श्री चैतन्य महाप्रभु के जो साड़े तीन व्यक्ति अन्तरंग भक्त थे, उनमें श्रीस्वरूप दामोदर भी एक थे। एक अन्य स्थान पर स्वरूप दामोदर को सर्व प्रधान कहा गया है।

प्रभु लेखा करे यारे राधिकार ‘गण’।
जगतेर मध्ये ‘पात्र’-साड़े तिन जन।
स्वरूप-गोसाञि, आर राय-रामानन्द।
शिखि माहिति—तिन, तांर भगिनी अर्द्धजन॥
(चै.च.अ. 2/105-106)

सबार अध्यक्ष प्रभुर मर्म दुइजन।
परमानन्दपुरी, आर स्वरूप-दामोदर॥
(चै.च. आ. 10/124-125)

अवतरि’ प्रभु प्रचालित संकीर्त्तन।
एहो बाह्य हेतु, पूर्वे करियाछि सूचना॥

अवतारेर आर एक आछे मुख्यबीज।
रसिकाशेखर कृष्णेर सेई कार्य निज॥
अति गूढ़ हेतू सेइ त्रिविध प्रकार।
दामोदर स्वरूप हैते याहार प्रचार॥
स्वरूप-गोसाञि—प्रभुर अति अन्तरंग।
ताहाते जानेन प्रभुर एसब प्रसंग॥
(चै.च.आ. 4/102-105)

श्रीगौर लीला में राधा भाव-द्युति सुवलित कृष्ण-स्वरूप गौरसुन्दर के द्वितीय स्वरूप है-श्रीस्वरूप दामोदर जी। चूँकि स्वरूप दामोदर श्रीमन्हाप्रभु के अति अन्तरंग थे, इसलिये वे श्रीमन्महाप्रभु अवतार के लीला –रहस्यों के गूढ़ कारणों को जानते थे। श्रीस्वरूप दामोदर से ही श्रीमन्महाप्रभु की गूढ़ लीला के रहस्य आदि प्रचारित हुए हैं। ब्रज लीला में ये ललिता सखी, राधिका की द्वितीय स्वरूप थीं। ये भी ठीक है कि गौर गणोद्देशदीपिका में स्वरूप दामोदर को विशाखा सखी के रूप में भी निर्देश किया गया है।

कलामशिक्षयद्राधां या विशाखा व्रजे पुरा।
साद्य स्वरूपगोस्वामी तत्तद्भावविलासवान्॥
(गौ. ग. दी. 160 श्लोक)

श्रीमन् महाप्रभु ने पुरी में अपनी अन्त्यलीला के आखिरी बारह वर्ष निरन्तर राधा भाव में विभावित रहकर जिन दो अन्तरंग भक्तों के साथ गूढ़ प्रेम रस का आस्वादन किया था, वे दो अन्तरंग भक्त थे—श्रीस्वरूप दामोदर और राय रामानन्द।

चण्डीदास, विद्यापति, रायेर नाटक-गीति, कर्णामृत श्रीगीतगोविन्द।
स्वरूप-रामानन्द-सने, महाप्रभु रात्रि-दिने, गाय, शुने-परम आनन्द॥
पुरीर वात्सल्य मुख्य, रामानन्देर शुद्धसख्य, गोविन्दाद्येर शुद्धदास्यरस।
गदाधर, जगदानन्द, स्वरूपेर (मुख्य) रसानन्द, एइ चारिभावे प्रभु वश॥
(चै.च. म. 2/77-78)

इन पद्यों के अनुभाष्य में श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद लिखते हैं कि श्रीपरमानन्द पुरी (जो व्रज के उद्धव हैं) का वात्सल्य रस प्रधान है। श्रीराय रामानन्द (अर्जुन या विशाखा) का शुद्ध सख्यभाव, श्रीगोविन्द आदि का सेवा परायण शुद्ध दास्य तथा अन्तरंग भक्त गदाधर जी, जगदानन्द तथा श्रीस्वरूप दामोदर का मधुर रस मुख्य है। श्रीमन् महाप्रभु इन भक्तों के पास इन चार भावों से ही भजन-संग-सुख सेवा ग्रहण करने को बाध्य थे—

चैतन्यलीला-रत्न-सार, स्वरूपेर भाण्डार, तेंहो थुइल रघुनाथेर कण्ठे।
ताहाँ किछु जे शुनिलुँ, ताहा इहा विस्तारिलुँ, भक्तगणे दिलुँ एइ भेटे॥
(चै.च. म. 2/84)

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने श्रीचैतन्य चरितामृत की मध्य लीला के द्वितीय परिच्छेद के इन उपरोक्त पयारों के अमृत प्रवाह भाष्य में लिखा है कि स्वरूप दामोदर के कड़चा (निजी डायरी) की अलग से कोई पुस्तक नहीं मिलती। श्रीचैतन्य चरितामृत ही स्वरूप दामोदर के कड़चा का निष्कर्ष है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने लिखा है कि श्रीमन् महाप्रभु की शेष लीला को स्वरूप दामोदर ने सूत्र रूप से अपनी व्यक्तिगत डायरी में नोट करके रघुनाथ दास गोस्वामी को कण्ठस्थ करवाकर कृष्णदास कविराज गोस्वामी के माध्यम से जगत में प्रचारित करवाया। श्रीस्वरूप दामोदर व श्रीराय रामानन्द श्रीमन् महाप्रभु के कितने प्रिय थे, इसका श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्रीचैतन्य चरितामृत की अन्त्य लीला के पन्द्रहवें परिच्छेद में वर्णन किया है—

एत कहि’ गौरहरि, दुइजनार कण्ठ धरि’,
कहे शुन, स्वरूप-रामराय।
काँहा करों, काँहा जाउ, काहाँ गेले कृष्ण पाउ,
दुँहै मोरे कह से उपाय॥
एइमत गौरप्रभु प्रति दिन-दिने।
विलाप करेन स्वरूप-रामानन्द-सने॥
(चै.च.अ. 15/24-25)

इतना कहकर श्रीगौर हरि दोनों अर्थात् श्रीस्वरूप दामोदर व राय रामानन्द के गले में बाहें डाल कर कहते हैं-हे स्वरूप! हे रामानन्द!! मैं क्या करूँ? मैं कहाँ जाऊँ? कहाँ जाने से मुझे श्रीकृष्ण मिलेंगे? आप दोनों मिलकर मुझे ऐसा कोई उपाय बताओ। इस प्रकार श्रीमन् महाप्रभु प्रतिदिन श्रीकृष्ण विरह में श्रीस्वरूप एवं राय रामानन्द दोनों को लेकर विलाप करते रहते थे। श्रीस्वरूप दामोदर व श्रीराय रामानन्द श्रीकृष्ण कर्णामृत, श्रीविद्यापति के पदावली-ग्रन्थ एवं श्रीगीत गोविन्द के श्लोक सुना कर उन्हें आनन्द प्रदान करते थे तथा उन्हें आश्वासन देते रहते थे –

सेई दुईजन प्रभुरे करे आश्वासन।
स्वरूप गाय, राय करे श्लोक पठन॥
कर्णामृत, विद्यापति, श्रीगीतगोविन्द।
इहार श्लोक-गीते प्रभुर कराय आनन्द॥
(चै.च.अ. 15/26-27)

पुनः श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला के बीसवें परिच्छेद (3-4) में—

एइमत महाप्रभु वैसे नीलाचले।
रजनी-दिवसे कृष्ण-विरहे विह्वले॥
स्वरूप, रामानन्द—एइ दुईजन सने।
रात्रिदिने रस-गीत- श्लोक आस्वादने॥

इस प्रकार नीलाचल में महाप्रभु दिन-रात कृष्ण-विह्वल रहते, श्रीस्वरूप दामोदर तथा राय के साथ सारी रात गीतों व श्लोकों का आस्वादन करते थे।

श्रीचैतन्य भागवत में श्रीवृन्दावनदास ठाकुर ने भी श्रीस्वरूप दामोदर को महाप्रभु के पार्षदों में अग्रगण्य तथा उनके अप्राकृत प्रेम रसमय कीर्त्तन के श्रवण से प्रभु के बाह्य ज्ञान शून्य होने की कथा का इस प्रकार वर्णन किया है—

दामोदर स्वरूपेर उच्च-संकीर्तन।
शुनिले ना थाके बाह्य, पड़े सेइक्षण॥
संन्यासी-पार्षद यत ईश्वरेर हय।
दामोदर स्वरूप-समान केहो नय॥
यत प्रीति ईश्वरेर पुरीगोसाञिरे।
दामोदर स्वरूपेर तत प्रीति करे॥
दामोदर स्वरूप—संगीत रसमय।
याँ’र ध्वनि श्रवणे प्रभुर नृत्य हय॥
(चै. भा. अ. 10/40-43)

अर्थात स्वरूप दामोदर के द्वारा उच्च संकीर्तन सुनने से श्रीमन् महाप्रभु इतने प्रेम में विह्वल हो जाते थे कि वे उस संकीर्तन ध्वनि में अपनी सारी बाहरी सुध-बुध खो जाते थे।

श्रीवृन्दावन दास ठाकुर श्रीचैतन्य भागवत में लिखते हैं कि महाप्रभु के जितने भी संन्यासी पार्षद हैं, उनमें स्वरूप दामोदर के समान कोई भी नहीं है, श्रीमन् महाप्रभु जितनी प्रीति श्रीईश्वर पुरी से करते हैं, उतनी ही प्रीति वे स्वरूप दामोदर से करते हैं। स्वरूप दामोदर का संगीत बड़ा रसमय होता था। जिसकी ध्वनि सुनने मात्र से महाप्रभु भाव विभोर होकर नृत्य करने लगते थे।

इस जगत की लीला में श्रीस्वरूप दामोदर का जो परिचय मिलता है, उससे मालूम है कि ये पूर्वाश्रम में पुरुषोत्तम आचार्य या पुरुषोत्तम भट्टाचार्य के नाम से प्रसिद्ध थे। ‘श्रीगौड़ीय वैष्णव-अभियान’ में पुरुषोत्तम आचार्य के पिता-माता का व उनके जन्म स्थान का परिचय इस प्रकार से है-इनके पिता का नाम श्रीपद्मगर्भाचार्य है। माता के नाम का उल्लेख नहीं है। हाँ, इनके नाना के नाम का उल्लेख अवश्य पाया जाता है। इनके नाना का नाम श्रीजय चक्रवर्ती था। आपका आदि निवास था, भिटादिया (पूर्व बंगाल में ब्रह्मपुत्र नदी का तटवर्ती इलाका)।

जयराम चक्रवर्ती नवद्वीप में वास करते थे। आपने अपनी कन्या के साथ पद्मगर्भाचार्य का विवाह करके उन्हें भी नवद्वीप में वास करवाया था। कुछ दिन के बाद पुरुषोत्तम आचार्य का आविर्भाव हुआ। पद्मगर्भाचार्य ने अपनी पत्नी को पुत्र के साथ उसके मायके में रख दिया और स्वयं मिथिला, काशी इत्यादि स्थानों पर शास्र अध्ययन के लिए प्रस्थान कर गये। श्रीपुरुषोत्तम आचार्य ननिहाल में लालित-पालित होने लगे। बाद में जब महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण कर लिया, तब महाप्रभु के विरह में पुरुषोत्तम आचार्य नवद्वीप में न रह सके। वह भी वाराणसी में जाकर संन्यासी बन गये।

प्रेम विलास में इस प्रकार लिखा है –

मातामह पुरुषोत्तम हइल नवद्वीपवासी।
चैतन्येर प्रिय भक्त हैल गुणराशि॥
चैतन्येर संन्यास देखी’ पागल हइया।
संन्यास ग्रहण कैल वाराणसी गिया॥
संन्यास आश्रमेर नाम-स्वरूप दामोदर।
प्रभु अति मर्मी भक्त रसेर सागर॥

(श्रीपुरुषोत्तमाचार्य अपने नाना के पास नवद्वीप में रहते थे। वह श्रीचैतन्य महाप्रभु के प्रिय भक्त एवं असंख्य गुणों की खान थे। श्रीचैतन्य महाप्रभु का संन्यास देख कर वह पागल से हो गये एवं स्वयं भी वाराणसी में जाकर संन्यास ग्रहण कर लिया। संन्यासाश्रम में आपका नाम हुआ श्रीस्वरूप दामोदर। आप महाप्रभु के अति मर्मी भक्त थे और रस के सागर थे।)

श्रीचैतन्य चरितामृत की मध्य लीला के दशम परिच्छेद (102-117) में श्रीस्वरूप दामोदर के संन्यास-ग्रहण तथा उनके वैशिष्ट्य और महिमा का सुन्दर रूप से वर्णन हुआ है। यथा—

आर दिने आइला स्वरूप दामोदर।।
प्रभुर अत्यन्त मर्मी, रसेर सागर॥
‘पुरुषोत्तम आचार्य’ ताँर नाम पूर्वाश्रमे।
नवद्वीपे छिला तेंह प्रभुर चरणे॥
प्रभुर संन्यास देखि’ उन्मत्त हञा।
संन्यास ग्रहण कैल वाराणसी गिया॥
‘चैतन्यानन्द’ गुरु ताँर, आज्ञा दिलेन ताँरे।
वेदान्त पड़िया पडाओ समस्त लोकेरे॥
परम विरक्त तेंह परम पण्डित।
कायमने आश्रियाछे श्रीकृष्ण-चरित॥
निश्चिन्ते कृष्ण भजिब’ एइ त’ कारणे।
उन्मादे करिल तेंह संन्यास ग्रहणे॥
संन्यास करिला शिखा-सूत्रत्याग-रूप।
योगपट्ट ना निल, नाम हैल ‘स्वरूप’॥
गुरु-ठाञि आज्ञा मागि’ आइला नीलाचले।
रात्रिदिने कृष्णप्रेम आनन्दे विह्वले॥
पाण्डित्येर अवधि, वाक्य नाहि कारो सने,
निर्जने रहये, लोक सब नाहि जाने॥
कृष्णरस-तत्त्व-वेत्ता, देह—प्रेमरूप।
साक्षात् महाप्रभुर द्वितीय स्वरूप॥
ग्रन्थ, श्लोक, गीत केह प्रभु-पाशे आने।
स्वरूप परीक्षा कैले, प्रभु पाछे शुने॥
भक्तिसिद्धान्त-विरुद्ध, आर रसाभास।
शुनिले ना हय प्रभुर चित्तेर उल्लास॥
अतएव स्वरूप गोसाञि करे परीक्षण।
शुद्ध हय यदि, प्रभुरे करा’न श्रवण॥
विद्यापति, चण्डीदास, श्रीगीत गोविन्द।
एइ तिन गीते करा’न प्रभुर आनन्द॥
संगीते गन्धर्व-सम, शास्रे—बृहस्पति।
दामोदर-सम आर नाहि महामति॥
अद्वैत-नित्यानन्देर परम प्रियतम।
श्रीवासादि भक्तगणेर हय प्राण-सम॥

सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने इस प्रसंग के अनुभाष्य में लिखा है-वैदिक दशनामी संन्यासियों में श्रीशंकाराचार्य द्वारा प्रवर्तित विधि इस प्रकार देखी जाती है कि ‘तीर्थ’ तथा ‘आश्रम’-इन दोनों दण्डी संन्यासियों से यदि संन्यास लिया जाये तो गुरु-महाशय नैष्ठिक ब्रह्मचारियों के नियमानुसार अपने शिष्य को ‘ब्रह्मचारी’ की संज्ञा प्रदान करते हैं। इसलिए नवद्वीपवासी श्रीपुरुषोत्तमाचार्य ने भी ‘दामोदर स्वरूप’ नाम तथा ब्रह्मचारी की प्रसिद्धि प्राप्त की। संन्यास में योगपट्ट की प्राप्ति होने से ब्रह्मचारी ही ‘ स्वरूप’ उपाधि के बदले ‘तीर्थ’ संन्यास-उपाधि प्राप्त करते हैं।

अष्ट श्राद्ध, विरजा होम, शिखा-मुण्डन तथा सूत्र-त्याग इत्यादि संन्यास कृत्य समाप्त करके गुर्वाहवान, योगपट्ट, संन्यास नाम तथा दण्डादि की अपेक्षा न करने के कारण इनका नैष्ठिक ब्रह्मचर्य सूचक नाम “दामोदर-स्वरूप” ही रह गया। (परन्तु एक बात यहाँ पर ध्यान देने योग्य है कि त्रिदण्डि संन्यासी के शिष्य का शिखा, सूत्र व गेरुवे वस्र धारण करना शास्रसम्मत है। यथा स्कन्द पुराण-“शिखी यज्ञेपवीती स्यात् त्रिदण्डि सकमण्डलुः। स पवित्रश्च काषायी गायत्रीन्च जपेत् सदा।।” (अर्थात्-त्रिदण्डि शिखा रक्षा, यज्ञोपवीत धारण तथा कमण्डलु ग्रहण करेंगे। वे गेरुवे वस्र धारण करते हुए पवित्र रह कर सर्वदा गायत्री का जाप करेंगे।)

श्रील सच्चिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर ने अमृत प्रवाह भाष्य में लिखा है-पुरुषोत्तम आचार्य ने जब महाप्रभु का संन्यास देखा तो ‘शिखा-सूत्र त्याग-रूप संन्यास ग्रहण कर लिया, तब उनका संन्यास नाम हुआ-‘स्वरूप दामोदर’। योगपट्ट लेने का जो प्रकरण है, वह उन्होंने स्वीकार नहीं किया। कारण, उनका संन्यास तो किसी भी प्रकार के आश्रमाहंकार को बढ़ाने के लिए नहीं था। उन्होंने तो निश्चिन्त होकर कृष्ण-भजन करने के उद्देश्य से संन्यास ग्रहण किया था।”

श्रीचैतन्य चरितामृत की आदि लीला के चतुर्थ परिच्छेद के अनुभाष्य में श्रीमन्हाप्रभु के संन्यास लेने से पूर्व ही श्रीस्वरूप दामोदर के संन्यास ग्रहण के संकल्प की बात जानी जाती है—

श्रीपुरुषोत्तम भट्टाचार्य नवद्वीपवासी थे। वे महाप्रभु के संन्यास ग्रहण करने से पहले ही संन्यास ग्रहण की अभिलाषा से वाराणसी जाकर दशनामी दण्डियों के दल के ब्रह्मचारी बने। इससे उनका नाम पड़ा ‘श्रीदामोदर स्वरूप’। बाद में संन्यास की सभी रस्मों की तरफ अधिक ध्यान न देकर अर्थात् उनकी अपेक्षा न करते हुए आजीवन श्रीमन्महाप्रभु के पादपद्मों में ही रहे। हमेशा महाप्रभु के साथ रह कर आप उनके उपदिष्ट भजन आदि गाकर उन्हें आनन्द प्रदान करते थे। महाप्रभु के हृदय के गूढ़ भावों की उनकी कृपा से ही भक्तों को उपलब्धि हो पाती है –

आदिलीला-मध्ये प्रभुर यतेक चरित।
सूत्ररूपे मुरारि गुप्त करिला ग्रथित॥
प्रभुर ये शेष-लीला स्वरूप-दामोदर।
सूत्र करि’ ग्रन्थिलेन ग्रन्थेर भितर॥
एक दुइ जनेर सूत्र देखिया शुनिया।
वर्णना करेन वैष्णव क्रम ये करिया॥
(चै. च.आ.-13/15-17)

इस पयार के भाष्य में श्रीभक्ति विनोद ठाकुर लिखते हैं – “श्रीमुरारि गुप्त द्वारा लिखित आदि लीला के सूत्र अब भी हैं, उन्हें देख कर तथा श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी की नोट-बुक को श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी से सुन कर सभी वैष्णव लोग महाप्रभु की लीलाओं को वर्णन करते हैं।”

श्रीमन् महाप्रभु माघ मास के शुक्लपक्ष में संन्यास ग्रहण के बाद फाल्गुन मास में नीलाचल आये थे तथा वहाँ श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार करने के बाद वैशाख मास में दक्षिण यात्रा की ओर गये श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु ने महाप्रभु को कृष्णदास नामक एक ब्राह्मण सेवक प्रदान किया था। दक्षिण के लोगों को कृतार्थ करने व उन्हें कृष्ण-प्रेम प्रदान करने के पश्चात् जब महाप्रभु वापिस नीलाचल आये तो महाप्रभु की दक्षिण के लोगों पर कृपा का संवाद इस काले कृष्णदास के माध्यम से ही गौड़ देश नवद्वीप में भेजा गया। उस शुभ संवाद को पाकर शचीमाता, श्रीअद्वैत आचार्य तथा श्रीवास आदि भक्तों को महा-आनन्द हुआ जिससे सभी गौड़ीय वैष्णवों ने एक साथ नीलाचल की ओर यात्रा की। उसी समय श्रीपरमानन्द पुरी जी, नदिया में शचीमाता से उक्त संवाद सुन कर महाप्रभु के भक्त, द्विज कमलाकान्त के साथ नीलाचल में आकर महाप्रभु से सबसे पहले मिले। उसके बाद नवद्वीप से श्रीपुरुषोत्तम भट्टाचार्य वाराणसी में श्रीचैतन्यानन्द भारती से संन्यास लेने के बाद “स्वरूप दामोदर” नाम प्राप्त करके नीलाचल आये और यहाँ महाप्रभु के दर्शन करके परमानन्द को प्राप्त किया। श्रीस्वरूप दामोदर ने महाप्रभु को दण्डवत् प्रणाम करते हुए निम्नलिखित प्रणाम मन्त्र को उच्चारण किया था—

हेलोद्वलितखेदया विशदया प्रोन्मीलदामोदया,
शाम्यच्छास्रविवादया रसदया चित्तार्पितोन्मादया।
शश्वद्भक्तिविनोदया स-मदया माधुर्यमर्यादया,
श्रीचैतन्य दयानिधे, तव दया भूयादमन्दोदया॥
(चै.च.म. 10/119)

“हे दयानिधे श्रीचैतन्य महाप्रभु! जो अनायास में ही तमाम सन्तापों को दूर कर देती है, जिसमें सम्पूर्ण निर्मलता है, जिससे (सभी विषय –आच्छादन करते हुए) परमानन्द प्रकाशित होता है, जिसके रस-वर्षण के द्वारा चित्त में उन्मत्तता आती है, जिनकी भक्ति, निवेदन क्रिया के द्वारा सर्वदा शमता प्रदान करती है, माधुर्य मर्यादा के द्वारा अति विस्तारिणी आपकी वही शुभदायिनी दया मेरे मन में उदित हो।”

श्रीस्वरूप दामोदर ने महाप्रभु की प्रेमालिंगन रूप कृपा प्राप्त करने के बाद श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु व श्रीपरमानन्द पुरी की चरण-वन्दना की तथा श्रीजगदानन्द आदि भक्तों के साथ मिले।

श्रीपुरुषोत्तम धाम में, श्रीनरेन्द्र सरोवर में (चन्दन –सरोवर में) चन्दन-यात्रा के समय एवं इन्द्रद्युम्न सरोवर में श्रीमन्महाप्रभु के साथ भक्तों की जो जलकेलि लीला हुई, में भी श्रीस्वरूप दामोदर उपस्थित थे। वहाँ पर श्रीस्वरूप दामोदर तथा श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि के मध्य एक दूसरे के ऊपर जल फेंकने की लीला भी हुई थी—

दुइ सखा-विद्यानिधि, स्वरूपदामोदर।
हासिया आनन्दे जल देन परस्पर॥
(चै.भा.अ. 8/124)

श्रील गदाधर गोस्वामी जब टोटा गोपीनाथ में प्रेमाविष्ट होकर भागवत पाठ करते थे, तब उनके श्रोता थे-स्वयं भगवान कृष्णचैतन्य महाप्रभु, श्रील नित्यानन्द प्रभु, श्रीअद्वैताचार्य प्रभु एवं श्रीस्वरूप दामोदर, श्रीवक्रेश्वर पण्डित, श्रीमुरारि गुप्त तथा श्रीदास गदाधर आदि गौरांग महाप्रभु के मुख्य पार्षद।

गदाधर-प्राणनाथ प्रभु गौरहरि।
एथा वसि शुनित से व्याख्या माधुरी।
एइखाने वैसे प्रभु नित्यानन्द राय।
श्रीअद्वैताचार्य प्रभु वसितो एथाय॥
एथा स्वरूप दामोदर, वक्रेश्वर।
श्रीमुरारि गुप्त, एथा दास गदाधर॥
(भक्ति रत्नाकर 8/278-280)

श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी द्वारा श्रीमद् भागवत से प्रह्लाद-चरित्र व ध्रुव चरित्र की सौ बार श्रवण –लीला की। श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी से भागवत पाठ तथा श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी से कीर्तन सुनकर महाप्रभु को अष्टसात्विक विकार होते थे—

भागवत—पाठे गदाधर महाशय।
दामोदर स्वरूपेर कीर्तन विषय॥
एकेश्वर दामोदर स्वरुप गुण गाय।
विह्वल हइया नाचे श्रीगौरांगराय॥
अश्रु, कम्प, हास्य, मूर्च्छा, पुलक, हुँकार।
यत किछु आछे प्रेमभक्तिर विकार॥
मूर्तिमन्त सबे थाके ईश्वरेर स्थाने।
नाचेन चैतन्यचन्द्र इँहा-सबा’-सने॥
दामोदर स्वरूपेर उच्च-संकीर्तन।
शुनिले ना थाके बाह्य, पड़े सेइक्षण॥
संन्यासी-पार्षद यत ईश्वरेर हय।
दामोदर स्वरूप-समान केहो नय॥
यत प्रीति ईश्वरेर पुरी गोसाञिरे।
दामोदर स्वरूपेरे तत प्रीति करे॥
दामोदर स्वरूपेर—संगीत-रसमय।
याँ’र ध्वनि श्रवण प्रभुर नृत्य हय॥
(चै. भा. अ. 10/36-43)

उड़नषष्ठी के समय श्रीजगन्नाथ की एक अलग प्रकार की लीला होती है। उस समय जगन्नाथ के सेवक जगन्नाथ को माण्डयुक्त वस्र पहनाते हैं। सदाचारनिष्ठ श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि श्रीजगन्नाथ के सेवकों का ये आचरण सहन न कर सके और उन्होंने उनके इस प्रकार के कार्य की भर्त्सना की। तत्पश्चात श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि ने इस सम्बन्ध में स्वरूप दामोदर का मत जानना चाहा तो स्वरूप दामोदर ने पुण्डरीक विद्यानिधि को समझाते हुए कहा- ईश्वर का आचरण स्वतन्त्र है, वे लौकिक स्मृतियों के शासन के अधीन नहीं हैं।

साथ-साथ में उत्तर देते हुये श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि ने कहा-ठीक है, जगन्नाथ सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र हैं परन्तु वे (सेवक लोग) भी क्या ब्रह्म बन गये हैं? माण्ड युक्त वस्र को स्पर्श करके हाथ धोना पड़ता है, क्या इतना भी वे नहीं जानते?

