दशावतारों में से सप्तम अवतार भगवान श्रीरामचन्द्र का है। 25 लीलावतारों में से श्रीरामचन्द्र 20वें अवतार हैं। मत्स्यावतार वर्णन के प्रसंग में इस विषय का उल्लेख हुआ है। प्रद्युम्न रूपी, द्वितीय पुरुषावतार श्रीगर्भोदकशायी विष्णु मत्स्य, कूर्म, राम, नृसिंह आदि लीलावतारों के मूल भगवत-स्वरूप हैं। श्रील रूप गोस्वामी ने स्वरचित श्रीलघुभागवतामृत ग्रन्थ में भगवान् श्रीरामचन्द्र को परावस्था स्वरूप कहकर निर्धारण किया है –
नृसिंह, राम, कृष्णेषु षाड् गुण्यं परिपूरितम्।
परावस्थास्त ते तस्य दीपादुतपत्रदीपवत्।।
(पद्म पुराण)
नृसिंह-राम-कृष्ण में साठ गुण परिपूर्ण भाव से विद्यमान हैं। जिस प्रकार एक प्रदीप से बहुत से अन्य प्रदीप जलाने पर सभी प्रदीप समान धर्मावलम्बी होते हैं उसी प्रकार स्वयं भगवान श्रीकृष्ण से राम और नृसिंह की अभिव्यक्ति होने से भी वे तीनों ही साठ गुणों में परावस्थापन्न हैं।
श्रीरामलीला में नीति की मर्यादा संस्थापित होने के कारण श्रीरामचन्द्र को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। श्रीरामलीला में वात्सल्य रस तक प्रकट हैं। जबकि नीति प्रधान लीला होने के कारण वात्सल्य रस भी संकुचित हो गया है। नीति की स्थापना करने के कारण दशरथ महाराज श्रीरामचन्द्र को वन गमन से रोक न सके और पितृ सत्य के पालन के लिए ही श्रीरामचन्द्र वन में गये। श्रीरामचन्द्र के विरह में ही दशरथ ने प्राण त्याग किये। श्रीरामचन्द्र एक पत्नीव्रतधारी हैं इसलिए यहां कान्त रस का प्राकट्य नहीं है। दण्डकारण्यवासी ऋषियों ने जब श्रीरामचन्द्र को पति के रूप में पाने की इच्छा की, तो उन्होंने उन्हें अपनी कृष्ण लीला में गोपी-आनुगत्य में प्राप्ति के लिए कहा था। श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं जबकि राम व नृसिंहादि उनके अंश, या उनके अंश के भी अंश अर्थात् कला हैं।
रामादि मूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन्
नानावतारमकरोद्भुवनेषु किन्तु।
कृष्ण स्वयं समभवत् परमः पुमान यो
गोविन्दं-आदि पुरुषं तमहं भजामि।।
(ब्रह्म संहिता 5/39)
कला-विभाग से अर्थात् अंशांश भाव से रामादि मूर्ति से भगवान ने जगत में नानावतार प्रकाश किये हैं किन्तु जो परम पुरुष स्वयं कृष्ण रूप से प्रकट होते हैं, उन आदि पुरुष गोविन्द का मैं भजन करता हूं।
एते च अंश कलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारि-व्याकुलं लोकं मृढ़यन्ति युगे-युगे।।
(भा. 1/3/28)
श्रीविष्णु धर्मोत्तर में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न को यथाक्रम से वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध का अवतार बताया गया है। पद्म पुराण में श्रीरामचन्द्र – नारायण, श्रीलक्ष्मण-शेष, भरत चक्र एवं शत्रुघ्न को शंख रूप से निरुपित किया गया है।
निःक्षत्रियामकृत गान्च त्रिःसप्तकृत्वो
रामस्तु हैह्यकुलाप्यभागवाग्निः।
सोऽब्धिं ददन्ध दशत्रृमहन् सलन्कं
सीतापतिजर्यति लोकमल्हन कीर्तिः।।
(भा. 11/8/21)
उन्होंने ही हैह्ययकुल संहाराग्नि भृगु रूप से 21 बार पृथ्वी को निःक्षत्रिय किया था एवं लोकपावन कीर्ति राम रूप से समुद्र बन्धन और लंका के साथ रावण का भी संहार किया था।
भारत के हिन्दू समाज के जीवन में भगवान श्रीरामचन्द्र के चरित्र के बहुत से शिक्षणीय विषयों का काफी प्रभाव दिखाई देता है। मूल वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार लिखा है – प्रचेता ऋषि के वंश में दशम अधस्तन के रूप से आविर्भूत वाल्मीकि स्नान के लिए गंगा के नजदीक ही तमसा नदी के तट पर गये। वाल्मीकि तब अपने शिष्य भारद्वाज मुनि के साथ रहते थे। वहीं एक दिन एक व्याध के द्वारा क्रोन्च पक्षी की मृत्यु हो जाने से क्रोन्चिका को संतप्त देखकर दुःखी चित्त से वे व्याध को एक छन्दोन्बध वाक्य बोल उठे –
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः
यत् क्रोन्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।
हे व्याध! तुम चिरकाल तक कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकोगे। कारण, तुमने क्रोन्च के जोड़े में से एक का काम-मोहित अवस्था में वध किया है। इसके पश्चात मुनिवर उस तीर्थ में स्नान इत्यादि करके आश्रम में वापस लौट आये। शोकार्त्तचित्त से अभी वे स्वीयमुखानिःसृत उस श्लोक के विषय में चिन्ता ही कर रहे थे कि उसी समय स्वयं चतुर्मुख ब्रह्मा उनके पास उपस्थित हुए और चिन्तित वाल्मीकि को सांत्वना प्रदान करते हुये बोले – मुनिवर! मेरी इच्छा से ही आपके मुख से इस प्रकार का वाक्य निःसृत हुआ है। उस विषय में अधिक चिन्तित न होकर तुम देवर्षि नारद द्वारा उपदिष्ट श्रीरामचन्द्र के चरित्र की कथा का वर्णन करो। ब्रह्मा के आदेश से ही वाल्मीकि ने रामायण की रचना की।
‘विश्वकोष’ में किंवदन्ति के रूप से एक प्रसंग का वर्णन देखा जाता है – उसकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है:-
वे वल्मीक से उत्पन्न हुए, इसलिये उनका नाम वाल्मीकि हुआ। भगवान श्रीरामचन्द्र द्वारा चित्रकूट के पास वाल्मीकि के आश्रम में शुभागमन करने पर वाल्मीकि ने उनके सामने राम नाम की महिमा और जन्म का वृत्तांत वर्णन किया था।
ब्राह्मण के घर जन्म ग्रहण करने पर भी वह व्याध के संग से घृणित हिंस्र स्वभाव का हो गया था। एक शूद्रा के गर्भ से उनकी अनेक संतानें हुई। उनके भरण-पोषण के लिए उसने दस्युवृत्ति का अवलम्बन किया था। एक दिन कुछ ऋषियों पर आक्रमण करने पर ऋषियों ने उसको दस्युवृत्ति त्याग करने के लिए कहा। कारण, दस्युवृत्ति द्वारा जो पाप होगा, उसका फल उसे ही भोगना पड़ेगा। उसके परिवार के लोग उस पाप के फल को ग्रहण नहीं करेंगे। घर जाकर माता-पिता, स्त्री व अन्यान्य पारिवारिक लोगों से पूछने पर उसको पता लगा कि कोई भी उसके पापों का भागी नहीं होगा। तब उसने निर्वेदयुक्त होकर उक्त पापों से मुक्ति का उपाय भी उन ऋषियों से ही पूछा। ऋषियों ने पहले उसे ‘राम’ नाम जप करने के लिये कहा। उसके मुख से राम नाम उच्चारण न होने के कारण ही उसे ‘मरा’ बोलने के लिए उपदेश दिया। वे सहस्त्र युगों तक ‘मरा-मरा’ जपते रहे। ‘मरा-मरा’ जपने से उनके मुख से राम नाम उच्चारित होने लगा और उन्होंने राम नाम की सिद्धि प्राप्त कर ली। उनके शरीर में वाल्मीकि (दीमक) की बाँबी बन गई थी। इसलिये लोगों ने उनका नाम वाल्मीकि रख दिया।
श्रीकृत्तिवास ओझा (उपाध्याय) द्वारा लिखित बंगला रामायण के उपरोक्त वर्णन में कुछ पार्थक्य दृष्टिगोचर होता है। श्रीच्यवन मुनि वाल्मीकि के पिता थे। यौवन में उनका नाम था रत्नाकर। दस्युवृत्ति करके वे परिवार का पालन-पोषण करते थे। एक दिन ब्रह्मा और नारद के ऊपर आक्रमण कर दिया था। ब्रह्मा और नारद ने रत्नाकर से पूछा कि आपके इस पाप का भागी कौन होगा?
रत्नाकर ने घर जाकर माता-पिता व स्त्री को पूछा। सबसे पूछने पर वह जान पाये कि उसके पापों का भागी कोई भी नहीं होगा। तब अत्यन्त अनुतप्त हुए इन पापों से निष्कृति का उपाय पूछने पर ब्रह्मा ने उसको ‘राम’ उच्चारण करने के लिए कहा। अत्यन्त पाप के कारण उसके मुख से राम न निकलने पर ब्रह्मा के निर्देशानुसार वह उल्टा नाम ‘मरा’ ‘मरा’ जपने लगा। ‘मरा’ ‘मरा’ जपते-जपते उसके मुख में राम नाम की स्फूर्ति हुई। बहुत समय तक जप करने के कारण उनका शरीर वाल्मीक की बाँबियों से आवृत हो गया था, जिसे कि इन्द्र ने वर्षा के द्वारा मोचन किया। वे वाल्मीक से आच्छादित हुये थे, इस कारण से उनका नाम वाल्मीकि हुआ। नारद के निर्देश से उन्होंने रामायण लिखी। रामायण भारत के आदि काव्य के रूप में प्रसिद्ध है। रामायण के समय आर्य समाज में संस्कृत के कथ्य भाषा के रूप में प्रचलित थे। रामायण में आर्य शब्द काफी प्रयोग हुआ है। सुदूर यवद्वीप1 तक में रामायण का विशेष समादर देखा जाता है। यवद्वीप की रामायण वृहद् ग्रन्थ होने पर भी उसमें काण्ड विभाग नहीं हैं। हाँ, अध्याय विभाग हैं। वाल्मीकि रामायण तीन प्रकार की है। उदीच्च, दाक्षिणात्य, गौड़ीय। उदीच्च अर्थात् उत्तर पश्चिमांचल की रामायण और दक्षिणात्य अर्थात दक्षिणात्य की रामायण। उदीच्च व दक्षिणात्य की रामायण में विषय व सर्ग में विशेष पार्थक्य नहीं देखा जाता किन्तु गौड़ीय रामायण में पार्थक्य दृष्ट होता है। रामायण की 28 टीकायें हैं। भारत की सभी भाषाओं में रामायण लिखी जा चुकी है। देशीय भाषाओं में रचित रामायणों में खृष्टीय नवम शताब्दी में रचित कम्बल की तमिल रामायण, 15वीं शताब्दी में रचित कृत्तिवास की बंगला रामायण, 17वीं शताब्दी में रचित तुलसीदास कृत हिन्दी रामायण प्रसिद्ध हैं। पाश्चात्य देशों में सबसे पहले इटली भाषा में रामायण की रचना की बात सुनी जाती है। वाल्मीकि रामायण सात काण्डों में लिखी गई है, जैसे –
आदि काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्कंधा काण्ड, सुन्दर काण्ड, लंका काण्ड एवं उत्तर काण्ड। रामायण एक बहुत बड़ा ग्रन्थ है। सभी सनातक धर्मावलम्बी ही रामायण से अच्छी तरह परिचित हैं। इसलिये रामायण में लिखित रामचरित्र को यहां पर विस्तृत भाव से लिखने की जरूरत नहीं है। सात काण्डों की संक्षिप्त सार कथा नीचे उद्धृत हुई है।
आदि काण्डः
नारद द्वारा रामचरित वर्णन, वाल्मीकि द्वारा रामायण की रचना, कुशलीव का रामायण गान, दशरथ द्वारा ऋष्यश्रृंग मुनि को निमन्त्रण, नारायण द्वारा दशरथ का पुत्रत्व ग्रहण स्वीकार, बाली-सुग्रीव, हनुमान, वानरों की उत्पत्ति, राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न का जन्म, राक्षसों के ताड़न के लिए विश्वामित्र का अयोध्या में आगमन, विश्वामित्र को दशरथ द्वारा राम और लक्ष्मण को देने में पहले अस्वीकृति व बाद में स्वीकृति, ताड़का और मारीच का जन्म-विवरण, राम द्वारा ताड़का वध, कुश वंश का विवरण, विश्वामित्र द्वारा गंगा की उत्पत्ति का विवरण, सगर राजा को 60 हजार पुत्रों की प्राप्ति, कपिल मुनि के हुंकार से सागर वंश ध्वंस, भागीरथ की गंगा का पाताल में गमन और सगर पुत्रों का उद्धार, इन्द्र द्वारा दिति गर्भच्छेद, अहिल्या और इन्द्र के शाप का विवरण, अहिल्या का शाप-विमोचन, राम-लक्ष्मण का राजर्षि जनक की यज्ञभूमि में गमन, विश्वामित्र का वशिष्ठ के आश्रम में आगमन, विश्वामित्र द्वारा शबल गाय का हरण, वशिष्ठ के साथ युद्ध में विवामित्र की पराजय, विश्वामित्र की तपस्या, विश्वामित्र का ब्राह्मण्य लाभ, राजा जनक को हरधनु की प्राप्ति, रामचन्द्र द्वारा हरधनु भंग एवं सीता को पत्नी रूप में ग्रहण, रामचन्द्रादि का विवाह, परशुराम का दर्प चूर्ण, पुत्रवधू के द्वारा दशरथ का अयोध्या में प्रवेश, भारत की मातुलालय की यात्रा।
अयोध्या काण्ड:
श्रीरामचन्द्र के युवराज्यभिषेक के लिए दशरथ का संकल्प, राम और दशरथ के पास वशिष्ठ का गमन, कैकेयी और मन्थरा का कथोपकथन, कैकेयी का राम निर्वासन और भरताभिषेक के लिये वर प्रार्थना, दशरथ का विलाप, राम का पितृ सत्य पालन के लिए वन गमन का संकल्प, राम के साथ सीता और लक्ष्मण का वन गमन, राम-लक्ष्मण व सीता का बल्कल परिधान, दशरथ का विलाप, राम का निषाधराज गुहक के साथ मिलन, गुहक की अपूर्व राम भक्ति, राम का चित्रकूट और वाल्मीकि के पास गमन, सुमन्त के मुख से राम की बात सुनकर दशरथ का पुनः विलाप, कौशल्या का विलाप, दशरथ द्वारा ऋषि कुमार का वध वृतान्त वर्णन, दशरथ की मृत्यु, भरत को लाने के लिये दूत को भेजना, पिता की मृत्यु सुनकर भरत का विलाप, भरत का राज्य ग्रहण अस्वीकार, भरत का ससैन्य चित्रकूट आगमन, पिता की मृत्यु के संवाद से रामचन्द्र का विलाप, राम के प्रति जाबालि की धर्म कथा, राम की पादुका लेकर भरत का प्रत्यागमन, गुरु को राज्य भार प्रदान, भरत का नन्दीग्राम में गमन, चित्रकूट में राम और कुलपति की कथा, अत्रि मुनि का आश्रम।
अरण्य काण्ड:-
