रों ने कहा कि वे केवल उत्सव देखने के लिए ही वहाँ आए हैं और अब उन्हें अपने घर वापस जाना होगा।

उत्तर में, श्रील प्रभुपाद ने कहा, ‘तूर्णं-इसी क्षण से आपको भगवान् का भजन आरम्भ कर देना चाहिए क्योंकि यह दुर्लभ अवसर किसी भी क्षण हाथ से निकल सकता है।’

श्रील प्रभुपाद के प्रभाव से वे दोनों आश्चर्यचकित हो गए और उन्होंने उत्तर दिया, ‘परन्तु यदि हमारे घर में आग लग गयी हो और हम वहाँ नहीं गए, तो उस आग को कौन बुझाएगा?’

श्रील प्रभुपाद ने कहा, ‘उसे जलने दो।’

छात्रों ने उत्तर दिया, ‘यदि हम हमारे घर में लगी आग को नहीं बुझाएंगे, तो हमारे घर के आसपास के घर भी जल जाएंगे!’

श्रील प्रभुपाद ने दृढ़ता-पूर्वक कहा, ‘पूरी दुनिया को जलने दो, फिर भी, आपका कुछ नहीं जाएगा क्योंकि आप ब्रह्म-भूत (भगवान् से और भगवान् के लिए) हो, जगत्-भूत (इस संसार से और इस संसार के लिए) नहीं हो।”

श्रील गुरुदेव ने आगे कहा, “बाद में, वे दोनों छात्र गौड़ीय मठ में ही रह गए। आपको यह भी उस प्रश्न के उत्तर में लिखना चाहिए। इस दुर्लभ मनुष्य-जन्म को व्यर्थ में गंवा देना बुद्धिमानी नहीं है।” उन्होंने बहुत स्नेह के साथ सबको सावधान कर दिया। मैं एक बार फिर उनको दंडवत प्रणाम कर उनके कमरे से बाहर आ गया।

जबकि मैंने प्रत्यक्ष रूप से देखा कि श्रील गुरुदेव ने कितनी गंभीरता और वात्सल्यता के साथ उस प्रश्न का उत्तर दिया, फिर भी मैंने उत्तर का ड्राफ्ट लिखने में कोई तत्परता नहीं दिखाई। उनकी भजन कुटीर के बाहर बैठकर मैं कंप्यूटर पर अन्य कुछ कार्य कर रहा था। अचानक, मैंने देखा कि वे अंदर से अपने कमरे का द्वार खोलने का प्रयास कर रहे थे। मैंने खड़े होकर उनकी सहायता की। वे अब और भी अधिक प्रीति-युक्त और कृपालु दिखाई दे रहे थे। द्वार पर खड़े-खड़े ही, उन्होंने एक क्षण भी विलम्ब नहीं करते हुए आगे बोलने लगे, –

“प्रह्लाद महाराज ने दैत्य-बालकों से कहा :-

कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् ७/६/१)

‘यह मनुष्य-जन्म प्राप्त करने के बाद, एक बुद्धिमान व्यक्ति, अनित्य भौतिक सुखों के लिए अपने सभी प्रयासों को छोड़कर कौमार-काल से ही भागवत-धर्म का अनुशीलन करेगा, क्योंकि इस संसार में मनुष्य-जीवन अत्यंत दुर्लभ और नाशवान होते हुए भी परमार्थ प्रदान कर सकता है। अर्थात्, मानव जीवन के क्षणभंगुर होने पर भी, यदि एक क्षण के लिए भी भक्ति का अनुष्ठान किया जाए, तो इससे सर्वोत्तम सिद्धि प्राप्त होगी।”

अपने मुखमण्डल पर एक सहज स्नेह के साथ श्रील गुरुदेव ने मृदु स्वर से कहा, “मनुष्य-जन्म अत्यंत दुर्लभ है। अस्थायी सुख की प्राप्ति के लिए उसे व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। इस मनुष्य शरीर को केवल भगवान् श्रीकृष्ण के भजन में ही लगाना चाहिए। उस प्रश्न के उत्तर में आपको प्रह्लाद महाराज की शिक्षा भी लिखनी होगी। क्या आप समझे?”

