श्रीगुरुदेव जी ने अपने गुरु भाईयों, त्रिदण्डियति वृन्दों एवं ब्रह्मचारियों के साथ 15 जुलाई, रविवार को हैदराबाद के राजभवन में शुभ पदार्पण किया और वहीं पर राज्यपाल महोदय को हरिकथा रूपी अमृत पान कराया।

उन्होंने अपने भाषण में कहा, “श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने श्रीनाम- संकीर्तन को जीव के चरम कल्याण प्राप्त करने के लिए परम उपाय बताया है। अज्ञान रूपी पित्त से पीड़ित जिह्वा को श्रीकृष्ण नाम की अपूर्व स्वादुता पहले-पहले अनुभव में नहीं आएगी, किन्तु बार-बार, आदर पूर्वक श्रीकृष्ण- -नाम करते रहने से अज्ञान दूर हो जाने पर, धीरे-धीरे उसका मीठा स्वाद अनुभव होगा। पित्त रोग द्वारा तप्त रसना के लिए, उत्कृष्ट कूजे की मिश्री कड़वी लगने पर भी, जैसे सद्वैद्य की व्यवस्था के अनुसार उसी मिश्री के सेवन से ही पित्त दूर होकर मिश्री का मीठा स्वाद अनुभव होगा, उसी प्रकार श्रीभगवान् के नाम संकीर्तन के प्रभाव से सर्व व्याधियाँ दूर होकर श्रीनाम का अपूर्व माधुर्य क्रमशः आस्वादन होता है।

‘स्यात् कृष्णनामचरितादिसिताप्यविद्या पित्तोपतप्तरसनस्य न रोधिका नु ।
कित्यादरादनुदिनं खलु सैव जुष्ट स्वाद्वी क्रमाद्भवति तद्गद मूल हन्त्री ॥”

श्रीभगवान के नाम और गुण-महिमा श्रवण-कीर्तन रूप भागवत- धर्म में सभी मनुष्यों का अधिकार है, किन्तु वैदिक धर्म के आचरण में सब का अधिकार नहीं है, उसमें विधि-विधान का विचार रखना पड़ता है। श्रीनाम संकीर्तन रूपी श्रीभागवत-धर्म का अधिक से अधिक प्रचार होने से, जन-साधारण के बीच में अध्यात्म भूमिका के लिए हृदय की सुदृढ़ एकता बन जाएगी।

कलि-पीड़ित जीव अत्यन्त विषयासक्त है, अजितेन्द्रिय है, और व्याधिग्रस्त है, इसलिए सत्य, त्रेता, द्वापर, इन तीनों युगों के युगधर्म- ध्यान, यज्ञ और अर्चन की व्यवस्था कलिहत जीव के लिए नहीं की गई है। व्याधि अत्यन्त भयानक होने के कारण, उसके ठीक-ठीक इलाज के रूप में श्रीभगवन्नाम संकीर्तन का ही शास्त्र में उपदेश किया गया है।

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनमैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ।