अशेष- क्लेश निवारिणी एवं परमानन्द विधायिनी, ‘श्री चैतन्य ‘वाणी’ ने आज तृतीय वर्ष में आत्म-प्रकाश किया है। विद्वद-वृन्दों की सेवा समृद्ध ‘श्री चैतन्य वाणी’, अपनी महिमा से भक्तों के चित्त में सुदृढ़ आसन बना रही है, देखकर सज्जनों का उल्लास बढ़ा है। ‘श्री चैतन्य ‘वाणी’, अविद्या-कवलित व स्वरूप-भ्रान्त मनुष्यों को अविद्या-बन्धन से मुक्त करा रही है व अपने प्रकाश से जीवों के शुद्ध स्वरूप को प्रकाशित कर, उन्हें मोहजाल से उद्धार करने का यत्न कर रही है। स्वरूप भ्रान्ति से व्यक्ति में स्वार्थ-भान्ति, कर्त्तव्य-भान्ति, धर्माधर्म-विचार भ्रान्ति आ जाती है और दुनियावी वस्तुओं को लेकर परस्पर झगड़ा होता रहता है। स्वरूप भ्रान्ति होने से शरीर में “मैं” बुद्धि तथा देह-सम्बन्धी नश्वर पदार्थों में ममता का बोध होता है तथा ऐसा होने से, प्राकृत काम, क्रोध व लोभादि छः शत्रुओं का दासत्व होता है एवं उनसे विभिन्न प्रकार के क्लेश अवश्य ही उत्पादित होकर रहेंगे। ‘श्री चैतन्य वाणी’- “उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत्” (कठो. प्रथम अध्याय, 142 श्लोक) मन्त्र द्वारा, मनुष्य समाज को चिद्-स्वरूप में प्रतिष्ठित करा रही है। जीव मात्र ही स्वरूप से शुद्ध चिद्-तत्त्व है। अपने-अपने, नित्य अविद्या- मुक्त स्वरूप के उदय होने से जीव अविद्या जनित काम और काम से होने वाले कर्म तथा कर्म से उत्पन्न होने वाले क्लेश से स्वाभाविक ही मुक्ति लाभ करता है। उस समय उसका प्राकृत नश्वर वस्तु के साथ साक्षात् कोई भी सम्बन्ध नहीं है, वैसे भी व्यतिरेक भाव ही अविद्या है तथा इस अज्ञान-जनित सम्बन्धों से ही जीव फँसता है। यही कारण है कि अविद्यामुक्त पुरुष काम, क्रोधादि शत्रुओं से पीड़ित नहीं होता।

स्थूल, दैहिक-पीड़ाओं से भी, सूक्ष्म इन्द्रियों की पीड़ा अधिक कष्टदायक होती है, इसलिए अविद्या-मुक्त व्यक्ति, “दुःखेष्वनुद्विग्रमनाः सुखेषु विगतस्पृहः” (गीता-2/56), अवस्था प्राप्त कर लेता है। अनित्य व नश्वर पदार्थ के साथ साक्षात् सम्बन्ध न रहने से चित्त की चंचलता, उद्वेग, भय व शोकादि नहीं होता। केवल अपने, सत् व चित् स्वरूप से ब्रह्म व परमात्मा का अनुशीलन व उससे भी श्रेष्ठ प्रेमी भक्त के संग से अपनी ह्लादिनी वृत्ति के जागृत होने पर, अविद्या-मुक्त व्यक्ति, शुद्ध-भक्ति व भगवत्-प्रेमानुशीलन का अधिकारी बनता है। इस क्रम से प्राप्त प्रगतिशीलता व भक्ति-वृत्ति के आश्रय में वह श्रीलक्ष्मी-नारायण, श्रीसीता-राम, व श्रीराधा-कृष्ण के प्रेम का रसास्वादन करने योग्य बन जाता है व श्रीराधा-गोविन्द जी के मिलित स्वरूप तथा विप्रलम्भ-लीला के रसमय- विग्रह, श्रीगौरहरि के माधुर्य व औदार्य की पराकाष्ठा के संदर्शन का सौभाग्य प्राप्त कर सकता है।

‘श्री चैतन्य वाणी’ मनुष्य समाज का सिर्फ अवान्छित अवस्था से ही उद्धार नहीं करती वरन् देवेन्द्र, योगीन्द्र तथा मुनीन्द्र भी जिसकी इच्छा करते हैं, उस परमादरणीय श्रीकृष्ण प्रेमामृत के रस-समुद्र में भी निमज्जित करा देती है। ‘श्री चैतन्य वाणी’ का आश्रय करके सभी स्तर के मनुष्य, , अपने-अपने अधिकार के अनुरूप उपदेशों का श्रवण-कीर्तन व स्मरण करते हुए, परमाभीष्ट, नित्यानन्द की प्राप्ति में समर्थ होंगे। अशेष-क्लेश-नाशिनी, नित्य सर्वोत्तम प्रेम-प्रदायिनी ‘श्री चैतन्य वाणी’ के तृतीय वर्ष के आरम्भ में हम आज उसकी वन्दना करते हैं। वे हमारी दोष, त्रुटि क्षमा करते हुए हम पर कृपा करें। जीव आपकी कृपा-दृष्टि से अनर्थमुक्त होकर, आपकी महिमा की उपलब्धि करते हुए, ‘श्री चैतन्य वाणी’ के प्रचार में जय-युक्त हों ।