श्रीरामचन्द्र का दण्डकारण्य में प्रवेश, विराध राक्षस वध, राम को सुतीषण मुनि द्वारा इल्वलवातापि-कथा और अगस्त्य की महिमा का कीर्त्तन, श्रीरामचन्द्र का जटायु से साक्षात्कार, पंचवटी वन में राम का वास, लक्ष्मण द्वारा सूर्पनखा की नासिका काटना, खर के द्वारा भेजे 14 हजार राक्षसों का वध, दूषण, त्रिशिरा व खर तीनों राक्षसों का संहार, खर, दूषण की मृत्यु से रावण का क्रोध, मारीच के आश्रम में गमन, सीता हरण की कल्पना, मारीच के निषेध करने पर भी सूर्पनखा के परामर्श से सीता हरण का संकल्प, मारीच का स्वर्ण मृग रूप धारण कर दण्डकारण्य में गमन, मृगरूपी मारीच के वध के लिये राम की यात्रा, सीता की कटूक्ति से लक्ष्मण की यात्रा, रावण द्वारा सीता हरण, रावण और जटायु का युद्ध रावण के रथ से सीता द्वारा अलंकार फेंकना, अशोक वन में सीता को रखकर रावण का अन्तःपुर में गमन, सीता देवी के अदर्शन से रामचन्द्र का विलाप, मरते हुए जटायु के मुख से राम का सीता वृतान्त श्रवण, जटायु का शेष कृत्य समापन, राम-लक्ष्मण के द्वारा कबन्ध की दोनों भुजाओं का छेदन, राम, लक्ष्मण का पम्पा सरोवर को जाना एवं शबरी के साथ साक्षात्कार, ऋष्यमूक पर्वत पर जाने के लिए लक्ष्मण के साथ परामर्श।
किष्किन्धा काण्डः-
भिक्षुवेश में हनुमान का राम से साक्षात्कार, राम-लक्ष्मण को पीठ पर बिठाकर सुग्रीव के पास आगमन, सीता उद्धार के लिए सुग्रीव की प्रतिज्ञा एवं बाली वध की राम द्वारा प्रतिज्ञा, राम के द्वारा सप्तताल भेद, बाली के साथ युद्ध में पहली बार सुग्रीव की पराजय, दूसरी बार राम बाण से बिद्ध होकर बाली का पतन, अंगद को सुग्रीव के हाथ में देकर बाली का प्राण त्याग, तारा का खेद, सुग्रीव का राज्यभिषेक, सीता के विरह में राम का विलाप, लक्ष्मण को क्रुद्ध देखकर सुग्रीव को चिन्ता, सीता की खोज के लिए चारों तरफ दूतों को भेजना, रामचन्द्र द्वारा हनुमान को निशानी के लिये अंगूठी देना, सीता के संधान के बिना वानरो का प्रत्यागमन, हनुमान इत्यादि वानरों का मय दानव की माया से मोहित होकर बिल में तपस्विनी से साक्षात्कार, हनुमानादि का बिल से निष्क्रमण, सीता का पता न पाने पर अंगदादि का प्रायोपवेशन, सम्प्राति से सीता का सन्धान (पता) प्राप्त, समुद्र के किनारे वानरों का गमन, वानरों के स्वविक्रम प्रदर्शन के समय जम्बु वानर द्वारा हनुमान का जन्म वृतान्त कथन, हनुमान द्वारा कलेवर वृद्धि।
सुन्दर काण्डः-
महेन्द्र पर्वत के ऊपर से हनुमान का कूदना, सिंहिका का वध, हनुमान का राक्षसी रूप धारणी लंकिनी के साथ युद्ध, रावण के अन्तःपुर में हनुमान का प्रवेश, अशोक वन में हनुमान द्वारा सीता का अन्वेषण, सीता की दुरावस्था देख हनुमान को खेद, त्रिजटा राक्षसी का जन्म वृत्तांत, सीता के साथ हनुमान का साक्षात्कार, हनुमान का प्रमोद वन भन्जन, हनुमान के साथ राक्षसों का घोरतर युद्ध, हनुमान द्वारा जाम्बवान, विरुपाक्ष, अक्षय कुमार इत्यादि प्रधान-2 राक्षसों का निधन, इन्द्रजीत द्वारा हनुमान बन्धन और उन्हें राजा रावण की सभा में लाना, हनुमान का वध करने के लिये रावण की आज्ञा, रावण के प्रति विभीषण की उक्ति, हनुमान की पूंछ जला डालने के लिये रावण का आदेश, हनुमान के द्वारा लंका दहन, सीता के साथ हनुमान का दोबारा साक्षात्कार, हनुमान का गजेन्द्र पर्वत पर लौटना, सीता का संवाद मिलने पर वानरों के द्वारा आनन्द से मधुवन भंग, हनुमान द्वारा रामचन्द्र को सीता द्वारा दी गई निशानी देना।
लंका काण्डः-
हनुमान से सीता का विलाप सुनकर रामचन्द्र का विलाप, सेतु बन्धन के लिये राम का सुग्रीव को उपदेश, विभीषण की रावण को समझाने की चेष्टा, रावण की गर्वोक्ति, विभीषण द्वारा रावण का त्याग और राम के पास आगमन, रावण के द्वारा वानर सेना के बीच शुक नामक दूत का भेजना, राम का सेतु बन्धन, शुक की मुक्ति और रावण सभा की यात्रा, रावण का दोबारा चर भेजना, रावण के द्वारा राम का माया-मस्तक दिखाने पर सीता का विलाप, सरमा और सीता में वार्तालाप, रावण के प्रति माल्य वानर का हितोपदेश, रामचन्द्र का सुबेल पर्वत से लंका दर्शन, राम का ससैन्य लंका घेराव, युद्धारम्भ, इन्द्रजीत के द्वारा राम-लक्ष्मण की नागपाश से मुक्ति, धुम्राक्ष, वज्रद्रष्ट, अकम्पन और प्रहस्त के युद्ध में मारे जाने पर रावण का युद्ध, रावण के पराजित होने पर कुम्भकर्ण की निद्रा भंग, रावण के प्रति कुम्भकर्ण की भर्त्सना, कुम्भकर्ण का युद्ध, कुम्भकर्ण का सुग्रीव को लेकर लंका प्रवेश के समय सुग्रीव के द्वारा कुम्भकर्ण का नासिका छेदन, कुम्भकर्ण के द्वारा पुनराय युद्ध यात्रा, राम द्वारा कुम्भकर्ण का वध, नरान्तक, देवान्तक, महोदर, त्रिशिरा व अतिकाय राक्षसों का वध, इन्द्रजीत का युद्धागमन और जय प्राप्त, हनुमान का औषधि पर्वत लाना, वानरों द्वारा लंका दाह, अकम्पन, निकुम्भ, मकराक्ष आदि राक्षसों का वध, इन्द्रजीत द्वारा माया सीता वध, निकुम्भिला यज्ञ के लिये इन्द्रजीत का लंकापुरी में प्रवेश, हनुमान के मुख से