श्रीकृष्ण लीला में जो द्वादश गोपालों के अन्यतम् कुसुमासव गोपाल थे, वे ही श्रीगौरलीला की पुष्टि के लिए, श्रीधर पण्डित के रूप में आविर्भूत हुए थे—
खोलावेचातया ख्यातः पण्डितः श्रीधरे द्विजः।
आसीद् व्रजे हास्यकारी यो नाम्ना कुसुमासवः॥
(गौ. ग.दी. 133 श्लोक)
श्रीधर पण्डित नवद्वीपवासी थे। नौ द्वीपों के समुदाय स्वरूप श्रीनवदीप धाम के अन्तर्गत अन्तर्द्वीप श्रीमायापुर के शेष प्रान्त में, चाँद काज़ी की समाधि की दक्षिण पूर्व दिशा में, श्रीधर जी का निवास स्थान था, जो कि श्रीधर आँगन के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीधर पण्डित के आवास में केलों का कुंज था। वर्तमान समय में स्थूल रूप से देखने पर वह केलों का कुंज नज़र नहीं आता।
श्रीधर ने केले के बगीचे से गुज़ारा करने वाले एक गरीब ब्राह्मण की लीला की थी। विश्वव्यापी श्रीचैतन्य मठ और गौड़ीय मठ समूह के प्रतिष्ठाता, नित्य लीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्रीभक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने श्रीधर पण्डित की पुण्य स्मृति का संरक्षण करने के लिए, श्रीधर आँगन के स्थान को प्रकट किया। इस प्राकट्य से पहले भी श्रीधर आँगन के स्थान पर नियमित रूप से सेवा पूजा की व्यवस्था थी परन्तु चारों ओर की प्रतिकूलताओं के कारण वर्तमान समय में यह पुनः संगोपित हो रही है। नवद्वीप-धाम की परिक्रमा के समय भक्त-गण अब भी वहाँ जाकर श्रीधर पण्डित के लिए दण्डवत् प्रणाम करते हैं तथा श्रद्धा व पूजा की सामग्री भी निवेदित करते हैं। श्रीभक्ति विनोद ठाकुर रचित श्री’नवद्वीप धाम माहात्म्य’ में इस प्रकार लिखा है कि जुलाहों के गाँव के बाद ही खोला बेचा श्रीधर जी का स्थान आता है। यहीं पर श्रीमन् महाप्रभु जी ने कीर्तन किया था व विश्राम भी किया था।
श्रीजीव गोस्वामी जी के प्रति श्रीनित्यानन्द जी की उक्ति है—
तबे तन्तुवाय-ग्राम हइलेन पार।
देखिलेन खोला बेचा श्रीधर आगार॥
प्रभु बले,-एइ स्थाने श्रीगौराङ्ग हरि।
कीर्त्तन विश्राम कैल भक्ते कृपा करि’॥
एइ हेतु विश्रामस्थान एई नाम।
हेथा श्रीधरेर घरे करह विश्राम॥
(नबद्वीप-धाम-माहात्म्य)
उक्त धाम माहात्म्य ग्रन्थ में श्रीधर के केले के बगीचे के निकट एक सरोवर के होने की बात भी लिखी है। इस सरोवर का भी बाह्य दर्शन आजकल लुप्त हो गया है।
दुनियावी धन व ऐश्वर्य की प्राप्ति भगवद्-कृपा का चिन्ह नहीं हैं। जो भगवत्-प्रेम के धन से मालामाल हैं, वे ही यथार्थ में भगवद्-कृपा प्राप्त व्यक्ति हैं। महाप्रभु जी ने अपने पार्षद श्रीधर के द्वारा यही शिक्षा प्रदान की है कि विष्णु भक्त निर्विषयी होते हैं जबकि देवी-देवताओं के भक्तों की अक्सर बाह्य सांसारिक उन्नति दिखाई देती है। श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीधर द्वारा लोक-शिक्षा के लिए श्रीधर के घर जाकर उनके दारिद्रय दु:ख के कारण के सम्बन्ध में जिज्ञासा की। महाप्रभु जी ने श्रीधर को पूछा कि क्या बात है लक्ष्मीपति की सेवा करने पर भी आपको अन्न-वस्रादि का अभाव है व आपका मैला-कुचैला घर है जबकि दूसरे पक्ष में चण्डी विषहरि की पूजा करके साधारण लोग सांसारिक वस्तुओं से मालामाल रहते हैं?