सेवकों को कटाक्ष करने के कारण रात्रि में श्रीजगन्नाथ व श्रीबलराम विद्यानिधि के स्वप्न में आये और विद्यानिधि के दोनों गालों में दोनों भाईयों ने इस प्रकार चपतें लगाई कि उनके दोनों गाल फूल गये। इस लीला के द्वारा जगन्नाथ ने यह शिक्षा दी कि उनके सेवकों के आचरण में दोष नहीं देखना चाहिये। (कर्मजड़स्मार्ती लोग शुद्ध भक्तों के आचरण में इस प्रकार दोष दर्शन करके असुविधाओं से घिर जाते हैं।) श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि श्रीजगन्नाथ एवं श्रीबलरामजी के श्रीहस्तों का स्पर्श पाकर परमानन्दित हो उठे। स्वरूप दामोदर भी उनके इस प्रकार के सौभाग्य को देखकर उल्लसित हो उठे –

विद्यानिधिप्रति देखि’ स्नेहेर उदय।
आनन्दे भासेन दामोदर महाशय॥
सखार सम्पदे हय सखार उल्लास।
दुइ जने हासेन परमानन्दहास॥
दामोदर स्वरूप बलेन,-“शुन भाइ!
एमत अद्भुत दण्ड देखि शुनि नाइ॥
स्वप्ने आसि’ शास्ति करे आपने साक्षाते।
आर शुनि नाइ, सब देखिलुँ तोमाते॥“
हेनमते दुइ सखा भासेन सन्तोषे।
रात्रि-दिने ना जानेन कृष्णकथा रसे॥
(चै. भा. अ. 10/173-177)

राजा प्रतापरुद्र के साथ जब राय रामानन्द पुरी आये थे और श्रीमन् महाप्रभुजी से मिलकर जब उन्होंने राजा के व्यवहार की बात महाप्रभुजी को बताकर उनका राजा के प्रति चित्ताकर्षण किया था, उस समय ही स्वरूप दामोदर के साथ उनका (राय रामानन्दजी का) प्रथम मिलन हुआ था। राय रामानन्द प्रभु ने परमानन्दपुरी, ब्रह्मानन्द भारती, स्वरूप दामोदर तथा नित्यानन्द प्रभु –सभी की चरण वन्दना की थी।

श्रीपुरुषोत्तम धाम में श्रीरथ यात्रा के एक दिन पहले जब महाप्रभु भक्तों को लेकर गुण्डिचा मन्दिर को मार्जन करने की लीला कर रहे थे, तब भी उस लीला में मुख्य पार्षदों के रूप में उपस्थित थे-श्रील स्वरूप दामोदर प्रभु –

नित्यानन्द, अद्वैत, स्वरूप, भारती, पुरी।
इँहा बिना आर सब आने जल भरि॥
(चै. च. म. 12/109)

श्रीगुण्डिचा मन्दिर मार्जन के समय वैष्णवों के भक्ति-कौशल को न समझकर एक बुद्धिमान सरल गौड़ीय-वैष्णव ने श्रीमन्दिर के अन्दर ही अचानक सबके सामने श्रीमन् महाप्रभुजी के पादपद्मों में जल डालकर पान कर लिया। यद्यपि महाप्रभु के पादपद्मधौत जल को पान करने से पारमार्थिक विचार से कोई दोष नहीं हुआ किन्तु लोकशिक्षक चैतन्य महाप्रभु ने इस पर असन्तोष व्यक्त किया, जैसे अन्य कोई व्यक्ति इसका अनुकरण करके भगवद्-चरणों में अपराधी न हो जाये। महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर को जब इस दूषित कर्म की बात बतायी तो स्वरूप दामोदर ने उक्त गौड़ीय वैष्णव को डाँटा तथा उसकी गर्दन पकड़कर, उसे धक्का देकर मन्दिर से बाहर कर दिया। परन्तु, अगले ही क्षण स्वरूप दामोदर महाप्रभु के निकट आकर उस सरल व्यक्ति को क्षमा कर देने की प्रार्थना करने लगे। वैष्णव लोग बाहर से कठोर व्यवहार दिखाने पर भी हृदय से सर्वजीवों के प्रति करुणार्द्रचित्त होते हैं।

श्रीपुरुषोत्तम धाम में श्रीबलदेव, श्रीसुभद्रा एवं श्रीजगन्नाथ की रथयात्रा के समय श्रीचैतन्य महाप्रभु ने स्वयं अपने हाथों से भक्तों को चन्दन लगाया तथा माला पहनायी। भक्तों को माला व चन्दन अर्पण करते हुये उन्होंने संकीर्तन को जिन चार मण्डलियों में बाँटा था, उनमें पहली मण्डली के कीर्तनीया थे-श्रीस्वरूप दामोदर तथा नर्तक थे श्रीअद्वैताचार्य जी। चारों मण्डलियों के साथ कुलीन ग्राम, शान्तिपुर व श्रीखण्ड की मण्डलियों के जुड़ जाने पर संकीर्तन की सात मण्डली बन गईं। प्रत्येक मण्डली में दो-दो मृदंग थे, इसलिये सातों मण्डलियों के कुल चौदह मृदंग हो गये–

सात सम्प्रदाये बाजे चौद्द मादल।
यार ध्वनि शुनि’ वैष्णव हैल पागल॥
(चै.च.म. 13/48)

इस सम्बन्ध में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने लिखा है कि सातों मण्डलियों का कीर्तन आरम्भ होने पर श्रीमन् महाप्रभु ने अपनी अलौकिक शक्ति का प्रकाश किया। “रास लीला के समय तथा महिषी-विवाह के समय जिस प्रकार श्रीकृष्ण एक साथ अनेक स्वरूपों से प्रकाशित हुये थे, उसी शक्ति को प्रकाशित करते हुए श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने भी अपने आप को हरेक मण्डली में प्रकाशित किया | प्रत्येक मण्डली के लोगों ने समझा कि महाप्रभु हमारी ही मण्डली में हैं, औरों की मण्डली में नहीं।”

श्रीचैतन्य महाप्रभु की जब उदण्ड नृत्य करने की इच्छा हुई तो उन्होंने सातों मण्डलियों को एकत्रित कर दिया तथा उनमें से नौ व्यक्तियों को कीर्तन के लिए चुना, जिनमें मुख्य कीर्तनीया के रूप में नियोजित किया गया श्रीस्वरूप दामोदर को। जब भक्त लोग उच्च संकीर्तनन्द में प्रमत्त हो उठे तब श्रीमन्महाप्रभु ने प्रेमाविष्ट होकर बहुत देर तक ताण्डव नृत्य किया। इसके पश्चात महाप्रभु के हृदय में भावान्तर उपस्थित हो गया। श्रीमन् महाप्रभु के निर्देशानुसार गा रहे श्रीस्वरूप दामोदर श्रीमन् महाप्रभु के हृदयगत भावों को समझ गये व गाने लगे—

सेइ त’ पराण-नाथ पाइनु।
जाहा लागि’ मदन-दहने झुरि’ गेनु॥
(चै.च.म. 13/113)

तभी ताण्डव नृत्य की जगह महाप्रभु के हृदय में कुरुक्षेत्र मिलन के समय वाला श्रीराधा-भाव उदित हो गया। बहुत दिनों के विच्छेद के बाद, वहाँ यह गान स्वाभाविक ही आकर उपस्थित हो गया। विच्छेद के बाद मिलन का भाव जब उदित हुआ तो श्रीमन् महाप्रभु इस श्लोक का उच्च स्वर से पाठ करने लगे –

यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैत्रक्षपा –
स्ते चौन्मीलितमालतीसुरभयः प्रोढ़ाः कदम्बनिलाः।
सा चैवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधौ।
रेवा-रोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते॥8
(काव्यप्रकाश)

इस श्लोक के बारे में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने लिखा है कि ये श्लोक नितान्त हेय नायिक-नायिकाओं के सम्बन्ध में रचित हुआ था। ऐसे श्लोक को भी श्रीमन् महाप्रभु ने जो इतने आदर के साथ पाठ किया इसके तात्त्पर्य को सिर्फ स्वरूप दामोदर ही समझ पाये, अन्य कोई नहीं –

एइ श्लोक महाप्रभु पड़े बार बार।
स्वरूप बिना अर्थ केह ना जाने इहार॥
(चै. च. म. 13-122)

श्रीमन् महाप्रभु के श्रीमुख से काव्य-प्रकाश के श्लोक को सुनकर श्रील रूप गोस्वामी प्रभु ने उक्त श्लोक के गूढ़ अर्थ को प्रकाशित करने वाला एक श्लोक ताल पत्र पर लिखकर उसे कुटिया की छत पर फँसाकर रख दिया। दैववश श्रीमन् महाप्रभु ने उक्त ताल पत्र को देख लिया तथा श्लोक पढ़कर प्रेमाविष्ट हो गये –

दैवे आसि’ प्रभु जबे ऊर्ध्वेते चाहिल।
चाले गोंजा तालपत्रे सेइ श्लोक पाइल॥
श्लोक पड़ि’ आच्छे प्रभु आविष्ट हइया।
रूप गोसाञि आसि’ पड़े दण्डवत् हञा॥
उठि’ महाप्रभु ताँरे चापड़ मारिया।
कहिते लागिला किछु कोलेते करिया॥
मोर श्लोकेर अभिप्राय ना जाने कोन जने।
मोर मनेर कथा तुञि जानिलि केमने?
एत बलि’ ताँरे बहु प्रसाद करिया
स्वरूप-गोसाञिरे श्लोक देखाइल लइया॥
स्वरूपेर पुछेन प्रभु हइया विस्मिते।
मोर मनेर कथा रूप जानिले केमते॥
स्वरूप कहे,—जाते जानिल तोमार मन।
ताते जानि,—हय तोमार कृपार भाजन॥
(चै. च. म. 1/66-72)

श्रीरूप गोस्वामी कृत श्लोक-

‘प्रियः सोऽयं कृष्णः सहचरी कुरुक्षेत्रमिलित –
स्तथाहं सा राधा तदिदमुभयोः सङ्गमसुखम्।
तथाप्यान्तः-खेलन्मधुरमुरलीपञ्चमजुषे
मनो मे कालिन्दीपुलिनविपिनाय स्पृहयति॥‘10 (चै.च.म. 1/76)

श्रीमन् महाप्रभु ने जगन्नाथ मन्दिर को कुरुक्षेत्र एवं गुण्डिचा मन्दिर को वृन्दावन के रूप में दर्शन करके तथा गोपीभाव में विभाजित होकर रथ को खींचा था। रथ को खींचते समय श्रीमन् महाप्रभु के हृदय में जो भाव प्रकाशित हुये थे उन्हें स्वरूप दामोदर ही अनुभव कर पाये थे—

एइ सब अर्थ स्वरूपेर सने।
रात्रि-दिने घरे बसि’ करे आस्वादने॥
नृत्यकाले सेइभावे आविष्ट हञा।
श्लोक पड़ि’ नाचे जगन्नाथ-मुख चाञा।
स्वरूप-गोसाञिर भाग्य ना जाय वर्णन।
प्रभुते आविष्ट यार काय, वाक्य, मन॥
स्वरूपेर इन्द्रिये प्रभुर निजेन्द्रियगण।
आविष्ट हञा करे गान-आस्वादन॥
(चै. च. म. 13/161-164)

श्रीजगन्नाथ द्वारिका में विहार करते हैं। वे वर्ष में एक बार वृन्दावन जाने की इच्छा करते हैं, इसलिये श्रीजगन्नाथ-देव की रथयात्रा श्रीजगन्नाथ मन्दिर (द्वारिका) से श्रीगुण्डिचा मन्दिर (वृन्दावन) तक होती है। वृन्दावन यात्रा के समय जगन्नाथ लक्ष्मी को साथ में नहीं ले जाते। कारण, वृन्दावन लीला में लक्ष्मी का अधिकार नहीं है। वहाँ अधिकार है-गोपियों का तथा गोपी-श्रेष्ठ राधा का—

स्वरूप कहे,—शुन, प्रभु, कारण इहार।
वृन्दावन क्रीड़ाते लक्ष्मीर नाहि अधिकार॥
वृन्दावन लीलाय कृष्णेर सहाय गोपीगण।
गोपीगण बिना कृष्णेर हरिते नारे मन॥
(चै. च. म. 14/122-123)

“कल ही आ जाऊँगा” ऐसा कहकर श्रीजगन्नाथ देव रथ यात्रा के लिये बाहर आ जाते हैं, परन्तु वापस लौटने में देर हो जाने के कारण लक्ष्मी को क्रोध हो जाता है और वे अपने तमाम ऐश्वर्य को एकत्रित करके अपने प्रिय के ऊपर आक्रमण करने के लिये जाती हैं तथा लक्ष्मी के सेवक जगन्नाथ देव के सेवकों को लक्ष्मी के चरणों में लाकर डाल देते हैं। इस प्रकार का अद्भुत मान त्रिलोक में कहीं भी नहीं सुना जाता।

लक्ष्मी के मान की अपेक्षा गोपियों के मान से भी श्रीराधा के मान की सर्वोत्तमता है। श्रीमन् महाप्रभु ने जब गोपियों के मान व राधिका के मान की कथा सुननी चाही तो स्वरूप दामोदर ने विस्तृत भाव से उक्त कथा सुनायी, जिसे सुनकर श्रीमन् महाप्रभु को परम सुख हुआ। चूँकि स्वरूप दामोदर श्रीमन् महाप्रभु के हृदय के भावों को जानने वाले थे इसलिये उन्होंने हर समय व हर प्रकार से श्रीमन् महाप्रभु का सन्तोष विधान किया।

हालि शहर के वासी खंज श्रीभगवान आचार्य के साथ स्वरूप दामोदर का सख्यभाव था—

पुरुषोतमे प्रभु-पाशे भगवान्-आचार्य।
परम वैष्णव तेंहो सुपण्डित आर्य॥
सख्यभावाक्रान्त-चित्त, गोप-अवतार।
स्वरूप-गोसाञि-सह सख्य व्यवहार॥
एकान्तभावे आश्रियाछेन चैतन्यचरण।
मध्ये मध्ये प्रभुरे तेंहो करेन निमन्त्रण॥
(चै. च. अ. 2/84-86)

श्रीभगवान आचार्य अत्यन्त उदार सरल वैष्णव होने पर भी उनके पिता शतानन्द खाँ, अत्यन्त विषयी थे एवं उनके छोटे भाई गोपाल भट्टाचार्य मायावादी थे। गोपाल भट्टाचार्य के पुरी में आकर अपने बड़े भाई से मिलने पर सरल वैष्णव भगवान आचार्य ने स्वरूप दामोदर को गोपाल भट्टाचार्य से वेदान्तभाष्य सुनने के लिये आग्रह प्रकाश किया। किन्तु स्वरूप दामोदर प्रभु ने प्यार भरी डाँट मारते हुये मायावाद-शांकरभाष्य को सुनने के लिये मना कर दिया—

स्वरूप गोसाञिरे आचार्य कहे आर दिने।
“वेदान्त पड़िया गोपाल आइसाछे एखाने।
सबे मिलि’ आइस, शुनि ‘भाष्य’ इहार स्थाने।”
प्रेम-क्रोध करि’ स्वरूप वलय बचने॥
“बुद्धि भ्रष्ट हैल तोमार गोपालेर सङ्गे।
मायावाद शुनिवारे उपजिल रङ्गे॥
वैष्णव हञा येवा शारीरिक-भाष्य शुने।
सेव्य-सेवक-भाव छाड़ि’ आपनारे ‘ईश्वर’ माने॥
महाभागवत जेई, कृष्ण प्राणधन जाँर।
मायावाद-श्रवणे चित्त अवश्य फिरे ताँर॥”
आचार्य कहे—“आमा-सबार कृष्णनिष्ठ-चित्ते।
आमा-सबार मन भाष्य नारे फिराइते॥”
स्वरूप कहे,—तथापि मायावाद-श्रवणे।
‘चित् ब्रह्म, माया मिथ्या’-एइमात्र शुने॥
जीवज्ञान—कल्पित, ईश्वर—सकल अज्ञान।
जाहार श्रवणे भक्तेर, फाटे मन-प्राण॥
(चै. च. अ. 2/92-99)

बंगाल के विप्र ने जैसे-तैसे एक नाटक लिखकर भगवान् आचार्य को सुनाया तो भगवान् आचार्य ने उसके सम्बन्ध में स्वरूप दामोदर को अनुरोध किया। कारण, स्वरूप दामोदर की अनुमति होने पर ही कोई महाप्रभु के निकट उपस्थित होता था, अनेक वैष्णवों ने उक्त नाटक की प्रशंसा की। भगवान् आचार्य के बार-बार प्रार्थना करने पर स्वरूप दामोदर उक्त लेख सुनने में सहमत हो गये। किन्तु उक्त नाटक के मंगलाचरण के श्लोकों में ही स्वरूप दामोदर ने भक्तिसिद्धान्त के विरुद्ध दोषों का प्रदर्शन किया जिसे सुनकर सभी चमत्कृत हो उठे। वैष्णव होने पर भी सभी को भक्ति सिद्धान्त का बोध नहीं होता है। स्वरूप दामोदर ने उस विप्र-कवि का दुःख देखकर उसके प्रति दयापूर्वक उपदेश दिया—

जाह भागवत पड़ वैष्णव स्थाने।
एकान्त आश्रय कर चैतन्य-चरणे॥
चैतन्येर भकतगणेर नित्य कर ‘सङ्ग’।
तबे त’ जानिबा सिद्धान्तसमुद्र-तरङ्ग॥
(चै.च.अ. 5/131-132)

जाओ, वैष्णवों के पास जाकर श्रीमद् भागवत का अध्ययन करो तथा एकान्त भाव से श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणों का आश्रय ग्रहण करो। आप चैतन्य महाप्रभु के भक्तों का नित्य संग करो तब जाकर आपको भक्ति के सिद्धान्त रूप समुद्र की तरंगों के बारे में पता चलेगा अर्थात तुम भक्ति के सिद्धान्त को जान पाओगे।