इस प्रश्न के उत्तर में, श्रील गुरुदेव इससे पहले भी कई बार मनुष्य-जन्म की सार्थकता के बारे में कह चुके थे। तब भी इस बात की गंभीरता को हमें तुरंत अनुभव कराने और इस शरीर के समुचित उपयोग की ओर हमें अग्रसर करने के लिए, उन्होंने अपनी शय्या पर लेटी हुई मुद्रा से उठकर चलते हुए मुझ तक पहुँचने का कष्ट उठाया। कदाचित उन्होंने इस विषय पर और अधिक व्याख्या करने के लिए बार-बार मुझे कमरे में बुलाना ठीक नहीं समझा होगा। अथवा अंतर्यामी होने के कारण वे समझ गए थे कि मैंने उनके संदेश को अभी भी गंभीरता से नहीं लिया है क्योंकि मैं उनके उत्तर को लिखने की जगह अन्य कार्यों में ही व्यस्त रहा। उन्होंने यह भी सोचा होगा कि सबको तुरंत हरिभजन में नियोजित करना होगा। कारण जो भी हो, जीवों के प्रति उनकी इस प्रकार की अहैतुकी करुणा देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। साथ-साथ, उनके जैसे एक महान गुरु के शिष्य होने पर मैंने अपनी हृदय की गहराईयों में एक अनोखे आनंद का अनुभव भी किया।

मुझे लगता है कि हम स्वयं के कल्याण के विषय में उतनी गंभीरता से नहीं सोचते होंगे जितना श्रील गुरुदेव हमारे लिए सोचते हैं। प्रत्येक कार्य को निष्कपटता से करने की उनकी विशेषता हम सभी के लिए एक आदर्श है। उनकी उदारता एक महासागर की भाँति है जिसकी गहराई और विशालता दर्शकों को मंत्रमुग्ध और अवाक कर देती है।

मैंने श्रील गुरुदेव को वापस उनके शय्या तक जाने में सहायता की और उसके बाद उनके कमरे से बाहर आ गया। इस बार, मैंने उनके संदेश को गंभीरता से लिया और उनके द्वारा दिए गए प्रश्न के उत्तर की रूप-रेखा तैयार करनी आरम्भ कर दी। ड्राफ्ट पूरा होने के बाद मैंने उसका २-३ बार प्रूफरीडिंग भी कर लिया। श्रील गुरुदेव ने अपने विश्राम के तुरंत बाद (वास्तव में उन्होंने विश्राम किया या नहीं मुझे संदेह है) मुझे अपने कमरे में बुलाया और पूछा कि ड्राफ्ट तैयार हुआ या नहीं। मैंने ड्राफ्ट लाकर उन्हें दिखाया। उन्होंने उस ड्राफ्ट में मेरी कुछ गलतियों को तुरंत ही पकड़ लिया। एक ही झलक में, उन्होंने उन स्थानों को ढूंढ़ लिया जहाँ मैंने लापरवाही की थी अथवा अपना १००% प्रयास नहीं दिया था। ९९% प्रयास किया गया हो तो भी वे तुरंत बाकी रह गए १% को पकड़ लेते। उन्होंने किसी भी भक्ति-क्रिया में, विशेष कर पारमार्थिक लेख के विषय में, असम्पूर्ण प्रयासों को कभी स्वीकृति नहीं दी।

श्रील गुरुदेव ने कहा, “हमारे लेखन में अस्पष्टता या अनुपयुक्त शब्द नहीं होने चाहिए। क्योंकि प्रत्येक शब्द के अनेक अर्थ निकलते हैं, हमें उपयुक्त शब्दों का प्रयोग करना चाहिए ताकि जो सन्देश हम दूसरों तक पहुँचाना चाहते हैं उसके वास्तविक अर्थ में जरा सी भी इधर-उधर होने की कोई संभावना न रहे।”

श्रील गुरुदेव के निर्देशानुसार मैंने ड्राफ्ट में कुछ बदलाव किए। उन्होंने मुझे उसे केवल प्रश्नकर्ता को ही नहीं बल्कि सब भक्तों को भेजने के लिए कहा। अगले कुछ दिनों तक वे मुझसे पूछते रहे, “क्या भक्तों को मेरा उत्तर मिला? क्या उन्होंने उसे पढ़ा? क्या उनको वह अच्छा लगा? क्या वे इस संबंध में कुछ और जानने के लिए इच्छुक हैं?”

इस प्रकार, प्रत्येक जीव के वास्तविक कल्याण के लिए सब समय यत्नशील रहना, श्रील गुरुदेव के औदार्य और असीम करुणा को ही दर्शाता है। वर्तमान समय में इतना स्नेह करनेवाले गुरु मिलना अत्यंत दुर्लभ है।

गुरवो बहवः सन्ति शिष्य-वित्तापहारकाः।
दुर्लभो सद्‌गुरुर देवि शिष्य सन्तापहारकः ॥
(पुराण वाक्य)

‘(शिवजी ने माता पार्वती से कहा,) हे देवी! अपने शिष्यों की संपत्ति को लूटने वाले तथाकथित गुरु इस जगत् में बहुत हैं, किन्तु अपने शिष्यों के दुःखों को सम्पूर्ण रूप से दूर करनेवाले सद्‌गुरु बहुत दुर्लभ है।’