उत्तर में श्रीधर बोले—”राजा महलों में वास करके, उत्कृष्ट द्रव्यों का भोजन करके जिस प्रकार समय गुजारते हैं, पक्षी भी उसी भाव से वृक्ष पर घोंसले में वास करके नाना स्थानों से आहार संग्रह करके और उसे खाकर समय व्यतीत करते हैं। इससे राजा और पक्षी के बीच विषय सुख-भोग में कोई खास अन्तर नहीं है।”
श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीधर से कहा—”बाहरी रूप से तुम दरिद्रता की लीला करते हुए भी असली धनी हो। वैष्णव वास्तव में सर्वोत्तम सर्वैश्वर्य के अधिकारी व समस्त वस्तुओं के मालिक होते हैं। इस बात को मैं शीघ्र ही सारे मूर्ख अनभिज्ञ जगत के समक्ष व्यक्त करूँगा।”
धन-सम्पदा व अट्टालिका आदि सब प्रकार के पार्थिव विषय सुख से वन्चित व्यक्ति को हम साधारणतया दरिद्र और भाग्यहीन कहते हैं। जिनके यहाँ इन विषयों की प्रचुरता हो, उसको धनी और भाग्यवान् कहा जाता है। परन्तु दरिद्र और धनी का तात्त्विक अर्थ भिन्न है। देखो न, आनन्द के लिए धन अर्जित किया जाता है, दुःख के लिए नहीं। इसलिए आनन्द ही असली धन है। परब्रह्म श्रीकृष्ण परमानन्द स्वरूप हैं। इसलिए श्रीकृष्ण में प्रीति रखने वाला व्यक्ति ही धनी होता है तथा उनसे विमुख व्यक्ति दरिद्र होता है—ये ही धनी और दरिद्रता का तात्विक अर्थ है। उदाहरण स्वरूप श्रीकृष्ण भक्त विदुर की लीला करते हुए भी, कृष्ण-प्रेमधन के कारण धनी थे। दूसरे पक्ष में महाराज दुर्योधन अतुल ऐश्वर्य के स्वामी होने पर भी श्रीकृष्ण की विमुखता के कारण दरिद्र थे। स्वयं भगवान् कृष्णचैतन्य महाप्रभु जी ने अपने प्रिय पार्षद-दरिद्र की लीला करने वाले (केला बेचने वाले ) श्रीधर के माध्यम से असली धनी और भाग्यवान् कौन हैं—यह जगतवासियों को बताया। भगवान् भक्ति द्वारा ही वशीभूत होते हैं, अन्य किसी साधन से नहीं: –
भक्तयाहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयात्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्र्वपानकानपि सम्भवात्॥
(भा. 11/14/21)
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तत्या प्रयच्छति।
तदहं भक्तयुपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥
(गीता 6/26)
(जो कोई भी मुझे प्रेम से पत्र, पुष्प, फल या जल भी भेंट करता है, मैं उस भक्त के सामने प्रकट होकर उस वस्तु को ग्रहण कर लेता हूँ।)
भक्तिपूर्वक दिए हुए पत्र, पुष्प, फल और जल को भी भगवान् ग्रहण करते हैं, खाते हैं जबकि अभक्त द्वारा दिए हुए पदार्थ वे ग्रहण नहीं करते।
भक्तेर द्रव्य प्रभु काड़ि-काड़ि खाय।
अभक्तेर द्रव्य प्रभु उल्टी ना चाय॥
अर्थात् भक्तों के द्रव्यों को प्रभु छीन झपट कर खाते हैं जबकि अभक्त के द्रव्य के प्रति वे उल्ट कर भी देखना नहीं चाहते। भगवान् श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के द्वारा दिए हुए बहुमूल्यवान् सुस्वादु द्रव्यों का परित्याग करके विदुर और उनकी पत्नी द्वारा प्रदत्त मामूली वस्तुओं को ग्रहण किया था। स्वयं भगवान श्रीमन्महाप्रभु की भक्त श्रीधर के द्रव्यों की छीना-झपटी एक अद्भुत रसमयी लीला है।