सीता के वध की बात सुनकर राम विलाप, लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजीत वध, रावण का विलाप, रावण द्वारा लक्ष्मण को शक्तिशैल से विद्ध करना, हनुमान द्वारा गन्धमादन पर्वत लाना, लक्ष्मण शैल मोचन, राम-रावण का महायुद्ध, ब्रह्मास्त्र से राम द्वारा रावण का वध, मन्दोदरी का विलाप, विभीषण का राज्याभिषेक, हनुमान से सीता का युद्ध-जय संवाद श्रवण, सीता की अग्नि परीक्षा, श्रीरामचन्द्र का सीता देवी को ग्रहण, महादेव द्वारा लाये गये दशरथ के साथ रामचन्द्र का कथोपकथन, देवराज इन्द्र के अमृत सिंचन से वानर सेना को पुनर्जीवन की प्राप्ति, पुष्पक विमान में चढ़कर रामचन्द्र की अयोध्या यात्रा, भारद्वाज और गुह्यक इत्यादि के साथ पुनः साक्षात्कार।
उत्तर काण्डः-
श्रीराम का राज्याभिषेक, कुबेर का जन्म एवं लंका में वास, अगस्त्य मुनि के द्वारा राक्षसों की उत्पत्ति का विवरण, देवताओं का महादेव के पास गमन, महादेव के आदेश से देवताओं का विष्णु के पास गमन, राक्षसों की सुरलोक में युद्ध यात्रा, सुमाली से पराजित होकर माल्य वानर का पाताल में पलायन, सुमाली की कन्या का विश्वश्रवा के पास जाना एवं उसके गर्भ से रावनादि का जन्म, रावण आदि की तपस्या, रावण के द्वारा लंका ग्रहण और राज्याभिषेक, इन्द्रजीत का जन्म, रावण का कुबेर के साथ युद्ध के लिए जाना, कुबेर की पराजय, रावण को वेदवती का अभिशाप, नारद के उपदेश से यम के साथ रावण का युद्ध, रावण का बाली के पास गमन, रावण की सूर्यलोक पर जय, मान्दाता के साथ दोस्ती, पाताल में कपिल दर्शन, रावण का लंका में प्रवेश, प्रतिशोध-संतप्ता सूर्पनखा के प्रति दण्डकारण्य जाने के लिये आदेश, मधु दैत्य से दोस्ती, इन्द्र को लेकर इन्द्रजीत का लंका में प्रवेश, इन्द्र की मुक्ति और अहिल्या का वृतान्त कथन, रावण और कार्त्तवीर्यार्जुन के युद्धादि का वर्णन, बाली के साथ रावण की मैत्री, हनुमान का जन्म वृतान्त, बाली और सुग्रीवका जन्म वृतान्त, रावण का श्वेतद्वीप में गमन, वानर और राक्षसों का स्व-स्वस्थानों में गमन, सीता और राम का अशोक वन में विहार वर्णन, सीता का अपवाद सुनकर सीता वर्जनार्थ लक्ष्मण को राम का आदेश, वाल्मीकि के तपोवन में लक्ष्मण द्वारा सीता वर्जन, राम के पास लक्ष्मण का आगमन, राम द्वारा लक्ष्मण को निमि-वशिष्ठ वृतान्त कथन, ययाति का उपाख्यान, श्रीरामचन्द्र का शत्रुघ्न को लवण को मारने का आदेश, वाल्मीकि के आश्रम में लव और कुश का जन्म, मान्धाता का उपाख्यान, शत्रुघ्न द्वारा लवण का वध और मथुरा राज्य स्थापन, राम द्वारा तपस्या में रत शूद्र शम्बूक का सिर छेदन, वृत्र वध और इन्द्र के अश्वमेध यज्ञ का वर्णन, राम का नैमिषारण्य में गमन, रामयज्ञ में वाल्मीकि का सशिष्य आगमन और सीता का पाताल प्रवेश, कौशल्यादि का देह त्याग, अंगद और चन्द्रकेतु का राज्याभिषेक, राम के पास तापस रूप काल का आगमन, दुर्वासा का आगमन, राम का लक्ष्मण वर्जन, लव-कुश का राज्याभिषेक, वानर, राक्षस और पौरादि के साथ श्रीरामचन्द्र का सरयु प्रवेश, रामायण माहात्म्य, श्रीमद्भागवत के नवम स्कन्ध में रामचन्द्र का जो वंश विवरण दिया गया है उससे जाना जाता है कि श्रीरामचन्द्र का आविर्भाव सूर्यवंश में है।
वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु, सूर्यवंश के आदि हैं। इक्ष्वाकु से क्रमशः मान्धाता, त्रिशंकु पुत्र हरिश्चन्द्र, हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित, उसके पश्चात महाराजा सगर, असमंजस, अंशुमान, दिलीप, भागीरथ, उसके वंश में अश्मक व बालिक आदि राजा हुए। परशुराम द्वारा पृथ्वी को निःक्षत्रिय करते समय स्त्रियों से घिरे रहने के कारण बालिक राजा परशुराम के कोप से बच गये थे, इसलिये इनका एक नाम ‘नारीकवच’ हुआ। क्षत्रिय वंश के मूल होने के कारण ये ‘मूलक’ नाम से प्रसिद्ध हुये। बालिक की परम्परा में चक्रवर्ती महाराजा खट्वांग का आविर्भाव हुआ। खट्वांग से दीर्घबाहु, रघु, अज तथा अज के पुत्र महाराजा दशरथ हुए।
खट्वांगादीर्घबाहुश्च रघुस्त मात् पृथुश्रवाः।
अजस्ततो महाराजस्तउमाद्दशरथोऽभवत्।।
(भा. 9/10/9)
देवताओं की प्रार्थना से भगवान श्रीहरि ने स्वीय अंशावतारों के साथ राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न- इन चार मूर्तियों के दशरथ महाराज का पुत्रत्व स्वीकार किया। वाल्मीकि रामायण के वर्णनानुयायी सुमन्त्र के परामर्श से दशरथ ने तेजस्वी ऋष्य शृंग के द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करा के उपरोक्त चतुर्रूपों से भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त किया था। यज्ञावशेष चय भक्षण का प्रधना महिषी कौशल्या देवी गर्भवती हुई तो उन्हें अवलम्बन करके प्रणर्वसु नक्षत्र, कर्कट लग्न में चैत्रमास की शुक्ला नवमी तिथि को भगवान श्रीरामचन्द्र आविर्भूत हुए। पुष्या नक्षत्र, मीन लग्न में कैकेयी के गर्भ से भरत एवं अश्लेष नक्षत्र, कर्कट लग्न में सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का आविर्भाव हुआ।
