दशावतारों में पांचवें अवतार हैं श्री वामनावतार। लीलावतार असंख्य हैं। उनमें से मुख्य 25 लीलावतारों में से श्री वामनदेव जी का 18वां अवतार है। पूर्व वर्णित मत्स्यावतार वर्णन के प्रसंग में सभी लीलावतारों का उल्लेख हुआ है। द्वारका में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न व अनिरुद्ध श्री कृष्ण के आदि चतुर्व्यूह हैं। ये श्री कृष्ण के प्राभव विलास हैं। श्री कृष्ण की ऐश्वर्य मूर्ति नारायण, जो कि वैकुण्ठ में स्थित है, उनका भी चतुर्व्यूह हैं, इसे द्वितीय चतुर्व्यूह कहा जाता है। द्वितीय चतुर्व्यूह में प्रत्येक के तीन-तीन रूप हैं। उनमें से प्रद्युम्न की त्रिविक्रम, वामन और श्रीधर तीन मूर्तियां हैिं। द्वितीय चतुर्व्यूह के तीन-तीन करके 12 रूप हैं, जो कि 12 मास के 12 अधिदेवता हैं। आषाढ़ मास के अधिदेवता हैं – श्री वामन देव। वैष्णवों के श्रीअंगों पर जो द्वादश हरिमंदिरों की रचना की जाती है उसमें बायीं और (बाम कुक्षी) हरिमंदिर में वामन देव जी का अधिष्ठान है। परव्योम स्थित चतुर्व्यूह एवं उनके 20 विलास रूपों में अस्त्रों का भेद है। श्री वामन देव शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी हैं। मथुरा में केशव, नीलाचल में जगन्नाथ, प्रयाग में माधव, मंदार में मधुसूदन, आनन्दारण्य में वासुदेव, पद्मनाभ, जनार्दन, विष्णु कान्चि में वरदराज विष्णु, मायापुर में हरि- इस प्रकार ब्रह्माण्ड में वामन देव जी का भी अधिष्ठान है। ब्रह्मा जी के एक दिन में या एक कल्प में 14 मन्वन्तर (एक मन्वन्तर में 71 चतुर्युग) होते हैं। 14 मन्वन्तरों में भगवान के जो 14 अवतार होते हैं, उन्हें मन्वन्तरावतार कहा जाता है। वैवस्वत या सप्तम मन्वन्तर के अवतार श्री वामनावतार हैं।
श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास मुनि ने वामन देव जी के आविर्भाव, बलि से त्रिपाद भूमि की याचना के छल से त्रिलोक पर अधिकार करना एवं बाद में उसे सुतलपुरी प्रदान करना इत्यादि प्रसंगों का विस्तृत वर्णन किया है। यहां पर इस विषय का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है। 14 मनुओं का (स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, श्वेत, चाक्षुष, वैवस्वत, श्राद्धदेव, सावर्णि, धर्म सावर्णि, रुद्र सावर्णि, देव सावर्णि और इन्द्र सावर्णि) वर्णन करते हुए शुकदेव गोस्वामी जी ने अष्टम मन्वन्तर के वार्णि मनु के राजत्व काल में बलि-वामन देव जी के प्रसंग का उल्लेख किया है। जिस समय असुरों के प्रधान बलि महाराज थे, उस समय देवासुर संग्राम में देवराज इन्द्र द्वारा बलि महाराज एवं उनके प्रधान सेनापति मारे गये थे। देवराज इन्द्र जब असुर वंश को समूल ध्वंस करने का संकल्प लेकर असुरों का संहार करने लगे तो इसकी सूचना पितामह ब्रह्मा जी को मिली। उन्होंने इन्द्र को उपरोक्त निन्दित कार्य से निवृत्त करने के लिये नारद ऋषि को उनके पास भेजा। इन्द्र के असुर निधन कार्य को बंद करने के लिये जब ब्रह्मा जी का आदेश नारद ऋषि ने इन्द्र को बताया तब जाकर वह उससे निवृत्त हुए।
असुर कुल के पुरोहित शुक्राचार्य जी ने मृत-संजीवनी विद्या द्वारा बलि महाराज को एवं उनके प्रधान-प्रधान सेनापतियों को एवं उनके असुरों को जीवित कर दिया। शुक्राचार्य जी ने असुरों के हित के लिए बलि महाराज को भृगु वंशीय ब्राह्मणों को द्वारा ‘विश्वजीत’ यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए परामर्श दिया। बलि महाराज ने अपने गुरु महाराज की आज्ञा परिपालन करने के लिए यज्ञ के लिए सामग्री एकत्रित कर दी। शुक्राचार्य और भृगुवंशीय ब्राह्मणों ने यथारीति यज्ञ सम्पन्न किया। यज्ञ में से अक्षय तरकश व अनेकों अस्त्र-शस्त्र उत्पन्न हुए। मंत्र के प्रभाव से बलि महाराज महातेजस्वी व पराक्रमी हो गये। इसके बाद उन्होंने असुर सेना को लेकर स्वर्ग राज्य पर आक्रमण कर दिया। देवराज इन्द्र को जब देवताओं ने यह संवाद सुनाया तो वे भी सैन्य सामंत लेकर युद्ध के लिए तैयार होकर आ गए, किन्तु वह बलि महाराज का तेज देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। युद्ध तो क्या करना उनके सामने खड़े रहने तक की हिम्मत उनमें न रही। तभी देवराज इन्द्र ने चिंतित और भयभीत होकर देवगुरु बृहस्पति जी के पास आकर असुरों के अत्यद्भुत प्रभाव के बारे में पूछा कि असुरों की इस प्रकार असाधारण शक्ति का क्या कारण है। पूछने पर देवगुरु बृहस्पति बोले – ‘श्री हरि प्रिय भृगुवंशीय ब्राह्मण बलि महाराज के पीछे हैं। उनके द्वारा किये गये यज्ञ से ही बल महाराज शक्तिशाली हुये हैं। यदि अभी तुम युद्ध करने के लिए जाओगे तो आप जय प्राप्त नहीं कर पाओगे। निश्चित ही आपकी बुरी तरह से हार होगी। इसलिए आपलोगों के लिए मेरा यही उपदेश है कि तुम लोग स्वर्ग राज्य परित्याग करके अंतरिक्ष में छिप कर रहो।’
गुरु बृहस्पति के परामर्श के अनुसार इन्द्र और अन्य देवता स्वर्ग छोड़कर अंतरिक्ष में छिपकर रहने लगे। देव माता अदिति1 पुत्रों को इस प्रकार राज्य से रहित देखकर बहुत दुःखी हो गई और खाना-पीना छोड़कर उदास रहने लगी। हर समय शोक से संतप्त रहने व घर के प्रत्येक कार्य में उदासीनता के कारण कुटिया सौन्दर्यहीन हो गई और वह स्वयं भी कमजोर होने लगी। देव माता अदिति व्याकुल अन्तःकरण से तपस्या में रत पति कश्यप ऋषि के वापस लौटने की प्रतीक्षा करने लगी। काफी समय के बाद जब कश्यप ऋषि तपस्या से निवृत्त होकर घर आये तो उन्होंने कुटिया को श्रीहीन एवं पत्नी को कमजोर और मलिन देखकर आश्चर्यान्वित होकर अदिति से इसका कारण पूछा तो वह रोती-रोती पति से बोली – ‘हमारे पुत्रों को असुरों ने स्वर्ग राज्य से विताड़ित कर दिया है। आपके पादपद्मों में मेरी यही प्रार्थना है कि जैसे मेरे पुत्र स्वर्ग राज्य में वापस आ सकें, इसकी व्यवस्था कीजिये। जब तक मेरे पुत्र स्वर्ग राज्य में वापस नहीं आ जाते, तब तक मेरा शोक दूर नहीं होगा।’ पत्नी के अनुचित वाक्य सुनकर वे उसको सांत्वना देने के लिए तत्वोपदेश करने लगे। उन्होंने कहा – ‘देवता हमारे मित्र हैं और असुर शत्रु, इस प्रकार शत्रु-मित्र भेद दर्शन भगवान क माया से मोहित व्यक्तियों को ही होता है। भगवत् विस्मृति से व्यक्ति को अपने स्वरूप के सम्बन्ध में और दूसरों के स्वरूप के सम्बन्ध में विपरीत बुद्धि हो जाती है।
भगवान् के सम्बन्ध में सभी के साथ हमारा प्रीति सम्बन्ध है। शुद्ध ज्ञानमय दर्शन में शत्रु दर्शन नहीं होता। तुम्हारे प्रति मेरा जो उपदेश है वह ये – ‘तुम शारीरिक मिथ्या अभिमान व कल्पित सम्बन्धों को परित्याग करके सर्वतोभाव से हरि की आराधना करो।’ माता अदिति ने अपने पति से ज्ञान गर्भ उपदेशों को सुनकर उन्हें हृदयंगम कर लिया तथा बार-बार अनुनय करने लगी अपने पुत्रों के लिये, जैसे वे वापस अपने स्वर्ग राज्य में पहुंच जायें। अदिति माता ने कहा कि जब तक पुत्र पुनः स्वर्ग राज्य नहीं पहुंच जाते, तब तक उनके चित्त में किसी प्रकार भी शांति नहीं हो सकती। अदिति माता की इन उक्तियों से मालूम पड़ता है कि वे मायाबद्ध जीव की तरह माया मोहित अवस्था में पुत्र स्नेह से आतुक होकर अपने पुत्रों के स्वर्ग के लिये बार-बार प्रार्थना कर रही हैं परन्तु वास्तविकता ये नहीं है।
वास्तविकता तो यह है कि भगवान, कश्यप ऋषि व अदिति माता को कृतार्थ करने के लिये अपने पुत्र रूप से अवतीर्ण होना चाहते हैं। वे ही अदिति माता को प्रेरणा देकर उनसे इस प्रकार बुलवा रहे हैं।
कश्यप ऋषि ने माता अदिति की बात को ध्यान से सुना और अपनी पत्नी से कहा – ‘‘देवता अपने स्वर्ग राज्य में वापस आ जायें, यदि ये ही तुम्हारी तीव्र आकांक्षा है तो उसके लिये तुम्हें बारह दिन सिर्फ दूध पीकर ‘केशव तोषण व्रत’ करना होगा। भगवान केशव को छोड़कर और कोई भी तुम्हारी इस इच्छा को पूरी नहीं करेगा।’’ कश्यप ऋषि जी के उपदेशानुसार माता अदिति ने कठोर वैराग्य व यथा रीति अनुसार ‘‘केशव तोषण व्रत’’ पूरा किया। व्रत की समाप्ति के साथ-साथ भगवान ने माता अदिति को दर्शन दिया तथा आश्वासन देते हुये कहा कि वे यथा समय शुभ लक्षणों में उनके पुत्र रूपसे अवतीर्ण होकर उनकी इच्छा पूर्ति करेंगे।