महाप्रभु जी के विद्या-विलास के समय श्रीधर केले के फूल और केले के पेड़ के भीतर का डण्डा(जिसकी बंगाल में सब्जी बनायी जाती है) बेच कर जीवन-यापन करते थे। बिक्री द्वारा जो सामान्य धन की प्राप्ति होती थी, उसके आधे के द्वारा वे गंगा पूजा और आधे के द्वारा किसी प्रकार से अपना जीवन-यापन करते थे। वे युधिष्ठिर की तरह महा-सत्यवादी थे। द्रव्यों के यथार्थ मूल्य ही बताते थे, नवद्वीप में उनकी यह बात सभी जानते थे। किन्तु महाप्रभु श्रीधर के पास आकर श्रीधर के बताए मूल्य का आधा देकर उनसे थोर, केला, मोचा ले जाने के लिए खींचातानी, छीना-झपटी करके प्रतिदिन चार दण्ड(डेढ घण्टा) उनसे झगड़ा करते।
प्रतिदिन चारि दण्ड कलह करिया।
तबे से किनये द्रव्य अर्ध्दमूल्य दिया॥
सत्यवादी श्रीधर यथार्थ मूल्य बले।
अर्द्धमूल्य दिया प्रभु निज हस्ते तोले॥
उठिया श्रीधर दास करे काड़ाकाड़ि।
एइमत श्रीधर-ठाकुरेर हुड़ाहुड़ि॥
(चै.भा.म. 9/163-165)
अर्थात प्रतिदिन चार दण्ड (डेढ घण्टा) महाप्रभु जी व श्रीधर जी में प्रेम भरा झगड़ा होता रहता है, तब भी महाप्रभु जी उनसे आधे दाम देकर जबरदस्ती सब्जी इत्यादि खरीद लेते थे। सत्यवादी श्रीधर जी तो ठीक-ठाक मूल्य ही बताते थे परन्तु महाप्रभु जी तुरन्त उसका आधा मूल्य देकर सब्जी उठा लेते थे। तभी श्रीधर भी उठकर वह सब्जी उनके हाथ से लेने लगते, तभी ऐसा दृश्य बनता कि श्रीधर लौकी इत्यादि सब्जी को अपनी ओर खींचते तो महाप्रभु जी अपनी ओर। इस प्रकार भक्त और भगवान आपस में प्रेम की खींचातानी करते रहते।
श्रीधर के साथ कलह कर लेने पर भी उनको गुस्सा होते न देख, गौरसुन्दर उनका सारा द्रव्य छीन लेते। बाहरी रूप से घटना इस प्रकार होने पर भी, असलियत में गौरसुन्दर की सौम्य मूर्ति देख कर उनके द्वारा बलपूर्वक द्रव्यादि छीने जाने पर भी श्रीधर क्रुद्ध नहीं होते थे। श्रीधर महाप्रभु जी की श्रीमूर्ति देख कर मुग्ध हो जाते और आनन्दसागर में डूबने उतराने लगते। महाप्रभु जी भी उनसे कलह के समय परम संतोष के साथ प्यार भरी गाली देते और इशारे से अपना तत्त्व व्यक्त करते हुए श्रीधर से इस प्रकार कहते—
प्रत्यय गंगारे द्रव्य देह’ त किनिया।
आमारे वा किछु दिले मूल्येते छाड़िया॥
ये गंगा पूजह तुमि, आमि तार पिता।
सत्य सत्य तोमारे कहिल एइ कथा॥
(चै.भा.म. 9/178-179)
अरे, तुम गंगा जी को भी तो कुछ न कुछ खरीद कर देते हो। तो मुझे भी थोड़ा सस्ता दे दिया करो, सच-सच बताऊँ, जिन गंगा जी की तुम पूजा करते हो, मैं उसका पिता हूँ।
एक दिन श्रीधर ने महाप्रभु जी से समझौता कर लिया कि वे उन्हें बिना मूल्य के ही लौकी, केले के थोर व मोचा आदि सब्जियाँ दिया करेंगे, तब से महाप्रभु जी श्रीधर के द्रव्यों से साग-सब्ज़ी बना कर परम तृप्ति के साथ अन्न खाते थे।
प्रभु बले,-“भाल, भाल आर नाहि दाय।“
श्रीधरेर खोले प्रभु प्रत्यह अन्न खाय॥
भक्तेरे पदार्थ प्रभु हेनमते खाय।
कोटि हैलेओ अभक्तेर उलटि ना चाय॥
(चै.भा.म. 9/184-186)
