महाभागवत श्रेष्ठ दत्त उद्धारण।
सर्वभावे सेवे नित्यानन्देर चरण॥
(चै.च.आ. 11/41)

श्रीउद्धारण दत्त श्रेष्ठ महाभागवत हैं। वे सम्पूर्ण भाव से श्रीनित्यानन्द के चरणों की सेवा करते हैं।

स्वयं भगवान् नन्दनन्दन श्रीकृष्ण, राधा का भाव व कान्ति ग्रहण करके श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में श्रीनवद्वीप धाम के अन्तर्गत श्रीमायापुर में श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर में आविर्भूत होने पर श्रीकृष्ण के पार्षदगण भी गौरलीला की पुष्टि के लिए गौरपार्षदों के रूप में अवतीर्ण हुए। उसी प्रकार श्रीकृष्ण के प्रथम प्रकाश विग्रह श्रीबलदेव गौरलीला की पुष्टि के लिए भक्त भाव को अंगीकार कर श्रीमन् नित्यानन्द के रूप में एकचक्र धाम में अवतीर्ण होने पर श्रीबलदेव के पार्षदगण श्रीनित्यानन्द के पार्षदों के रूप में अवतीर्ण हुए। शेष भगवान्, तीन पुरुषावतार व महासंकर्षण के कारण रूप में जो मूल संकर्षण श्रीबलदेव तत्त्व हैं, वे ही श्रीनित्यानन्द तत्त्व हैं। श्रीबलदेव के सख्यरस के मुख्य पार्षद द्वादश गोपालों के नाम से प्रसिद्ध हैं।

सुबाहु र्यो ब्रजे गोपो दत्त उद्धारणाख्यकः
(गौ. ग. दी. 129)

श्रील उद्धारण दत्त ठाकुर उक्त द्वादश गोपालों में से एक सुबाहु नामक सखा हैं। श्रीनित्यानन्द प्रभु की लीला पुष्टि के लिए वे हुगली ज़िला के अन्तर्गत त्रिशविघा स्टेशन के निकट सप्तग्राम में 1403 शकाब्द (सन् 1481) में पिता श्रीकर और माता श्रीमती भद्रावती को अवलम्बन करके सुनार कुल में अवतीर्ण हुए। वैष्णव जिस भी कुल में आविर्भूत होते हैं उनसे वह कुल पवित्र हो जाता है, पृथ्वी धन्य हो जाती है और जननी कृतार्थ हो जाती है।

श्रील उद्धारण दत्त ठाकुर के आविर्भाव से सुनार कुल पवित्र हुआ। इस प्रकार की बात श्रीचैतन्य लीला के व्यास श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने श्रीचैतन्य भागवत के पंचम अध्याय में लिखी है—

कतदिन थाकि’ नित्यानन्द खड़देहे।
सप्तग्राम आइलेन सर्वगणसहे॥
उद्धारणदत्त भाग्यवन्तेर मन्दिरे।
रहिलेन तथा प्रभुवर त्रिवेणीर तीरे॥
कायमनोवाक्ये नित्यानन्देर चरण।
भजिलेन अकैतवे दत्त उद्धारण॥
जतेक वणिककुल उद्धारण हैते।
पवित्र हइल द्विधा नाहिक इहाते॥
(चै.भा.अ. 5/443,449-450,453)

श्रीनित्यानन्द खड़दह में कुछ दिन ठहरकर अपने सब भक्तों के साथ सप्तग्राम में आ गये। वहाँ त्रिवेणी के तीर पर भाग्यवान श्रीउद्धारण दत्त के घर में ठहरे। श्रीउद्धारण दत्त ने शरीर, मन व वाणी से श्रीनित्यानन्द के चरणों की निष्कपट सेवा की। सेवा से श्रीउद्धारण से सम्बन्धित जितना भी वणिककुल था वह सारा पवित्र हो गया, इस में कोई संशय नहीं है।

जातिकुल सब निरर्थक’ जानाइते।
जन्माइलेन हरिदासे म्लेच्छकुलेते॥

जातिकुल आदि सब को निरर्थक बतलाते हुए भगवान ने श्रीहरिदास को म्लेच्छ कुल में जन्म दिलाया।

भगवान के भक्त किसी भी कुल में आ सकते हैं, श्रीचैतन्य महाप्रभु और श्रीनित्यानन्द प्रभु ने यह शिक्षा देने के लिए ही भगवद् पार्षदों को नीच कुल में आविर्भूत कराया—

नीच जाति नहे कृष्ण भजने अयोग्य।
सत्कुल विप्र नहे भजनेर योग्य॥
जेई भजे सेइ बड़, अभक्तहीन छार।
कृष्णभजने नाहि जातिकुलादि विचार॥
(चै.च.अ. 4/66-67)

अर्थात नीच जाति श्रीकृष्ण भजन के अयोग्य नहीं है तथा सत् कुल वाला विप्र भी भजन के योग्य नहीं है। जो श्रीकृष्ण का भजन करेगा, वही बड़ा होगा। अभक्त तो हीन है, घृणित है। श्रीकृष्ण भजन में जाति कुल आदि का कोई विचार नहीं है—

अर्च्ये विष्णौ शिलाधीर्गुरुषु नरमतिर्वैष्णवे जातिबुद्धि-
विर्ष्णोर्वा वैष्णवानां कलिमलमथने पादतीर्थेऽम्बुबुद्धिः।
श्रीविष्णोर्नाम्नि मन्त्रे सकलकलुषहे शब्दसामान्य-
बुद्धिर्विष्णौ सर्वेश्वरेशे तदितरसमधीर्यस्य वा नारकी सः॥
(पद्म पुराण)

वैष्णवों में जाति बुद्धि नरक प्राप्ति करवाने वाली है। श्रीनित्यानन्द प्रभु की इच्छा से सुबाहु सखा सुनार कुल में आविर्भूत होने पर भी सुनार नहीं हैं, वे गुणातीत भगवद् पार्षद हैं। प्राकृत स्थूल व सूक्ष्म इन्द्रियों के द्वारा भक्त और भगवान के तत्त्व (ontological aspect) की उपलब्धि नहीं होती। हाँ, उनकी बाहरी आकृति (morphological aspect) की किन्चित अनुभूति हो सकती है। शरणागत के हृदय में भक्त और भगवान् का तत्त्व प्रकाशित होता है। श्रील उद्धारण दत्त ठाकुर की कृपा होने से उनके अप्राकृत स्वरूप की व उनकी महिमा की उपलब्धि हो सकती है।

देवताओं के मध्य विष्णु परदेवता हैं। एकमात्र विष्णु के नामोच्चारण से समस्त पाप ध्वंस हो जाते हैं तथा समस्त अशुभ नाश व शुभ लाभ होता है। एक हज़ार विष्णुनाम के बराबर होता है—एक राम नाम।

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्र नामभिस्तुल्यं रामनाम वरानने॥
(पद्म पुराण उत्तराखंड)

फिर तीन हज़ार विष्णु नाम के बराबर एक कृष्ण नाम अर्थात् तीन राम के नाम बराबर एक कृष्ण नाम।

सहस्र नाम्नां पुण्यानां त्रिरावृत्त्या तु यत्फलम्।
एकावृत्या तु कृष्णस्य नामैकं तत् प्रयच्छति॥
(ब्रह्माण्ड पुराण)

कृष्ण नाम और कृष्ण मन्त्र सर्वोत्तम होते हुए भी कृष्ण नाम में अपराध का विचार है। श्रीकृष्ण नाम के आभास से करोड़ों-करोड़ों जन्मों के पाप ध्वंस हो जाते हैं व मुक्ति प्राप्त होती है—ये सत्य है। किन्तु अपराध रहने से नामाभास भी नहीं होता। अपराधी पर कभी श्रीकृष्ण ने कृपा नहीं की। पाप और अपराध में अन्तर यह है कि देहधारी बद्ध जीवों के प्रति जब कोई अन्याय आचरण होता है तो उसको पाप कहते हैं तथा विष्णु व वैष्णवों के सम्बन्ध में यदि कोई अन्याय आचरण होता है तो उसे अपराध कहते हैं। पाप की अपेक्षा अपराध अधिक घृणित है।