श्रीभगवान् आचार्य के घर से ही छोटे हरिदास ने माधवी देवी से चावलों की भिक्षा की थी। चावलों की भिक्षा के समय छोटे हरिदास ने स्री से जो बातचीत की थी, उसकी सज़ा के तौर पर ही महाप्रभु ने छोटे हरिदास का परित्याग कर दिया था तथा छोटे हरिदास ने इस दुःख से खाना पीना छोड़ दिया था। महाप्रभु के वज्र की भाँति कठोरता प्रकाश करने पर स्वरूप दामोदर ने ही बहुत समझा –बुझाकर छोटे हरिदास को अन्न ग्रहण करवाया था। परन्तु महाप्रभु की कृपा न होने पर (अर्थात् उसे माफ न करने पर) छोटे हरिदास ने उसी वर्ष के अन्त में प्रयाग में जाकर प्राण त्याग कर दिये।

जब श्रीसनातन गोस्वामी मथुरा से अकेले झारिखण्ड के रास्ते से पुरुषोत्तम धाम आये तो पुरुषोत्तम धाम में आने पर उनके शरीर में कुण्डुरसा नामक खुजली का रोग हुआ था और पुरी में आकर वे श्रीहरिदास ठाकुरजी की कुटिया में ठहरे थे। महाप्रभु द्वारा उनके कुण्डुरसा वाले शरीर को बार –बार छूने पर उन्होंने शरीर त्यागने का संकल्प किया था परन्तु महाप्रभु ने उनके (सनातन के) शरीर को अपना निज धन कहकर, उनको आत्महत्या करने के लिये मना किया था। तब चातुर्मास्य के समय अन्यान्य गौड़ीय वैष्णवों और स्वरूप दामोदर के साथ उनका मिलन हुआ था।

श्रीगोवर्धन मजूमदार के पुत्र श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी प्रभु अपने गुरु और पुरोहित श्रीयदुनन्दन आचार्य से छल द्वारा अनुमति लेकर भाग गये तथा पैदल ही बारह दिन लगातार चलकर श्रीपुरुषोत्तम धाम में जाकर श्रीमन् महाप्रभु से मिले। श्रीमन्महाप्रभु ने उनके प्रति विशेष कृपा का प्रदर्शन किया एवं उनको श्रीस्वरूप दामोदर के श्रीहाथों में समर्पित कर दिया था। तब से वे ‘स्वरूप के रघु’ के नाम से विख्यात हुये—

रघुनाथेर क्षीणता-मालिन्य देखिया।
स्वरूपेरे कहेन प्रभु कृपार्द्र चित्त हञा॥
एइ रघुनाथे आमि सँपिलु तोमारे।
पुत्र-भृत्य-रूपे तुमि कर अङ्गीकारे॥
तिन ‘रघुनाथ’-नाम हय मोर स्थाने।
‘स्वरूपेर रघु’—आजि हैते इहार नामे॥
एत कहि’ रघुनाथेर हस्त धरिला।
स्वरूपेर हस्ते ताँरे समर्पण कैला॥
(चै. च. अ. 6/201-204)

रघुनाथ दास गोस्वामी ने साक्षादभाव से महाप्रभु के निकट कुछ निवेदन नहीं किया। महाप्रभु से कभी भी कुछ निवेदन करने की इच्छा होने पर स्वरूप दामोदर या गोविन्द के माध्यम से निवेदन किया करते थे। श्रीमन्महाप्रभु के श्रीमुखपद्मनि:सृत उपदेशवाणी सुनने को बार-बार स्वरूप दामोदर को आग्रह करने पर स्वरूप दामोदर ने एक दिन महाप्रभु को उस विषय में निवेदन किया। तब महाप्रभु ने कहा—

हासि’ महाप्रभु रघुनाथेरे कहिल।
“तोमार उपदेष्टा करि’ स्वरूपेरे दिल॥
‘साध्य’-‘साधन’ तत्त्व शिख’ इँहार स्थाने।
आमि तत नाहि जानि, इँहो जत जाने॥
तथापि आमार आज्ञाय श्रद्धा यदि हय।
आमार एइ वाक्ये तुमि करिह निश्चय॥
ग्राम्यकथा ना शुनिबे, ग्राम्यवार्त्ता ना कहिबे।
भाल ना खाइबे, आर भाल ना परिबे॥
अमानी मानद हञा कृष्णनाम सदा लबे।
व्रजे राधाकृष्ण-सेवा मानसे करिबे॥
एइ त’ संक्षेप आमि कैलुँ उपदेश।
स्वरूपेर ठाञि इहार पाबे सविशेष॥
(चै. च. अ. 6/233-238)

अर्थात् मुस्कराते हुये महाप्रभु कहते हैं कि रघुनाथ! तुम्हारे उपदेशक के रूप में मैंने स्वरूप दामोदर को रखा है, जो भी साध्य-साधन की बात तुम्हें जाननी हो, तुम इनसे सीखना, क्योंकि जितना ये जानते हैं उतना मैं भी नहीं जानता हूँ। यदि तुम्हारी मेरे प्रति श्रद्धा हो तो दृढ़ता से मेरी इस बात को मान लो कि तुम्हें जो भी साध्य-साधन की बात जाननी हो, वह स्वरूप दामोदर से जानना। हाँ, ग्राम्य वार्ता (स्री-पुरुष सम्बन्धी काम चर्चा) न तो सुनना और न ही बोलना। अच्छा-अच्छा खाना भी नहीं और अच्छा-अच्छा पहनना भी नहीं। खुद सम्मान न चाहकर, दूसरों को यथायोग्य सम्मान देते हुये श्रीकृष्ण नाम करना तथा व्रज में मानसिक रूप से श्रीराधाकृष्ण की सेवा करना। ये थोड़ा संक्षिप्त सा उपदेश मैंने तुम्हें दिया, बाकी विस्तृत भाव से तमाम प्रकार के उपदेश तुम्हें स्वरूप दामोदर से मिलेंगे।)

पुरी में नामाचार्य हरिदास ठाकुर के नित्यलीला में प्रवेश करने के समय महाप्रभु ने जब महासंकीर्तन आरम्भ किया था, तब हरिदास ठाकुर को घेरकर श्रीवक्रेश्वर पण्डित ने नृत्य और श्रीस्वरूप दामोदर ने भक्तों के साथ नाम-संकीर्तन किया था। स्वरूप दामोदर ने श्रीहरिदास ठाकुर के नित्यलीला में प्रवेश करने के समय, महोत्सव के लिये जगन्नाथ मन्दिर से महाप्रसाद लाने की व्यवस्था की थी तथा श्रीजगदानन्द आदि के साथ परिवेशन (प्रसाद बाँटने की सेवा) भी किया था।

तपनमिश्र के पुत्र श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामी काशी से जब गौड़देश होते हये पुरी में पहुँचे, तो उस समय महाप्रभु ने उनका आलिंगन किया तथा स्वरूप दामोदर और अन्याय भक्तों के साथ उन्हें मिला भी दिया।

काशीमिश्र के भवन में एक बार महाप्रभुजी ने कठोर वैराग्य भाव प्रकट किया। श्रीमन् महाप्रभु हा कृष्ण! हा कृष्ण!! कहते हुये रोते-रोते कृष्णविरह कातरावस्था में दिन-प्रतिदिन कमजोर होने लगे। तीव्र वैराग्य के भाव होने के कारण वे केले के पत्तों पर सोते थे। हड्डी में चुभने से शरीर में वेदना होने पर भी यद्यपि वे इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे परन्तु यह सब देखकर भक्तों को बड़ा दुःख होता था। श्रीजगदानन्द पण्डित इसे सहन न कर पाये और उन्होंने पतले गेरुआ वस्र में शिमूल की रुई भरके सुन्दर एक गद्दा तैयार कर दिया। स्वरूप दामोदर ने उसी दिन उक्त गद्दे के द्वारा बिस्तर तैयार कर दिया। श्रीमन् महाप्रभु सुन्दर बिस्तर देखकर गुस्सा हो उठे और गोविन्द से पूछा -‘किसने यह बिस्तर लगाया?

गोविन्द ने धीरे से जगदानन्द का नाम बताया। गोविन्द से जगदानन्द का नाम सुनकर महाप्रभु थोड़ा भयभीत से हो गये। कारण, जगदानन्द सत्यभामा के अवतार थे तथा भयंकर अभिमानी की लीला कर रहे थे। तथापि श्रीमन् महाप्रभु गोविन्द के द्वारा वह गद्दा दूर करवाकर केले के पत्तों की बनी चटाई पर ही सो गये।

स्वरूप दामोदर को जब ये पता लगा कि श्रीमन् महाप्रभु गद्दे पर नहीं सोये तो वे महाप्रभु को मिले। बात-बात में उन्होंने महाप्रभु को पूछा कि गद्दे को व्यवहार न करने की बात सुनकर यदि जगदानन्द बुरा मानेंगे तो? जवाब में महाप्रभु ने कहा कि ठीक है फिर तो एक खटिया भी ले आओ, अरे, जगदानन्द तो मुझे विषयी बनाना चाहता है। आप ही सोचो क्या संन्यासी को ये व्यवहार करना चाहिए? अरे, संन्यासी तो भूमि पर शयन करेगा, संन्यासी के लिए खाट, इस तरह का बिस्तर व तकिया-ये सब शर्म की बात है।

