प्रभुपाद श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर

प्रभुपाद श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर

(साप्ताहिक “गौडीय’ पत्रिका से उद्धृत तथा ‘श्री चैतन्यवाणी’ पत्रिका के तेरहवें वर्ष में भी प्रकाशित)

श्रीपुरीधाम में आविर्भाव

श्रीजगन्नाथपुरी में श्रीजगदीश मन्दिर के पास, ‘नारायण छाता’ से संलग्न (लगे हुए) भवन में, श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के हरिकीर्तन ते आप्लावित गृह में, श्रीमती भगवतीदेवी की गोद से, 25 माघ, कृष्णा – पंचमी तिथि, शुक्रवार, 6 फरवरी 1874 ई० स०, 1795 शकाब्द को, दिन के साढ़े तीन बजे के बाद, एक ज्योतिर्मय दिव्य छटा के रूप में, ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपादजी का आविर्भाव हुआ था। जिन लोगों ने, उस समय उस शिशु को देखा, वे सब, उनके शरीर में स्वाभाविक रूप से, यज्ञोपवीत के चिह को देखकर बड़े चकित हुए । श्रीभक्तिविनोद ठाकुर ने, श्रीजगन्नाथदेव की पराशक्ति श्रीविमलादेवी के नाम से, शिशु का नाम भी ‘श्रीविमलाप्रसाद’ रखा ।

शिशु की रुचि

शिशु के आविर्भाव (जन्म) के छः महीने बाद, श्रीजगन्नाथ जी की रथयात्रा का महोत्सव आया। उस वर्ष, वह रथ, श्रीजगन्नाथ देव जी की ही इच्छा से, श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के घर के द्वार तक आकर रुक गया और किसी भी प्रकार आगे नहीं बढ़ा । उनके घर के सामने, तीन दिन तक, श्रीजगन्नाथ देव रथ में विराजे रहे । श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के नेतृत्व में, श्रीजगन्नाथदेव देव के सामने, तीन दिन तक निरन्तर श्रीहरिकीर्तन महोत्सव होता रहा। इसी बीच, एक दिन माँ की गोद में छः महीने के शिशु ने श्रीजगन्नाथदेव देव के सामने आकर हाथ फैलाकर, श्रीजगन्नाथजी के चरणों का आलिंगन किया, कि तभी श्रीजगन्नाथजी के गले की एक प्रसादी माला गिर पड़ी जिसे इस दिव्य शिशु ने ग्रहण किया । श्रीभक्तिविनोद ठाकुरजी ने, शिशु के मुँह में महाप्रसाद देकर उसका अन्नप्राशन संस्कार सम्पन्न किया ।

आविर्भाव के बाद शिशु, माँ के साथ दस महीने तक श्रीजगन्नाथपुरी में रहे। उसके बाद पालकी द्वारा, बंगाल के राणाघाट – नामक स्थान में आये। आपका बचपन हरिकीर्तन महोत्सव में ही व्यतीत हुआ था।

हरिनाम और नृसिंह – मंत्र ग्रहण

श्रीरामपुर (पश्चिम बंगाल) में रहते समय, ठाकुर श्रीलभक्तिविनोदजी ने श्रीजगन्नाथपुरी से तुलसी की माला मँगवाई । उस समय आप ( प्रभुपादजी ) सातवीं कक्षा में अध्ययन करते थे । श्रीभक्तिविनोद ठाकरजी ने पुत्र को तुलसी की माला, हरिनाम और श्रीनृसिंह मन्त्रराज प्रदान किया। श्रीरामपुर में पाँचवीं कक्षा में पढ़ते समय, आपने Phonetic type की तरह एक नई लेखन प्रणाली का आविष्कार किया था, जिसका नाम ‘विकृन्ति’ या Bicanto हुआ । श्रीभक्तिविनोद ठाकर ने आपको ‘श्रीचैतन्यशिक्षामृत’ ग्रन्थ का अध्ययन कराया ।

श्रीकूर्मदेव का अर्चन
सन् 1861 ई0 में जिस समय, ठाकुर श्रीभक्तिविनोद कलकत्ता के रामबागान में ‘भक्तिभवन’ का निर्माण करा रहे थे, तभी उस भवन की नींव खोदते समय, मिट्टी के अन्दर से, एक श्रीकूर्म – मूर्ति प्रकट हुई। आप 8 या 9 साल के ही थे कि, ठाकुर श्रीभक्तिविनोदजी नें, आपको श्रीकूर्मदेव की पूजा का मंत्र और अर्चन – विधि की शिक्षा दी । आपने नियमपूर्वक कूर्मदेव की पूजा की, और तिलक आदि सदाचार का पालन करने लगे। सन् 1885 ई. में भक्तिभवन में ‘वैष्णवडिपोजिटरी’ नामक एक भक्तिग्रन्थ का प्रचार विभाग खोला गया था । उस समय से ही आपने मुद्रायंत्र ( छापाखाना) के सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त की, और प्रूफ संशोधन आदि कार्य में सहायता देने लगे । इन्हीं दिनों श्रीभक्तिविनोद ठाकुरजी श्रीगौरपार्षद और गौड़ीयवैष्णवाचार्यों का संक्षिप्त चरितामृत द्वारा सम्पादित ‘सज्जनतोष्णी’ नामक पत्रिका ( द्वितीय वर्ष) फिर से प्रकाशित हुई। सन् 1885 में ही आपने श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के साथ, श्रीगौरपार्षदगण की आविर्भाव – भूमि कुलीनग्राम, सप्तग्राम आदि स्थानों के दर्शन किये और वहीं पर नामतत्त्व के विषय में शास्त्र – विचार श्रवण किया ।

ज्योतिष – शास्त्र में प्रतिभा
जब आप, पाँचवीं कक्षा के छात्र थे, तभी गणित और फलित ज्योतिष – शास्त्र में, अपूर्व प्रतिभा का प्रदर्शन किया था | तारकेश्वर लाइन के शियाखाना ग्राम के पण्डितवर महेशचन्द्र चूड़ामणि से गणित, ज्योतिष शास्त्र अध्ययन करके थोड़े-से समय में ही आपने इस शास्त्र में अभूतपूर्व प्रतिभा और पारदर्शिता का प्रकाश किया। आप अलवर (राज0) के निवासी पण्डित सुन्दरलाल नाम के एक ज्योतिषी से भी ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करके, ज्योतिर्विद्या में पारंगत हुए थे ।

“सिद्धान्त सरस्वती”
15 वर्ष की आयु में ही, आपकी प्रतिभा देखकर, चूड़ामणि महाशय विशेष प्रभावित हुए थे । किशोर अवस्था से आपके महाभागवत गुरुवर्ग आपको ‘श्रीसिद्धान्त सरस्वती’ नाम से कहने लग गये थे । सन् 1918 ई0 में त्रिदण्डसंन्यास को ग्रहण कर, आप प्रभुपाद श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ‘परिव्राजकाचार्य श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती’ नाम से प्रसिद्ध हु । विशेष स्थलों पर आपने ‘श्रीवार्षभानवीदयितदास’ इस नाम से भी, अपना परिचय प्रदान किया है ।