‘शुभ समय आने पर भगवान कश्यप ऋषि जी हृदय में आविर्भूत हुये। कश्यप ऋषि ने दीक्षा विधान के साथ उक्त ज्ञान अदिति को दिया।’
भगवान पहले अदिति के हृदय में और बाद में गर्भ में प्रविष्ट हुए। भगवान के आविर्भूत होने का पता लगने पर ब्रह्मादि देवता आकर गर्भ स्तुति करने लगे। श्रावण मास की द्वादशी तिथि में अभिजित नक्षत्र के संयोजन होने के अत्यन्त शुभ समय पर भगवान अदिति के गर्भ से शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, श्याम सुन्दर पीताम्बर पहने नारायण रूप में अवतीर्ण हुए। कश्यप ऋषि और अदिति माता ने देखा कि भगवान ने उनके सामने ही चतुर्भुज रूप से अवतीर्ण होने के साथ-साथ आलौकिक ढंग से छोटा सा वामन रूप धारण कर लिया। अपूर्व वामन रूप का दर्शन करके कश्यप ऋषि और अदिति माता परमानन्दित हुए व पुत्र स्नेह में आविष्ट हो गए। पुत्र के जन्म संस्कारादि शास्त्र अनुसार सम्पन्न हुए। उपनयन काल में वामन देव को स्वयं सूर्य देव ने सावित्री उपदेश, बृहस्पति ने यज्ञ सूत्र, कश्यप ऋषि ने मेखला, पृथ्वी ने मृगछाला, वनस्पति सोम (चन्द्र) ने दण्ड, माता अदिति देवी ने कोपीन वस्त्र, स्वर्ग ने छत्र, ब्रह्मा ने कमण्डलु, सप्त ऋषियों ने कुशा, सरस्वती ने अक्ष माला, कुबेर ने भिक्षा पात्र और साक्षात जगत माता भगवती ने भिक्षा प्रदान की।
बलि महाराज जी ने नर्मदा नदी के किनारे भृगुकच्छ क्षेत्र में यज्ञानुष्ठान आरम्भ किया था। वे महादाता थे। ब्राह्मण लोग दान लेने के लिए बलि महाराज की यज्ञ स्थली पर गए। उपनयन संस्कार के पश्चात संस्कृत व्यक्ति भिक्षा करेगा, इस प्रकार का नियम होने के कारण वामन देव उपनयन संस्कार के पश्चात दण्ड, कमण्डलु व छत्र आदि धारण करके भिक्षा के लिए बलि महाराज की यज्ञस्थली की ओर चल पड़े। वामन देव जी छत्र धारण करके चल रहे थे। छोटे होने के कारण वे छत्र से ही ढक गये। ब्राह्मणों ने उन्हें दूर से देखा तो सोचा कि एक छत्र चल रहा है, तो वे बड़े आश्चर्यान्वित हुए। बाद में वे समझ पाये कि एक छोटी सी आकृति का ब्राह्मण बालक जा रहा है। ब्राह्मणों ने उसे पीछे छोड़ने की बड़ी चेष्टा की, परन्तु वे उसे पछाड़ न सके। वामन देव उन सभी ब्राह्मणों को अपनी माया से मोहित करके बलि महाराज की यज्ञस्थली पर सबसे पहले पहुंचे। वामन देव के शुभागमन व उनकी महाज्योतिर्मय मूर्ति के प्रभाव से यज्ञ स्थली की यज्ञाग्नि निष्प्रभ हो गई। कोई एक महापुरुष आया है – ऐसा सोच कर बलि महाराज, ऋत्विज व यज्ञ स्थली में उपस्थित सभी खड़े होकर उनका स्वागत-सम्मान करने लगे। बलि महाराज ने कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण समझ कर उनको प्रणाम किया एवं उनका चरणामृत मस्तक पर धारण किया। वामन देव की यथा विहित पूजा सम्पन्न करने के पश्चात बलि महाराज ने वामन देव को कहा – ‘आप मेरे पास निश्चय ही प्रार्थी के रूप में आये हैं। आप राज्य, साम्राज्य – जो चाहेंगे वही मैं आपको दूंगा। यदि आप विवाह करने की इच्छा रखते हैं तो आपको मनोवृति के अनुसार सुलक्षणा कन्या भी दूंगा।’
उत्तर में वटु वामन बोले – ‘आपके अतिशय महिमान्वित वंश के पूर्व पुरुषों को मैं जानता हूं। आप ने अद्वितीय वीर हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष के वंश में जन्म ग्रहण किया है। आपके पितामह प्रह्लाद जी महाभागवत थे, जिनके स्मरण मात्र से ही जीव पवित्र हो जाता है और आपके पिता विरोचन जी ने प्रार्थी ब्राह्मण को वचन देकर कभी भी अपने वचन का उल्लंघन नहीं किया। मैं जानता हूं कि आप भी वाक्य उल्लंघन नहीं करोगे। आपके पास मैं त्रिपाद भूमि की याचना करता हूं।’ यह सुनकर बलि महाराज मुस्कराते हुये बोले – ‘आपने मेरे पूर्व पुरुषों की उन महिमाओं का वर्णन किया जिनका मुझे भी ज्ञान नहीं है किन्तु आपने मुझसे तुच्छ वस्तु की याचना की है। मैं देखता हूं कि आप छोटे से वामन हैं, अतः आपकी बुद्धि भी इसी प्रकार की है। आपके छोटे-छोटे चरणों से नपी त्रिपाद भूमि से आपका क्या होगा?’
मैं कौन हूं, क्या आप जानते हैं?
मैं त्रिलाेकपति हूँ। मैं इच्छा करने से आपको जम्बू द्वीप दे सकता हूं। मेरे से दान ग्रहण करने के पश्चात आपके दूसरे के पास प्रार्थी होने से मेरे ‘दाता’ नाम पर कलंक लगेगा। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि आप पुनः इस विषय पर विचार कीजिये।
श्री वामन देव बोले – मैं जानता हूं कि आप त्रिलोकपति हैं, आप बहुत कुछ दे सकते हैं किन्तु मैं ब्राह्मण हूं। ब्राह्मण को थोड़े से संतुष्ट रहना उचित है। ब्राह्मण यदि अधिक विषयों की आकांक्षा करते हैं तो ब्राह्मण का तेज नष्ट हो जाता है। विषय आकांक्षा से कभी भी निवृत्ति नहीं होती। आप मुझे जम्बू द्वीप दे देंगे तो मेरी सारी पृथ्वी को पाने की आकांक्षा होगी। उसके बाद मेरी मांग रसातल, स्वर्ग, ब्रह्म पदवी इत्यादि-इत्यादि के लिये होगी, इसका तो अंत नहीं है। आत्मा के लिये अनात्म वस्तु अप्रयोजनीय है। मैं आपके द्वारा दी गई, अपने पद के परिमाप की त्रिपाद भूमि से ही संतुष्ट रहूंगा।
उस समय दैत्य गुरु शुक्राचार्य भी पास ही थे। वे समझ गये कि ‘विष्णु भगवान’ देवताओं के कार्य-सिद्धि के लिये, छोटे से ब्राह्मण के भेष में त्रिपाद भूमि की याचना के छल से त्रिलोक ले लेंगे और शिष्य बलि को त्रिलोक के सम्पद से वंचित कर देंगे। और फिर मूर्खतावश बलि महाराज इस वटु वामन (छोटे से वामन) के वास्तविक स्वरूप को न पहचान कर उसकी प्रार्थना को पूर्ण करने के लिए प्रवृत्त हो रहे हैं।
शिष्य के मंगलामंगल चिन्ताकांक्षी शुक्राचार्य जी बलि महाराज से बोले – बलि! तुम्हारे पास आये वटु वामन के वास्तविक स्वरूप को तुम नहीं पहचानते – ये साक्षात् भगवान हैं। देवताओं के कार्य को पूरा करने के लिए ये आपके पास प्रार्थी के रूप से आये हैं। ये त्रिपाद भूमि की याचना के छल से त्रिलोक पर अधिकार कर लेंगे। तब तुम कहां रहोगे? क्या करोगे? तुम्हारी सम्पदा रक्षित नहीं होने से तुम दान धर्म अनुष्ठान कैसे करोगे? इसलिये तुम्हारे लिये मेरा यह निर्देश है कि तुम इन्हें भूमि मत देना। गुरु जी के इस प्रकार के वाक्य सुनकर बलि महाराज बोले – मैंने ब्राह्मण को वचन दे दिया है मैं अपने वचन का उल्लंघन कैसे करूं? मैं झूठ भी कैसे बोलूं? यदि वटु वामन साक्षात् भगवान ही है तो दान के लिए इस प्रकार का सुपात्र कहां मिलेगा। मेरे नहीं देने से भी वे मुझसे जबरदस्ती ले लेंगे। आप गुरु होकर इस प्रकार की बाधा क्यों दे रहे हैं? और यदि ये वटु वामन ही हैं तो त्रिपाद भूमि नाप कर कितनी भूमि ले लेंगे।
दान का जो संकल्प मैंने लिया है मैं उसका परित्याग नहीं कर सकूंगा।
शुक्राचार्य जी ने बलि को पुनः समझाते हुये कहा – देखो बलि! कुछ विशेष परिस्थितियों में धर्म और सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए झूठ भी बोलना चाहिए जैसे किसी के पास कितना धन है इसको गुप्त नहीं रखने से धन सुरक्षित नहीं रहता, धन सुरक्षित न रहने से धर्म भी नहीं होता। दान के संकल्प के वचनों के उच्चारण के साथ-साथ तुम देखोगे कि वटु वामन विशाल त्रिविक्रम मूर्ति धारण करेगा। ये शरीर के द्वारा नभमण्डल को और दो पदों से त्रिलोक पर अधिकार कर लेगा, तब तुम अपने सत्य की रक्षा नहीं कर सकोगे। इसलिए तुम कभी भी इसे त्रिपाद भूमि मत देना, यह मेरा पुनः निर्देश है। उनके निर्देश पर भी बलि महाराज को संकल्प-वाक्य से पीछे हटते न देख, शुक्राचार्य जी ने क्रोधित होकर श्राप दे दिया कि तुम श्री भ्रष्ट हो जाओ।
गुरु के श्राप देने के बाद भी बलि महाराज संकल्प से पीछे न हटे और दान करने के लिए संकल्प कर कमण्डलु से जल ग्रहण करने लगे। परन्तु कमण्डलु से जल ग्रहण करते समय उन्होंने देखा कि कमण्डलु का मुख बन्द होने के कारण पानी उससे बाहर नहीं हा रहा है। (कारण शुक्राचार्य जी वात्सल्यवशतः शिष्य की मूर्खता को सहन न कर पाने पर कमण्डलु में प्रविष्ट हो गये थे जिससे कि पानी रुक गया था) बलि महाराज पानी निकलने के सुराख को झाड़ू की सींक से साफ करने लगे, जिससे शुक्राचार्य की एक आंख नष्ट हो गई। ऐसा कहा जाता है कि भगवत-सेवा में बाधा देने के कारण वे ‘काणा शुक्र’ हुए – वैसे ये प्रसंग श्रीमद्भागवत में उल्लेखित नहीं है।