अर्थात महाप्रभु जी कहते हैं—बहुत बढ़िया-बहुत बढ़िया, अब कोई झमेला नहीं है। इस प्रकार महाप्रभु जी प्रतिदिन श्रीधर जी के यहाँ से लाई हुई सब्जी के साथ अन्न ग्रहण करते थे। भक्तों के पदार्थों को भगवान इसी प्रकार खाते हैं जबकि अभक्तों के द्रव्य संख्या में करोड़ों होने से भी वे उनकी तरफ मुड़ कर भी नहीं देखते।
श्रीवास पण्डित जी के आँगन में जिस समय महाप्रभु जी ने विष्णु-सिंहासन पर बैठ कर सात प्रहर तक महाप्रकाश लीला की तो भक्तों को अपना ऐश्वर्य रूप दिखाने के लिए विष्णु जी के सभी अवतारों के रूपों को प्रकट किया था। उस समय भक्तों द्वारा लाए गए श्रीधर को भी महाप्रभु जी ने अपना ऐश्वर्य रूप दिखा कर कृतार्थ किया था।
श्रीधर अपने घर में सारी रात जाग कर उच्च स्वर से हरिनाम करते थे, जिससे भक्त तो सुखी होते थे परन्तु अभक्त नींद में व्याघात् पहुँचने पर नाना प्रकार के कटु-वाक्यों द्वारा उनकी भर्त्सना करते।
महाप्रकाश लीला के दिन महाप्रभु जी की आज्ञा से जब भक्त-गण उनको लाने के लिए उनके घर गये तो आधे रास्ते से ही श्रीधर के द्वारा उच्चारित हरिनाम सुन कर उनके घर में उपस्थित हुए थे। श्रीधर, श्रीवासांगन में महाप्रभु जी की अपूर्व ऐश्वर्य मूर्ति के दर्शन करके मूर्च्छित हो गए। महाप्रभु जी के वाक्यों से पुनः चैतन्यता पाकर व महाप्रभु जी की कृपा संचारित शक्ति से उन्होंने महाप्रभु जी का अपूर्व स्तव किया।
महाप्रभु जी उनके स्तव से सन्तुष्ट होकर उन्हें अष्ट सिद्धि रूप वर देना चाहते थे, परन्तु श्रीधर ने वह न लेकर महाप्रभु जी के पादपद्मों की सेवा के लिए ही प्रार्थना की—
‘माग माग’ पुनः पुनः बले विश्वम्भर।
श्रीधर बलये-“प्रभु, देह’ एइ वर॥
ये ब्राह्मण काड़ि’ निले मोर खोलापात।
से ब्राह्मण हउक मोर जन्म जन्म नाथ॥”
ये ब्राह्मण मोर संगे करिल कन्दल।
मोर प्रभु हउक ताँर चरणयुगल॥
(चै.भा.म. 9/223-225)
अर्थात महाप्रभु के वर माँग-वर माँग, कहने पर श्रीधर जी कहते हैं कि यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो ये वर दीजिए कि जो ब्राह्मण मुझ से सब्जी छीनने के लिये आया करता था वह ब्राह्मण ही मेरा जन्म-जन्मान्तर का नाथ बन जाये। जिस ब्राह्मण के साथ मेरा प्रेम भरा झगड़ा होता था, उनके चरण कमल ही मेरे पूज्य रहें—
धन-नाहि, जन नाहिक, नाहि पांडित्य।
के चिनिवे ए सकल चैतन्येर भृत्य॥
कि करिवे विद्या, धन, रूप, यश, कुले।
अहंकार बाड़ि’ सब पड़ये निर्मूले॥
कला मूला बेचिया श्रीधर पाइला याहा।
कोटिकल्पे कोटीश्वर ना देखिवा ताहा॥
(चै.भा.म 9/233-235)
अर्थात धन नहीं है, पीछे जन समूह नहीं तथा विद्वता भी नहीं है-ऐसे श्रीचैतन्य महाप्रभु के सेवक को कौन पहचानेगा। ये विद्या, धन, रूप, यश व ऊँचा कुल क्या मेरा उद्धार करवायेगा, ये तो मात्र अहंकार को बढ़ाकर पतन ही करवायेगा। केले इत्यादि की सब्जी बेचकर श्रीधर जी ने जो प्राप्त किया, करोड़ों कल्पों में देवताओं ने वह देखा भी नहीं होगा।