बहुत कुछ सोचने के बाद सेवा में अत्यन्त कुशल स्वरूप दामोदर ने केले के सूखे पत्तों को चीर-चीर कर उन्हें महाप्रभु के ही पहनने वाले कपड़े भरकर दूसरे तरीके से तकिया और गद्दा तैयार किया। जिसे श्रीमन् महाप्रभु ने इच्छा न होने पर भी ग्रहण कर लिया। स्वरूप दामोदर के बनाये केले के पत्तों की चीरों से बने गद्दे पर महाप्रभु के शयन करने से भक्तों को सुख प्राप्त हुआ, किन्तु जगदानन्द अत्यन्त दुःखी ही रहे। अत: प्यार भरे गुस्से में जगदानन्द ने महाप्रभु से वृन्दावन जाने का आदेश माँगा। महाप्रभु ने कहा, जगदानन्द को अभिमान हो गया है, इसलिये मैंने उन्हें वृन्दावन जाने का प्रस्ताव दिया है। स्वरूप दामोदर की सेवाकुशलता का यह एक अपूर्व दृष्टान्त है।

एक दिन श्रीमन् महाप्रभु दिव्योन्माद में दरवाजे बन्द करके अन्दर गम्भीरा में सोये हुये थे। कुछ क्षण पश्चात् स्वरूप दामोदर और गोविन्द ने देखा कि तीनों दरवाजे पूरी तरह से बन्द हैं परन्तु महाप्रभु अन्दर नहीं है। तब अत्यन्त उद्विग्न और व्याकुल होकर वे महाप्रभु की सर्वत्र खोज करने लगे तो पता चला कि श्रीजगन्नाथ मन्दिर के सिंहद्वार की उत्तर दिशा में वे अचेतन से पड़े हुये हैं। उनका शरीर बिल्कुल शिथिल पड़ा हुआ है। उनकी हड्डियों के जोड़ खुल से गये हैं। दिखने में शरीर बड़ा दीर्घाकार सा हो गया है। तब स्वरूप दामोदर भक्तों के साथ महाप्रभु के कानों के सामने जाकर उच्च स्वर से कृष्ण नाम करने लगे, उसे सुनते ही महाप्रभु ‘हरिबोल ‘ ‘ हरिबोल’ की ध्वनि से गरजते हुए उठ पड़े तथा साथ-साथ ही उनका ढीला-ढाला शरीर पहले की भाँति हष्ट-पुष्ट हो गया। महाप्रभु की बाह्य स्मृति होने पर स्वरूप दामोदर उन्हें पुनः गम्भीरा में ले आये।

एक दिन महाप्रभु चटक पर्वत को गोवर्धन पर्वत जानकर दौड़ पड़े। स्वरूप दामोदर तथा जगदानन्द आदि उनके पीछे-पीछे चल दिये। जब महाप्रभु चल रहे थे तब उनके श्रीअंगों में अष्टसात्विक विकार दिखाई दे रहे थे। चलते-चलते वे अचानक मूर्च्छित होकर गिर पड़े। यह देखकर सभी भक्त रोने लगे। भक्तों के उच्चसंकीर्तन से महाप्रभु को होश आया तो वे अर्द्ध बाह्य-दशा में प्रलाप करने लगे,- ‘मैं गोवर्धन में था, श्रीकृष्ण गायों को चरा रहे थे कि तभी श्रीकृष्ण ने वंशीध्वनि की, जिसे सुनकर गोपियां व राधा ठाकुरानी वहाँ आ गईं। राधा को साथ लेकर श्रीकृष्ण एक कन्दरा में चले गये, इसी समय आप मुझको यहाँ ले आये, किसलिये आप मुझे लाये यहाँ, क्या दुःख देने के लिये –यह कहकर महाप्रभु व्याकुल होकर रोने लगे। महाप्रभु को रोता देख भक्तगण भी रोने लगे।

उसके बाद एक दिन गम्भीरा में श्रीमन् महाप्रभु ने दिव्योन्माद अवस्था में स्वरूप दामोदर और राय रामानन्द के साथ कृष्ण कथा करते –करते आधी रात बिता दी। अनेक यत्न से महाप्रभुजी को सुलाकर स्वरूप दामोदर और राय रामानन्द अपने-अपने स्थानों पर चले गये। गम्भीरा के घर में गोविन्द सो गये। आधी रात के समय महाप्रभुजी ने उच्च-संकीर्तन करते-करते हठात् श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि सुनी और भावावेश में गम्भीरा से बाहर निकल कर चल दिये, जबकि कमरे में सभी दरवाजे बन्द ही पड़े थे। चलते-चलते वे सिंहद्वार के दाहिनी ओर तैलंगी गायों के बीच अचेतन होकर गिर पड़े। उनके सेवक श्रीगोविन्द ने जब महाप्रभु की कोई भी आवाज़ इत्यादि न सुनी तो वे उठे और जैसे-तैसे उन्होंने अन्दर झाँका। अन्दर कहीं भी महाप्रभु को न देखा तो तुरन्त स्वरूप दामोदर को यह खबर दी। स्वरूप दामोदर अन्यान्य भक्तों के साथ दीपक लेकर महाप्रभु की खोज करने लगे। सिंहद्वार में गायों के बीच उन्होंने देखा कि महाप्रभु ने जाँघों के बीच हाथों को घुसाकर कूर्माकार रूप धारण किया हुआ है। भक्तों ने देखा कि उनके मुख में फेन, श्रीअंगों में पुलक व नेत्रों में अश्रुधारा-कुष्माण्डफल की भाँति वे पड़े हुये हैं। उनके बाहर में विष ज्वाला है जबकि भीतर में आनन्द ही आनन्द है। भक्तों ने देखा कि गायें चारों ओर से महाप्रभु के अंगों की गन्ध को सूंघ रही हैं, हटाने पर भी गायें मुड़-मुड़कर फिर से आ रही हैं।

अनेक चेष्टा करने पर भी जब महाप्रभुजी को होश न आया तो भक्तगण महाप्रभु को उठाकर गम्भीरा में ले आये। बहुत देर तक महाप्रभु के कानों के पास उच्चसंकीर्तन करने पर महाप्रभु होश में आ गये और उनके श्रीअंग दोबारा वैसे ही ठीक-ठाक हो गये। महाप्रभु ने भावाविष्ट होकर स्वरूप दामोदर से पूछा,-‘तुम मुझको कहाँ से ले आये? मैं वंशीध्वनि सुनकर वृन्दावन में गया था। ब्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण गोष्ठ में वेणु बजा रहे थे। वेणु का संकेत समझकर राधाराणी कुंजकुटीर में आयी, मैं भी उनके पीछे-पीछे जा रहा था। मैं तो उनकी भूषण-ध्वनि, गोपियों की कण्ठध्वनि, हास्य-परिहास सुनकर आनन्द से विह्वल पड़ा हुआ था। तुम मुझे जबरदस्ती यहाँ ले आये। अब मैं वह अमृत के समान वाणी व भूषण-ध्वनि व मुरली-ध्वनि नहीं सुन पा रहा हूँ।’ स्वरूप दामोदर ने महाप्रभु का भाव समझकर मधुर कण्ठ से भागवत के इस श्लोक का पाठ किया –

का स्त्रांग ते कलपदायतवेणुगीत-
सम्मोहितार्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम्।
त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं
यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन्॥11
(भाः 10/29/40)

श्रीमन् महाप्रभुजी ने जैसे ही इस श्लोक को सुना तो सुनने मात्र से गोपीभाव में विभावित होकर श्रीकृष्ण के प्रति जो गोपियों का भाव है, उस भाव में वे चित्रजल्प12 की भाँति बोलने लगे।

श्रील कविराज गोस्वामी ने और भी एक अलौकिक घटना की कथा लिखी है। वह ये कि एक दिन रासलीला की उद्दीपनामय शारदीय ज्योत्सना रात्रि में श्रीमन् महाप्रभु गुण्डिचा मन्दिर के पास के उद्यान आइटोटा में भक्तों के साथ रासलीला के गीतों का आस्वादन कर रहे थे कि भ्रमण करते-करते अचानक समुद्र देखते ही यमुना के भ्रम से वे उसमें कूद पड़े। महाप्रभु के श्रीअंग तैरते-तैरते कोणार्क की ओर जाने लगे कि तभी एक व्यक्ति ने जाल में बड़ी मछली आयी समझकर जाल द्वारा उसे उठाया तो देखा कि हाथ-पैर फैले हुए एक विशाल आदमी का शरीर जाल में फँसा है। महाप्रभु को स्पर्श करते ही वह मछियारा प्रेमाविष्ट होकर हा कृष्ण! हा कृष्ण!! कहते हुये क्रन्दन करने लगा। इधर स्वरूप दामोदर महाप्रभु को न देखकर कुछ भक्तों के साथ ढूँढने लगे। बहुत ढूँढने के बाद उन्होंने जाल वाले के कन्धे पर महाप्रभु को देखा। स्वरूप दामोदर ने प्रेमविकारयुक्त जाल वाले को महाप्रभु का तत्व समझाया तथा तीन बार अपने हाथ की हथेली से अपने माथे को ठोका। भक्तगण द्वारा उच्च-संकीर्तन करते रहने से महाप्रभु हुंकार करते हुये उठे। श्रीमन् महाप्रभु की अर्द्धबाह्य दशा में चित्रजल्पोक्ति सुनकर भक्तगण महाप्रभु के दिव्योन्माद की उपलब्धि करके पुलकित हो उठे-गोपियों के साथ कृष्ण की रासलीला और जलक्रीड़ा लीला में महाप्रभु प्रविष्ट हुये थे। पश्चात् भक्तगण महाप्रभु को गम्भीरा में ले आये।

