“श्रीमद्भगवद् गीता परब्रह्म श्रीकृष्ण की मुख निःसृत वाणी है, इसलिए अपौरुषेय वाणी है।
प्राकृत मन व बुद्धि की सहायता से गीता का वास्तविक अर्थ समझना सम्भव नहीं है । शरणागत के हृदय में श्रीभगवान व श्रीभगवत्-कथित वाणी स्वयं प्रकटित होती है। अशरणागत व्यक्ति दुनियावी अनुभवों की सहायता से व आरोहपन्था से श्रीभगवत् तत्त्व उपलब्ध नहीं कर पाता।
“नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनु स्वाम् ॥
(कठोपनिषद 1-2-23)
परमात्म-तत्त्व बहुत अच्छे भाषण देने की कला से व बड़े तेज़ दिमाग से व शास्त्रों के रट लेने मात्र से प्राप्त नहीं होता, यह एक मात्र शरणागति द्वारा ही प्राप्त होता है। श्रीगीता के वक्ता श्रीकृष्ण हैं। वक्ता के हृदय में जो जितना प्रवेश कर सकेंगे, वे उतना ही वक्तव्य विषय के सम्बन्ध में उनके हृदय के भावों को समझने में समर्थ होंगे। श्रीकृष्ण के विविध रसों के भक्तों में व्रजगोपियाँ सर्वोत्तम हैं। इसीलिए वे या उनके किंकर व किंकरीगण श्रीकृष्ण के हृदय के अन्तरतम-स्थल में प्रविष्ट होकर उनके अत्यन्त गोपनीय भावों को हृदयंगम कर पाने के कारण श्रीकृष्ण के उपदेशों का गूढ़ तात्पर्य सर्वापेक्षा अधिक समझने में समर्थ हैं एवं त्रिभुवन पवित्रकारी श्रीकृष्ण की कथाओं का बखान करने के ये ही अधिकारी हैं। अशरणागत अभक्त के पास शास्त्रों के अर्थ सम्पूर्ण रूप से अप्रकाशित होते हैं। प्राकृत- बुद्धि द्वारा वे लोग केवल शास्त्र के बाहरी मायिक दिक् को ही अनुभव कर पाते हैं। कर्तृत्वाभिमान के द्वारा अथवा पाण्डित्य के द्वारा वे बद्धजीवों को मोहित करने वाले अनेक प्रकार के शास्त्रों के अर्थ करने पर भी, स्वकपोलकल्पित होने के कारण वे अर्थ वास्तव में मंगलप्रद नहीं होते। श्रीगीता शास्त्र में श्रीकृष्ण ही परतत्व रूप से निरूपित हुए हैं:-
“मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जयः ।” (7,7)
“ब्रह्मणो हि प्रतिछाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्यतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥” (14,27)
“अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।” (9,24)
“यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥” (15,18)
“सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनंथ ।
वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥”
(15,15)
“त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।”
(11,18)
“त्यमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥”
(11,38)
इत्यादि गीता के बहुत से श्लोक श्रीकृष्ण को ही परतत्व रूप में सुनिश्चित भाव से निर्देश करते हैं। जीवों के स्वरूप के सम्बन्ध में बोलते हुए गीता शास्त्र ने उनको (जीवों को) श्रीकृष्ण की पराशक्ति से उत्पन्न अंश-रूप में निर्देश किया है इसलिए जीव स्वरूपतः श्रीकृष्ण का नित्य दास है:-
“भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भित्रा प्रकृतिरष्टधा ॥” (7,4)
“अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृति विद्धि मे पराम्।
जीव भूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्। ”
(7,5)
“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।” (15,7)
भगवान की अपरा प्रकृति के आठ वैभव हैं ‘मिट्टी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि व अहंकार। इसका और एक नाम है- अज्ञान शक्ति या माया शक्ति। मायाबद्ध जीव श्रीभगवान में प्रपन्न होने से माया के बन्धनों से छुटकारा पाता है।
‘दैवी होषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥” (7,14)
गीताशास्त्र में जीवों के अधिकारानुसार कर्म, ज्ञान, योग व भक्ति इत्यादि विभिन्न साधन-पथों की बात उपदिष्ट हुई है। परन्तु ऐसा होने पर भी निरपेक्ष भाव से विचार करने पर देखा जाता है कि चरम में भक्ति ही उपदिष्ट हुई है। जिस स्थान पर कर्म की प्रशंसा की गई है, वहाँ पर थोड़ा गौर से देखने पर पता लगेगा कि चरम में श्रीभगवान के लिए ही कर्म करने के लिए प्रेरणा दी गयी है।
“यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंङ्गः समाचर ।।” (3,9)
तमाम कर्मों को जलाकर राख बना देने की क्षमता रखने वाले ज्ञानयोग की प्रचुर प्रशंसा करके चरम में वासुदेव में प्रपत्ति (अर्थात् श्रीकृष्ण में शरणागति) के लिए ही प्रेरणा दी गयी है।
“बहुनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।” (7,19)
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जी ने तुलना मूलक विचार प्रदर्शन करके दिखाया कि तपस्वी, कर्मी और ज्ञानी की अपेक्षा योगी श्रेष्ठ है एवं सब प्रकार के योगियों की अपेक्षा कृष्ण-भक्त सर्वोत्तम है:-
“तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥” (6,46)
“योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥” (6, 47)
गीता के सर्वगुह्यतम् (सबसे गोपनीय) उपदेश में भी, चरम में श्रीभगवान की शरणापत्ति ही उपदिष्ट हुई है:-
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥” (18,66)