व्यूहस्तुर्योऽनिरूद्धो य: स वक्रेश्वर पण्डितः।
कृष्णावेशज नृत्येन प्रभोः सूखमजीजनत्॥
सहस्रगायकन्मह्यं देहि त्वं करुणामय।
इति चैतन्यापादे य उवाच मधुरं वचः।
स्वप्रकाश विभेदेन शशिरेखा तमाविशत्॥
(गो. ग. दी.-71)
श्रीकृष्ण लीला में चतुर्व्यूह केअन्तर्गत जो अनिरुद्ध हैं, वे ही गौरलीला में श्रीवक्रेश्वर पण्डित के रूप में आविर्भूत हुये। श्रीराधिका जी की प्रिय सखी शशिरेखा भी श्रीवक्रेश्वर पण्डित के अन्तर्प्रविष्ट हैं।
बहुत से लोगों का कहना है कि त्रिवेणी के निकट गुप्तिपाड़ा में ही श्रीवक्रेश्वर पण्डित का आविर्भिव स्थान है। श्रीवक्रेश्वर पणिडत आषाढ़ मास की कृष्णपंचमी तिथि में आविर्भूत हुए थे। श्रीवक्रेश्वर पण्डित जी ने ऐसी अलौकिक शक्ति प्रकाशित की थी कि उन्होंने चौबीस प्रहर अर्थात् तीन दिन तक एक ही भाव में नित्य कीर्त्तन किया था। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत की आदि लीला के 1 वें परिच्छेद में श्रीवक्रेश्वर पण्डित जी के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है:-
वकरेश्वर पण्डित-प्रभुर बड़ प्रियभृत्य।
एकभावे चब्बिश प्रहर याँर नृत्य॥
आपने महाप्रभु गाहेन याँर नृत्यकाले।
प्रभुर चरण धरि’ वक्रेश्वर बले॥
दशसहस्र गन्धर्व मोरे देह, चन्द्रमुख।
तारा गाय, मूञि नाचि, तबे मोर सुख॥
प्रभु बलेन,-तुमि मोर पक्ष एक शाखा।
आकाशे उड़िया जाङ, पाङआर पाखा’॥
(चै.च.आ 10/17-20)
[श्रीवक्रेश्वर पण्डित महाप्रभु के बहुत प्रिय दास हैं, जिन्होंने लगातार तीन दिन तक नृत्य किया था और जिनके नृत्य कीर्त्तन में महाप्रभु स्वयं गान गाते थे। श्रीवक्रेश्वर पण्डित महाप्रभु जी के चरणों को पकड़कर कहने लगे कि हे चन्द्रमुख प्रभु! आप मुझे दस हज़ार गन्धर्व दे दें ताकि वे गायें और मैं उनके सामने नृत्य करूँ, तभी मुझे सुख प्राप्त होगा। महाप्रभु कहने लगे कि तुम मेरे एक पंख हो, कहीं तुम्हारे जैसा दूसरा पंख मिल जाए तो मैं आकाश में उड़ जाऊँ।]
आप श्रीवास-आंगन में और श्रीचन्द्रशेखर भवन में महाप्रभु जी के संकीर्त्तन के समय नृत्य करते थे। श्रीवक्रेश्वर पण्डित श्रीमन्महाप्रभु जी के इस प्रकार प्रिय थे कि श्रीदेवानन्द पण्डित उनकी परिचर्या द्वारा ही श्रीमन्महाप्रभु जी की कृपा के भाजन हुए एवं श्रीवास पण्डित के चरणों में जो उनका अपराध हुआ था, उस अपराध से भी उन्होंने छुटकारा पाया। एक ब्राह्मण द्वारा वैष्णव अपराध के प्रायश्चित के बारे में जिज्ञासा करने पर इसके उत्तर में महाप्रभु जी ने कहा था—
शुन द्विज, विष करि ये मुखे भक्षण।
सेइ मुखे करि यबे अमृत ग्रहण॥
विष हय जीर्ण, देह हयत अमर।
अमृत-प्रभावे, एबे शुन से उत्तर॥
ना जानिया तुमि यत करिला निन्दन।
से केवल विष तुमि करिला भोजन॥
परम-अमृत एवे कृष्ण-गुण-नाम।