विश्ववैष्णव – सभा
सन् 1885 ई0 अर्थात् 399 चैतन्याब्द में कृष्णसिंह की गली (जिसको आजकल ‘बेथून रो’ कहते हैं) में परलोकवासी रामगोपाल वसु के भवन में श्रीभक्तिविनोद ठाकुर ने ‘विश्व – वैष्णव – सभा’ की प्रतिष्ठा की, और 400 चैतन्याब्द, अर्थात् सन् 1886 में श्रीचैतन्य महाप्रभुजी का 400वाँ वार्षिक आविर्भाव महोत्सव सम्पन्न किया । मदनगोपाल गोस्वामी, नीलकान्त गोस्वामी, विपिनविहारी गोस्वामी, राधिकानाथ गोस्वामी, शिशिरकुमार घोष आदि बहुत से सज्जनगण, विश्ववैष्णव- सभा के विभिन्न विभागों के सदस्य उपस्थित थे । श्रीसरस्वती ठाकुर विश्ववैष्णव- सभा के साप्ताहिक अधिवेशन में, प्रत्येक रविवार को, श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के साथ ‘भक्तिरसामृतसिन्धुः ‘ ग्रन्थ को लेकर चलते, और सभा में बड़े ध्यान से शास्त्रचर्चा को श्रवण करते थे ।

असत्संग और जड़विद्या के प्रति अरुचि
श्रीसरस्वती ठाकुर अपने विद्यार्थीजीवन में, किसी भी असत् श्रीगौरपार्षद और गौड़ीय वैष्णवाचार्यो का संक्षिप्त चरितामृत प्रवृत्तिवाले छात्रों का संग कभी नहीं करते थे । असत्संग को त्यागने में, सुदृढ़ संकल्प और निष्कपट साधुसंग के प्रति अनन्यनिष्ठा आप में बचपन से ही देखी गई थी। पहली और दूसरी कक्षा में पढ़ते समय, आपने ज्योतिष शास्त्र की चर्चा और धर्मग्रन्थों के अध्ययन में अधिक समय व्यतीत किया। स्कूल की पाठ्यपुस्तकों के प्रति आपका मन नहीं लगता था । पाठशाला में अध्ययन के समय को छोड़कर घर में पाठशाला की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ना तो दूर रहा उन्हें स्पर्श करना भी अनावश्यक समझते थे। उन पाठ्यपुस्तकों के स्थान पर श्रीनरोत्तमदास ठाकुर महाशय विरचित ‘प्रार्थना’ और ‘प्रेमभक्ति – चन्द्रिका’ तथा श्रीभक्तिविनोद ठाकुरजी द्वारा रचित ग्रन्थों का अध्ययन करते थे ।

अगस्त एसेंब्ली
अपने अध्ययनकाल में ही, श्रील प्रभुपादजी ने ‘सूर्य – सिद्धान्त, ‘भक्तिभवन- पन्जिका’ आदि गणित – ज्योतिषग्रन्थों को प्रकाशित किया था । अपराह्न में कलकत्ता के बिडन- उद्यान में छात्रों के साथ, नानाप्रकार से तर्क-वितर्क तथा धार्मिक प्रसंगों की चर्चा किया करते थे । सन् 1891 में आलोचना करने की इस सभा का नाम ‘अगस्त एसेंब्ली’ (August Assembly) रखा गया। इस सभा के सज्जनों को दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्यव्रत के पालन करने का सकल्प लेना पड़ता था । युवक, वृद्ध तथा सभी प्रका के शिक्षित और सम्पन्न व्यक्ति ही इस सभा की चर्चा सुनने आया करते थे ।

संस्कृत कालेज में
सन् 1892 में श्रीसरस्वती ठाकुर ने संस्कृत कालेज में प्रवेश किया । वहाँ पाठ्यपुस्तकों के स्थान पर कालेज के पुस्तकालय की मुख्य-मुख्य पुस्तकों का और कालेज के अतिरिक्त दूसरे समय में वैदिक – पण्डित पृथ्वीधर शर्मा से वेदों का अध्ययन कर
। सन् 1898 में सारस्वत चतुष्पाठी में अध्यापकलीला के समय ‘भक्तिभवन’ में पृथ्वीधर शर्मा से ‘सिद्धान्त कौमुदी’ का अलग से अध्ययन किया और अल्प समय में उसको सम्पूर्ण पढ़ डाला । पृथ्वीधर शर्मा ने राय दी कि आप जीवनभर सिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन करते रहें; परन्तु सरस्वती ठाकुर ने उनके विचार से मतभेद होकर कहा कि – “मेरा जीवन, हरिभजन के लिए है । शिशुशास्त्र व्याकरण का ‘डुकृञ’ या जड़साहित्य काव्य के अनुस्वार – विसर्ग का अभ्यास करने के लिए नहीं है ।” संस्कृत कालेज में पढ़ते समय ही आपने काशी के सुप्रसिद्ध पण्डित महामहोपाध्याय बापुदेव शास्त्री के छात्र और संस्कृत कालेज के अध्यापक, पन्चानन साहित्याचार्य के समर्थित विचारों का प्रतिवाद (विरोध) किया था ।

सारस्वत – चतुष्पाठी
सन् 1897 में कलकत्ता स्थित ‘भक्ति भवन’ में सारस्वत – चतुष्पाठी की स्थापना की गई। लाला हरगौरीशंकर, डा० एकेन्द्रनाथ घोष एम0 बी0, सातकड़ि चट्टोपाध्याय सिद्धान्तभूषण, नित्यानन्द प्रभु के वंशज पण्डित श्यामलाल गोस्वामी, शरच्चन्द्र ज्योतिर्द्विनोद महाशय आदि अनेक शिक्षित और सम्पन्न लोगों ने एवं कालेज के बहुत – से छात्रों ने आपकी इस सारस्वत- चतुष्पाठी में गणित – ज्योतिष का अध्ययन करके शिक्षा प्राप्त की थी । सारस्वत – चतुष्पाठी से सरस्वती ठाकुर ने ‘ज्योतिर्विद’, ‘बृहस्पति’ आदि कई मासिक पत्रिकाएँ और ज्योतिष शास्त्र के बहुत- – से प्राचीनग्रन्थों को प्रकाशित किया था ।

जागतिक विद्या का परित्याग
श्रीमन्महाप्रभुजी ने जिस प्रकार सर्वप्रथम विद्याविलास और दिग्विजय आदि लीला का प्रदर्शन किया था, और बाद में हरिकीर्तन के प्रचार की लीला की थी, ठीक उसी प्रकार वही आदर्श श्रीमहाप्रभुजी के निजजन सरस्वती ठाकुर जी के जीवन में भी देखने को मिलता है। आपने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि – “यदि मैं, मन ” देकर विश्वविद्यालय मे पढ़ता रहूँ तो मेरे रिश्तेदार मुझे संसार में प्रवेश कराने (अर्थात् विवाह आदि कराने) के लिए इतना अधिक दबाव डालते रहेंगे कि, फिर बाकी कुछ नहीं रह जायेगा । परन्तु यदि मैं उन लोगों के पास, मूर्ख और अकर्मण्य (जागतिक कार्यों के लिए अयोग्य) निकम्मा दिखलाई पडूं तो, फिर वे, सांसारिक तरक्की के लिए मुझे मदद नहीं देंगे । यही सोचकर मैंने संस्कृत कालेज का परित्याग कर, हरिसेवामय जीवन बिताने का दृढ़ संकल्प और जीवन निर्वाह के लिए एक छोटे-से पवित्र उपाय का विचार लिया । ”

