श्रीभक्ति-रसामृत-सिंधु (पूः विः ३/२५-२६) में श्रील रूप गोस्वामी ने भाव-भक्ति में अवस्थित भक्त के लक्षणों का वर्णन इस प्रकार किया है-१) अपने आराध्यदेव के अप्राकृत मधुर गुणों का वर्णन करने में स्वाभाविक आसक्ति और उसमें अपार आनंद का अनुभव (आसक्तिस्तत्-गुणाख्याने), २) अपने प्राणनाथ ने जहाँ-जहाँ लीलाएं की उन स्थानों के प्रति अनुराग (प्रीतिस्तद् वसति-स्थले)। वह भक्त अपने इष्टदेव की महिमा का गान करते समय प्रत्येक क्षण नित्य-नवीन परमानन्द का अनुभव करता है, और उनसे सम्बंधित प्रत्येक स्थान, जो लीला-उद्दीपक या लीला का प्रेरक है, उसके दर्शन के लिए सब समय लालायित रहता है। इस प्रकार के अप्राकृत भाव, परम-आराध्यतम श्रील गुरुदेव में भी कई बार भक्तों ने अनुभव किए। उदाहरण के लिए-

मई २०१० के प्रारम्भ में, श्रील गुरुदेव कोलकाता मठ में थे। श्रीजगन्नाथदेव का चन्दन-यात्रा उत्सव निकट आ रहा था। २१ दिनों तक चलनेवाले इस उत्सव में, भगवान् प्रतिदिन संध्या के समय पालकी में विराजमान होकर नौका-विहार के लिए चन्दन-सरोवर जाते हैं। पुरी धाम की तरह, यह उत्सव हमारे अगरतला मठ में भी बहुत हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। श्रील गुरुदेव ने अगरतला मठ के इस उत्सव में भाग लेने की इच्छा व्यक्त की और हमें (उनके सेवकों को) टिकट बुक करने के लिए कहा। उनके स्वास्थ्य की चिंता करते हुए हमने उनसे इस यात्रा को स्थगित करने की प्रार्थना की।

एक दिन, श्रील गुरुदेव हम सभी को अपनी भजन कुटीर में बुलाकर स्नेह-पूर्वक अगरतला मठ की महिमा का वर्णन करने लगे। वे कहने लगे कि उनके परम-आराध्यतम श्रील गुरुदेव, नित्य-लीला-प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद १०८ श्रीश्रीमद्

भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज (आगे से ‘श्रील परमगुरुदेव’ नाम से सम्बोधित किया जाएगा) के अलौकिक व्यक्तित्व के कारण ही अगरतला में हमें वह स्थान मिला। उन्होंने कहा, “हमारे परम-आराध्यतम श्रील गुरुदेव ने अपने ही विशिष्ट गुणों एवं अद्वितीय कार्य-कुशलता के द्वारा उस स्थान को सफलता पूर्वक प्राप्त किया था। यदि आप इस विषय में जानते, तो आप निश्चित रूप से मुझे वहाँ जाने से नहीं रोकते। वह कोई साधारण स्थान नहीं है। आप सबको उस स्थान की महिमा ज्ञात होनी चाहिए।” यह कहते हुए उन्होंने पूरे प्रसंग (देखें परिशिष्ट १) का वर्णन किया और वहाँ जाने के अपने दृढ़ संकल्प को व्यक्त किया।

जब-जब हमने श्रील गुरुदेव से उनकी अगरतला की यात्रा को स्थगित करने का अनुरोध किया, तब-तब उन्होंने उस स्थान की महिमा हमें सुनाई। एक बार भी उन्होंने हमारे प्रति असंतोष या क्रोध प्रदर्शित नहीं किया। और तो और, उन्होंने इसे उस स्थान की महिमा बोलने एवं अपने गुरुदेव के प्रत्येक सेवा-कार्य में सफल होने जैसे असाधारण गुणों के वर्णन करने के सुअवसर के रूप में लिया। इस तरह, वे दिन में दो से तीन बार इस प्रसंग को उठाते। इस प्रकार के उनके दृढ़ संकल्प को देखकर अंत में हमने अगरतला के लिए फ्लाइट की टिकट बुक कर दी, जिसे जानकर वे बहुत प्रसन्न हुए। यात्रा के दिन तक लगभग प्रति
दिन वे अगरतला मठ और श्रील परमगुरुदेव की महिमा बोलते रहे। वे अपने गुरुदेव की महिमा का कीर्तन करने में अपार आनंद का अनुभव कर रहे थे।

