गुरुसेवा हेतु कठिनाइयों को प्रसन्नतापूर्वक सहन करना

एक समय श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज एवं श्रीमद्भक्तिहृदय वन गोस्वामी महाराज श्रील प्रभुपाद के आदेशानुसार कुरुक्षेत्र में सत्-शिक्षा-प्रदर्शनी के आयोजन हेतु अम्बाला गये थे। रात्रि में रहने योग्य किसी स्थान के नहीं मिलने पर उन्होंने ठण्ड के समय में परस्पर आलिङ्गन करके एक ओवरब्रिज के नीचे ही कृष्ण-सुदामा द्वारा की गयी गुरु सेवा, जिसमें उन्होंने वन में रात्रि व्यतीत की थी, का स्मरण करते हुए समस्त रात्रि व्यतीत कर दी।

वैष्णवों का स्वाभाविक दैन्य

जब श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज एवं मेरे गुरुदेव श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज (उस समय श्रीहयग्रीव ब्रह्मचारी) मद्रास में प्रचार करने गये थे, उन दिनों ‘The Hindu’ नामक एक अंग्रेजी समाचार-पत्र में अपने नामों के ठीक विपरीत अद्वैतवादी डा राधाकृष्णन् और द्वैतवादी डा नागराज शर्मा परस्पर के द्वारा लिखे गये विचारों का खण्डन करते थे। अनेक समय तक ऐसे चलने के पश्चात् मद्रास के द्वैतवादियों तथा अद्वैतवादियों ने यह निर्धारित किया कि गौड़ीय मठ के सभापतित्व में अद्वैतवादी डा राधाकृष्णन् और द्वैतवादी डा नागराज शर्मा के बीच शास्त्रार्थ होगा तथा गौड़ीय मठ की ओर से सभापति के पद पर आसीन व्यक्ति का ही विचार सर्वमान्य होगा।

जब वहाँ के स्थानीय लोगों की ओर से शास्त्रार्थ के सभापति पद के लिये गौड़ीय मठ के प्रतिनिधि को नियुक्त करने का प्रस्ताव गुरु महाराज के पास आया तो वे अति प्रसन्न हुए तथा श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज को सभापति का पद ग्रहण करने हेतु निवेदन किया जिसे उन्होंने भी वैष्णवोचित व्यवहार से स्वीकार कर लिया।

इस उपरोक्त प्रस्ताव के पश्चात् गुरु महाराज को श्रील प्रभुपाद द्वारा तार के माध्यम से शीघ्रातिशीघ्र कोलकाता पहुँचकर किसी विशेष सेवा को सम्पादित करने का आदेशमूलक सम्वाद मिला। जब श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने गुरु महाराज के मुख से श्रील प्रभुपाद के आदेश के विषय में सुना तब उन्होंने कहा, “हयग्रीव प्रभु, आपकी अनुपस्थिति में मैं सभापतित्व नहीं करूंगा।”

गुरु महाराज ने उनसे कहा, “यद्यपि श्रील प्रभुपाद के आदेशानुसार मेरे कोलकाता जाने से ही उनकी प्रसन्नता होगी तथापि गौड़ीय मठ के इतनी महती सभा के सभापतित्व के कारण होने वाले विलम्ब को जानकर श्रील प्रभुपाद को और अधिक प्रसन्नता होगी, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।”

उपरोक्त सभा का दिन आकर उपस्थित हुआ तथा श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने अपने सभापति के पद को सम्भालते हुए दैन्यपूर्वक सर्वप्रथम कहा, “यद्यपि मैं सभापति के पद के योग्य नहीं हूँ तब भी वैष्णवों एवं समाज के सज्जन व्यक्तियों के आदेश को पालन करने के लिये ही मैंने इस पद पर बैठना स्वीकार किया है।”

सर्वप्रथम डा राधाकृष्णन् ने अपने मत अद्वैतवाद को स्थापित करने का प्रयास किया। उनके पश्चात् जब द्वैतवादी डा नागराज शर्मा को अपना मत स्थापित करने हेतु कहा गया तो उन्होंने सर्वप्रथम श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज की ओर इङ्गित करते हुए कहा, “वैष्णव दैन्य करते हैं तथा वह स्वयं का ‘दासोऽस्मि’ कहकर परिचय देते हैं किन्तु इसकी गरिमा को समझने में असमर्थ अद्वैतवादी सदैव अवसर का लाभउठाते हुए स्वयं का अति अहङ्कारवशतः ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहकर परिचय प्रदान करते हैं। वास्तव में वैष्णवों को सब स्थानों पर ऐसा दैन्य नहीं करना चाहिये।” उसके पश्चात् डा नागराज ने अपनी विचारधारा को स्थापित किया।