त्रिपुरा में
सन् 1895 में उपर्युक्त उद्देश्य को लेकर, सरस्वती ठाकुर स्वाधीन त्रिपुरा स्टेट में एक कार्य स्वीकार कर वहाँ के राजाओं का जीवन चरित्र ‘राजरत्नाकर’ – ग्रन्थ प्रकाशन के सहकारी – सम्पादक का कार्य करने लग गये। वहाँ के राजपुस्तक भण्डार में जितनी भी प्रमुख – प्रमुख पुस्तकें थीं, आपने उन सबको पढ़ने का अवसर भी प्राप्त किया । 11 दिसम्बर सन् 1896 में, महाराज वीरचन्द्र के परलोक गमन के बाद महाराज राधाकिशोर माणिक्य बहादुर राजसिंहासन पर बैठे। इसके दूसरे वर्ष, श्री ठाकुर को युवराज बहादुर और राजकुमार व्रजेन्द्रकिशोर को संस्कृत और बंगला पढ़ाने का भार सौंपा गया और बाद में कलकत्ता में विभिन्न कार्यों की देखरेख का भार भी सौंप दिया गया; किन्तु आपने, इन सारे कार्यों से भी अवकाश ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की, जिससे महाराज राधाकिशोर माणिक्य बहादुर ने सरस्वती ठाकुर को सन् 1905 में पूर्ण वेतनसहित पेन्शन प्रदान की । आपने सन् 1908 तक उस पेन्शन को स्वीकार किया ।

श्रीभक्तिविनोद ठाकुर जी के साथ तीर्थभ्रमण
अक्तूबर सन् 1898 में आप, श्रीभक्तिविनोद ठाकुरजी के साथ तीर्थयात्रा के लिये निकले । उस समय काशी, प्रयाग गये और वापिस लौटते समय गयाधाम के दर्शन किये। काशी में आपने महामहोपाध्याय राममिश्र शास्त्री के साथ रामानुज सम्प्रदाय के विभिन्न विचारों पर वार्तालाप किया। इसी समय आपके जीवन में अद्भुत वैराग्य का प्रकाश दिखलाई दिया। सन् 1897 ई0 से आप वैष्णव शास्त्र के विधानानुसार नियम पूर्वक चातुर्मास्यव्रत का पालन अपने हाथों से शुद्ध भोजन ( हविष्यान्न) बनाकर, बिना किसी पात्र के ज़मीन पर भोजन तथा बिस्तर आदि छोड़ कर, भूमि में शयन किया करते थे। सन् 1899 में कलकत्ता से प्रकाशित ‘निवेदन’ – नामक साप्ताहिक पत्र से, आप पारमार्थिक विषयों की चर्चा और प्रचार करते रहे। सन् 1900 में आपकी रचित ‘बंगे नाम से एक समाज सामाजिकता’ (बंगाल में सामाजिकता) और धर्मनीति के सम्बन्ध में बड़ी खोजपूर्ण पुस्तक प्रकाशित हुई थी ।

श्रीगुरुदेव के दर्शन
सन् 1897 में श्रीभक्तिविनोद ठाकुर ने नवद्वीप के गोद्रुमद्वीप में सरस्वती नदी के किनारे‘आनन्द – सुखद – कुन्ज ‘ – नाम से, अपने लिए एक भजनकुन्ज की स्थापना की। इसी स्थान पर सन् 1898 शीतकाल में श्रील प्रभुपाद जी को श्रील गौरकिशोर गोस्वामीजी महाराज के नाम से एक प्रसिद्ध अलौकिक चरित्र के अवधूत महाभागवत परमहंस के दर्शन मिले । आप, स्वाभाविकरूप से ही, उनके श्रीचरणों में आकृष्ट हुए, और श्रीभक्तिविनोद ठाकुर की आज्ञा से सन् 1900 के माघ महीने में श्रील श्रीगौरकिशोरदासजी महाराज से भागवती दीक्षा ग्रहण की।

“सातासन मठ, भक्तिकुटी”
सन् 1900 के मार्च महीने में, श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के साथ, श्रीसरस्वती ठाकुर बालेश्वर होकर, रेमुणा में ” खीरचोरा गोपीनाथजी” के दर्शन करके भुवनेश्वर होकर जगन्नाथपुरी गये । इस समय ही सरस्वती ठाकुरजी का पुरीधाम से घनिष्ट सम्पर्क हुआ था । श्रीहरिदास ठाकुर की समाधि के सामने, एक मठ को स्थापित करने के विचार से, उस समय के सब रजिस्ट्रार जगबन्धु पट्टनायक आदि प्रमुख सज्जनों के आग्रह से श्री ने अतिप्राचीन ‘सातासन मठ’ के अन्यतम ( अर्थात् सात आसनों में से एक आसन) श्रीगिरिधारी आसन के सेवा – भार को ग्रहण किया । सन् 1902 में समुद्र के किनारे श्रीहरिदास ठाकुर की समाधि के पास श्रीभक्तिविनोद ठाकुर ने ‘भक्तिकुटी’ – नाम से एक भजन- भवन का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। उसी समय कासिमबाजार के महाराज श्रीमणीचन्द्र नन्दी बहादुर अपने रिश्तेदार की मृत्यु के कारण शोक की शान्ति के लिए भक्तिकुटी और सातासन के पूर्व की ओर खाली पड़ी हुई भूमि में तम्बू लगाकर उसमें ठहरे और श्रीभक्तिविनोद ठाकुर एवं श्रीसरस्वती ठाकुर से हरिकथा श्रवण करने लगे। इन्हीं दिनो सरस्वती ठाकुर भक्तिकुटी में श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के सामने नियमपूर्वक ‘श्रीचैतन्य – चरितामृत’ ग्रन्थ की व्याख्या और चर्चा किया करते थे ।

मञ्जूषा का उपकरण संग्रह
श्रीसरस्वती ठाकुर, जिस समय पुरी में वैष्णवमञ्जूषा के लिए सामग्री एकत्रित कर रहे थे, और घर- घर में विशिष्ट व्यक्तियों के पास हरिकथा का प्रचार कर रहे थे, उस समय इस कार्य में, नाना प्रकार की विघ्न बाधाएँ उपस्थित हुई । सातासन मठ के गिरिधारी आसन की सेवा का जो भार प्राप्त हुआ था, उसमें भी नाना प्रकार से विघ्न पैदा होने लगे, किन्तु श्रीप्रहादजी जैसा आदर्श दिखलाकर सरस्वती ठाकुर जी ने नाना प्रकार के कष्टों करने का में सहिष्णुता और दुष्ट लोगों के दुर्वचनों को अनसुना प्रदर्शन किया । तब श्रीभक्तिविनोद ठाकुर ने आपको श्रीरामानुजाचार्य के तिरूनारायणपुर में एकान्तवास की तरह श्रीधाम – मायापुर में जाकर हरिभजन कने के लिए आज्ञा की ।