निरवधि सेइ मुखे कर’ तुमि पान॥
ये मुखे करिला तुमि वैष्णव निन्दन।
सेइ मुखे कर’ तुमि वैष्णव-वन्दन॥
सबा’ हैते भक्तेर महिमा बाड़ाइया।
संगीत कवित्व विप्र कर’ तुमि गिया॥
कृष्णा-यश-परानन्द-अमृते तोमार।
निन्दा-विष यत सब करिब संहार॥
एइ सत्य कहि, तोमा सबारे केवल।
ना जानिया निन्दा येवा करिल सकल॥
आर यदि निन्द्य-कर्म कभु ना आचरे।
निरन्तर विष्णु-वैष्णवेर स्तुति करे॥
एइ सकल पाप घुचे एइ से उपाय।
कोटि प्रायश्चितेओ अन्यथा नाहि याय॥
(चै.भा.अ. 3/449-458)
[हे ब्राह्मण सुनो! जिस मुख से विष का भक्षण करते हैं, उसी मुख से यदि अमृत को खाया जाये तब विष का प्रभाव दूर हो जाता है और देह अमृत के प्रभाव से अमर हो जाती है। आगे और सुनो-न जानते हुये आपने जो निन्दा की है, वह केवल आपने विष ही खाया है। कृष्ण का नाम, गुण ही परम अमृत है, अब निरन्तर उसी मुख से तुम इस अमृत को पान करो। जिस मुख से तुमने वैष्णव की निन्दा की है, उसी से तुम वैष्णव की वन्दना करो। भक्त की महिमा सबसे अधिक है। इसलिए हे विप्र! कविता द्वारा व संगीत द्वारा भक्त की महिमा का गान करो। कृष्ण का नाम, कृष्ण का यश, आपके लिये आनन्दमय व अमृत के समान हैं। जितना भी निन्दारूपी विष है, ये उस सब का नाश कर देगा। मैं आप सबसे जिन्होंने न जानते हुये वैष्णव निन्दा की है, सत्य बात कह रहा हूँ। यदि कभी और निन्दा का कर्म नहीं करोगे तथा निरन्तर विष्णु-वैष्णव की स्तुति करोगे, तो इस उपाय के द्वारा यह सब पाप दूर हो जायेंगे, जोकि करोड़ों प्रायश्चित करने से भी दूर नहीं होते। ]
“अपराधी व्यक्ति जिस मुख से वैष्णव निन्दा करता है अनुतप्त हो कर यदि उसी मुख्य से अपना अपराध स्वीकार करके वैष्णवों की वन्दना करें तो उसका मंगल होता है। जैसे विष सेवन करने से, उसकी क्रिया से शरीर जर्जर हो जाता है और पुनः विषनाशक अमृत पान करने से विष-नष्ट होने पर शरीर सबल हो जाता है, उसी प्रकार दुबारा वैष्णव निन्दा नहीं करने से, कोटि प्रायश्चित से भी जो वैष्णव निन्दाजनित पाप दूर नहीं होता वह पाप वैष्णव की स्तुति द्वारा ही दूरीभूत हो जाता है।
वैष्णव सेवा के फल से ही कुलिया के देवानन्द पण्डित का महाप्रभु के चरणों में विश्वास हुआ। श्रीवक्रेश्वर पण्डित का देवानन्द के गृह में अवस्थान करना ही देवानन्द के मंगल का कारण बना। स्मार्त्त-धर्म में प्रविष्ट होने पर भी ये देवानन्द पण्डित महाज्ञानी और जितेन्द्रिय थे। श्रीमद्भागवत को छोड़कर और कोई भी ग्रन्थ उनका पाठ्य नहीं था। वे ईश्वरनिष्ठ थे। वे इन्द्रियादियों के वशीभूत नहीं थे। किन्तु श्रीगौरसुन्दर के प्रति इनमें विश्वास का अभाव था। श्रीवक्रेश्वर के अनुग्रह से ही उनकी इस प्रकार की दुर्बुद्धि दूर हुई और भगवान में श्रद्धा हुई।”
(चै.भा.अ. 3/453-481)