बलि महाराज के कमण्डलु का जल लेकर संकल्प वचन के उच्चारण के साथ-साथ वटु वामन ने विशाल त्रिविक्रम मूर्ति धारण की और त्रिविक्रम मूर्ति धारण करके उन्होंने शरीर के द्वारा नभमण्डल पर और दो पदों के द्वारा त्रिलोक पर अधिकार कर लिया। अचिंत्य शक्ति विशिष्ट भगवान के पादपद्म त्रिलोक को अतिक्रम करके सत्य लोग में पहुंच गए। ब्रह्मादि देवता उक्त पादपद्मों के दर्शन कर कृतकृतार्थ हो गए। उन्होंने उन पादपद्मों की यथोचित विधान से पूजा की। वामन देव जी ने बलि महाराज से और एक पाद भूमि मांगी। वामन भगवान ने कहा देखो वचन देकर वचन की रक्षा न करने से आपका अधर्म होगा।
उत्तर में बलि महाराज जी बोले – मेरा सर्वस्व चला गया है, इसका मुझे दुःख नहीं है। किन्तु मैं अपना वचन पूरा नहीं कर पा रहा हूं। इसलिए मर्माहित और दुःखी हूं। आपने दो पदों के द्वारा मेरे सर्वस्व पर अधिकार कर लिया है। इसके अतिरिक्त मेरा और कुछ भी नहीं है। असुर लोग वामन देव द्वारा सब कुछ अधिकृत देख, छिने हुए राज्य के पुनः उद्धार के लिए प्रवृत्त हुए। असुरों द्वारा वामन देव का वध करने के लिए आने पर विष्णु के श्रीअंग से अद्भुत नारायणी सेना निकली, जिससे असुरों का युद्ध आरम्भ हो गया। नारायणी सेना द्वारा असुरों को मरता देख बलि महाराज ने उनसे युद्ध बंद करवाया। उन्होंने कहा – अभी हमारा समय खराब चल रहा है। अतः युद्ध का परिणाम भी खराब होगा। विष्णु की अभिलाषा समझ कर पक्षीराज गरुड़ ने बलि महाराज को वरुणपाश में बांध लिया। बलि महाराज को वरुणपाश में आबद्ध देखकर स्वर्गलोक व मृत्युलोग में, सभी ओर हाहाकार मच उठा। तभी वामन देव बलि महाराज के नजदीक जाकर बोले – आपके वंश में ब्राह्मण को वचन देकर किसी ने भी वचन का उल्लंघन नहीं किया। मैं त्रिपाद भूमि दूंगा, आपने इस प्रकार प्रतिज्ञा की है; आप एक पद भूमि और क्यों नहीं देते? आप धार्मिक होकर भी अधर्माचरण कर रहे हो।
बलि महाराज की पत्नी विन्ध्यावली भक्तिमति थी। उसने अपने पति बलि महाराज से कहा – ‘आपने अपना जो कुछ था वह वामन देव को दे दिया है, किन्तु आपने अपने को तो नहीं दिया। बलि महाराज अपनी भक्तिमति सहधर्मिणी के समयोचित सुन्दर भगवान सेवा-परक वाक्य सुनकर अतिशय उल्लासित हुये। उन्होंने साथ-साथ वामन देव को एक पद भूमि के लिए स्थान रूप से अपने मस्तक का निर्देश किया। तभी वामन देव जी के नाभि कमल से एक पद निकल कर बलि महाराज के मस्तक पर स्थापित हुआ। बलि महाराज को वे पादपद्म प्राप्त हुए जो ब्रह्मादि देवताओं को भी दुर्लभ है। बलि महाराज का ऐसा सौभाग्य देखकर स्वर्ग में दुन्दुभि बजने लगी एवं पुष्प वृष्टि होने लगी। वामन देव ने प्रसन्न होकर बलि महाराज को कहा – ‘‘मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हो गया हूं। तुम धर्म से च्युत नहीं हुए। अभी तक तो तुम दाता थे और मैं गृहीता था, परन्तु अब मैं दाता हूं और तृम गृहीता। तुम जो चाहोगे, तुमको मैं वही दे दूंगा। अनन्य शरण होने के कारण बलि महाराज जी ने विषयों के समान अपनी हारी हुई सम्पत्ति के लिये भगवान से प्रार्थना नहीं की। उन्होंने प्रार्थना की – ‘हे वामनदेव! आपके अपने जिन सुशीतल पादपद्मों को मेरे मस्तक पर स्थापित किया है वे जैसे हमेशा ही स्थापित रहें।
भगवत सेवा के द्वारा , भगवत चरणों में आत्मसमर्पण द्वारा कभी किसी का नुकसान नहीं होता है मूर्खतावश अज्ञ जीव, भगवान से तुच्छ वस्तु की प्रार्थना करते हैं। निष्कपट प्रपत्ति या निष्काम भक्ति द्वारा पूर्णानन्द स्वरूप भगवान को पाया जाता है। आत्मनिवेदन-भक्ति साधन के द्वारा बलि महाराज को भगवान प्राप्त हुए।
प्रह्लाद महाराज जी ने अपने पौत्र बलि महाराज की भक्ति और सौभाग्य को देख, अपने को सुखी और गौरवान्वित समझा। उन्होंने अपने पुत्र विरोचन को भक्त बनाने की बहुत चेष्टाएं की थीं। किन्तु विरोचन के भक्त न होकर असुर भावापन्न होने पर वे अन्तःकरण से व्यथित हुए थे। आज अपने पौत्र को भक्त देखकर उनके उल्लास की सीमा न रही। वामन देव जी ने बलि महाराज पर प्रसन्न होकर उनको वैकुण्ठ के समान परमानन्दमय धाम सुतलपुरी दान की एवं सुदर्शन चक्र को भक्तिपुरी के सर्वतोभावेन संरक्षण के लिए आदेश दिया।
ब्रह्मण्य-धर्म-संरक्षक वामन देव, भृगुवंशीय ब्राह्मणों में प्रधान-असुर कुल के गुरु शुक्राचार्य जी को संकुचित भाव से खड़े देख उनसे बोले – आपके शिष्य बलि महाराज को अनेक प्रकार की असुविधा हुई है। आप पुनः यज्ञ करके अपने शिष्य का मंगल विधान कीजिये। शुक्राचार्य जी इसके उत्तर में बोले, मेरे शिष्य ने आपके दर्शन किये। आपके नाम और महिमा का कीर्त्तन किया। आप का दुर्लभ पादपद्म उसके मस्तक पर स्थापित हुआ। क्या मेरा शिष्य अभी भी अपवित्र है? जो कि मुझे यज्ञ करके उसका कल्याण करना पड़ेगा?
मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः।
सर्वं करोति निश्छिद्रमनुर्तकीर्त्तन तब ।।
(भा0 8/23/16)
स्वरभ्र्रंश जनित मन्त्रगत, क्रम विपर्य द्वारा तन्त्रगत दोष एवं देश, काल और पात्रगत जो भी दोष रह जाते हैं आपका नाम-संकीर्तन उन सब को निर्दोष कर देता है।
श्री वेदव्यास मुनि रचित वामन पुराण में लोमहर्षण सूत और ऋषियों के बीच वार्तालाप प्रसंग में वामन देव का चरित्र वर्णित हुआ है। हिरण्यकशिपु के निधन के पश्चात् भी दैत्यों का निरंतर अधिकार बना हुआ था। सब स्थानों से देवताओं के विताड़ित होने से दैत्यों का राजत्व त्रिलोक में फैल गया। दैत्यलोग बहुत यज्ञानुष्ठान करने लगे। मय और शम्बर नामक दो दैत्य बहुत प्रसिद्ध हुए। सर्वत्र धर्म-कर्म के अनुष्ठान बिना बाधा के होने लगे। चतुष्पाद धर्म ही विराजित था; किन्तु एक पाद अधर्म ने नाममात्र को प्रवेश किया था, उसी समय बलि दैत्यराज के रूप में अभिषिक्त हुए। इससे सभी संतुष्ट हुए। देवराज इन्द्र को परास्त करने पर लक्ष्मी देवी प्रसन्न होकर बलि महाराज के शरीर में प्रविष्ट हो गयी। लक्ष्मी के वहां प्रविष्ट होने पर समस्त देवियां बलि महाराज पर प्रसन्न हुईं एवं बलि महाराज ने सब गुणों से गुणान्वित होकर अतुल ऐश्वर्य को प्राप्त किया। देवताओं का कोई स्थान नहीं रहने पर देवराज इन्द्र सुमेरु के शिखर पर स्थित अदिति माता के पास गये और उन्हें दानवों के द्वारा अपनी पराजय की बात बताई। एकमात्र सहस्रशीर्ष नारायण ही देवताओं का इस विपद से उद्धार कर सकते हैं – ऐसा समझकर अदिति माता ने देवराज इन्द्र को देवताओं के साथ अपने पति कश्यप ऋषि के पास भेजा। माता अदिति के निर्देशानुसार सभी देवता तृतीय प्रजापति कश्यप ऋषि के पास आये और उन्हें प्रणाम किया। कश्यप ऋषि ने उनकी बात सुनी और उन्हें ब्रह्मलोक में पितामह ब्रह्मा जी के पास भेज दिया। ब्रह्मा जी ने भी उनके अभिप्रायः को समझ कर उन्हें क्षीर सागर के उत्तरी किनारे पर विश्व-सृष्टा भगवान की आराधना के लिए कहा। उन्होंने कहा कि देखो, भगवद्-उपासना के समय तुम्हें भगवान की अमोघ वाणी सुनायी देगी कि वे कश्यप ऋषि और अदिति माता की प्रार्थना स्वीकार करके उनके पुत्र के रूप में अवतीर्ण होकर उनकी इच्छा पूर्ति करेंगे।
ब्रह्मा जी द्वारा आदिष्ट होकर देवता सागर, पर्वत, कानन तथा नदी इत्यादि सब पार करके अनेक कष्टों के पश्चात कश्यप ऋषि के पास एवं कश्यप ऋषि के साथ अमृत स्थान पर आकर उपस्थित हुए। कश्यप ऋषि सहस्त्रों वर्षों तक चलने वाले व्रत में लग गये। देवताओं ने भी तपो योग का अवलम्बन किया। महात्मा कश्यप ने नारायण की प्रसन्नता के लिए वेदोदित परम स्तव का पाठ किया एवं अदिति माता ने पुत्र की कामना की। इसके पश्चात कश्यप ऋषि पत्नी को लेकर कुरुक्षेत्र के वन में स्थित अपने आश्रम में आ गये। अदिति माता ने उसी स्थान पर अयुत वर्ष तक घोर तपस्या की। अदिति के स्तव से संतुष्ट होकर भगवान वासुदेव उनके सम्मुख आविर्भूत हुए। भगवान वासुदेव ने अदिति माता को वरदान मांगने के लिए कहा – अदिति ने इस प्रकार प्रार्थना की कि उसका पुत्र इन्द्र जैसे स्वर्ग राज्य प्राप्त कर सके। भगवान ने ‘तथास्तु’ कहकर उनको आश्वासन देते हुए कहा कि वे उनके पुत्र से अवतीर्ण होकर उनकी अभिलाषा को पूर्ण करेंगे। इसके पश्चात अदिति के गर्भ धारण करने पर श्री कृष्ण अदिति के गर्भ में आविर्भूत हुये। मधुसूदन द्वारा अदिति के गर्भ में प्रविष्ट होने मात्र से ही दैत्यों का तेज ह्रास हो गया। बलि महाराज अग्निदग्ध की भांति या ब्रह्म शापग्रस्त हुए के समान तेजहीन हो गये। उन्होंने पितामह प्रह्लाद जी को इसका कारण पूछा तो प्रह्लाद महाराज जी कुछ समय तक चिन्ता करने के पश्चात बलि महाराज से बोले कि इस प्रकार की घटना को सामान्य नहीं समझना। इसके प्रतिकार के लिए चिन्ता करना अभी आवश्यक है। कुछ समय