महात्मा श्रीवंशीदास
नवद्वीपमण्डल में आकर श्रीसरस्वती ठाकुर श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के माध्यम से महात्मा श्रीवंशीदास बाबाजी महाराज से परिचित हुए । इसके कुछ समय बाद चरणदास बाबाजी महाशय अपने साथ में कालना के विष्णुदास आदि बहुत से लोगों को लेकर श्रीधाम – मायापुर के उत्सव में योगदान देने के लिए पधारे और वहाँ सबने मिलकर नृत्य संकीर्तन आदि किया । दूसरे वर्ष उन्होंने (श्रीचरणदास बाबाजी ने ) श्रीभक्तिविनोद ठाकुरजी से कहा कि वे दलबल के साथ प्रतिवर्ष नवद्वीपधाम – परिक्रमा की सेवा करेंगे; किन्तु सन् 1906 में उनका परलोक गमन होने के कारण, वे, फिर परिक्रमा में योगदान नहीं दे सके ।

पुरी में प्रचार
जगन्नाथपुरी में रहते समय सरस्वती ठाकुर के साथ वहाँ के गोवर्धन मठ के मठाधीश मधुसूदनतीर्थ का विशेष परिचय और शास्त्रीय विचारादि हुआ था । सरस्वती ठाकुर में वे विशेष श्रद्धा रखते थे । उस समय समाधिमठ के श्रीवासुदेव रामानुजदास, श्रीदामोदर रामानुजदास, एमार मठ के श्रीरघुनन्दन रामानुजदास, जमायेत सम्प्रदाय के पापड़िया मठ के जगन्नाथदास, स्वर्गद्वार छाता के ॐकारजपी वृद्ध तापस ( तपस्वी), महामहोपाध्याय सदाशिव मिश्र, बड़े हरीशबाबू वकील (हरिश्चन्द्र बसु), गंगामाता मठ के श्रीबिहारीदास पुजारी, राधाकान्त मठ के अधिकारी नरोत्तमदास, अनन्तचरण महान्ति आदि सज्जनों के साथ सरस्वती ठाकुर का परिचय हुआ था, और प्रायः धर्मप्रसंगों को लेकर चर्चा किया करते थे ।

‘श्री’ – सम्प्रदाय के सिद्धान्तों की चर्चा
बंगाल में श्रीसरस्वती ठाकुर ने ही सबसे पहले श्रीरामानुजाचार्य और उनके सम्प्रदाय के सम्बन्ध में, मौलिक गवेषणापूर्ण (मूल खोजपूर्ण) ग्रन्थों का प्रकाशन किया था । सन् 1898 से उन्होंने ‘सज्जनतोषणी’ – पत्रिका में श्रीनाथमुनि, श्रीयामुनाचार्य आदि आचार्यों के चरित्र और उनकी शिक्षा को प्रकाशित किया था । इससे पहले उन्होंने पण्डित सुन्दरेश्वर श्रौति से दक्षिणदेश की चार भाषाओं की पुस्तकें आदि मंगवाकर रामानुज और मध्वसम्प्रदाय के ग्रन्थों की समालोचना (चर्चा) की ।

ज्योतिष – शास्त्र में दिग्विजय
2 जनवरी सन् 1903 में रायबहादुर राजेन्द्रचन्द्र शास्त्री पी० आर० एस0 महाशय की मध्यस्थता में उनके घर पर ही वापुदेव शास्त्री का एक प्रतिष्ठाशाली छात्र और संस्कृत कालेज का अध्यापक तथा दुनियाँ में बहुत प्रसिद्ध किसी अद्वितीय गणित – ज्योतिष शिक्षा के आचार्य के साथ वर्ष प्रवेश लेकर अयनांश के सम्बन्ध में विचार हुआ । वह पण्डित श्रीप्रभुपादजी से बुरी तरह पराजित हुआ और यहाँ तक कि उस विचार – सभा में उसका मलमूत्र निकल गया ।

तीर्थभ्रमण
जनवरी सन् 1904 में श्रील सरस्वती ठाकुर सीताकुण्ड चन्द्रनाथ आदि स्थानों में गये और दिसम्बर के महीने पुरी में पधारकर उन्होंने 23 फरवरी सन् 1905 को दक्षिण भारत के तीर्थ – पर्यटन के लिए प्रस्थान किया । सिंहाचल, राजमहेन्द्र, मद्रास, परेम्बेदुर, तिरुपति, कांजीवरम्, कुम्भकोणम्, श्रीरंगम, मदुरा इत्यादि स्थानों के दर्शन करके वापिस कलकत्ता होकर श्रीमायापुर पधारे। परेम्बेदुर में एक रामानुजीय त्रिदण्डि सन्यासी से सरस्वती ठाकुर ने वैदिक त्रिदण्ड- वैष्णव सन्यास की विधि के सारे तथ्यों को संग्रह
किया ।

श्रीमायापुर में वास और शतकोटि महामंत्र करने का व्रत
श्रीसरस्वती ठाकुर ने श्रीमायापुर में रहकर, सन् 1905 से श्रीमहाप्रभुजी की वाणी का प्रचार प्रारम्भ किया । वहाँ पर श्रील हरिदास ठाकुर के अनुगमन में, प्रतिदिन नियमपूर्वक निरन्तर तीन लाख महामंत्र कीर्तन करते थे । इस प्रकार उन्होंने सौ करोड़ महामंत्र कीर्तनव्रत का अनुष्ठान किया था। सन् 1906 में श्रीयुत् रोहिणीकुमार घोष, जो कि जस्टिस चन्द्रमाधव घोष महाशय के रिश्ते से भाई के पुत्र थे, ने एक अपूर्व स्वप्न देखकर श्रीसरस्वती ठाकुर से सर्वप्रथम दीक्षा ग्रहण की। सन् 1909 के फरवरी महीने में सरस्वती ठाकुर ने श्रीमायापुर के अन्दर चन्द्रशेखर – भवन में एक भजन – कुटीर का निर्माण किया, और श्रीराधाकुण्डतट की भावना करके, वहीं पर निरन्तर भगवद्भजन करते रहे ।