अगरतला पहुँचने के बाद भी, श्रील गुरुदेव उन लीलाओं को उल्लास के साथ बार-बार वर्णन करते रहे। ३० मई, २०१० को संध्या समय की सभा में श्रील गुरुदेव की हरिकथा का आयोजन किया गया था। उस दिन, वे प्रातः काल से लेकर संध्या तक, दिन में कई बार अपनी भजन कुटीर में हमें श्रील परमगुरुदेव के इस स्थान को प्राप्त करने के अतुलनीय प्रयासों के विषय में बताते रहे। संध्या समय की सभा में उन्होंने यह कहते हुए हरिकथा आरम्भ की, “अगरतला में इस स्थान को प्राप्त करने में हमारे परम-आराध्यतम श्रील गुरुदेव नित्यलीला-प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद १०८ श्रीश्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज का मुख्य योगदान है। त्रिपुरा के मुख्यमंत्री और रेवेन्यू मंत्री ने हमारे गुरुदेव के असाधारण व्यक्तित्व से आकर्षित होकर जगन्नाथ मंदिर को श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ को सौंपने के लिए अग्रसर हुए।” लम्बे समय तक श्रील गुरुदेव ने पूर्ण तन्मयता से श्रील परमगुरुदेव की महिमा का कीर्तन किया और अंत में उन्होंने बहुत जोर देते हुए कहा, “इस स्थान को प्राप्त करने का सामर्थ्य किस व्यक्ति में था? यदि गुरुदेव नहीं करते, तो क्या यह संभव होता? हमारे गुरुदेव कोई साधारण व्यक्ति नहीं है।”

हरिकथा के बाद, अपनी भजन कुटीर की ओर जाते समय भी मार्ग में, वे अपने गुरुदेव की महिमा बोलते रहे। वे अपनी भजन कुटीर में प्रवेश करने के बाद शय्या पर बैठकर फिर से अगरतला में उस स्थान को प्राप्त करने के लिए उनके गुरुदेव के अतुलनीय और अथक प्रयासों के विषय में बताने लगे। इस तरह उन्होंने इस प्रसंग को अनेकों बार कहा, किन्तु एक बार भी उन्होंने इस बात का उल्लेख तक नहीं किया कि उस स्थान को हमारे मठ के नाम पर रजिस्टर करने के लिए उन्होंने कितना परिश्रम किया। उन्होंने अपने गुरुदेव की इच्छा को साकार करने के लिए भोजन, निद्रा और कई अन्य शारीरिक आवश्यकताओं को भी अनदेखा किया। घटना कुछ इस प्रकार है-

यद्यपि सरकार के मुख्य अधिकारी हमारे मठ को वह स्थान देने के पक्ष में थे, किन्तु इसके आगे के मार्ग में कई बाधाएं आयीं और श्रील गुरुदेव को उन सबका सामना करना पड़ा। उस समय वे मठ के सेक्रेटरी थे। उन्हें अगरतला में सरकारी अधिकारियों से और कोलकाता में ऐडवोकेट से बार-बार मिलना पड़ा, जिसके लिए उन्हें दोनों स्थानों पर कई बार आना-जाना पड़ा। सरकारी अधिकारी और एडवोकेट के साथ लम्बे समय तक उनका पत्र-व्यवहार भी चलता रहा। इसी अवधि में, उन्होंने श्रील परमगुरुदेव के साथ प्रचार कार्यों में सहायता के लिए सम्पूर्ण भारत के विभिन्न स्थानों पर बड़े व्यापक रूप से यात्राएं भी कीं। इसके अतिरिक्त, वे मठ के अन्य प्रशासनिक कार्यों (administrative duties) को भी अच्छे से संभालते रहे। लगभग तीन वर्षों तक ऐसे ही चलता रहा। अंत में, वह दिन आया जब आधिकारिक रूप से उस स्थान का दायित्व हमें सौंपा जानेवाला था। श्रील गुरुदेव और सरकारी अधिकारियों ने वहाँ पहुँचने के बाद देखा कि जिस व्यक्ति से उन्हें कार्यभार अपने हाथों में लेना था, वे मंदिर के मुख्य द्वार को ताला लगाकर कहीं और चले गए थे। श्रील गुरुदेव ने भोजन और पानी के बिना ही पूरा दिन वहाँ उनकी प्रतीक्षा की, यहाँ तक कि वे शौचालय भी नहीं गए, मात्र इस आशंका में कि जो सरकारी अधिकारी विरोध में हैं उन्हें कहीं एक बहाना न मिल जाए कि जिस समय उनकी आवश्यकता थी वे वहाँ उपस्थित नहीं थे। अंत में, उनके अथक प्रयासों से वह स्थान श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के नाम पर रजिस्टर हो गया, जिससे श्रील परमगुरुदेव को बहुत प्रसन्नता हुई।