पश्चात प्रह्लाद महाराज ध्यानस्थ होकर जान गये कि अदिति के गर्भ में भगवान वामन के रूप में अवस्थित हुये हैं। उन्होंने ही असुरों के तेज को हरण किया है। बलि महाराज पितामह से तेज हरण का कारण जानकर फिर जिज्ञासा करने लगे – ‘श्री हरि कौन हैं? जिन्हें आप हमारे भय का कारण कहते हैं; हमारे पास महाबलशाली सैकड़ों दैत्य हैं, इनमें एक के समान भी वासुदेव कृष्ण में ताकत नहीं है। दैत्य श्रेष्ठ प्रह्लाद महाराज पौत्र से इस प्रकार विष्णु निन्दाजनक वाक्य सुनकर क्रोधित हो उठे और अभिशाप देते हुए कहने लगे कि दानवगण शीघ्र ही ध्वंस हों। मैं श्री कृष्ण के अतिरिक्त किसी को भी इस संसार सागर का परित्राणकर्ता नहीं मानता। तुम्हें मैं कुछ समय के पश्चात् राज्य भ्रष्ट अवस्था में देखूं।
बलि महाराज, पितामह से अप्रिय वाक्य सुनकर अपने अविवेचनाजनक वाक्यों के लिये अनुतप्त होकर बार-बार कातरभाव से क्षमा प्रार्थना करने लगे। प्रह्लाद महाराज अपने पादपद्मों से गिरे हुए पौत्र को देख संतप्त होकर बोले – ”वत्स! मैंने मोहवशतः क्रुद्ध होकर तुमको अभिशाप दे दिया है। मेरा अभिशाप बेकार तो होगा नहीं, तुम उसके लिए दुःखी नहीं होना। अच्युत के प्रति तुम भक्तिमान होओ, वे ही तुम्हारे उद्धारकर्ता होंगे।“
दस मास के होने पर भगवान गोविन्द वामन के रूप में भूमिष्ठ हुए। सर्वत्र मंगल और सब प्राणियों के चित्त में प्रसन्नता हो उठी। वामन देव जी के आविर्भाव के साथ-साथ ब्रह्मा जी ने जात-कर्मादि समस्त क्रियाएं पूरी की तथा बहुत प्रकार के सुन्दर वाक्यों से वामन देव का स्तव किया। वामन देव स्तव से संतुष्ट होकर बोले – पहले उन्होंने इन्द्र को फिर अदिति को वचन दिया था; अब उनको भी वचन दे रहे हैं – इन्द्र जैसे जगत का अधिपत्य प्राप्त कर सकें, उसकी व्यवस्था वे करेंगे।
वामन देव के उपनयन काल में ब्रह्मा जी ने वामन देव को कृष्णाजिन, बृहस्पति ने यज्ञोपवीत, मरीचि ने पलाश दण्ड, वशिष्ट जी ने कमण्डलु, अंगिरा जी ने कुशचीर, पुलह ने आसन, एवं पुलस्त्य ने पीत वर्ण के दो वस्त्र दान किये। देवताओं के द्वारा उपासित होकर वामन देव जटाधारी दण्डी, छत्री, कमण्डलुधारी होकर बलि महाराज के यज्ञ स्थल की ओर जाने के लिए चल पड़े। वामन देव के गमन के समय पृथ्वी निपीड़ित होकर विचलित हो उठी। महानाग अनन्त रसातल से बाहर आकर वामन देव की सहायता करने लगे। वामन देव के दर्शन से नाग भय दूर हो जाता है। पृथ्वी को संक्षुब्ध देखकर बलि महाराज ने शुक्राचार्य जी से इसका कारण पूछा तो शुक्राचार्य जी बोले कि जगत् कारण सनातन श्री हरि कश्यप के गृह में वामन रूप से अवतीर्ण हुए हैं। वे तुम्हारे यज्ञ में आयेंगे, उन्हीं के पद-विक्षेप से धरित्री विचलित हो रही है। शुक्राचार्य जी से यह बात सुनकर वे अपने को धन्यातिधन्य मानने लगे कि वे परमात्मा वामन देव के दर्शन प्राप्त कर सकेंगे। भगवान शुभागमन कर रहे हैं तो अभी उसके लिए क्या करणीय है – बलि महाराज ने शुक्राचार्य जी से पूछा। तो शुक्राचार्य जी बोले – हे असुर राज! वैदिक प्रमाण के अनुसार देवता ही यज्ञ भाग के भोगी हैं परन्तु तुमने तो सिर्फ दानवों को ही यज्ञ के भाग का भोगी बनाया हुआ है। भगवान श्री हरि स्थित-पालनकर्ता कृतकृत्य होने पर भी वे देवताओं के प्रयोजन सिद्धि के लिये आ रहे हैं। इसलिए देवताओं के कार्य उद्धार के लिये थे जो तुमसे चाहेंगे तुम स्पष्ट रूप से कह देना कि मैं नहीं दे पाऊंगा।
उत्तर में बलि महाराज बोले – हे ब्राह्मण, मैं ये बात कैसे कहूंगा? कोई साधारण व्यक्ति मुझसे कुछ मांगे तो उसको तो मैं न कर नहीं पाता; उस स्थान पर साक्षात गोविन्दप्रार्थी रूप से मेरे पास आयेंगे, उन्हें मैं कैसे मना कर पाऊंगा? मैं अपने प्राण त्याग कर सकता हूं परन्तु ऐसा नहीं कर सकता। आपसे ही मैंने दान का माहात्म्य सुना था। आप ही मुझको दूसरी बात कहते हैं। आप दान के विषय में मुझे बाधा नहीं देना। उसी समय बृहस्पति व अन्यान्य देवताओं के साथ वामन देव, बलि महाराज की यज्ञ-स्थली पर उपस्थित हो गये। तब बलि अपने पुरोहित शुक्राचार्य जी से बोले – भगवान श्रीहरि जब हमारे गृह में स्वयं ही आये हैं तो वे अपनी इच्छा के अनुसार याचना करें।
