“तीर्थ महाराज एक परम वैष्णव हैं। वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के शिक्षाष्टक के तीसरे श्लोक ‘तृणादपि सुनीचेन’ के मूर्तिमान विग्रह स्वरूप हैं। जो व्यक्ति उनकी शरण में जाएगा, उसका जीवन धन्य हो जाएगा।”

वैष्णव-कुल-चूड़ामणि और गौड़ीय – गगन के उज्ज्वल भास्कर परम आराध्यतम श्रील गुरुदेव, नित्य-लीला – प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्रीश्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज के दिव्य गुणों को वैष्णव जगत् में भला कौन नहीं जानते हैं। वे दीनता और सरलता जैसे वैष्णव गुणों से मंडित हैं और उनका अद्वितीय आचरण सम्पूर्ण विश्व के लिए एक श्रेष्ठ आदर्श है। वे पूर्ण शरणागति के ज्वलंत उदाहरण स्वरूप और गुरुगत-प्राण (गुरु ही जिनके जीवन का आधार ) हैं। उनकी उदारता आकाश की भाँति विशाल और समुद्र की भाँति असीम है। प्रीति, स्नेह, और वात्सल्यता के तो वे साक्षात् मूर्तिमान स्वरूप ही हैं। उनका आदर्श-भक्तिमय जीवन भक्ति-पथ के पथिकों के लिए दिशा – सूचक ध्रुव तारे के समान है।

गुरु- वैष्णवों की सेवा में श्रील गुरुदेव के अदम्य उत्साह और अथक प्रयासों से प्रसन्न होकर, उनके परम आराध्यत गुरुदेव, परमहंस परिव्राजक – आचार्य नित्य-लीला – प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्रीश्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज, के हृदय से यह उदगार निकले थे, “मेरे कई शिष्य हैं, परंतु तीर्थ महाराज मेरे हृदय के अत्यंत समीप है।”

श्रील गुरुदेव, अपने विनम्र और श्रद्धापूर्ण व्यवहार से परमहंस-कुल-चूड़ामणि श्री भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद के सभी शिष्यों के प्रीति-भाजन हुए और उनके विपुल स्नेह एवं आशीर्वाद के सर्वोत्तम योग्य पात्र बने। परम-पुज्यपाद श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज एवं परम-पुज्यपाद श्रील भक्ति सौरभ भक्तिसार गोस्वामी महाराज जैसी महान विभूतियाँ कहा करती थी, “तीर्थ महाराज एक परम वैष्णव हैं। वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के शिक्षाष्टक के तीसरे श्लोक ‘तृणादपि सुनीचेन’ के मूर्तिमान विग्रह स्वरूप हैं। जो व्यक्ति उनकी शरण में जाएगा, उसका जीवन धन्य हो जाएगा । ”

श्रील गुरुदेव ने अपने अत्यंत स्नेहपूर्ण व्यवहार से सभी वैष्णवों के हृदय रूपी साम्राज्य को जय किया। वे अपने गुरु- भाईयों को अपने गुरुदेव के ही विस्तार के रूप में देखते हुए उनके साथ प्रीतियुक्त व्यवहार करते थे। आज भी, उनके अनेक गुरु-भाई उनका नाम लेते समय गद्-गद् हो जाते हैं। शिष्य-तुल्य वर्तमान वैष्णव समुदाय भी उनके नाम को बहुत श्रद्धा के साथ उच्चारण करते हुए उनके श्रीचरणों में नतमस्तक हो जाता है। इतना ही नहीं, गौड़ीय समाज अपनी परंपरा में उनके जैसी एक महान विभूति की उपस्थिति के कारण स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता है। इस प्रकार वे तीनों वर्गों – गुरुजन, गुरु-भाई और शिष्य के अत्यंत प्रिय रहे ।

श्रील गुरुदेव ने अपने पूर्व-आचार्यों के आदेशों को बिना किसी समझौते के उत्तम रूप से पालन किया, और अन्यों को भी उन आदेशों के पालन में किसी भी प्रकार का कोई समझौता करने का अनुमोदन नहीं किया। इसलिए तो, अपने समय में वे गौड़ीय परंपरा के एक वास्तविक प्रतिनिधि और साथ-ही-साथ जगत् के लिए एक अद्वितीय आचार्य भी रहे। यदि कोई व्यक्ति अपने परम-कल्याण के लिए एक सद्-गुरु के अन्वेषण में है, तो उसका वह अन्वेषण उनके चरण कमलों में पहुँचने के बाद निश्चित रूप से समाप्त हो जाता, इस में किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है।

श्रील गुरुदेव की अप्राकृत महिमा सम्पूर्ण रूप से वर्णन करने का सामर्थ्य इस त्रिभुवन में भला किस में हैं? उनके गुणों की गाथा एक अगाध समुद्र की भाँति विशाल है, जिसमें करोड़ों जन्मों तक गोते लगाने पर भी कोई व्यक्ति उसे पार नहीं कर पाएगा। यहाँ तक कि देवी – देवता भी उनके जैसे महान् वैष्णव की महिमा का वर्णन करने में अक्षम हैं- ‘वैष्णव चिनिते नारे देवेर शक्ति।’ तब भी, एक निष्कपट साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने चित्त को निर्मल कर भगवान् के श्रीचरण-कमलों की सेवा प्राप्त करने के लिए गुरु-वैष्णवों की महिमा यथासाध्य वर्णन करे – ‘वैष्णवेर गुण-गान करिले जीवेर त्राण, शुनियाछे – साधु गुरु मुखे ।