श्रीरामचन्द्र के चरणकमलों के स्पर्श से अहिल्या अभिशाप से मुक्त हुई थी। महर्षि गौतम अहिल्या के पति थे। देवराज इन्द्र के गौतम रूप धारण कर अहिल्या का धर्म नष्ट करने पर गौतम ने रुष्ट होकर अहिल्या और इन्द्र को अभिशाप दिया था। गौतम के अभिशाप से अहिल्या बहुत वर्षों तक हवा भक्षण कर पत्थर के समान रही थी। बहुत समय से अभिशप्त अहिल्या श्रीरामचन्द्र के पदस्पर्श से मुक्त होकर अपने पति गौतम के साथ मिली थी।
श्रीरामचन्द्र की लीला में नीति की मर्यादा-प्रदान ने प्रधानता प्राप्त की है। उनकी लीला अत्यन्त करुणरसोद्वीपक है। श्रीरामचन्द्र की कृपा होने से हमारी दुर्नीति और अधर्म से रक्षा हो सकती है। स्वयं भगवान श्रीमन् महाप्रभु ने शिक्षा देने के लिये स्वयं राम के पास इस प्रकार प्रार्थना की थी – ‘राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम्।’ भगवान श्रीरामचन्द्र ने गुरु ग्रहण की आवश्यकता और गुरु सेवा का आदर्श, मातृ-पितृ भक्ति, भ्राता का कर्त्तव्य, स्त्री का कर्त्तव्य, धर्म और नीति की रक्षा के लिये सुदुस्त्यज्य राज्यसम्पद त्याग व सर्वोत्तमा स्त्री के त्याग का प्रदर्शन किया। उन्होंने सब प्रकार के कष्टों को वरण कर वन में प्रविष्ट होकर अनाहार व अनिद्रा में समययापन किया। अतिकोमल पदों से कांटे वाले वनों के रास्तों में विचरण किया। भक्तवात्सल्य के कारण गुह्यक-चाण्डाल के प्रति कृपा की। शरणागत रक्षक के रूप में विभीषण को आश्रयदान2 किया। स्त्रैण पुरुष (स्त्री में आसक्त) की किस प्रकार से दुर्गति होती है उसका प्रदर्शन व वेष को ही जो साधु समझते हैं वे वंचित होंगे और दुर्गति को प्राप्त होंगे, ये दिखाया। रावण, कुम्भकर्णादि राक्षसों के वध के द्वारा जीवों के अन्तःकरणस्थ राक्षस वृत्ति का नाश व प्रजा रंजन के लिये एवं प्रजा की शिक्षा के लिये सीता की अग्नि परीक्षा और वनवास के रूप में स्वयं कष्टाचरण किया। तामसिक वृत्ति के लिये तपस्या निषेध है, कारण उसके द्वारा जगत में अनर्थ उत्पन्न होता है – यह शिक्षा देने के लिये उन्होंने तपस्या में रत शूद्र शम्बूक का वध किया था। इन सभी शिक्षणीय विषयों को स्वयं आचरण करके उन्होंने यह शिक्षा प्रदान की। श्रीमद्भागवत के नवम स्कन्ध में शुकदेव गोस्वामी ने भगवान श्रीरामचन्द्र के संक्षिप्त रूप से जीवन चरित्र के वर्णन के द्वारा मुख्य विषयों का निर्देश किया है। भागवत में इस प्रसंग के वर्णन में लिखा है कि श्रीरामचन्द्र की लीला बाल-हाथी की भांति अद्भुत है। उन्होंने सीता स्वयम्बर में वीरों के बीच में 300 वाहकों के द्वारा लाये गये अत्यन्त भारी शिव धनुष को खेल ही खेल में उठाकर उसमें ज्या आरोपित करके सबके मध्य तोड़ डाला था।
उन्होंने राजर्षि जनक के हर धनु को तोड़कर उनकी अयोनिसम्भवा कन्या (उनके निजानुरूप गुणों व स्वभावविशिष्टा स्वरूपिणी) सीता देवी को स्वयम्बर में जय करके प्राप्त किया था। वापस लौटते समय उन्होंने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रिय शून्य करने वाले परशुराम के बढ़े हुये घमंड को चूर्ण किया था। रामायण में वर्णन के अनुसार मिथिला में सीता के साथ राम के विवाह के समय महाराज दशरथ अपने अन्य पुत्रों व अमात्य ऋषि वृन्दों के साथ आये थे। वहीं पर लक्ष्मण के साथ मिथिलापति शीशध्वज जनक की कन्या उर्मिला, भरत व शत्रुघ्न के साथ कुशध्वज की दो कन्याओं माण्डवी और श्रुतकीर्ति का विवाह हुआ। स्त्रैण पुरुष की गति किस प्रकार की होती है – उसे दिखाने के लिये श्रीरामचन्द्र सुवर्ण हिरण के पीछे धावित हुए थे। रावण के द्वारा भेजे मारीच ने सुवर्ण हिरण का रूप धारण किया था। श्रीरामचन्द्र की अनुपस्थिति का सुयोग मिलने पर रावण के द्वारा सीता का हरण करने पर श्रीरामचन्द्र ने प्रिया के विरह में कातर होकर स्त्री-संगियों की दुःखमयी गति को दर्शाते हुए लक्ष्मण के साथ वन-वन में विचरण किया था।
इसी प्रसंग में श्रील कविराज गोस्वामी की चैतन्य चरितामृत में लिखित दक्षिण के राम भक्त का दृष्टांत आलोचनीय है। तमोगुण सम्पन्न रावण, निर्गुण ब्रह्म रामचन्द्र की निर्गुणा शक्ति सीता देवी को हरण कर ले गया था – रामायण में ऐसा उल्लिखित होने से उस रामभक्त विप्र ने अत्यन्त दुःखी होकर आहार परित्याग कर दिया था। श्रीमन् महाप्रभु ने उसको समझाया कि तामसिक रावण ने निर्गुणा सीता देवी को जब देखा ही नहीं तो हरण कैसे करता? रावण ने माया सीता अर्थात छाया सीता का हरण किया था। वेदव्यास मुनि रचित कूर्म पुराण में माया सीता के हरण की कथा ही उल्लिखित हुई है।
रामलीला में भरत के चरित्र का अद्भुत वैशिष्ट्य देखा जाता है। परब्रह्म श्रीरामचन्द्र की सेवा में बाधा प्रदान करने पर उसने अपनी जननी तक का परित्याग कर दिया था।
गुरुर्न स स्यात् स्वजनो न स स्यात्
पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात्।
दैवं न तत् स्यान्न पतिश्च स स्यान्न
मोचयेद् यः समुपेत मृत्युम्।।