‘ब्राह्मण – वैष्णव’
सन् 1911 में वैष्णवों के लिए, एक दुर्भाग्यपूर्ण दिन आया था। वह था, तथाकथित स्मार्त सम्प्रदायवालों का शुद्ध वैष्णव धर्म और वैष्णव आचार्यों के प्रति आक्रमण या विद्वेष करना । यहाँ तक कि, नाममात्र के आचार्य या गोस्वामी वंशजों ने भी स्मार्त सम्प्रदायवालों का पिट्ठू बनने के लिए उनका साथ दिया था । श्रीभक्तिविनोद ठाकुर उस समय बीमारी के कारण बिस्तर पर ही पड़े रहने की लीला का अभिनय कर रहे थे। उनकी ही इच्छानुसार सरस्वती ठाकुर मेदनीपुर के अन्तर्गत ‘बालिघाई’ – नामक स्थान की एक सभा में उपस्थित हुए । उस सभा के सभापति थे धुरन्धर शास्त्रज्ञाता पण्डितप्रवर विश्वंभरानन्ददेव गोस्वामी महाशयजी । वहाँ पर वृन्दावन के पण्डित मधुसूदन गोस्वामी सार्वभौम महाशय के अनुरोध से आपने ‘ब्राह्मण और वैष्णव’ – नाम से एक लेख को पढ़ा और अपने भाषण से कर्म – जड़ – स्मार्त – सम्प्रदायवालों की सारी युक्तियों को बहुत अच्छे ढंग से खण्डित कर डाला ।

नवद्वीप में गौरमंत्र की सभा
नवद्वीप शहर के ‘बड़े अखाड़ा’ में गौरमंत्र के सम्बन्ध में एक सभा हुई, जिसमें सरस्वती ठाकुर ने अथर्ववेद के अन्तर्गत श्रीचैतन्योपनिषद एवं दूसरे शास्त्रों के प्रमाणों से, गौरमंत्र की नित्यता को स्थापन किया ।

कासिमबाज़ार सम्मेलन
21 मार्च सन् 1912 को आप कासिमबाज़ार सम्मेलन में पधारे । वहाँ पर आपने निरपेक्ष भाव से, शुद्ध – भक्तिधर्म के विषय में भाषण दिया । परन्तु शुद्ध – भक्ति के स्थान पर तथाकथित प्रचारकों की विषय- चेष्टा और बहिर्मुख – लोगों को ही प्रसन्न करने की प्रवृत्ति को देखकर आप दुःखी हुए एवं उसके विरोध में चार दिन तक उपवास करके वापिस श्रीमायापुर चले गये ।

गौरजन – लीलाक्षेत्रों में भ्रमण और प्रचार
4 नवम्बर सन् 1912 को सरस्वती ठाकुर ने कुछ भक्तों को साथ लेकर श्रीखण्ड, कटवा, याजिग्राम, झामटपुर, आंकाइहाट, चारखन्दि, दाँइहाट आदि श्रीमन्महाप्रभुजी के पार्षदों की लीलाभूमि में भ्रमण किया, और वहाँ पर शुद्ध – भक्तिधर्म की बातों का फिर से प्रचार किया।

‘भागवत – यन्त्र’ और ‘अनुभाष्य’
सन् 1913 के अप्रैल माह में कलकत्ता- स्थित कालीघाट के अन्तर्गत 4 नं. सानगरलेन में ‘ भागवत – यन्त्रालय’ (Press) को स्थापित किया, और उसमें स्वरचित अनुभाष्य के साथ श्रीचैतन्यचरितामृत, श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती की टीका के साथ श्रीमद्भगवद्गीता, उड़ीसा के कवि श्रीगोबिन्ददास का ‘ गौरकृष्णोदय’ महाकाव्य आदि ग्रन्थों का प्रकाशन किया, और हरिकथा प्रचार करते रहे । 23 जून सन् 1914 को श्रीभक्तिविनोद ठाकुर ने नित्यलीला में प्रवेश किया । सन् 1915 जनवरी महीने में ‘भागवत – यन्त्र’ को श्रीमायापुर – अन्तर्गत श्रीव्रजपत्तन स्थान में ले गये और वहाँ से भी ग्रन्थ प्रचार करते रहे। श्रीव्रजपत्तन में ही 14 जून (सन् 1915) को श्रीचैतन्य चरितामृत के ‘अनुभाष्य’ की रचना समाप्त की।

‘सज्जनतोषणी’ सम्पादन
श्रीभक्तिविनोद ठाकुरजी के अप्रकट होने के बाद, उनकी सम्पादित ‘सज्जनतोषणी’ मासिक पत्रिका सरस्वती ठाकुर की सम्पादकता में फिर से प्रकाशित होने लगी। जुलाई सन् 1915 में ‘ भागवत – यन्त्र’ को कृष्णनगर में स्थानान्तरित करके ‘सज्जनतोषणी’ और श्रीभक्तिविनोद ठाकुर के रचित विभिन्न ग्रन्थों का प्रचार करते रहे।

श्रील गौरकिशोर दास बाबा जी का तिरोभाव
श्री गौर किशोर दास बाबाजी महाराज जी 17 नवम्बर, 1915 उत्थान एकादशी के दिन इस संसार का परित्याग कर भगवान् के धाम में चले गये थे। श्रीसरस्वती ठाकुर जी ने प्राचीन कुलिया नवद्वीप शहर के नये टीले के ऊपर अपने हाथों से श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी जी द्वारा रचित ‘संस्कार दीपिका’ के विधान के अनुसार अपने गुरुदेव जी को समाधि त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण लीला एवं श्रीचैतन्य मठ की प्रतिष्ठा नित्यसिद्ध अद्वितीय विद्वान होने पर भी परिव्राजक वेश में पृथ्वी के कोने-कोने में श्रीचैतन्य देव जी की वाणी का प्रचार करने के उद्देश्य से सरस्वती ठाकुर जी ने दैववर्णाश्रम धर्म का आदर्श स्थापित किया। उन्होंने गुरुवर्ग के परमहंस वेश की सर्वोत्तमता को बताने के लिये 7 मार्च सन् 1918 को गौर महाप्रभु जी की जन्मतिथि के अवसर पर श्रीमायापुर में वैदिक विधान से त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण लीला की एवं श्रीचन्द्रशेखर आचार्य जी के भवन में श्री श्रीगुरु गौरांग और श्री श्रीराधागोविन्द जी के विग्रहों की स्थापना करके श्रीचैतन्य मठ की स्थापना की। ये श्रीचैतन्य मठ ही कलकत्ता के प्रमुख श्रीगौड़ीय मठ की विश्वव्यापी शाखाओं का मूल मठ हैं। मार्च महीने के अन्त में उन्होंने कृष्णनगर के टाउन हाल में हो रही साहित्य सभा में वैष्णव दर्शन के सम्बन्ध में बड़ा ही खोजपूर्ण प्रवचन प्रदान किया एवं मई मास में दौलतपुर इत्यादि स्थानों में हरिकथा का प्रचार किया।