अजामिल ने महापाप किए थे किन्तु उसका कोई अपराध नहीं था इसलिए नामाभास से उसकी मुक्ति हो गयी। श्रीमन् महाप्रभु और नित्यानन्द प्रभु ने पापी अपराधी सभी का उद्धार किया है।

‘कृष्णनाम’ करे अपराधेर विचार।
कृष्ण बलिले अपराधीर ना हय विकार॥
चैतन्य नित्यानन्दे नाहि ए सब विचार।
नाम लैले प्रेम देन, बहे अश्रुधार॥
(श्रीचैतन्य चरितामृत आदि 8.26, 31)

श्रीकृष्ण नाम अपराध का विचार करता है। श्रीकृष्ण नाम बोलने से अपराधी को कोई विकार नहीं होता है परन्तु श्रीचैतन्य महाप्रभुजी व श्रीनित्यानन्द के नामों में ये सब विचार नहीं है। इन का नाम लेने से ही ये प्रेम दान कर देते हैं और नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगती है।

कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु की पतितपावनत्त्व महिमा का वर्णन इस प्रकार किया है—

प्रेमे मत्त नित्यानन्द कृपा अवतार।
उत्तम अधम किछु ना करे विचार॥
जे आगे पड़ये, तारे करये निस्तार।
अतएव निस्तारिल मो-हेन दुराचार॥

श्रील वृन्दावनदास ठाकुर ने भी श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु की महिमा विशेषरूप से वर्णन की है। श्रीनित्यानन्द प्रभु की कृपा के बिना पापी और अपराधी जीवों के उद्धार का अन्य उपाय नहीं है। श्रीमन् नित्यानन्दप्रभु भक्त लीला करते हुए भी स्वरूपतः भगवत्-तत्त्व हैं, उनके पार्षद उनकी कृपा शक्ति का मूर्त-स्वरूप हैं। श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु परम पतितपावन हैं और उनके अन्तरंग पार्षद परम परमपतितपावन हैं। वस्तुतः श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु भक्तों के माध्यम से ही कृपा करते हैं। श्रीउद्धारण दत्त ठाकुर श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु के अन्तरंग पार्षद होने के कारण परम परमपतितपावन हैं, जिनका आश्रय ग्रहण करने से जीव बिना किसी प्रयास के संसार से मुक्त होकर श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु के पादपद्मों की व श्रीगौरांग महाप्रभु के पादपद्मों की सेवा प्राप्त कर सकता है। श्रील कविराज गोस्वामी ने उद्धारण दत्त ठाकुर को महाभागवत श्रेष्ठ कहा है। श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने श्रीचैतन्य भागवत में लिखा है—

उद्धारण दत्त महा वैष्णव उदार।
नित्यानन्द सेवाय जाँहार अधिकार॥

श्रीउद्धारण दत्त महा उदार वैष्णव हैं जिनका श्रीनित्यानन्द प्रभु की सेवा में अधिकार है।

बाहरी परिचय से श्रीउद्धारण दत्त ठाकुर ने नैहाटी के राजा नैराजा के मन्त्री रूप में कार्य करने की लीला प्रदर्शित की थी। आज भी दाँईहाट स्टेशन के पास उक्त राजवंश के महल के कुछ खण्डहर देखे जाते हैं। उद्धारण दत्त ठाकुर राजकार्य करते हुए जहाँ पर रहते थे वहाँ का नाम आज भी उद्धारणपुर है। विपुल ऐश्वर्य के अधिकारी होते हुए भी उद्धारण दत्त ठाकुर ने सब कुछ त्यागकर सर्व इन्द्रियों द्वारा सम्पूर्णरूप से श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु की सेवा का आदर्श प्रदर्शन किया है। इनके शुद्ध प्रेम से वशीभूत होकर श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु इनके द्वारा पकाये अन्न-व्यंजनादि सेवन करते हुए बड़े ही सुख का अनुभव करते थे—