(भा. 5/5/18)3
रावणादि का निधन करने के पश्चात् वनवास व्रत के समापन पर जब श्रीरामचन्द्र ने पुष्पक रथ में सीता देवी, हनुमान, सुग्रीव और लक्ष्मण के साथ अयोध्या में प्रत्यागमन किया था तब प्रजा और ब्रह्मादि देवता यद्यपि आनन्दित हुए परन्तु भ्राता भरत को वल्कल परिधानयुक्त, गोमूत्र में पका यवान्न भोजन, कुशाशायी और जटाधारी अवस्था में सुनकर श्रीरामचन्द्र अनुतप्त हुए। श्रीरामचन्द्र के अयोध्या में प्रत्यागमन करने पर भरत अपने मस्तक के ऊपर रामचन्द्र की पादुका धारण करके पुरवासियों, अमात्य पुरोहित और गीतवाद्य आदि के साथ नन्दीग्राम से बाहर आये और
श्रीरामचन्द्र के पादपद्मों में गिर पड़े। प्रेम में उनके नयन आद्रीभूत हो गये थे। भरत का क्या अद्भुत चरित्र है? आजकल के मनुष्यों का इस प्रकार के आदर्श के विषय में सोचना भी असम्भव है। वर्तमान अवस्था में शासन विभाग के व्यक्ति अपनी गद्दी को बचाने के लिये कोई भी घृणित कार्य करने में पीछे नहीं रहते हैं। गद्दी का मोह जहां पर अधिक होगा वहां पर सुशासन नहीं हो सकता। श्रीरामचन्द्र व भरत के चरित्र से हम सीख सकते हैं कि शासकों का चरित्र किस प्रकार का होना उचित है।
बहुत समय के पश्चात अपने प्रिय अधिपति श्रीरामचन्द्र को देखकर उन्होंने मालाओं की वर्षा की और आनन्द से नृत्य करने लगे। उस समय भरत ने पादुका पकड़ी हुई थी। जबकि सुग्रीव और विभीषण ने चामर और उत्कृष्ट व्यंजन, हनुमान ने श्वेत छत्र, शत्रुघ्न ने धनुष और तुणीर, सीता देवी ने तीर्थोदक पूर्ण कमण्डलु, अंगद ने एवं जाम्बवान ने सुवर्ण कवच धारण कर रखा था।
अयोध्या में गुप्त वेश में भ्रमण करते समय श्रीरामचन्द्र को प्रजा के किसी एक व्यक्ति से सीता देवी के चरित्र के प्रति कटाक्षोक्ति सुनने को मिली। साथ-साथ उन्होंने सीता देवी को गर्भवती अवस्था में ही त्याग कर दिया। प्रजागणों की शिक्षा के लिये क्या अद्भुत आदर्श और त्याग प्रवृत्ति है ये?
इति लोकाद् बहुमुखाद् दुराराध्याद संविदः।
पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम्।।
(भा. 9/11/10)
अज्ञदुष्ट स्वभाव सम्पन्न व्यक्तियों की नाना प्रकार की बातों से भयभीत होकर श्रीरामचन्द्र ने गर्भवती पत्नी सीता देवी का परित्याग किया। सीता देवी राम द्वारा परित्यक्त होकर वाल्मीकि के आश्रम में चली गई।
यहां तक कि श्रीरामचन्द्र ने धर्म की मर्यादा की रक्षा के लिये अपने प्राणों से अधिक प्रिय भ्राता लक्ष्मण का भी परित्याग कर दिया।
घटना कुछ इस प्रकार है कि एक बार ब्रह्मा ने तापस रूपी काल को दूत के रूप में श्रीरामचन्द्र के पास भेजा। दूत ने ब्रह्मा के वक्तव्य को सुनाने से पहले श्रीरामचन्द्र के आगे एक शर्त रखी कि मैं इस वक्तव्य को, तब आपको सुनाऊँगा, जब आप मुझे ये वचन दें कि कोई भी मेरी कही बात को सुन न पाये। यदि कोई भी हमारी इस गोपनीय कथा वार्ता को देख ले या सुन ले तो आप उसे मार डालेंगे। श्रीरामचन्द्र ने उसकी शर्तों को स्वीकार कर लिया परन्तु जब दूत की और श्रीरामचन्द्र की गोपनीय वार्ता चल रही थी तो उसी समय श्रीरामचन्द्र से मिलने के लिए ऋषि दुर्वासा पधारे। लक्ष्मण जी, जो गोपनीय वार्ता के समय द्वार रक्षक के रूप में नियुक्त थे, ऋषि दुर्वासा की क्रोध मूर्ति देखकर भयभीत हो गये व उनको अन्दर जाने की अनुमति लेने के लिये श्रीरामचन्द्र के पास चले आये। तभी वशिष्ट के निर्देशानुसार श्रीरामचन्द्र ने अपने वचन की रक्षा करने के लिए अपने प्राण प्रिय लक्ष्मण को वर्जन कर दिया।
लक्ष्मण का यह दिखाना की बड़ा भाई पिता के समान पूज्य होता है एवं अपने इष्ट श्रीरामचन्द्र की सेवा के लिये समस्त सांसारिक सुखों को त्याग करके उनका श्रीरामचन्द्र के साथ वन-वन में रहकर चौदह वर्ष तक सेवा करना – सभी आदर्शनीय है। लक्ष्मण के लिये वनवास का आदेश न होने पर भी वे ज्येष्ठ भ्राता की सेवा के लिये उनके पीछे-पीछे चल दिये थे। लक्ष्मण अपने आलौकिक बल से रावण पुत्र, इन्द्र विजयी मेघनाथ का विभीषण की सहायता से निकुम्भिला के यज्ञा में विघ्न डाल कर वध करने में समर्थ हुए थे। इन्द्रजीत को इस प्रकार का वर प्राप्त था कि जो 14 वर्ष तक अनाहार रह सकेगा व जितेन्द्रिय होगा, वह ही इन्द्रजीत का वध करने में समर्थ होगा। लक्ष्मण ने चौदह वर्ष वनवास के समय आहार नहीं किया था एवं उन्होंने जितेन्द्रिय की लीला भी की थी। श्रीरामचन्द्र और सीता देवी के पास सर्वक्षण अवस्थान कर सेवा करते हुए भी उन्होंने कभी भी सीता देवी के पादपद्मों के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा था।
श्रीराम शक्ति सीता देवी ने भी श्रीरामचन्द्र के बार-बार मना करने पर भी पति की सेवा के लिये समस्त सुख स्वाछन्द्य का परित्याग करके, सती स्त्री के कर्त्तव्यों को निर्धारण करते हुए पति के अनुगमन का आदर्श दिखाया। भगवान श्रीरामचन्द्र सीता देवी के विशुद्ध प्रेम से सर्वापेक्षा अधिक वशीभूत थे किन्तु प्रजारंजन रूपी राजा के धर्म की शिक्षा देने के लिये उन्होंने अपने को कष्ट देकर भी निजाभिन्न सीता देवी की अग्नि परीक्षा व उन्हें वनवास दिया था।