श्रील गुरुदेव ने जब भी अगरतला मठ के विषय में हमें बताया, उन्होंने अपने इन सब प्रयासों का उल्लेख तक नहीं किया। उस दिन, जब वे अगरतला मठ में अपनी भजन कुटीर में श्रील परमगुरुदेव की महिमा का वर्णन करने में मग्न थे, मैं स्वयं को रोक नहीं पाया और यकायक आवेश में बोल पड़ा, “आपने भी इस स्थान को प्राप्त करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, आपने भी इसमें योगदान दिया!” अपने गुरुदेव की महिमा का वर्णन करते समय उनको श्रेय देने का मेरा कृत्य उन्हें पूरी तरह से अस्वीकृत था। उन्होंने बिना कुछ कहे केवल अत्यंत क्रोध भरे नेत्रों से मेरी ओर देखा। उन्होंने कदाचित सोचा होगा कि मैं उनके शासन को सहन करने में अभी अक्षम हूँ। वैसे भी, उन्हें विशेष कुछ कहने की आवश्यकता भी नहीं रही क्योंकि जिस तरह से उन्होंने मुझे देखा, उससे मुझे ज्ञात होगया कि मेरे अनचाहे वचनों से वे असंतुष्ट थे। उस समय मैंने अपना पहला पाठ सीख लिया था।

अपने अज्ञान और जागतिक अभिमान के कारण ही बद्ध जीव अपने आपको कर्ता और भोक्ता समझता है। वह सोचता है, ‘यदि मैं नहीं होता, तो वह कार्य कभी संपन्न ही नहीं होता।’ दूसरी ओर, शुद्ध-भक्त मानते हैं कि सब कुछ श्रीगुरु और भगवान् की कृपा से ही संभव होता है। श्रील प्रभुपाद ने कहा, “श्रीरूप गोस्वामी के अनुगत भक्त कभी भी अपने बल पर आस्था नहीं रखते हैं, बल्कि उनका मानना है कि सब शक्तियों का मूल स्थान (श्रीहरि) ही सभी महानता का मूल कारण है।” श्रील गुरुदेव, श्रील प्रभुपाद के इस उपदेश का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। हमने कई अवसरों पर देखा कि जब भी वे पुरी-धाम, चंडीगढ़ या अगरतला में मठों के लिए स्थान प्राप्त करने के लिए किए गए प्रयासों के बारे में बताते, वे अपने गुरुदेव को ही सारा श्रेय अर्पित करते। हालाँकि उन सब कार्यों को पूरा करने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया, तो भी, वे स्वयं को किसी भी प्रकार का श्रेय देने के लिए कभी भी प्रस्तुत नहीं रहते।

अगरतला में भगवान् श्रीजगन्नाथदेव के चन्दन यात्रा उत्सव के बाद, श्रील गुरुदेव ने चाकदाह में स्नान-यात्रा उत्सव और १५ दिन के बाद पुरुषोत्तम धाम में रथ-यात्रा उत्सव में अपनी दिव्य उपस्थिति से भक्तों के हृदय को आह्लादित किया। अगरतला और पुरी-दोनों ही स्थानों में, उन्होंने कुछ भजन-इच्छुक भक्तों को कृष्ण-नाम और कृष्ण-मंत्र में दीक्षित किया और कोलकाता लौट आने के बाद लगभग दो महीनों तक वे वहीं रहे।