हैदराबाद की उर्दू गली से हैदराबाद मठ का प्रचार कार्य, 12 साल तक एक किराये पर लिए हुए मकान से चलने के पश्चात्, तत्कालीन मठ-रक्षक श्रीमद् धीर कृष्णदास वनचारी, भक्तिव्रत और श्री विष्णुदास ब्रह्मचारी (संन्यास का नाम त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति वैभव अरण्य महाराज) जी के अत्यन्त परिश्रम और आन्तरिक चेष्टा के फलस्वरूप हैदराबाद शहर के दिवान देवड़ी (प्राचीन सालारजंग म्यूजियम) में मठ के लिए कुछ जमीन प्राप्त हुई।
यह स्थान शहर के केन्द्र में स्थित है। नवाब सालारजंग का यह पुराना निवास स्थान है। सालारजंग ने निज़ाम सरकार के प्रधानमन्त्री बनने के पश्चात् यहाँ पर विख्यात सालारजंग म्यूजियम की स्थापना की। आजकल यह स्थान इसी नाम से प्रसिद्ध है। हैदराबाद स्टेट, भारत के शासन के अधीन होने पर नवाब ने इस भूमि को बेच दिया और म्यूजियम अन्य स्थान पर स्थानान्तरित हुआ। म्यूजियम का भीतरी भाग, विभिन्न लोगों ने विभिन्न कार्यों के लिए ले लिया। लाला श्री श्यामसुन्दर कनोडिया जी की प्रेरणा से, श्रीमती द्रौपदी देवी ने प्राचीन सालारजंग म्यूजियम के भीतर का एक भाग खरीदकर श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान को दे दिया। इसके अलावा सेठ मातादीन ने, इसी ज़मीन के साथ मिलती हुई अपनी जमीन का एक टुकड़ा मठ को दे दिया। 18 मई 1972, वृहस्पतिवार को प्रातः 11 बजे श्रील गुरुदेव जी ने मठ के लिए ली गई जमीन पर, वेद-मन्त्रों के पाठ के साथ-साथ, श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के भवन व श्रीमन्दिर की नींव रखी। नींव रखने के समय निरन्तर श्रीहरिनाम संकीर्त्तन, वैष्णवहोम और प्रसाद वितरण महोत्सव हुआ। नींव रखने से पूर्व, 8.30 बजे मठ की जमीन पर विशाल मण्डप में, जो कि बहुत सुन्दर रूप से सजाया गया था, एक विशाल धर्म-सभा का आयोजन हुआ। नींव रखने के समय श्री सी० एच० वी० पी० मूर्तिराजू, आन्ध्र प्रदेश राज्य सरकार के एण्डोमेन्ट विभाग के मिनिस्टर; श्री के० वासुदेव राव, एण्डोमेन्ट कमिश्नर, डिप्टी कमिश्नर; श्री के गोपालन तथा असिस्टेंट कमिश्नर; श्री आनन्द राव आदि उपस्थित थे। इन सब ने अपने हाथों से श्रीमन्दिर की नींव में मसाला डाला। श्रील गुरुदेव जी ने अपने भाषण में कहा-
यह ठीक है कि विश्व के राजनैतिक नेतावर्ग, समाज सुधारक व अर्थ नीति को जानने वाले मनुष्य, समाज की समृद्धि के लिए बहुत उद्यम कर रहे हैं, परन्तु विश्व की परिस्थिति में उन्नति होना तो दूर की बात है, परिस्थिति और भी जटिल बनती जा रही है। इससे पता चलता है। कि निश्चय ही इन नेताओं की प्रचेष्टाओं में कोई त्रुटि है। इसको समझने के लिए यह उचित है कि तत्वज्ञ महापुरुषों की वाणी के प्रति मन को लगाया जाए। भगवद्-अनुभूति प्राप्त महापुरुष लोग इस सम्बन्ध में क्या कहते हैं, उस तरफ हमें ध्यान देना चाहिए, विशेषतः आज इस सम्मेलन के परिपेक्ष्य में, मैं श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की विशुद्ध प्रेम-भक्ति की वाणी पर विचार करने के लिए आवेदन करूँगा।
