श्रीमद् भागवत में वर्णित, प्रत्यक्ष, अनुमान, इतिहास और शब्द- इन चार प्रमाणों में से केवल अनुमान प्रमाण ही प्रत्यक्ष ज्ञान की स्थूल सीमा रेखा को निराश करने में समर्थ है। श्रीगौराङ्ग महाप्रभु की जन्म तिथि पर बुलाने पर, मैं एक बार पंजाब के जालन्धर नगर में गया था। वहाँ पर कुछ शिल्पपति और आयकर विभाग के परिदर्शक (Income tax officer) मुझे मिलने के लिए आए। उनमें से एक प्रमुख व्यक्ति मुझसे कहने लगे “महाराज जी! मैं आंखों से जिस वस्तु को नहीं देख सकता, हाथों से जिस वस्तु को स्पर्श नहीं कर सकता, उस वस्तु को मानता नहीं हूँ ।”

दैवयोग से और 2 बातें करते हुए उस प्रमुख व्यक्ति ने कहा, ‘महाराज जी, मेरा मन बहुत चंचल है, सर्वदा ही मैं अशान्ति का अनुभव करता हूँ। आप तो साधु पुरुष हैं, आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे मैं मन में शान्ति प्राप्त कर सकूँ। मैंने उसी समय उन्हें मुस्कराते हुए कहा कि आप तो अपने आप को प्रत्यक्षवादी कहते हैं और अब कह रहे हैं कि मेरे मन में बड़ी अशान्ति है।

क्या आपने मन को देखा है? अथवा उसका स्पर्श किया है? यदि ऐसा नहीं कर सके हैं, तब मन स्वीकार करने की क्या आवश्यकता है? उसके उत्तर में उस व्यक्ति ने कहा, नहीं, नहीं। सुख-दुख और संकल्प- विकल्प की अनुभूति द्वारा मन का अस्तित्व स्वीकार होता है।

मैंने कहा कि अपनी बात से आपने स्वीकार कर लिया है कि वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान न होने से भी वस्तु का अस्तित्त्व अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वस्तु को न देखने से भी, उसके फल से, फल का कारण मालूम हो जाता है। उसी प्रकार परमात्मा व भगवान का प्रत्यक्ष ज्ञान न होने से भी, ऐसे बहुत से विशेष लक्षण हैं कि जिनसे उनका अस्तित्त्व अस्वीकार करने का कोई उपाय नहीं दीखता। चराचर जगत में, कार्य-चेतन का कारण, कारण- चेतन अवस्थान कर रहा है। वह अनुमान-सिद्ध तो है ही, ऐसा कि उसकी कृपा से वह दर्शन-सिद्ध वस्तु के रूप में भी दिखाई देता है। यह कारण-चेतन ही परमात्मा व भगवान् है। तत्वतः परमात्मा या भगवान् की स्वीकृति के साथ-साथ ही, जीव के हृदय के तमाम अनर्थ, मूल सहित दूर हो जाते हैं एवं क्रमानुसार जीवात्मा की भगवान् के प्रति सेवा प्रवृत्ति के रहने से वह सुनिर्मल और सुप्रसन्न होती है।