दशावतारों के बीच में दूसरा अवतार कूर्मावतार का है। वैसे तो लीलावतार असंख्य हैं। जिनमें से 25 लीलावतारों की बात पहले मत्स्यावतार के प्रसंग में वर्णित हुई है। यहां दोबारा उनका उल्लेख नहीं किया गया।
तत्रापि देवसम्भूत्यां वैराजस्याभवत् सुत: ।
अजितो नाम भगवानंशेन जगत: पति: ॥
पयोधिं येन निर्मथ्य सुराणां साधिता सुधा ।
भ्रममाणोऽम्भसि धृत: कूर्मरूपेण मन्दर: ॥
(श्रीमद्भागवत 8-5-9,10)
षष्ठ मन्वन्तर में बैराज के औरस एवं देवसम्भूति के गर्भ से विष्णु जी के अंश अजित भगवान आविर्भूत हुए थे। अजित भगवान ने ही क्षीर समुद्र मन्थन करवा कर देवताओं को अमृत प्रदान किया था एवं कूर्म रूप से सागर के जल में मन्दार पर्वत को पीठ पर धारण किया था। परीक्षित महाराज जी के विस्तारपूर्वक सुनने की इच्छा करने पर शुकदेव गोस्वामी जी ने जिस प्रकार वर्णन किया उसकी संक्षिप्त सार कथा इस प्रकार है:-
एक बार दुर्वासा ऋषि का देवराज इन्द्र के साथ रास्ते में साक्षात्कार हुआ। साक्षात्कार होने पर उन्होंने अपने गले की माला इन्द्र को अर्पण की किन्तु इन्द्र ने ऐश्वर्य के मद में मस्त होने के कारण माला की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उसे ऐरावत के कुंभ के ऊपर डाल दिया। माला नीचे गिर कर ऐरावत के पैर के नीचे आकर पिस गई। अपनी दी हुई माला का इस प्रकार अपमान देखकर दुर्वासा ऋषि ने कुपित होकर “श्री भ्रष्ट हो जाओ” इस प्रकार अभिशाप दे दिया। जिससे इंद्र देवताओं के साथ श्री भ्रष्ट हो गये। कुछ समय पश्चात असुरों के साथ युद्ध होने पर देवता असुरों से हार गये एवं इस युद्ध में बहुत से देवताओं की मृत्यु हो गई। अधिकांश देवता पुनः जीवन प्राप्त नहीं कर सके। देवताओं ने परस्पर आलोचना की, परन्तु प्रतिकार का कोई भी उपाय न खोज पाने के कारण वे सुमेरू पर्वत पर ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और अपनी दुरावस्था के हालात उनको बताये। ब्रह्मा जी ने देवताओं को कमजोर और असुरों को शक्तिशाली देखकर समाहित चित्त से परम पुरुष का ध्यान किया। तत्पश्चात् उन्होंने देवताओं को प्रफुल्लित होकर कहा – “परम पुरुष श्री हरि के चरणों में प्रपत्ति के द्वारा ही इस विपद से निस्तार हो सकता है।” ब्रह्मा जी ने भी देवताओं के साथ क्षीर सागर में स्थित श्वेत द्वीप में जाकर वेद-मंत्रों के द्वारा भगवान विष्णु का बहुत स्तव किया। देवताओं के स्तव से संतुष्ट होकर क्षीरोदकशायी विष्णु प्रकट हुये। किन्तु विष्णु जी के तेज के प्रभाव के कारण ब्रह्मा जी के अतिरिक्त अन्य देवता विष्णु जी को नहीं देख सके। तब ब्रह्मा जी ने महेश्वर जी के साथ पुनः स्तव किया। ब्रह्मादि देवताओं के स्तव से संतुष्ट होकर अजित भगवान ने देवताओं को शुक्राचार्य के अनुग्रह प्राप्त असुरों के साथ कुशलतापूर्वक सन्धि करने का परामर्श दिया एवं आपस में मिलकर मन्दर-पर्वत को मन्थन-दण्ड एवं वासुकी को रस्सी बनाकर अमृत उत्पादन करने के लिये, क्षीर सागर का मन्थन करने के लिये कहा। अजित भगवान ने देवताओं को यह कहा कर सावधान कर दिया कि मन्थन करने से कालकूट विष के उत्पन्न होने पर भयभीत न होना तथा मन्थन से अन्य-अन्य जो लोभनीय वस्तुयें उत्पन्न होंगी आप लोग उनके लिये लोभ मत करना व अन्य किसी के उस वस्तु को लेने पर न तो आपत्ति ही करना और न ही क्रोध प्रकाश करना।