आजकल सारी पृथ्वी पर श्रीमन्महाप्रभु जी की वाणी का आदर हो रहा है और ग्रहण भी की जा रही है। केवल शिल्प उन्नति से, खाद्य वस्तुओं के अभाव को दूर करने से तथा अर्थ नीतियों के समाधान आदि द्वारा सच्ची शान्ति नहीं लाई जा सकती। जब तक मनुष्य की काममय मनोवृत्ति अर्थात स्वार्थमयी व भोगमयी मनोवृत्ति में पूरा-पूरा परिवर्तन नहीं होता एवं भगवद्-भक्ति के द्वारा उनके हृदय में स्निग्धता व पवित्रता नहीं आ जाती, तब तक सच्ची शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती। सर्वसाधारण व्यक्ति के लिए भगवद्-भक्ति-अनुशीलन हेतु, श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने श्रीकृष्ण-नाम संकीर्तन को ही श्रेष्ठ और सुगम साधन निर्दिष्ट किया है। श्रील गुरुदेव जी ने कहा कि दक्षिण भारत पवित्र भूमि है। श्रीमद्भागवत में इस प्रकार वर्णन आता है-
कृतादिषु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः ॥
क्वचित् क्वचिन्महाराज द्रविडेषु च भूरिशः ।
ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी ॥
कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी ।
ये पिवन्ति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर ॥
प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेऽमलाशयाः ।
अर्थात् सतयुग की प्रजा भी कलियुग में जन्म लेने के लिए इच्छा करती है। इस कलियुग में भगवान के भक्त किसी-किसी स्थान पर बहुत कम संख्या में हैं, किन्तु दक्षिण भारत में बहुत संख्या में जन्म ग्रहण करेंगे। इस स्थान पर ताम्रपर्णी, कृतमाला, कावेरी और प्रतीची नाम की महानदियाँ बहती हैं। जो इन नदियों का जल पीते हैं, प्रायः उनका चित्त शुद्ध हो जाता है और वे भगवद्-भक्त बन जाते हैं। इसी दक्षिण भारत में ही श्रीशंकराचार्य पाद और श्रीपाद रामानुज, श्रीमन्मध्वमुनि, श्रीपाद निम्बादित्य आदि वैष्णव-आचार्यगण आविर्भूत हुए हैं। किन्तु दुःख की बात यह है कि अब इस पवित्र दक्षिण देश से ही भगवद्-भक्ति के विरुद्ध आचरण और विचारों के प्रसार में वृद्धि हो रही है। दक्षिण भारत में स्थान-स्थान पर, जिस प्रकार विशाल व सुरम्य मन्दिर विद्यमान हैं और उन मन्दिरों की जो आमदनी है, वह भारत में किसी और स्थान पर नहीं है। सुना जाता है कि ये आमदनी, देव-सेवा के लिए खर्च न होकर, विभिन्न जागतिक कार्यों के लिए खर्च होती है। जिस उद्देश्य के लिए जो अर्थ दिया जाता है, उसे उसी उद्देश्य के लिए ही खर्च करना वाञ्छनीय है व उचित है। हमारा अपना स्वतन्त्र राष्ट्र होने पर भी धर्म निरपेक्ष होने के कारण हम धर्म-प्रचार कार्य के लिए कोई सहायता प्राप्त नहीं कर सकते जबकि ईसाई धर्म के प्रचार के लिए करोड़ों-करोड़ों डालर दिए जाते हैं। इसलिए इस धर्म के प्रचारक अपने धर्म का प्रचार करने के लिए काफी धन खर्च करते हैं व पृथ्वी में सारी जगह उक्त धर्म के प्रसार के लिए यत्न करते हैं जबकि दूसरी ओर सनातन धर्म के हम प्रचारक लोग बहुत कष्ट के साथ भिक्षा द्वारा मात्र अपनी जीविका तथा रास्ते के किराये इत्यादि के लिए ही यत्न करते रहते हैं। इस प्रकार की अवस्था के कारण सनातन धर्म का देव-सेवा में आया अर्थ यदि सनातन धर्म के प्रचार के लिए न लगकर किसी और कार्य में लगे तो इससे •अधिक दुःख की बात और क्या हो सकती है? मैं आशा करता हूँ कि इस विभाग के जिम्मेदार व्यक्ति, देव-सेवा के लिए आया अर्थ देव-सेवा में ही; देवता की महिमा के विस्तार के लिए, धर्म प्रचार-सेवा के लिए ही खर्च हो- इस ओर विशेष ध्यान देंगे, ऐसी मेरी विजीत प्रार्थना है।