भक्तेर द्रव्य प्रभु काड़ि-काड़ि खाय।
अभक्तेर द्रव्य प्रभु उलटी ना चाय।

अर्थात भक्त की वस्तु प्रभु छीन छीन कर खाते हैं, जबकि अभक्त के द्रव्य की ओर वे मुड़कर भी नहीं देखते।

सरस्वती नदी के किनारे सप्तग्राम में उद्धारण दत्त ठाकुर का निवास स्थान था। वहाँ पर आज एक सिंहासन पर उनके सेवित षड़भुज महाप्रभु, उनके दाहिनी ओर श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा बायीं ओर श्रीगदाधर विराजमान हैं। दूसरे सिंहासन पर श्रीराधागोविन्द के श्रीविग्रह व श्रीशालग्राम एवं नीचे की वेदी पर श्रीउद्धारण दत्त ठाकुर का आलेख अर्चित हो रहा है। श्रीउद्धारण दत्त ठाकुर के अप्रकट के बाद श्रीनित्यानन्द शक्ति श्रीजाह्नवा देवी इनके निवास स्थान पर आयी थीं।

श्रीकविराज गोस्वामी ने लिखा है कि उनके भाई की जितनी श्रद्धा महाप्रभु के प्रति थी उतनी श्रद्धा श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु के प्रति नहीं थी। इसलिये एक बार श्रीनित्यानन्द प्रभु के पार्षद मीनकेतन रामदास के साथ कविराज गोस्वामी के भाई का तर्क-वितर्क हुआ। इसमें श्रील कविराज गोस्वामी ने मीनकेतन रामदास का पक्षावलम्बन करके अपने भाई की भर्त्सना की। श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु कविराज गोस्वामी का भक्त-पक्षपातित्त्व रूपी सामान्य गुण देखकर उनके प्रति बड़े प्रसन्न हुए तथा उन्होंने इन्हें वृन्दावन वास का अधिकार प्रदान किया व निज स्वरूप का दर्शन भी कराया एवं श्रीराधागोविन्द के पादपद्म की सेवा भी प्रदान की। इसलिए श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु के प्रियतम श्रीउद्धारण दत्त ठाकुर की यदि हम पूजा करें, उनकी सेवा करें व उनकी प्रसन्नता के कार्य करें तो हम अतिशीघ्र श्रीनित्यानन्द प्रभु की कृपा प्राप्तकर सकते हैं तथा कृष्ण प्रेम के अधिकारी बन अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं।

जीवों के सर्वोत्तम कल्याण के लिए श्रीउद्धारण दत्त ठाकुर के आविर्भाव स्थान को प्रकाशित करना आवश्यक है जिससे जगत्-वासी आकर्षित होकर उनके आविर्भाव स्थान पर आ सके, उनके श्रीपादपद्मों में शरणागत होकर, उनकी सेवा करके, उनकी गुणगाथा कीर्तन करके, उनकी कृपा प्राप्त कर सके व अपने जीवन को धन्य कर सकें। निष्कपट सेवा प्रचेष्टा रहने से सेव्य सभी प्रकार की शक्ति सामर्थ्य प्रदान करेंगे। सप्तग्राम में श्रीमन्दिर के सामने एक बहुत बड़े घर का निर्माण हुआ है। इस बड़े घर के सामने एक सुशीतल छायापूर्ण माधवी मण्डप भी है।

श्रीनिवास दत्त ठाकुर श्रीउद्धारण दत्त ठाकुर के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए थे। आज भी श्रील उद्धारण दत्त ठाकुर के वंशधर हुगली व कलकत्ता आदि स्थानों में निवास करते हैं। उनके वंश में जो लोग आविर्भूत हुए हैं वे निश्चय ही भाग्यवान् हैं। वे जैसे मायिक परिचय परित्याग करके अप्राकृत सम्बन्ध में स्थित रहकर श्रील उद्धारण दत्त ठाकुर के आविर्भाव स्थान की उज्ज्वलता विधान करें—यही प्रार्थना करता हूँ।

1463 शकाब्द पौषी (मतान्तर अग्रहायण) कृष्णा त्रयोदशी तिथि को श्रील उद्धारण दत्त ठाकुर का तिरोभाव हुआ।

स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से