यज्ञस्थली में वामन देव जी के प्रवेश के साथ-साथ उनके तेज से समस्त असुर निष्प्रभ से हो गये जबकि वशिष्ठ, विश्वामित्र, गर्ग ऋषि आदि श्रेष्ठ मुनिगण वामन देव का दर्शन कर कृतकृतार्थ हो गये। वामन देव जी ने बलि महाराज के यज्ञ की, यजमानों की व ऋत्विजगणों की प्रशंसा की। उन्होंने भी वामन देव जी को धन्यवाद किया।
बलि महाराज जी ने भक्ति के साथ पाद्म-अर्ध्य के द्वारा गोविन्द जी की पूजा करते हुए कहा – हे श्रेष्ठ पुरुष! आप स्वर्ण, रत्न, हाथी, भैंस, वस्त्र, अलंकार, स्त्री, गाय, ताम्र, चांदी इत्यादि जितनी भी धातुएं हैं अथवा सारी पृथ्वी या जो आपकी इच्छा हो, मांग लीजिये।
उत्तर में वामन देव हास्य मुद्रा में गम्भीर भाव से बोले – ‘हे राजन! मेरी अग्नि रक्षा के लिए आप मुझे मात्र त्रिपाद भूमि का ही दान दीजिये। सुवर्ण, ग्रामादि जो लोग मांगें उन्हें दे देना।
बलि महाराज ने कहा – त्रिपाद भूमि से आपका प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। आप सहस्र-सहस्र पद परिमित भूमि की प्रार्थना कीजिये। तब भी वामन देव जी ने त्रिपाद भूमि के लिए ही याचना की। महाराज ने अपने हाथ में जल लेकर वामन देव को त्रिपाद भूमि दान करने के लिए संकल्प किया ही था कि साथ-साथ वामन देव जी ने महातेजोमय और सर्वदेवमय विराट रूप धारण कर लिया। महाबली दैत्यगण विष्णु का वह महातेजोमय रूप देख, अग्नि को देख पतंगे की जिस प्रकार से अवस्था होती है, उसी अवस्था को प्राप्त हो गये। विपुल-विक्रमी विष्णु ने अल्पकाल में ही अंतरिक्ष को व तीनों लोकों को घेर लिया। असुरों को पराजित कर, इन्द्र को त्रिलोक का राज्य प्रदान किया। उसके पश्चात भगवान विष्णु ने बलि महाराज को पृथ्वी के नीचे पाताल प्रदेश का दान दिया। सवेश्वर विष्णु ने बलि को और भी कहा – वैवस्तमन्वन्तर बीतने पर और सावर्णि मन्वन्तर आने से तुम इन्द्र बनोगे। अभी मैंने तुम्हारा अधिकृत भुवन इन्द्र को दान दे दिया है। जो भी हो तुम मेरे कहे के अनुसार नाना गुणों व नाना प्रकार की शोभा से युक्त मनोरम पाताल प्रदेश सुतलपुरी में रहो एवं सर्वदा स्त्रक-चन्दन आदि नाना प्रकार के भोगों का उपभोग करो।
उसके उत्तर में बलि महाराज बोले – हे प्रभु! आपके द्वारा प्रदत्त भोगों को पाकर, जैसे मैं आप को न भूल जाऊं। आप आशीर्वाद कीजिए, जैसे मैं आपको स्मरण कर सकूं। इस प्रकार श्री हरि ने इन्द्र को त्रिलोक राज्य और बलि महाराज को वर प्रदान किया और अन्तर्हित हो गए।
बलि, वामन देव जी के इस संवाद को श्रवण करने से राज्य-भ्रष्ट व्यक्ति राज्य को प्राप्त करेंगे, इष्ट वियोगीजन इष्ट की प्राप्ति कर कृतार्थ होंगे। ब्राह्मण ब्रह्मज्ञ होंगे। क्षत्रिय पृथ्वी जय में पारंगत हो जाएंगे। वैश्य धन समृद्धि को प्राप्त होंगे। शूद्र को सुख-सौभाग्य प्राप्त होगा तथा इसको श्रवण करने वाला सभी पापों से छूट जाएगा।
वामन पुराण के लगभग अन्त में संक्षेप से बलि बन्धन एवं बलि महाराज की स्त्री विंध्यावली एवं पुत्र बाणासुर की कथा का उल्लेख हुआ है।
छलयति विक्रमणे बलिमद्भुतवामन,
पद नखनीर जनित जन-पावन।
केशव-धृत-वामन रूप जय जगदीश हरे।
(जयदेव कृत दशावतार स्तोत्रम्)
हे केशव! बलि महाराज को पदाक्रमण द्वारा छलने एवं अपने पदनख से निकले सलिल के द्वारा तमाम लोगों को पवित्र करने के लिए आपने वामन का रूप धारण किया। ऐसे जगदीश्वर आपकी जय हो।
1 – कश्यप ऋषि की दो पत्नियाँ – अदिति और दिति, अदिति की गर्भजात संतान हैं देवता और दिति की गर्भजात संतान हैं असुर अर्थात देवता एवं असुर आपस में सौतले भाई हैं।