श्रीक्षेत्रमण्डल भ्रमण
2 जून को सरस्वती ठाकुर जी 23 भक्तों के साथ कलकत्ता से पुरी की ओर रवाना हुये। रास्ते में उन्होंने साउरि व कूयामारा इत्यादि स्थानों में हरिकथा का प्रचार करके रेमुणा में खीर चोरा गोपीनाथ जी के दर्शन किये तथा बालेश्वर – हरिभक्ति प्रदायिनी सभा में ‘शिक्षाष्टक’ के सम्बन्ध में भाषण दिया। पुरी के रास्ते चलते 2 श्रीसरस्वती ठाकुर जी श्रीगोरसुन्दर जी के विप्रलम्भ भाव में भावित हो गये। बालेश्वर के सब-डिविज़नल मैजिस्ट्रेट रायसाहब श्रीयुत गौरश्याम महान्ति इत्यादि सज्जनों ने सरस्वती ठाकुर जी का अभिनन्दन किया।
आपने कटक के मंत्री बहादुर श्रीकृष्ण महापात्र जी की विशेष प्रार्थना से उनके भवन में रहकर हरिकथा का प्रचार एवं पुरी में भक्तिकुटी में रहकर पुरुषोत्तम धाम की परिक्रमा और विप्रलम्भ भाव में विभावित रहने का आदर्श दिखाया। सन् 1907 में पुरी के भूतपूर्व कलैक्टर और उस समय के डिप्टी मैजिस्ट्रेट अटल बिहारी मैत्र जी ने सरस्वती ठाकुर जी से श्रीचैतन्य चरितामृत और श्रीमद्भागवत की व्याख्या श्रवण की थी। जून 1918 में राय हरिबल्लभ वसु बहादुर जी के ‘शशी भवन’ के प्रांगण में हो रही एक विराट सभा में सरस्वती ठाकुर जी ने ‘सविशेष और निर्विशेष- तत्त्व’ के सम्बन्ध में भाषण दिया था। पुरी श्रीमन्दिर के श्रीचैतन्यपाद पीठ के सम्बन्ध में सरस्वती जी ने कुछ श्लोकात्मक स्तवों की रचना की थी ।

विरोधियों की जिह्वा स्तम्भन
सन् 1918 के अगस्त और सितम्बर महीने में तत्त्व विषय में ज्ञानहीन पाषण्ड सम्प्रदाय के एक व्यक्ति ने वैष्णव आचार्यों के विरोध में 29 प्रश्न उठाये तो सरस्वती ठाकुर जी ने इन सब प्रश्नों का शास्त्र की युक्तियों के साथ उत्तर देकर भक्ति – विद्वेषि जिह्वा को कंपा कर रख दिया था। कुछ समय पश्चात इसी संदर्भ में ‘प्रतीप के प्रश्नों का प्रत्युत्तर’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई।

भक्तिविनोद आसन और श्रीविश्ववैष्णव राजसभा
कलकत्ता में विशेष रूप से प्रचार शुरु करने के उद्देश्य से श्रीभक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर जी ने नवम्बर, 1918 में 1 न० उल्टाडिंगी जंक्शन रोड पर ‘श्रीभक्ति विनोद आसन’ की स्थापना की फिर वहां से यशोहर और खुलना के विभिन्न स्थानों में भ्रमण कर हरिकथा का प्रचार किया। 5 फरवरी 1919 में कलकत्ता के श्रीभक्ति विनोद आसन में पुन: श्रीविश्ववैष्णव राजसभा की संस्थापना की। 27 जून को गोद्रुम स्वानन्द सुखद कुंज में श्री भक्ति विनोद ठाकुर जी के विग्रह की स्थापना हुई और 18 अगस्त से 18 सितम्बर तक चार सप्ताह के हरिकीर्तन उत्सव का प्रवर्त्तन किया ।

पूर्व बंग में शुभागमन
4 अक्तूबर को मध्वाचार्य जी की आविर्भाव तिथि को प्रभुपाद जी उत्तर और पूर्व बंगाल में हरिकथा का प्रचार करने के लिये निकले। अप्रैल सन् 1920, कुमिल्ला काशिमबाजार के महाराज की समिति में विश्ववैष्णव राजसभा के सम्पादकों सात प्रश्न भेजकर सर्वसाधारण में इस बात का प्रचार किया विद्धववैष्णव धर्म शुद्ध वैष्णव धर्म से अलग है, श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी के अप्रकट होने के ठीक छः साल के बाद 23 जून 1920 को माता ठाकुरानी श्रीभगवती देवी जी नित्यधाम में चली गयीं।

श्रीगौड़ीय मठ प्रकाश
6 सितम्बर 1920 को श्री भक्ति विनोद आसन में श्रीगुरु गौरांग और श्रीराधागोविन्द जी की श्रीमूर्ति स्थापना की और वहां श्रीगौड़ीय मठ की स्थापना हुई ।

वैष्णव मंजूषा :
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी का आज्ञा पालन और शिशिर कुमार घोष महाशय जी के अनुरोध करने पर श्रीसरस्वती ठाकुर जी ने जी ने एक सार्वभौम वैष्णव विश्वकोष का संकलन करने की चेष्टा की थी एवं उसके लिये उन्होंने 1900 से शुरु
कर पुरुषोत्तम धाम, दक्षिण भारत और गौड़मण्डल के विभिन्न स्थानों में स्वयं भ्रमण कर अनेक तथ्यों का संग्रह भी किया था। 1920 अक्तूबर में काशिम बाजार के महाराजा सर मणीन्द्रचन्द्र नन्दी बहादुर की विशेष प्रार्थना पर श्री सरस्वती ठाकुर जी ने काशिमबाजार में शुभ पदार्पण किया और वैष्णव मंजूषा के संकलन का महत्त्व बताकर उन्हें इस कार्य को पूरा करने के लिये आर्थिक रूप से सेवा करने का अनुरोध किया। इस पर महाराज जी ने मंजूषा के कार्य के लिये मासिक निश्चित सहायता करना स्वीकार किया । किन्तु अन्त तक वह पूरी सहायता नहीं दे पाये। श्री सरस्वती ठाकुर जी अपने पार्षदों के साथ काशिमबाजार से सैदाबाद, नोयाल्लिशपाड़ा, खेतुरी आदि श्रीगौरपार्षदों के लीलास्थानों के दर्शन करते रहे एवं हरिकथा का प्रचार करते रहे।

त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण
1 नवम्बर 1920 को श्रीमद्भक्ति विनोद ठाकुर जी के कृपा प्राप्त महामहोपदेशक श्रीमद्जगदीश भक्ति प्रदीप, वैष्णव सिद्धान्त भूषण सम्प्रदाय वैभवाचार्य, बी.ए. महोदय ने सरस्वती ठाकुर जी से त्रिदण्ड सन्यास ग्रहण किया और विश्ववैष्णव राजसभा के सर्वप्रथम त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थ के नाम से जाने गये।

श्रीनवद्वीप धाम परिक्रमा
14 मार्च 1921 में सरस्वती ठाकुर जी ने पुनः श्रीनवद्वीप धाम परिक्रमा आरम्भ की। मार्च के अन्त में पुरी में जाकर सरस्वती ठाकुर जी ने वहां हरिकथा का प्रचार किया। उसी समय श्रीमद्भक्ति प्रदीप तीर्थ स्वामी जी की मीमांसा के साथ ‘आचार और आचार्य’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित हुयी थी जिसने धर्म का व्यवसाय करने वाले और लौकिक गुरु गोस्वामी की उपाधियाँ धारण करने वालों की सम्प्रदाय के विचारों में जड़ से परिवर्तन ला दिया था।