श्रीमठ की अपनी जमीन पर दिवान देवड़ी में नींव रखने के दो वर्ष के अन्दर अन्दर, स्थानीय भक्तों की सहायता से गर्भ-गृह (मन्दिर) आदि निर्मित हुआ । 23 मई, 1974, बृहस्पतिवार को श्रीमठ के अधिष्ठातृ, श्री श्रीगुरुगौरा राधाविनोद जी के श्रीविग्रहगण, सुरम्य रथ पर आरुद होकर, विराट संकीर्त्तन शोभा यात्रा द्वारा, पत्थर घाटी, उर्दू गली, मठ के पुराने स्थान से प्रातः 8 बजे निकलकर, हैदराबाद के मुख्य मार्गों से दीवान देवड़ी के नव निर्मित भवन में पधारे।
इस अनुष्ठान को सम्पन्न करने के लिए श्रीगुरुदेव जी, मठ के सम्पादक श्री भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज जी के साथ, उत्तर भारत के प्रचार के पश्चात्, दिल्ली से विमान द्वारा 8 मई को, हैदराबाद एयरपोर्ट में शुभ पदार्पण करने से स्थानीय विशिष्ट नागरिकों के द्वारा विशेष भाव से अभिनन्दित हुए। उत्तर भारत के प्रचार में भ्रमण कर रहे- श्रीमद् ठाकुर दास ब्रह्मचारी, कीर्तन विनोद, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद भक्ति ललित गिरि महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रसाद पुरी महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति भूषण भागवत महाराज, श्रीमठ के सहसम्पादक, महोपदेशक, श्रीमद् मअल निलय ब्रह्मचारी, श्री मदन गोपाल ब्रह्मचारी, श्री राधाविनोद ब्रह्मचारी, श्री परेशानुभव ब्रह्मचारी, श्रीवलभद्र ब्रह्मचारी, श्री प्रेममय ब्रह्मचारी, श्री राम विनोद ब्रह्मचारी, श्रीहनुमान प्रसाद ब्रह्मचारी और श्रीकृष्ण गोपाल राय आदि 13 व्यक्ति, दिल्ली से ट्रेन द्वारा यात्रा करते हुए, 8 मई को हैदराबाद पहुँचे। राज महेन्द्री (आन्ध्र प्रदेश) से, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति वैभव पुरी महाराज, कलकत्ता और पश्चिम बंगाल के विभिन्न स्थानों से, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी महाराज, पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति कमल मधुसूदन महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विकास हृषीकेश महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सुहृद दामोदर महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सुन्दर नारसिंह महाराज और श्री गोलोक नाथ ब्रह्मचारी, 21 मई को हैदराबाद पहुँचे ।
श्री ललितकृष्ण वनचारी 23 मई को वृन्दावन से हैदराबाद पहुँचे। अनुष्ठान की पूर्व व्यवस्था के लिए चण्डीगढ़ से श्रीमद् भक्ति विज्ञान भारती महाराज, श्री नित्यानन्द ब्रह्मचारी और अनंग मोहनदास ब्रह्मचारी भी आ गए। इनके अतिरिक्त त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति बान्धव जनार्दन महाराज, श्री विष्णुदास ब्रह्मचारी, श्री अरविन्द लोचन ब्रह्मचारी, श्री वृषभानु ब्रह्मचारी, श्री द्वारकेश ब्रह्मचारी, श्री श्यामानन्द ब्रह्मचारी और श्री तीर्थपद ब्रह्मचारी तथा स्थानीय मठ के सेवकों ने विभिन्न प्रकार के सेवा कार्यों में सहयोग दिया।