वक्रेश्वर पण्डित-चैतन्य-प्रिय-पात्र।
ब्रह्माण्ड पवित्र याँ’र स्मरणेइ मात्र॥
निरवधि कृष्ण-प्रेम-विग्रह विह्णल।
याँ’र नृत्ये देवासुर-मोहित सकल॥
(चै.भा.अ 3/469-470)
[वक्रेश्वर पण्डित श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्रिय दास है। उनके स्मरण मात्र से ब्रह्माण्ड पवित्र हो जाता है। निरन्तर कृष्णा-प्रेम में वह व्याकुल रहते हैं। उनके नृत्य पर सब देवता व असुर मोहित हो जाते हैं।]
श्रीमन् महाप्रभु जी ने स्वयं देवानन्द पण्डित जी के सामने श्रीवक्रेश्वर पण्डित की महिमा का वर्णन किया है—
प्रभु बले-“तुमि ये सेविला वक्रेश्वर।
अतएव हैला तुमि आमार गोचर॥
वक्रेश्वर पण्डित-प्रभुर पूर्ण शक्ति।
सेइ कृष्णा पाय ये ताहारे करे भक्ति॥
वक्रेश्वर हृदय कृष्णेर निज-घर।
कृष्ण नृत्य करेन नाचिते वक्रेश्वर॥
ये ते स्थाने यदि वक्रेश्वर-संग हय।
सेइ स्थाने सर्वतीर्थ श्रीवैकुणठमय॥
(चै.भा.अ. 3/493-96)
[महाप्रभु जी कहने लगे। आपने जो वक्रेश्वर पण्डित की सेवा की है, उसके प्रभाव से तुम मेरी दृष्टि में आ गये हो। वक्रेश्वर पण्डित महाप्रभुजी की पूर्ण शक्ति हैं। जो उनकी भक्ति करेगा, वही कृष्ण की प्राप्ति करेगा। श्रीवक्रेश्वर का ह्रदय श्रीकृष्ण का अपना घर है। वक्रेश्वर जब नृत्य करते हैं तब श्रीकृष्ण भी आनन्द से उनके साथ नृत्य करते हैं। जिस –जिस स्थान पर वक्रेश्वर जी जाते हैं, वह स्थान सब तीर्थों का तीर्थ बन जाता है तथा वैकुण्ठमय हो जाता है।]
श्रीदेवानन्द पण्डित के अपराध के मार्जन हो जाने पर श्रीमन्महाप्रभु जी स्नेहार्द्रचित्त से देवानन्द जी को उपदेश प्रदान करते हुए बोले—अपनी विद्वता का अभिमान करने वाला व्यक्ति भागवत् के अर्थ को नहीं समझ सकता, शरणागत के ह्रदय में ही भागवत् का अर्थ प्रकाशित होता है। एकमात्र शुद्धभक्ति ही भागवत् का प्रतिपाद्य है। ग्रन्थ भागवत् को भक्त भागवत् से अभिन्न समझकर भागवत् का पाठ करने से परम मंगल की प्राप्ति होती है—
‘भागवत बुझी’ हेन या’र आछे ज्ञान।
सेइ ना जानये भागवतेर प्रमाण॥
अज्ञ हइ’ भागवते ये लय शरण।
भागवत-अर्थ ता’र हय दरशन॥
प्रेममय भागवत-श्रीकृष्णेर अंग।
ताहाते कहेन यत गोप्य-कृष्णा-रंग॥
वेद-शास्र-पुराण कहिया वेदव्यास।
तथापि चित्तेर नाहि पायेन प्रकाश॥
यखने श्रीभागवत जिह्वाय स्फुरिल।
ततक्षणे चित्तवृत्ति प्रसन्न हइल॥
(चै.भा.अ. 3/514 -18)
[जो ऐसा समझता है कि मैं भागवत् जानता हूँ, वह भागवत् के यथार्थ ज्ञान को नहीं जानता है। अपने को मुर्ख मानकर जो भागवत्-भगवान की शरण लेता है, उसी को श्रीमद्भागवत के अर्थों का दर्शन होता है। श्रीमद् भागवत् प्रेम से परिपूर्ण है।श्रीमद्भागवत के 12 सकन्ध भगवान् श्रीकृष्ण के हस्त चरण व मुखमण्डल आदि 12 अंग हैं। जो भी श्रीकृष्ण की आनन्दमई व रहस्यमई लीलायें हैं, वह इसी में ही कही गयी हैं। श्रीवेदव्यास जी ने वेद, शास्र व पुराण की रचना की, फिर भी उनके चित्त में आनन्द नहीं हुआ, परन्तु जब श्रीमद् भागवत् उनकी जिह्वा पर सफुरित्त हुआ तो उनका चित्त प्रसन्न हो गया। ]