पूर्व बंग में प्रचार और मठ की स्थापना
उसके पश्चात् सरस्वती ठाकुर जी ने प्रचार के लिये ध नबाद, कातरासगड़ व ढाका इत्यादि स्थानों में जाकर वहां हरिकथा का प्रचार किया। ढाका में प्रभुपाद जी ने एक महीने तक “ जन्माद्यस्य ” श्लोक की तीस प्रकार से व्याख्या की तथा 13 अक्टूबर, 1921 में वहां श्री माधव गौड़ीय मठ की स्थापना की और 31 अक्टूबर को ही वहां श्रीविग्रहों की प्रतिष्ठा की तथा धूम-धाम से महोत्सव किया था। ढाका से मैमन सिंह में हरिकथा का प्रचार करने के बाद श्रीसरस्वती ठाकुर जी ने नवद्वीप मण्डल आकर चांपाहाटी में गौरगदाधर जी की लुप्त सेवा को पुनः आरम्भ किया । श्रीवृन्दावनदास ठाकुर जी की आविर्भाव भूमि मोदद्रुम – द्वीप में छत्र प्रतिष्ठा एवं कलकत्ता एवं उसके आसपास के स्थानों में श्रीचैतन्य वाणी का प्रचार किया।

श्रीपुरुषोत्तम मठ
“ह्युत्कले पुरुषोत्तमात् ” उड़ीसा से सारी पृथ्वी पर वैष्णव धर्म का प्रचार होगा व्यास जी की इस वाणी की आराधना के लिये सरस्वती ठाकुर जी ने 9 जून, 1922 को भक्तिकुटी में श्रीपुरुषोत्तम मठ की प्रतिष्ठा और श्रीगौर महाप्रभु जी के विग्रह को प्रकाशित किया। तत्पश्चात् महाप्रभु जी के अनुगमन में श्रीसरस्वती ठाकुर जी ने गुन्डिचा – मार्जन – लीला की तथा पुरुषोत्तम धाम की परिक्रमा की तथा अनवसर काल में अलालनाथ चले गये। श्रील गदाधर पण्डित और ठाकुर भक्ति विनोद जी की अप्रकट तिथि के उपलक्ष में उन्होंने श्रीपुरुषोत्तम मठ में विरह – महोत्सव मनाने का प्रवर्त्तन किया । पुरी से अपने अनुगत प्रचारकों को भेज कर श्रीसरस्वती ठाकुर जी ने कटक, वारिपदा, कूयामारा, उदाला, कप्तिपदा और नीलगिरि इत्यादि स्थानों में चैतन्य वाणी का प्रचार किया।

“गौड़ीय”
19 अगस्त 1922 में भागवत प्रेस से श्रीगौड़ीय मठ के प्रचार की मुख्य साप्ताहिक पत्रिका ” गौड़ीय ” का प्रथम प्रचार
किया गया।

श्रीव्रजमण्डल में
व्रजमण्डल में शुद्धभक्ति कथा के प्रचार केन्द्रों की स्थापना के उद्देश्य से सरस्वती ठाकुर जी 28 अक्टूबर को भक्तों के साथ मथुरा, वृन्दावन और राधाकुण्ड में आ गये । श्रीवृन्दावन में लाला बाबू के मन्दिर में विद्वन्मण्डली से सुशोभित सभा में श्रीमन्महाप्रभु जी की शिक्षा और वैष्णव धर्म के सम्बन्ध में भाषण दिया। इसके कुछ दिनों के पश्चात् श्रीसरस्वती ठाकुर जी ने कार्तिक व्रत के समय ढाका में शुभपदार्पण किया तथा शुद्ध वैष्णव धर्म के यथार्थ स्वरूप पर ,विचार किया। इसके पश्चात ही कुलिया में अपराध भंजन पाट
में प्रकाशित और साँओताल परगणा में हरिकथा का प्रचार किया।

श्रीचैतन्य मठ में मन्दिर
2 मार्च 1923 को श्रीगौरजन्मोत्सव से श्रीचैतन्य मठ के मन्दिर का निर्माण कार्य शुरु हुआ। श्री सरस्वती ठाकुर जी की योजना के अनुसार मन्दिर के मध्य मूल भाग में श्री श्रीगुरु गौरांग और श्री श्रीराधागोविन्द जी के विग्रह एवं चारों कोनों में श्री, ब्रह्म, रुद्र, चतु:सन के साथ क्रमशः श्रीरामाजुनाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीविष्णु स्वामी और श्रीनिम्बार्क जी के आसन बनाये गये।

पुरी में
पश्चिम और पूर्व बंग में प्रचार करने के पश्चात् सरस्वती ठाकुर जी ने दुबारा पुरुषोत्तम मठ के उत्सव के उपलक्ष में पुरी में आकर महाप्रभु जी की विप्रलम्भ लीला का अनुगमन करते हुये रथ के आगे नृत्य किया तथा रथयात्रा में आये बहुत से श्रोताओं के सन्मुख हरिकथा की । उस साल महाराज सर मणिन्द्र चन्द्र नन्दी बहादुर व भद्र के शशीमोहन गोस्वामी इत्यादि अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने हरिकथा श्रवण की। श्रील प्रभुपाद जी ने मयूरभंज और मद्रास प्रेजिडेन्सी में प्रचारकों के द्वारा प्रचार करवाया एवं वर्द्धमान आमलाजोड़ा ग्राम और वरिशाल के वानरिपाड़ा में उन्होंने स्वयं अपने पार्षदों के साथ जाकर हरिकथा का प्रचार किया।

‘श्रीमद्भागवत’ प्रचार
सन् 1923 में श्रीगौड़ीय मठ के वार्षिक उत्सव से पहले कलकत्ता में गौड़ीय प्रिन्टिंग वर्क्स की स्थापना करके वहां से ‘गौरकिशोरान्वय’, ‘स्वानन्दकुंजानुवाद’, ‘अनन्त गोपाल तथ्य’ और ‘सिन्धुवैभव’ ग्रन्थविवृत्ति के साथ अलग -2 खण्डों में छापकर श्रीमद्भागवत् का प्रचार किया।

श्रीव्यास पूजा का प्रथम प्रवर्तन
24 फरवरी 1924 को श्रील सरस्वती ठाकुर जी के आविर्भाव के 50 साल पूरे होने पर 50वीं आविर्भाव तिथि के आने पर श्रीगौड़ीयमठ में व्यासपूजा का प्रथम प्रवर्तन हुआ । उसके उपलक्ष में श्रील प्रभुपाद जी ने जो अभिभाषण दिया था, वह वैष्णव साहित्य के भण्डार के एक अतिमर्त्य अमूल्य रत्न के रूप में प्रकटित हुआ है।