22 मई बुधवार से 26 मई रविवार तक, पाँच दिनों के धर्म-अनुष्ठान में, सन्ध्याकालीन धर्म सभाओं के सभापति के रूप में और प्रधान अतिथि के रूप में, न्यायाधीश, श्री जी० वैंकटराम शास्त्री, व्यायाधीश, श्री बी० माधवराव, समाज कल्याण मन्त्री, भट्टम श्रीराममूर्ति, न्यायाधीश, श्री बी० पार्थसारथी, राजस्व विभाग के सचिव, श्री एन० रमेशन, श्रम और वाणिज्य विभाग के मन्त्री, श्री एस० आर० राममूर्ति, श्रम एवं वाणिज्य विभाग के अध्यक्ष, डा० दिवाकर वैंकट अवधानि और राजा श्री पन्ना लाल पित्ति उपस्थित थे।
11 जून, 1975, बुधवार, शुक्ला द्वितीया तिथि को, चक्र, कलश, ध्वजा सहित, नवचूड़ा-विशिष्ट सुरम्य मन्दिर एवं श्री श्रीगुरु-गौराङ्ग राधा-विनोद जी के विजय-विग्रहों का प्रतिष्ठा-उत्सव, श्रील गुरुदेव जी के सेवानियामकत्व में, उच्च जय-ध्वनि एवं संकीर्तन के साथ सम्पन्न हुआ। अगले दिन श्रीविग्रहों ने रथ पर सवार होकर संकीर्तन-शोभा- यात्रा के साथ नगर भ्रमण किया। 10 जून से 16 जून तक, जो सात दिन की धर्म सभाएँ हुई, उनके सभापति एवं प्रधान अतिथि के रूप में पूर्व मन्त्री श्री चल्ला युवा रायुडू, न्यायाधीश, श्री जी० वेंकटराम शास्त्री, ओसमानिया विश्वविद्यालय के उपाचार्य, (Vice Chancellor), श्रीजगमोहन रेड्डी, न्यायाधीश, श्री अल्लादि कुपुस्वामी, न्यायाधीश, श्री वी० माधव राव, एण्डोमेन्ट मिनिस्टर, श्री राजा सागि, श्री सूर्य नारायण, श्री राजू, समाज कल्याण मन्त्री, भट्टम श्रीराममूर्ति, राजा पन्नालाल पित्ति, अवसर प्राप्त प्रधान न्यायाधीश, श्री गोपाल राव, भारत सरकार के प्रतिरक्षा विभाग के पूर्व सेक्रेटरी, श्री ओ० पुल्ला रेड्डी, आई० जी० पी०, श्री राम चन्द रेड्डी, निज़ाम कालेज के अध्यक्ष, डा० पी० जी० पूर्णिक, डा० एन० वी० सुबा राव और न्यायाधीश, श्री बी० पार्थसारथी आदि के अतिरिक्त हैदराबाद शहर के विशेष नागरिकगण उपस्थित थे। श्रील गुरुदेव जी के मुखारविन्द से हिन्दी और अंग्रेजी में भागवत कथा सुनकर सभी व्यक्तियों ने बहुत आनन्द प्राप्त किया तथा बहुत प्रभावित हुए।
पश्चिम बंगाल से पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रमोदपुरी महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विकास हृषीकेश महाराज, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति सुहृद दामोदर महाराज, श्रीमठ के सम्पादक, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज, श्रीमठ के सहकारी सम्पादक, श्री मङ्गल निलय ब्रह्मचारी, पण्डित जगदीश पण्डा, श्री मदन गोपाल ब्रह्मचारी, श्री परेशानुभव ब्रह्मचारी, और श्रीचैतन्य चरण दासाधिकारी; राजमहेन्द्री से त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति वैभव पुरी महाराज तथा श्री पुरुषोत्तमदास ब्रह्मचारी; विशाखापटनम से डा० जी० एस० वी० शर्मा, वृन्दावन से श्रीमद् ठाकुरदास ब्रह्मचारी, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति प्रसादपुरी महाराज और श्री वीरभद्र ब्रह्मचारी; पंजाब से श्री सच्चिदानन्द ब्रह्मचारी और श्रीकृष्ण गोपाल कराका आदि की सेवा प्रवेष्टाएँ विशेष प्रशंसनीय रहीं।
