“भक्ति दो प्रकार की होती है वैधी तथा रागानुगा । रागानुगा भक्ति सुदुर्लभा है। साधारणतया कल्याण-इच्छुकों के लिए वैधी-साधन-भक्ति का अनुशीलन करना ही कर्तव्य है। तन्त्र- शास्त्र में सैंकड़ों प्रकार की साधन-भक्ति की बात वर्णित हुई है तथा श्रीभक्ति रसामृत सिन्धु में 64 प्रकार की साधन-भक्ति की बात उल्लिखित हुई है। श्रीमद्भागवत में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वन्दन, पादसेवन, अर्चन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन इस नवधा भक्ति का उल्लेख है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी ने सैकड़ों प्रकार के भक्ति-अंगों में से साधु-संग, नाम- कीर्तन, भागवत-श्रवण, मथुरा-वास तथा श्रद्धा के साथ श्रीमूर्ति की सेवा – इन पाँच भक्ति अंगों को ही उत्तम बताया तथा इनमें से भी नाम- संकीर्तन को सर्वोत्तम बताया।

कलिकाल में श्रीहरिनाम संकीर्तन को छोड़कर मंगल प्राप्ति का और कोई दूसरा रास्ता नहीं है –

“हरेर्नाम हरनम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ।।”
(वृहन्नारदीय पुराण 38/126)

कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकर्त्तनात् ॥
(भा. 12/3/52)

सत्ययुग में ध्यान द्वारा, त्रेतायुग में यज्ञ द्वारा तथा द्वापरयुग में परिचर्या द्वारा जो पुरुषार्थ मिलता था, कलिकाल में केवल हरिनाम- कीर्तन द्वारा ही वही पुरुषार्थ अर्थात वही वस्तु प्राप्त हो जाती है। सत्ययुग में सत्वगुण का प्रधान हेतु जो ज्ञान है, उसकी उत्कर्षता होने की वजह से, विषय-भोगों की हेयता व नश्वरता की उपलब्धि से विषयों के प्रति स्वाभाविक वैराग्य था। इसीलिए विषयावेश से उत्पन्न चित्त की चंचलता न होने के कारण जन-साधारण के लिए ध्यान सम्भव था। किन्तु त्रेतायुग में जब चित्त और अधिक विषयाविष्ट हुआ, तब चित्त चाञ्चल्य के कारण जन-साधारण के लिए ध्यान सम्भव नहीं हुआ। जिन द्रव्यों में जीवों का चित्त आसक्त हुआ, उन द्रव्यों को भगवान विष्णु में आहुि प्रदान रूप यज्ञ का विधान हुआ। आसक्ति की वस्तु जहाँ नियोजित होती है, चित्त भी उसी वस्तु के प्रति स्वाभाविक रूप से आकृष्ट होता है। इसलिए कर्म-मार्ग में जीव के चित्त को भगवान में आविष्ट करने के लिए त्रेतायुग में द्रव्यमय-यज्ञ की व्यवस्था हुई। द्वापर युग में जीवों का चित्त और अधिक विषयाविष्ट और चंचल हुआ तथा इन्द्रिय-तृप्ति की लालसा बढ़ जाने से यज्ञ भी साधारण जीवों के लिए सम्भव नहीं हुआ । तब द्वापर युग के जीवों के लिए सब इन्द्रियों के द्वारा भगवान की परिचर्या का विधान दिया गया। जीव की इन्द्रियाँ विभिन्न विषयों में आकृष्ट हो जाने की वजह से उक्त इन्द्रियों को श्रीभगवान की सेवा में नियोजित करने व उन्हीं में केंद्रित व एकाग्र करने के लिए द्वापर में ‘अर्चन’- युगधर्म के रूप में निरूपित हुआ।

कलियुग में जीव अत्यन्त विषयाविष्ट, चंचल, अजितेन्द्रिय तथा निरन्तर व्याधिग्रस्त हैं। अतः चित्त की चंचलता के कारण ध्यान, अजितेन्द्रियता के कारण यज्ञ एवं निरन्तर व्याधिग्रस्त रहने के कारण अर्चन, इस युग में जीवों के लिए सम्भव नहीं है। व्याधिग्रस्त व्यक्ति परिचर्या अर्थात सेवा-पूजा के लिए अनाधिकारी है। इसलिए कलियुग के जीवों के लिए – श्रीहरिनाम संकीर्तन- युगधर्म के रूप में निरूपित हुआ। बीमारी अत्यन्त भयानक होने की वजह से राम बाण के रूप में श्रीभगवन्नाम-कीर्तन रूप शक्तिशाली औषधि प्रयोग करने की व्यवस्था दी गई है।