श्रीवक्रेश्वर पण्डित जी जब पुरुषोत्तम धाम में थे, तब टोटागोपीनाथ में श्रीमन्महाप्रभु , श्रीअद्वैत आचार्य प्रभु एवं अन्यान्य पार्षदों के साथ वे भी गदाधर पण्डित जी से भागवत् श्रवण करते थे। ग्रन्थ-भागवत् भक्त-भागवत् से ही श्रवणीय है। गोपाल गुरु श्रीवक्रेश्वर पण्डित के शिष्य थे, गोपाल गुरु का पहला नाम मकरध्वज पण्डित था और इनके पिताजी का नाम श्रीमुरारी था। श्रीवक्रेश्वर पण्डित जी के शिष्य गोपाल गुरु में भी अलौकिक शक्ति के प्रकाश की बात सुनी जाती है। गोपाल गुरु ने बाल्यकाल से ही महाप्रभु जी के पास रहकर उनकी सेवा की थी। श्रीअभिराम ठाकुर जी जब उन्हें प्रणाम करने के लिए आये, तो महाप्रभु जी ने उसे अपनी गोद में बैठाकर उसकी रक्षा की थी। शिशुकाल से ही पवित्र-अपवित्र प्रत्येक अवस्था में कृष्ण नाम कीर्त्तन की शिक्षा देने के कारण उन्होंने श्रीमन्महाप्रभुजी से ‘गुरु’ की उपाधि प्राप्त की थी।
श्रीगोपाल गुरु जी ने वृद्ध होने पर अर्थात निर्याण प्राप्ति से पहले अपने शिष्य श्रीध्यानचन्द्र गोस्वामी को अपने द्वारा प्रतिष्ठित और सेवित श्रीराधाकान्त श्रीविग्रहों की सेवा समर्पण की।ऐसा कहा जाता है कि जब ध्यान चन्द्र जी व अन्यनय भक्त गोपाल गुरु जी के श्रीअंगों का दाह करने के लिए स्वर्गद्वार पर लाये तो पीछे से राजपुरुषों ने आकर राधाकान्त मठ को अपने कब्जे में कर लिया। यह सब देखकर ध्यान चन्द्र जी को रोना आ गया। ध्यानचन्द्र गोस्वामी जी द्वारा प्रबल आर्तिभाव से क्रन्दन करने पर गोपाल गुरु गोस्वामी जी श्मशान से प्रकट होकर पुनः राधाकान्त मठ में आये और सब व्यवस्था टीक कर पुनः अन्तर्ध्यान लीला में चले गये। किन्तु उसके पश्चात् भी गोपालगुरु जी को वृदावन में साक्षात् भजन करते देख भक्त लोग आश्चर्यान्वित हो गये थे। राधाकान्त मठ में अभी भी अनेक श्रीविग्रह नित्य सेवित हो रहे हैं। उड़ीसा में वक्रेश्वर पण्डित जी के शिष्य अधिकांश ही गौड़िया वैष्णव रूप में अपना परिचय प्रदान करते हैं।
पुरी में रथयात्रा के समय रथ के आगे जब सात सम्प्रदायों में कीर्त्तन होता था उनमें से चतुर्थ सम्प्रदाय के मूल कीर्तनीया गोविन्द घोष थे और नर्त्तक थे-श्रीवक्रेश्वर पण्डित। श्रीवक्रेश्वर पण्डित श्रीचैतन्यशाखा अथवा गदाधर पण्डित जी की शाखा में वर्णित होते हैं।
आषाढ़ी-शुक्ला षष्ठी तिथि को श्रीवक्रेश्वर पण्डित जी ने नित्यलीला में प्रवेश किया था।
स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से