भगवान उपदेश देकर अन्तर्हित हो गये और देवता लोग दैत्यपति बली महाराज के पास गये और उन्होंने उनसे सन्धि कर ली। तत्पश्चात् देवता और असुर मन्दर-पर्वत को लाने के लिये चल पड़े। बहुत विक्रम के साथ उन्होंने मन्दर-पर्वत को उठा तो लिया किन्तु पर्वत के भारी होने के कारण चलते-चलते वह रास्ते में गिर पड़ा। पर्वत के गिर जाने से उसके नीचे बहुत से देवताओं की एवं असुरों की मृत्यु हो गयी। उनकी इस प्रकार की दुरावस्था को देखकर गरुड़ ध्वज अजित भगवान ने करुणार्दचित्त से वहां शुभागमन किया एवं उनके प्रति अमृतमयी दृष्टि निक्षेप की। जिससे वे पुनर्जीवित हो गये। इसके बाद भगवान ने अपने हाथों से अनायास ही मन्दर-पर्वत को उठा कर गरुड़ की पीठ पर रख दिया और स्वयं भी उसकी पीठ पर बैठ गये। श्री भगवान के निर्देश से गरुड़, देवता और असुरों के साथ ही क्षीर समुद्र में आ गये एवं सागर के पास मन्दर-पर्वत को रखकर प्रस्थान कर गये।
समुद्र मन्थन से जो अमृत उत्पन्न होगा उसमें देवता और असुर दोनों का भाग होगा – इसी शर्त पर समुद्र का मन्थन करना निश्चित हुआ। सब से पहले वासुकी को रस्सी बनाकर उसे मन्दर के चारों ओर लपेटा गया, श्री हरि की कौशलता से मदोन्मन्त दैत्यों ने वासुकी के मुख की तरफ एवं देवताओं ने पीछे की तरफ से पकड़ लिया। काफी मेहनत से मन्थन का कार्य प्रारम्भ हुआ परन्तु कुछ ही समय बाद पर्वत आधार शून्य होकर समुद्र में डूब गया। देवताओं और असुरों की सारी मेहनत बेकार हो गयी। वे दुःखी हो गये। भगवान ने सभी को दुःखी व हताशावस्था में देखा, उक्त विघ्न को देखकर अनन्त शक्तिशाली अजित भगवान ने अद्भुत कछुए का शरीर धारण किया और समुद्र में प्रवेश करके मन्दर-पर्वत को ऊपर उठा दिया। कुलाचल-मन्दर-पर्वत को ऊपर उठा देख देवासुर फिर मन्थन करने में लग गये।
भगवान श्री हरि ने महाद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तृत मन्दर-पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया। श्रेष्ठ देवासुरों द्वारा घुमाये जाने वाले पर्वत को पीठ पर धारण कर असीम शक्तिमान कूर्म भगवान को पीठ पर मधुर-मधुर खुजली के आनन्द का अनुभव हुआ। उसके बाद भगवान देवता और असुरों के उत्साह को वर्धन करने के लिये स्वयं ही उनकी ताकत के रूप में उनके अन्दर और वासुकी में निद्रा के रूप से प्रविष्ट हुए। भगवान पर्वत के ऊपर, पर्वत के राजा के समान सहस्त्र भुजाएं फैलाकर एक हाथ द्वारा पर्वत को धारण करके ब्रह्मा, रुद्र व इन्द्रादि देवताओं द्वारा स्तुत होने लगे, तभी पुष्प वर्षा होने लगी।
सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् ।
दध्रे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभु: ।।
(श्रीमद्भागवत 01-3-16)
श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध में मत्स्यावतार का दशम एवं कूर्म का एकादश अवतार के रूप में उल्लेख हुआ है। एकादशावतार में विष्णु जी ने कछुए के रूप में समुद्र मन्थन में लगे देवताओं व दानवों के लिये मन्दर-पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया था-
पृष्ठे भ्राम्यदमन्दमन्दरगिरिग्रावाग्रकण्डूयना-
न्निद्रालो: कमठाकृतेर्भगवत: श्वासानिला: पान्तु व: ।
यत्संस्कारकलानुवर्तनवशाद् वेलानिभेनाम्भसां
यातायातमतन्द्रितं जलनिधेर्नाद्यापि विश्राम्यति ॥
(श्रीमद्भागवत 12-13-2)
पीठ पर घूमते भारी मन्दराचल की चट्टानों की नोकों के घर्षण से सुख मिलने के कारण सोये हुये कूर्म रूपी भगवान की श्वास वायु आप लोगों की रक्षा करें। उन श्वासों का असर लहरों के रूप में अभी तक है जो कि कभी भी नहीं रुकता।
श्री भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने इस श्लोक की व्याख्या में इस प्रकार लिखा है – “प्रापन्चिक समुद्र के तटों पर उत्ताल तरंगों का लगातार सवेग टकराना लगा रहता है। इनके घात-प्रतिघात में किसी प्रकार का विराम नहीं है। जिनके निःश्वास रूप वायु से ये थपेड़े चल रहे हैं, वही वायुशक्ति पाठकों की रक्षा करे। वेद शास्त्र, कूर्म भगवान के निःश्वास से जीवों के हृदय में सत्य की धारणा प्रदान करके उनके अज्ञान को हटा देते हैं।”