दुनियावी ज्ञान से अर्थात् बाहरी परिचय से वैष्णव का स्वरूप पहचानना असम्भव है। अधिक धन रहने से ही उसकी अधिक वैष्णवता हो, ऐसा नहीं। अधिक लोगों को इकट्ठा कर पाने से ही वे अधिक वैष्णव हो सकेंगे, ऐसा भी नहीं। शास्त्रादि में अधिक पाण्डित्य प्राप्त करने से वे विष्णु भक्त हो जाएँगे, ऐसा भी नहीं। श्रीचैतन्य दासगणों का अधिक धन नहीं भी हो सकता, उनका अधिक लोक-संग्रह नहीं भी हो सकता, उनका अधिक तर्क-वितर्क रूप पाण्डित्य का अधिकार नहीं भी हो सकता किन्तु वे इन सब विषयों से क्यों उदासीन हैं, इसे जानने का अधिकार जनसाधारण का नहीं है अर्थात् वे इसे नहीं समझ सकते। वास्तविकता ये है कि श्रीचैतन्य सेवा को ही वे धन, जन और पाण्डित्य की अपेक्षा अधिक मानते हैं। इसलिए उनका गौरव, महिमा और श्रेष्ठता लोकदृष्टि से देखे जाने की सम्भावना नहीं है। —श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर
वैष्णव चिनिते पारे काहार शक्ति।
आछये सकल सिद्धि देखये दुर्गति॥
खोलावेचा श्रीधर ताहार एइ साक्षी।
भक्तिमात्र निल अष्ट-सिद्धिके उपेक्षि॥
यत देख वैष्णवेर व्यवहार दुःख।
निश्चय जानिह सेइ परानन्दसुख॥
विषय मदान्ध सब किछुइ ना जाने।
विद्यामदे धनमदे वैष्णव ना चिने॥
(चै.भा.म. 9/238-241)
अर्थात वैष्णव को पहचानने की शक्ति भला किसमें हो सकती है, क्योंकि आठों सिद्धि उनके पास होते हुए भी दुनियावी दृष्टि से उनमें दुर्गति देखी जाती है। केले की सब्जी बेचने वाले श्रीधर इसके जवलन्त प्रमाण हैं। सभी के सामने उन्होंने आठों सिद्धियों को न माँगकर भगवान से भक्ति ही माँगी।
वैष्णवों के जितने भी व्यवहारिक दुःख देखे जाते हैं, उनमें उन्हें दुखी मत समझना, निश्चय जानना कि उन्हें परानन्द सुख की अनुभूति हो रही है। विषयों के मद में अन्धे जीव वैष्णव के इस रहस्य के बारे में कुछ भी नहीं जानते, और यही कारण है कि विद्या, धनादि के मद से वे वैष्णवों को नहीं पहचान पाते।
श्रीमन्महाप्रभु चाँदकाजी के उद्धार की लीला के बाद संकीर्तन और नृत्य करते-करते (शंखों का व्यवसाय करने वाले) शंखवणिक नगर व जुलाहों के मोहल्ले को पार कर जब श्रीधर-आँगन में पहुँच गए, तो उन्होंने श्रीधर के घर के जल से भरे पुराने लोहे के बर्तन को उठा कर परम तृप्ति के साथ पानी पिया। टूटे हुए जल के पात्र में प्रभु को पानी पीते देख कर श्रीधर उच्च स्वर से रोते हुए मूर्छित होकर गिर पड़े। भक्त का जल पीने से भक्ति का लाभ होता है—श्रीमन्महाप्रभु जी ने आचरण करके इसकी शिक्षा दी। भक्त के पुराने लोहे के बर्तन का पानी भी भगवान् के निकट अमृत के समान व परम आदरणीय होता है। दूसरी ओर अभक्त दाम्भिक का रत्न के पात्र में दिया हुआ जल भी भगवान् के लिए उपेक्षित होता है—
ओहे श्रीधरेर भांगा घर देखि दूरे।
मंद-मंद हासे एथा उल्लास अंतरे॥
ए पथे श्रीधर घरे गिया गण सने।
देखे फूटा लौहपात्र आछये आँगने॥
बाहिरेर जल ताथे आछये किंचित्।
ताहा पिये गौरचन्द्र हैया उल्लासित॥
भक्त-वत्सल प्रभु प्रेमाय विह्वल।
सुरधुनी धारा प्राय नेत्रे वहे जल॥
श्रीधर आँगने हैल अद्भुत कीर्तन।
कांदे नित्यानन्दाद्वैत आदि यत जन॥
ये सुख हइल एइ श्रीधरेर घरे।
ताहा मने करितेइ अंतर विदरे॥
(भक्ति रत्नाकर 62/3136-3141)
श्रीधरेर लौहपात्रे कैल जलपान।
समस्त भक्तेरे दिल इष्ट वरदान॥
(चै.च.आ. 17/70)