श्रीचैतन्य भागवत्
सन् 1924 में श्रीगौरजन्मोत्सव के अवसर पर श्रीमाध्व गौड़ीय मठ से सरस्वती ठाकुर जी ने श्रीचैतन्य भागवत के प्रथम संस्करण का संपादन किया।

त्रिदण्डि मठ और सारस्वत आसन
7 जुलाई 1924 को भुवनेश्वर में त्रिदण्डिमठ की प्रतिष्ठा, मद्रास प्रेजिडेन्सी में प्रचार और श्रीगौड़ीय मठ में सारस्वत आसन की प्रतिष्ठा करके सरस्वती ठाकुर जी ने भक्तों की अध्यापना और भक्ति विनोद ग्रन्थावली का बहुत प्रचार किया था। सन् 1924 सितम्बर मास के शुरु में मयूरभंज के राउत राय साहब, जस्टिस श्रीयुत मन्मथनाथ मुखोपाध्याय, नेपाल के एक्सिलेन्सी जनरल पुण्य शमशेर राणा जंग बहादुर इत्यादि अति विशिष्ट व्यक्तियों ने गौड़ीय मठ में आकर सरस्वती ठाकुर जी की वाणी श्रवण की थी।

माध्व गौड़ीय सिद्धान्त विचार
अक्तूबर मास में ढाका में पाँचवीं बार पदार्पण कर श्रीमाध्व गौड़ीय मठ में माध्व सम्प्रदाय, मध्व और पूर्णप्रज्ञ दर्शन, मध्व और वर्णाश्रम धर्म एवं माध्व गौड़ीय सिद्धान्त के सम्बन्ध में विशेष खोजपूर्ण भाषण दिया था ।
काशी विश्वविद्यालय में 16 दिसम्बर को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में विद्वानों से सुशोभित सभा में ‘धर्मजगत में वैष्णव धर्म का स्थान’ के सम्बन्ध में भाषण देकर विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग के अध्यक्ष महामहोपाध्याय पण्डित श्रीयुत प्रेमनाथ तर्कभूषण, प्रोफेसर श्री फणीभूषण अधिकारी एम.ए. प्रमुख श्रोत्र मण्डली द्वारा अभिनन्दित हुये । इसके पश्चात् काशी में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के पादांकित स्थानों की खोज की तथा प्रयाग में दशाश्वमेध घाट पर श्री रूपशिक्षा का स्थान निर्देश करते हुये महाप्रभु जी के चरण चिन्हित स्थान आड़ाइल ग्राम में जाकर हरिकथा का प्रचार किया।

गौड़मण्डल परिक्रमा
29 जनवरी 1925 को बहुत से भक्तों के साथ गौड़मण्डल में महाप्रभु जी के पार्षदों के विभिन्न लीला स्थलों की परिक्रमा करते हुए गौर पार्षदों के सेवामय भाव से भावित होकरउन-उन स्थानों पर शुद्ध भक्ति का प्रचार किया। उसी साल नवद्वीप परिक्रमा के अन्तर्गत कोलद्वीप की परिक्रमा के समय जब हाथी की पीठ पर श्री श्रीराधागोविन्द जी को विराजित किया गया और सरस्वती ठाकुर जी अपने पार्षदों और यात्रियों के साथ उनके पीछे-पीछे चल रहे थे, उस समय सपार्षद सरस्वती ठाकुर और परिक्रमाकारी यात्रियों के प्रति ईर्ष्यावश धर्म का व्यवसाय करने वाली सम्प्रदाय के प्रतिनिधि दुराचारियों ने कोलद्वीप के पोड़ामातला में उन पर सैकड़ों ईंटें बरसायी । उस समय इस घटना को प्रत्यक्ष देखने वालों ने ( 24 फागुन 1331 तारीख को ) आनन्द बाजार पत्रिका में लिखा था “ लगभग चार सौ वर्ष पहले उस समय के दो दुराचारियों जगाई और मधाई ने अवधूत नित्यानन्द जी के प्रति जो कार्य किया था आज भी उसी लीला का पुनः अभिनय यहां देखने को मिला। ”

मदन मोहन मालवीय
1 अप्रैल 1925 को पण्डित मदन मोहन मालवीय ने श्रीगौड़ीय मठ में आकर सरस्वती ठाकुर जी से भागवत वाणी और ‘आगमप्रमाण्य’ ग्रन्थ से दैववर्णाश्रम धर्म के विचारों को श्रवण किया था। उसके पश्चात उन्होंने प्रचारक वर्ग को श्रीहट्ट आदि स्थानों में प्रचार करने के लिये भेजा।

 

Prabhupāda Śrīla Bhakti Siddhānta Sarasvatī Gosvāmī Ṭhākura

Śrīla Bhakti Siddhānta Sarasvatī Gosvāmī Ṭhākura was born in the holy pilgrimage place of Jagannātha Purī to Śrīla Bhaktivinoda Ṭhākura, a great Vaisnava acarya in the line of succession coming from Sri Caitanya Mahāprabhu. Although employed as a government magistrate, Śrīla Bhaktivinoda Ṭhākura worked tirelessly to establish the teachings of Lord Caitanya in India. He envisioned a worldwide spiritual movement and prayed for a son to help him achieve his dream.

Appearance in Purī Dhāma

On Friday, February 6, 1874 (Māgha 25, 1280 Bengali, 1795 Śaka), at 3:30 P.M., in the home of Śrīla Bhaktivinoda Ṭhākura, Oṁ Viṣṇupāda Śrīla Bhakti Siddhānta Sarasvatī Gosvāmī Ṭhākura appeared from the womb of Bhagavatī Devī as an effulgent, golden-skinned child. It was kṛṣṇā-pañcamī of the month of Māgha. This house, adjacent to Nārāyaṇa Chātā, is situated not far from the Jagannātha Temple on Grand Road in Purī and was constantly reverberating with the sound of harināma. Those who saw the newborn child were amazed to see a natural symbol of sacred brāhmaṇa thread around his shoulder. Śrīla Bhaktivinoda Ṭhākura named the child after Jagannātha Deva’s parā śakti, Vimalā Devī, calling him Bimalā Prasad.

The Child’s Preference

Six months after the appearance of the child, it was time for the Ratha-yātrā festival. That year, by Lord Jagannātha’s desire, His chariot stopped in front of Śrī Bhaktivinoda Ṭhākura’s house and simply would not move forward. Lord Jagannātha stayed there for three whole days. Under Bhaktivinoda Ṭhākura’s direction, a kīrtana festival was held in front of the deity for the entire three-day period. During one of these days, the six-month-old baby came before Lord Jagannātha in the arms of his mother, he grabbed Jagannātha Deva’s feet and took the garland from around the deity’s neck. Bhaktivinoda Ṭhākura gave the child Jagannātha prasāda for the anna-prāśana ritual in which a child eats its first solid food.

The child stayed in Puruṣottama-dhāma for ten months after his birth, after this he went with his mother in a palanquin by land to Ranaghat in Bengal. He went through his entire childhood in the midst of an extended festival of harināma-saṅkīrtana.