भगवद्वतार कूर्मदेव निद्रित अवस्था में परिदृष्ट होने पर उनके निःश्वास से जीव-भोग्य और जीव-त्यज्य का विचार लिया जाता है, किन्तु उन अधोक्षज कूर्म की श्वासवायु यदि कृपा करे तो वह बद्ध जीवों की भोग और त्याग से रक्षा करती है। ऐसे जो कूर्म भगवान हैं, वे अपने चिन्मय श्वासों की अचित् प्रतीति से भाग्यवन्त जीवों की रक्षा करें। अमन्दोदय मन्दराचल की चट्टान पीठ पर मथित होने से अप्राकृत खुजली का अनुभव होने से कूर्म भगवान को नींद आ गयी। आपके इस प्रकार के निद्रा सुख से जीव भय उद्वेग से मुक्त हो जाते हैं। जो भगवद्-वस्तुओं को पत्थर की तरह समझते हैं, ये जीव विषय व आश्रय के ज्ञान से दूर हट जाते हैं। वही भगवद् श्वास-वायु बद्ध जीवों की तर्क रूप खुजली से उपशान्ति विधान करे। कूर्मावतार का प्राकट्य तथा कूर्म लीला की प्रयोजनीयता बद्ध जीवों के हृदय में अनुकूल हवा के प्रभाव से जड़ योग्यता रूप खुजली से शान्ति प्रदान करे।
पुरामृतार्थ दैतेय-दानवैः सह देवताः।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा ममन्तः क्षीर सागरम्।।
मथ्यमाने तदा तस्मिम् कूर्मरूपी जनार्दनः।
व्यभार मन्दरं देवो देवानां हितकाम्ययया।।
देवाश्च तुष्टुवुर्देवं नारदाद्या मर्हषयः।
कूर्मरूपधरं दृष्टवा साक्षिणं विष्णुमव्ययम्।।
(कूर्म पुराण पूर्वभाग 11-27-29)
पूर्वकाल में देवताओं ने दानवों के साथ मिलकर अमृत के निमित्त मन्दर-पर्वत को मन्थन-दण्ड बनाकर क्षीर सागर का मन्थन किया था, उसी समुद्र मन्थन के समय कूर्म रूपी जनार्दन ने देवताओं के हित की इच्छा से मन्दर-पर्वत को धारण किया था। साक्षात अव्यय विष्णु को कूर्म रूप धारण किया देख देवता और नारदादि महर्षि लोग अति संतुष्ट हुये थे। श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में भगवान के आविर्भाव का प्रसंग वही है जो पहले वर्णन हुआ है। उसमें एक शिक्षणीय विषय है, वह यह कि जब भी देवताओं ने घमण्ड किया तभी भगवान ने उनके घमण्ड को चूर्ण कर दिया। बार-बार घमण्ड चूर्ण होने पर भी वे फिर घमण्ड करते हैं – विष्णु माया से मोहित जीवों की इसी प्रकार से ही बुद्धि विभ्रमित होती है। अन्त में भगवान ने उनमें प्रविष्ट होकर उनको शक्ति प्रदान करके मन्थन कार्य करवाया था। इसलिए ‘मैं करता हूं’, इस प्रकार का अभिमान सम्पूर्ण अज्ञानजनक है। यह सर्वथा त्यज्य हैः-
क्षितिरिह विपुलतरे निष्ठति तव पृष्ठे
धरणिधरणकिण – चक्रगरिष्ठे।
केशव धृत कूर्म शरीर जय जगदीश हरे।
(जयदेव-कृतदशावतार स्तोत्र)
यहां पर श्री जयदेव जी ने मन्दर-पर्वत के लिये क्षितिज और धरणी शब्दों का उल्लेख किया है। पृथ्वी के जीव समूह को धारण करती है और पृथ्वी को कूर्म भगवान धारण करते हैं। भगवान के अर्चन के समय अर्चनकारी कूर्मदेव का मंत्र उच्चारण करके आसन पर बैठते हैं।
आसन मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः सुतलं छन्दः।
कूर्मो देवता आसनाभिमन्त्रेण विनियोगः।।
पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वन्च धारय मां नित्यं पवित्रं आसनं कुरु।।
(हरिभक्ति विलास 5/21-22)
आसन मंत्र के लिए ऋषि, मेरु पृष्ठ, छन्दः सुतल, देवता, कूर्म आससनाभिमन्त्रेण प्रयोग किया जाता है। “हे पृथ्वी ! आपने सभी लोकों को धारण किया हुआ है। हे देवी, विष्णु ने आपको धारण किया है। अतः आप मुझे धारण कीजिये व इस आसन को पवित्र कीजिये।”