जिस समय वशिष्ठादि मुनियों के पुरोहित्य में अश्वमेध यज्ञ की व्यवस्था हुई थी; उस समय जो यज्ञ करेगा उसकी स्त्री को पहले दीक्षित होना होता है, इस प्रकार का नियम होने के कारण श्रीरामचन्द्र से दोबारा विवाह करने का प्रस्ताव रखा गया था किन्तु श्रीरामचन्द्र ने उसे अस्वीकार कर दिया और सीता की सुवर्ण की प्रतिमा निर्माण करवा कर वे यज्ञ में सस्त्रीक दीक्षित हुये थे। सीता के सर्वोत्तम सतीत्व और प्रेम का इसकी अपेक्षा श्रेष्ठ निदर्शन और क्या हो सकता है? तथापि, प्रजा के सन्देह को दूर करने के लिए उन्होंने नैमिष क्षेत्र में गोमती के किनारे अनुष्ठित यज्ञ में ऋषि-मुनि व सभी राजाओं को यहां तक कि वानरों के साथ सुग्रीव को, राक्षसों के साथ विभीषण तक को निमन्त्रित किया थ। महर्षि वाल्मीकि भी लव और कुश के साथ उस यज्ञस्थली पर उपस्थित हुये थे। लव और कुश वे वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का गान सुनकर श्रीरामचन्द्र को यह विश्वास हुआ कि ये उनके ही पुत्र हैं।
श्रीरामचन्द्र ने वाल्मीकि मुनि की आज्ञा से दूतों के द्वारा सीता देवी को सबके सन्मुख अपनी पवित्रता को प्रमाणित करने के लिये यज्ञस्थली पर बुलवाया। सीता देवी ने देखा कि दो बार की परीक्षा से भी सबका सन्देह दूर नहीं हुआ है। इसलिये इस बार वह यह संकल्प लेकर आयी कि अब की बार वे रसातल में प्रविष्ट हो जाएंगी। अतः धरित्री देवी को उद्देश्य करके वह बोलीं – ”हे देवी! यदि मैं राघव को छोड़कर किसी की भी मन-मन में चिन्ता नहीं करती, तो तुम दो भाग हो जाओ और मेरे को आश्रय दो, यदि मैं सर्वेन्द्रियों से श्रीराम की अर्चना करती रहती हूं, राम से भिन्न किसी को नहीं जानती – यह बात यदि सत्य हो तो हे देवी! तुम दो भाग हो जाओ, मेरे को आश्रय दो।“
सबने स्तम्भित होकर देखा कि पृथ्वी के बीच से एक दिव्य सिंहासन ऊपर उठा, सीता देवी के उस पर बैठते ही वह रसातल में प्रविष्ट हो गया। सीता के रसातल में प्रविष्ट होने पर सबने ‘धन्य’ ‘धन्य’ इस प्रकार उच्च प्रशंसा की। श्रीरामचन्द्र ने यज्ञ दण्ड पर भार देकर नीचे मुख करके सीता के विरह में बहुत क्षण तक रोदन किया।
रामायण में रामदासों के बीच में हनुमान की ईष्ट-निष्ठा का आदर्शनीय स्थान है। श्रीमन् महाप्रभु की लीला की पुष्टि के लिये हनुमान मुरारि गुप्त के रूप से प्रकट हुये थे। श्रीमन् महाप्रभु ने मुरारि गुप्त के माध्यम से ईष्ट-निष्ठा की सर्वश्रेष्ठता और महत्ता के विषय में शिक्षा प्रदान की। श्रीमन् महाप्रभु द्वारा मुरारि गुप्त को यह समझाने पर कि नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की आराधना ही सर्वोत्तम है। महाप्रभु से सब तत्व सुनने के बाद उसने महाप्रभु को वचन दिया कि अब वह आगे से श्रीकृष्ण की आराधना करेगा; परन्तु महाप्रभु को वचन देने पर भी अंत तक वह अपने वचन की रक्षा नहीं कर पाये। मुरारि गुप्त ने महाप्रभु के पादपद्मों में गिर कर क्रन्दन करते हुए कहा –
रघुनाथेर पाय मुनि वेचियाछों4 माथा।
काड़िते ना पारि माथा, मने पाई व्यघा।।
श्रीरघुनाथ चरण छाड़ानो ना याय।
तव आज्ञा भंग हय, कि करि उपाय।।
ता’ते मोरे एइ कृपा कर दयामय;
तोमार आगे मृत्यु हउक, जाउक संशय।।
(चै.च.म. 15/149-151)
महाप्रभु ने मुरारि गुप्त को आश्वस्त करते हुए और प्रशंसा करते हुए कहा –
एइमत तोमार निष्ठा जानिबार तरे।
तोमार आग्रह आमि कैलु बारे-बारे।
साक्षात हनुमान तुमि श्रीराम किंकर।
तुनि केने छाड़िबे तॉर चरणकमल।।
(चै.च.म. 15/155-156)
भगवान श्रीरामचन्द्र ने अपने दास हनुमान की महिमा महर्षि अगस्त्य ऋषि को बोलते हुये इस प्रकार कहा था – ”बाली और रावण का बल अतुलनीय होने पर भी हनुमान के समान नहीं था।“ शौर्य, वीर्य, धैर्य, बुद्धि, नीतिज्ञान इत्यादि सभी गुणें से हनुमान गुणान्वित हैं। सागर लंघन, सीता का संवाद लाना, राक्षस वध, लंका दाह इत्यादि हनुमान ने अकेले ही किये। यम, इन्द्र, कुबेर को भी इस प्रकार की कीर्ति सुनी नहीं जाती है।
हनुमान के बाहुबल से ही मैंने लंका जय प्राप्त की, सीता का उद्धार किया एवं शक्ति शैल में पतित लक्ष्मण को पुनः जीवन प्राप्त देखा है।