इनके अतिरिक्त मट रक्षक, श्री विष्णुदास ब्रह्मवारी, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति बान्धव जनार्दन महाराज, श्री श्यामानन्द ब्रह्मवारी, श्री देवप्रसाद ब्रह्मचारी, श्री अरविन्द लोवन ब्रह्मवारी, श्री वृषभानु ब्रह्मचारी, श्री तीर्थपद दास ब्रह्मचारी, श्री द्वारकेश ब्रह्मचारी, श्री अजीत कृष्ण दास ब्रह्मचारी, श्री नरेन्द्रनाथ दास, श्री हनुमान प्रसाद जी, श्री बलदेव दास (श्री वज्र सिंह जी) श्री जग्गा रेड्डी, श्री जगत दास जी, श्रीकृष्ण रेड्डी, लाला श्री श्याम सुन्दर कनोडिया, इञ्जीनियर, श्री सत्यनारायण दास जी, श्री एम० एस० कोदीश्वरम् और श्री टी० वेणुगोपाल रेड्डी, एडवोकेट तथा स्थानीय मदवासी, गृहस्थ भक्तों तथा सज्जनों की सेवाएँ प्रशंसनीय हैं।
हैदराबाद के नव चूड़ा-विशिष्ट श्रीमन्दिर की यह विशेषता है कि श्रीमन्दिर पूरा का पूरा पत्थर का बना हुआ है। श्रीगुरुदेव जी के निर्देशानुसार, त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति विज्ञान भारती महाराज, जो कि गृहनिर्माण कार्य में अभिज्ञ हैं, श्रीमन्दिर निर्माण आदि में जिम्मेदारी सहित सेवा में नियुक्त रहकर, धनादि संग्रह करने की सेवा में प्रयत्नशील रहे। श्रील गुरुदेव जी के साथ रहने वाले सेवक, उनकी सब कार्यों में बहुमुखी प्रतिभा अनुभव करके, प्रतिक्षण आश्चर्यचकित होते थे। 18 मई, बुधवार से, 22 मई, रविवार, 1977 तक, हैदराबाद मठ के वार्षिक उत्सव में, पाँच दिन की सन्ध्या-कालीन धर्म सभाएँ हुई। उनमें राजा पन्ना लाल पित्ति, श्री के० एन० अनन्त रमन, आई०सी०एस०, आन्ध्र हाईकोर्ट के न्यायाधीश, श्री वी० माधव राव, आन्ध्र हाईकोर्ट के न्यायाधीश, श्री अल्लाडि कुप्पुस्वामी, श्री राम निरन्जन पाण्डे, श्री पुरुषोतम नायडू, एण्डोमेन्ट कमिश्नर, प्रोफेसर एच० एन० एल० शास्त्री, श्री ओ० पुल्ला रेड्डी, आई०सी०एस०, आई० जी० पी०, श्री के० राम चन्द रेड्डी, श्री शिव मोहन लाल जी तथा पण्डित श्री एकनाथ प्रसाद जी – सभापति तथा प्रधान अतिथियों के रूप में उपस्थित थे। परम आराध्य श्रील गुरु देव जी ने पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों और दिल्ली में विपुल प्रचार के पश्चात्, हैदराबाद के वार्षिक उत्सव में योगदान देने के लिए, अपने पार्षदों के साथ 17 मई को वहाँ शुभागमन किया।
सभा के निर्धारित वक्तव्य विषयों पर, श्रीगुरु देव जी के दीर्घ भाषण, जो सुन्दर सिद्धांतों से पूर्ण थे, को सुनकर शिक्षित व्यक्तिगण बहुत चमत्कृत हुए। पहले चार दिनों के भाषणों के विषय क्रमशः “ईश्वर भक्ति से आत्मा की सुप्रसन्नता लाभ होती है”, ‘सनातन धर्म और श्रीविग्रह पूजा’, ‘श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु और प्रेम धर्म’ तथा ‘श्रीभागवत की शिक्षा’ थी।
इन विषयों पर श्रीगुरुदेव जी के भाषणों का सार है :- . . . . . .