अर्थात भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में श्रीधर जी के प्रसंग में लिखा है कि महाप्रभु जी जब अपने भक्तों को साथ लेकर जुलाहों के मुहल्ले को पार कर रहे थे तो वे अपने भक्तों को बड़े उत्साह के साथ व मुस्कराते हुए कहते हैं कि देखो, वह दूर टूटा सा श्रीधर का मकान दिखाई दे रहा है। शायद, इसी रास्ते से श्रीधर जी अपने साथियों के साथ घर गये होंगे। उनके घर के पास पहुँच कर महाप्रभु जी ने देखा कि उनके आँगन में एक लोहे का बर्तन पड़ा है और उसमें कुछ पानी भी है तो बड़े उल्लास के साथ महाप्रभु जी ने वह बर्तन उठाया और गट् गट् करके सारा पानी पी गए। पानी पीकर भक्त-वत्सल महाप्रभु जी प्रेम में विह्वल हो उठे और गंगा की धारा के समान उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे। उसके बाद श्रीधर जी के आंगन में अद्भुत संकीर्तन का प्रारम्भ हुआ जिसमें नित्यानन्द जी व श्रीअद्वैताचार्य आदि भक्त संकीर्तन करते-करते प्रेमावेश में बहुत रोये। जो भी हो, श्रीधर जी के घर पर जो आनन्द वितरित हुआ उसका वर्णन करना मुश्किल है।
श्रीचैतन्य चरितामृत में लिखा है कि श्रीधर के लोहे के पात्र से जल-पान करके महाप्रभु जी ने सभी भक्तों को उनके इच्छित वर प्रदान किये।
काटोया में संन्यास ग्रहण करने के बाद ही प्रेमोन्माद की अवस्था में महाप्रभु जी वृन्दावन के लिए चल पड़े तथा वृन्दावन की यात्रा के समय श्रीमन्महाप्रभु तीन दिन तक राढ़ देश में ही भ्रमण करते रहे और जब नित्यानन्द प्रभु जी द्वारा बड़ी चतुराई से शान्तिपुर में लाए गए तो उस समय शची माता व नवद्वीप-वासी भक्तों के साथ मिले। उस समय हुए भक्तों के साथ साक्षात्कार में श्रीधर भी महाप्रभु जी से मिले थे।
संन्यास ग्रहण के अभिप्राय से गृहत्याग से पूर्व श्रीधर जी के द्वारा दी हुई लौकी महाप्रभु जी ने प्रीति सहित ग्रहण की थी। श्रीमन् महाप्रभु जी की इच्छा के अनुसार शची माता ने श्रीधर द्वारा दी हुई लौकी और दूध द्वारा “दुग्ध-लौकी” पदार्थ की रसोई की थी।
एक लाउ हाते करि’ सुकृति श्रीधर।
हेनइ समये आसि’ हइला गोचर॥
लाऊ-भेट देखि’ हासे श्रीगौरसुन्दर।
“कोथाय पाइला?” प्रभु जिज्ञासे ताहारे॥
जिन-मने जाने प्रभु “कालि चलिवाङ।
एइ लाउ भोजन करिते नारिलाङ॥
श्रीधरेर पदार्थ कि हइबे अन्यथा।
ए लाऊ भोजन आजि करिब सर्वथा॥”
(चै.भा.म. 27/33-36)
अर्थात ठीक उसी समय परम सुकृतिवान श्रीधर जी हाथ में लौकी लिए खड़े दिखाई दिये। लौकी को देखकर श्रीमन् महाप्रभु जी अपनी हंसी न रोक पाये और हँसते-हँसते कहने लगे—अरे, ये लौकी कहाँ मिली तुम्हें?
फिर महाप्रभु जी सोचने लगे कि ये श्रीधर मेरे लिए लौकी लेकर आया है परन्तु कल तो मैं चला जाऊँगा तो क्या मैं इस लौकी का भोजन नहीं कर पाऊँगा? श्रीधर के द्वारा लायी ये लौकी क्या बेकार चली जाएगी, कि तभी मन-ही-मन अपने निर्णय को बदला महाप्रभु जी ने और उसी दिन उस लौकी की रसोई बनाने का आदेश दिया; ये सोचकर कि श्रीधर की लौकी खाकर ही मैं यहाँ से जाऊँगा।
श्रीधर अन्यान्य गौड़ देशीय भक्तों के साथ हर वर्ष रथ-यात्रा के समय पुरी जाते थे।
स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से