यदि प्रश्न उठता है कि हनुमान इतने ही बलिष्ठ थे तो बाली-सुग्रीव के विरोध काल में उन्होंने बाली का वध क्यों नहीं किया? उसके उत्तर में अगस्त्य मुनि ने कहा कि वायु के औरस और अन्जना के गर्भ से हनुमान का जन्म हुआ। संतान प्रसव के पश्चात अन्जना फल लेने वन में गयी तो शिशु हनुमान क्षुधा से कातर हो गये। जवा के पुष्प के समान रक्त वर्ण सूर्य को देखकर उन्होंने उसे फल समझ कर खाने के लिये छलांग लगाई। पुत्र की सूर्य के ताप से रक्षा करने के लिये पवन सुशीतल होकर बहने लगी, शिशु हनुमान के सूर्य के पास पहुंचने पर भी इसके द्वारा कोई महान कार्य होगा, सोचकर सूर्य ने उसको दग्ध नहीं किया। उसी दिन राहु, सूर्य को ग्रास करने के लिये गया था। हनुमान, राहु को देखकर उसे भी खाने के लिये गये। राहु भय से भग कर इन्द्र के पास पहुंचा और प्रार्थना की कि वह सूर्य को ग्रास करने गया था और वहां देखा एक और राहु उस पर आक्रमण कर रहा है। इन्द्र ने राहु को आश्वस्त कर आगे भेज दिया और स्वयं बाद में अपने ऐरावत पर चढ़ कर सूर्य के पास आये। हनुमान द्वारा पुनराय राहु को देख फल समझ कर पकड़ने के लिये जाने पर राहु आर्तनाद कर उठा। साथ ही साथ इन्द्र ऐरावत को लेकर आये। ऐरावत को प्रकाण्ड फल समझ कर हनुमान उसको भी पकड़ने के लिये गये। इन्द्र ने तब और उपाय न देखकर वज्राघात किया। वामहनु भंग होने के कारण हनुमान पर्वत पर जा गिरे। शिशु पुत्र की इस प्रकार अवस्था देखकर वायु, पुत्र को लेकर एक गुफा में प्रवेश कर गये। वायु के अन्तर्ध्यान होने से सभी प्राणियों का निःश्वास प्रश्वास व मलमूत्र बन्द हो गया और सभी के सभी काष्ठ के समान हो गये। देवासुर अपने प्राणों की रक्षा के लिए ब्रह्मा के शरणापन्न हुये। ब्रह्मा ने वायु की गोद में कांचन वर्ण शिशु को देखकर करुणा और स्नेह परवश होकर बालक को स्पर्श किया कि तभी हनुमान ने पुनः जीवन प्राप्त किया। तत्पश्चात् वायु संतुष्ट होकर बहने लगी। ब्रह्मा ने देवताओं को कहा – इस शिशु के द्वारा कोई महत् कार्य होगा, तुम इसको वर दो। तब इन्द्र ने इस प्रकार वर दिया कि वज्राघात से भी हनुमान की मृत्यु नहीं होगी। वज्र के द्वारा इसका हनु टूट गया है, इसलिये इसका नाम होगा हनुमान। सूर्य ने अपने तेज के शत भागों में से एक भाग हनुमान को दिया एवं इस प्रकार वर दिया कि हनुमान शास्त्रज्ञानी और वाग्मी होंगे। वरुण, यम, कुबेर इत्यादि सब ने ही हनुमान को वर दिया। ब्रह्मा वायु को आश्वासन देते हुए बोले – हनुमान, मित्रों के लिये अभय प्रद, अमित्रों के लिये भय प्रद, अजेय, अव्याहत गति और कीर्तिमान होगा।
वर प्राप्ति से बलशाली होकर हनुमान शैशव काल में चंचलता वश ऋषियों के आश्रम में उपद्रव करने लगे तब ऋषियों ने उन्हें संयत करने के लिये इस प्रकार अभिशाप दिया कि दीर्घकाल तक वह अपनी शक्ति आप ही नहीं जान पाएंगे। किसी के जता देने पर तब वह अपना बल जान पाएंगे। उसके बाद से हनुमान शांत होकर विचरण करने लगे। उत्तर, पश्चिम भारत में हनुमान का प्रभाव दृष्ट होता है। उक्त आंचल में प्रायः सभी सनातन धर्मावलम्बी हनुमान की मूर्ति प्रतिष्ठा करके हनुमान की आराधना करते हैं। वे तुलसीकृत रामायण से हनुमान की महिमा विशेष रूप से पाठ करते हैं।
श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में युगावतार वर्णन के प्रसंग में कलियुग के अवतार की कथा विवृत हुई है। उसमें कलियुग के अवतारी श्रीमन् महाप्रभु की वन्दना वेदव्यास मुनि ने दो श्लोक में कीर्तन की है। यह दोनों श्लोक ही श्रीरामचन्द्र के संबंध में भी लिये जा सकते हैं।
ध्येयं सदा परिभदघ्रमभीष्टदोहं
तीर्थास्पद शिवविरिचिनुतं शण्यम्।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्।।
(भा. 11/5/33)
हे प्रणतपालक! महापुरुष! सर्वदा ध्येय निर्यातननाशन अभीष्टदाता, सब तीर्थों के आधार, शिव-विरन्चि पूजित, आश्रय-स्वरूप, सेवक-दुःखहारी, संसार समुद्र तारण – आपके पादपद्मों की मैं वन्दना करता हूं।
त्यक्त्वा सुदुस्यजसुरेप्सितराज्यलक्ष्मीं,
धर्मिष्ठ आर्यवचसा यदगादरण्यम्।
मायामृगं दयितयेप्सितमन्वघावद्,
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्।।
(भा. 11/5/34)
हे महापुरुष, धार्मिकों में श्रेष्ठ, देवताओं के वांछित, राज्य सम्पद और लक्ष्मी को परित्याग करके, आपने आर्य के वाक्य की रक्षा करने के लिए वन गमन किया था और अपने प्रिया की वांछा पूर्ति के लिए मायामृग के पीछे धावित हुए थे। मैं आपके चरण कमलों की वन्दना करता हूं।
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयं,
दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्
केशव धृत राम शरीर जय जगदीश हरे।
हे केशव! आपने राम का आकार ग्रहण करके रावण के कमनीय दश मस्तकों का छेदन कर दिक्पतियों को उपहार प्रदान किया था। हे जगदीश हरे! राम रूपी आपकी जय हो।
1 – जावा (Indonesia)
2 – सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वदा तस्मै ददाम्येतदव्रतं मम।।
(रामायण)
विभीषण के श्री रामचन्द्र जी के निकट आने पर श्री रामचन्द्र जी कहते हैं कि मेरा यह व्रत है – यदि कोई यथार्थ रूप से शरणागत होकर एक बार भी ‘मैं आपका हूं’ कह कर मुझसे अभय याचना करता है तो मैं उसे अभय प्रदान कर देता हूं।
3 – बलि महाराज ने गुरु शुक्राचार्य को, विभीषण ने अपने भाई रावण को, प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकश्यप को, भरत ने अपनी माता कैकयी को, खट्वांग राजा ने देवतागणों को, याज्ञिक ब्राह्मणियों ने अपने पति याज्ञिक ब्राह्मणों को उनकी भगवद्-विमुखता देखकर, उन्हें दुःसंग समझ कर उनका परित्याग कर दिया।
4 – श्री नाथ जानकी नाथे अभेदे पारात्मनि।
तथापि मम सर्वस्वं रामः कमललोचन।।