श्रीजगदानन्द पण्डित के माध्यम से श्रीअद्वैताचार्य की पहेली में श्रीमन् महाप्रभु के अन्तर्धान का संकेत पाकर स्वरूप दामोदर मायूस से हो उठे तथा इधर श्रीमन् महाप्रभु का विरह उन्माद और भी बढ़ गया।

नाम संकीर्तन ही कृष्णप्रेम प्राप्ति का सर्वोत्तम उपाय है—यह श्रीमन् महाप्रभु ने स्वरूप दामोदर और राय रामानन्द के माध्यम से हमें सुस्पष्ट और सुदृढ़ रूप से समझाया—

हर्षे प्रभुन कहेन—“शुन, स्वरूप-रामराय।
नामसङ्कीर्त्तन—कलौ परम उपाय॥
सङ्कीर्त्तनयज्ञे कलौ कृष्ण-आराधन।
सेई त’ सुमेधा पाय कृष्णेर चरण॥
नाम-सङ्कीर्त्तने हय सर्वानर्थ-नाश।
सर्व-शुभोदय कृष्णे प्रेमेर उल्लास॥
(चै. च. अ. 20/8-9, 11)

तत्पश्चात् श्रीचैतन्य महाप्रभु स्वरचित शिक्षाष्टक के आठ श्लोकों का आस्वादन करते-करते क्रमशः दैन्य से कृष्ण-विरह बढ़ने के कारण राधाभाव विभावित प्रेम में आविष्ट होकर गिर पड़े।

श्रीमन् महाप्रभु की दिव्योन्माद दशा में स्वरूप दामोदर और राय रामानन्द ने ही हर वक्त उनके साथ रहकर उनके विप्रलम्भ भाव की पुष्टि की थी।

श्रीश्रीजगन्नाथ देव की रथयात्रा तिथि में श्रील स्वरूप दामोदर गोस्वामी प्रभु अप्रकट हुये थे।


1 – श्रीमन् महाप्रभु सारे जगत् में श्रीराधा के गण रूप से जिन साड़े तीन भक्तों को गिनते थे-उनमें श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी, श्रीराय रामानन्द तथा श्रीशिखि माहिति-ये तीन तथा आधी गिनती थी शिखि माहिति की बहन की।
2 – नीलाचल में श्रीपरमानन्द पुरी तथा श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी-ये दोनों ही महाप्रभु के अन्तरंग अध्यक्ष थे।

3 – श्रीचैतन्य महाप्रभु ने नाम संकीर्त्तन का प्रचार किया। महाप्रभु के अवतार का यह बाहरी कारण है-यह बात पहले कही जा चुकी है।

4 – श्रीचैतन्य महाप्रभु के अवतार का, नाम संकीर्त्तन के प्रचार के अतिरिक्त एक और मुख्य कारण है-वह जो कारण है, वह कारण रसिक शेखर श्रीकृष्ण का निजी कार्य है और वह अत्यन्त गूढ़ है तथा उसके तीन रूप हैं जिनका स्वरूप दामोदर द्वारा प्रचार हुआ था। श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी महाप्रभु के अति अन्तरंग हैं इसलिए तो वह महाप्रभु के सब प्रसंगों को जानते हैं।

5 – श्रीस्वरूप दामोदर का उच्च संकीर्त्तनसुनने मात्र से महाप्रभु बाह्य ज्ञान शून्य हो जाते हैं तथा साथ-साथ पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। महाप्रभु के जितने भी संन्यासी पार्षद हैं, उनमें से कोई भी श्रीस्वरूप दामोदर के समान नहीं है। श्रीईश्वरपुरी गोस्वामी को महाप्रभु जितनी प्रीति करते हैं, स्वरूप दामोदर को भी उतनी ही प्रीति करते हैं। स्वरूप दामोदर का संगीत ऐसा रसमय है, जिसकी ध्वनि महाप्रभु के कान में पड़ने से उनका स्वयं ही नृत्य होने लग जाता है।

6 – श्रीचण्डीदास एवं विद्यापति की पदावली, श्रीराय रामानन्द का जगन्नाथ बल्लभ नाटक श्रीबिल्वमंगल रचित श्रीकृष्ण कर्णामृत तथा श्रीजयदेव के गीतों और पदों को श्रीस्वरूप दामोदर और श्रीराय रामानन्द को सुनाकर अथवा उनसे सुनकर श्रीमन् महाप्रभु (शेष बारह वर्षों में) दिन-रात आनन्दमग्न रहते थे। श्रीपरमानन्द पुरी में शुद्ध वात्सल्य भाव था, श्रीराय रामानन्द का उनमें शुद्ध सख्य भाव था तथा श्रीगोविन्द आदि भक्तों का शुद्ध दास्यरस था। श्रीगदाधर, श्रीजगदानन्द एवं श्रीस्वरूप दामोदर का महाप्रभु के प्रति मधुर भाव था। श्रीमन् महाप्रभु इन चारों भावों से वशीभूत रहते थे।

7 – श्रीचैतन्य महाप्रभु की लीलायें उत्तम रत्नों के सामान हैं और रत्नों का भण्डार श्रीस्वरूप दामोदर के पास है। उन्होंने उन सभी की माला गूंथ कर श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी के गले में पहनायी। श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी कहते हैं कि श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी से जो सुना उन सभी का वर्णन मैंने यहाँ (श्रीचैतन्य चरितामृत में) कर दिया है और उसी को भेंट के रूप में भक्तों को समर्पण करता हूँ।

8 – जिन्होंने कुमारावस्था में रेवा नदी के किनारे मेरा चित्त हरण किया था, अब वे ही मेरे पति बन गये हैं, मधुमास की वह रात्रि भी है, उन्मीलिनी मालती पुष्प की सुगन्ध्र भी है, कदम्ब कानन से मधुर-मधुर वायु भी बह रही है तथा सुरत व्यापार लीला कार्य में वही नायिका भी मैं उपस्थित हूँ, तब भी मेरा चित्त इस अवस्था से सन्तुष्ट न होकर रेवा नदी के तट पर लगे वेतसी वृक्ष के नीचे जाने के लिये नितान्त उत्कण्ठित हो रहा है।

9 – दैवयोग से अचानक महाप्रभु ने कुटिया में ऊपर की तरफ देखा तो पाया कि कुटिया की छत पर वही श्लोक एक ताल पत्र पर लिखकर घुसा रखा है। श्लोक पढ़कर महाप्रभु प्रेमाविष्ट हो गये, तभी रूप गोस्वामी उनके श्रीचरणों में गिरकर दण्डवत् करने लगे। दण्डवत् करने के बाद जैसे ही रूप गोस्वामी उठे तो महाप्रभु ने प्यार से उनकी गाल पर थप्पड़ मारा तथा उन्हें अपने पास बिठाकर कहने लगे-अरे! मेरे श्लोक का अभिप्राय तो कोई भी नहीं जानता परंतु तूने मेरे मन की बात कैसे जान ली?-इतना कहकर महाप्रभु ने रूप गोस्वामी पर खूब कृपा की तथा उक्त लिखा श्लोक स्वरूप दामोदर को दिखाने लगे। स्वरूप दामोदर को श्रीमन् महाप्रभु विस्मित होकर पूछते हैं कि रूप ने मेरे मन की बात कैसे जान ली, तो इसके उत्तर में स्वरूप दामोदर कहते हैं कि प्रभो! इन्होंने आपके मन की बात को जान लिया है तो इससे समझ पाया हूँ कि ये आपके कृपा पात्र हो गये हैं।

10 – “हे सहचरी! मेरे अतिप्रिय कृष्ण आज कुरुक्षेत्र में मिल गये, मैं भी वही राधा हूँ तथा ये भी ठीक है कि हमारा मिलन सुख भी वही है तथापि मेरा चित्त इन कृष्ण की वन में क्रीड़ा करते हुये मुरली के पंचम सुर में आनन्दप्लावित कालिन्दी के पुलिन के लिये स्पृहा करता है।” (ठाकुर भक्ति विनोद)

11 – “हे कृष्ण! आपके कलपदामृत वेणुगीत द्वारा सम्मोहित होकर त्रैलोक्य में कौन सी ऐसी स्री है जो आर्य रचित (धर्म) से विचलित न होती हो? त्रैलोक्य का सौभाग्यस्वरूप आपका यह रूप देखकर सभी गायें, सभी पक्षी, सभी लतायें व सभी मृग पुलकित हो उठते हैं।” (ठाकुर भक्ति विनोद)

12 – प्रियतम के किसी खास रिश्तेदार को देखने से प्यार के गुस्से में जो बड़बड़ाया जाता है उसे चित्रजल्प कहते हैं अथवा पागल की भान्ति विभिन्न विषयों पर एक साथ बोलना भी चित्रजल्प कहलाता है

श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ ‘गौर-पार्षद’ में से