अन्त में सभापति के भाषण में श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने कहा, “वास्तव में निम्न सङ्ग करने वाले में अहङ्कार होता है। श्रेष्ठ व्यक्ति का सङ्ग करने वाले व्यक्ति में अहङ्कार हो ही कैसे सकता है? पिता के समक्ष खड़े होने से पुत्र तथा पुत्र के समक्ष खड़े होने से पिता के रूप में परिचय जिस प्रकार स्वाभाविक होता है उसी प्रकार ‘महतो महीयान्’ वस्तु को प्राप्त करने वाले व्यक्ति के सङ्ग से दीनता करनी नहीं पड़ती बल्कि दीनता स्वाभाविक रूप में आ जाती है किन्तु यदि कोई निम्न सङ्ग करता है तो उसके हृदय में अहङ्कार आना अवश्यम्भावी है।

वैष्णवों का दीनता प्रकाशित करना कोई बनावटी क्रिया नहीं है अपितु भगवद् अनुभूति का आनुषंगिक फल है। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने अपना परिचय देते हुए कहा है –

जगाइ माधाइ हैते मुजि से पापिष्ठ।
पुरीषेर कीट हैते मुबि से लघिष्ठ ॥

मोर नाम शुने जेइ, तार पुण्य क्षय।
मोर नाम लय जेइ, तार पाप हय।

एमन निघृण मोरे केवा कृपा करे।
एक-नित्यानन्द बिनु जगत् भितरे ॥

चैन्ध (आदि-लीला ५.२०५-२०७)

[मैं जगाइ-माधाइ से भी बड़ा पापी है। विष्ठा के कीड़े से भी नीच है। जो मेरा नाम सुनता है, उसके पुण्य नष्ट हो जाते हैं। जो मेरा नाम लेता है, उसे पाप लगता है। एक श्रीनित्यानन्द प्रभु के बिना जगत् में कौन ऐसा है जो मुझ जैसे निघृण, अत्यधिक घृणित जीव पर कृपा करेगा।]

भक्ति राज्य की Topmost, Supreme Authority, सर्वोपरि आचार्य श्रील रूप गोस्वामी ने भी कहा है-

आधारोऽप्यपराधानमविवेकहत्तोऽप्यहम् ।
त्वतकारुण्यप्रतीक्ष्योऽस्मि प्रसीद मयि माधव ॥

स्तव माला, भाग-१ प्रणामप्रणयस्तव (१४)

[यद्यपि में अपराधों का आधार (पात्र) हूँ, अविवेकी हूँ तथापि आपकी करुणा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हे माधव! मेरे प्रति प्रसन्न होइये।]

दक्षिण भारत के एक वैष्णव कवि श्रीमाधव सरस्वती ने दैन्य प्रकाशित करते हुए कहा है –

शानावलम्बकाः केचित् केचित् कर्मावलम्बकाः।
वयं तु हरिदासानाम् पादत्राणावलम्बकाः ॥

[कोई ज्ञान का अवलम्बन करने वाले हैं, कोई कर्म का अवलम्बन करने वाले हैं। किन्तु हम तो श्रीहरि के दासों की पादुका मात्र का अवलम्बन करने वाले हैं।]

इन महापुरुषों की दैन्योक्ति पर विचार कर स्पष्ट प्रमाणित होता है कि द्वैतवादी वैष्णवों की तुलना में अद्वैतवादियों की वास्तविक स्थिति क्या है। अद्वैतवादी स्वयं के लिये ‘अहं ब्रह्मास्मि’ तथा ‘पाश-बद्धो भवेत् जीवः पाश मुक्तः सदाशिवः अर्थात् एक व्यक्ति माया के बन्धन में जीव है तथा माया के बन्धन से मुक्त होने पर सदाशिव बन जाता है’ की धारणा रखते हैं किन्तु द्वैतवादियों की स्वयं के विषय में धारणा इस प्रकार की है-

मद् जन्मनः फलं इदं मधु कैटभारे
मत् प्रार्थनीय मद् अनुग्रह एष एव।
त्वद् भृत्य नृत्य परिचारक भृत्य भृत्य
भृत्यस्य भृत्यं इति मां स्मर लोकनाथ ॥

मुकुन्द-माला-स्तोत्र (२५)

[हे लोकनाथ। हे मधु-कैटभ का वध करने वाले! कृपया मुझ पर अनुग्रह कीजिये तथा मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कीजिए कि आप मुझे अपने दास के दास के दास के दास के दास के दास के सेवक के रूप में ही स्मरण करें। इससे ही मेरा यह जन्म सफल होगा।]

ढोंगियों की वास्तविक स्थिति प्रकाशित करना

एक समय श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के निर्देशानुसार श्रील भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज अपने साथ अपने गुरुभ्राता श्रीस्वाधिकारानन्द प्रभु (बाद में जो श्रील कृष्णदास बाबाजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुये) को लेकर अम्बाला में प्रचार कार्य में व्यस्त थे। उस समय अम्बाला के स्टेशन अधीक्षक अत्यधिक अनुरोध करके उन्हें स्वयं को भगवान् के रूप में प्रचार करने वाले किसी एक साधु वेषधारी ढोंगी के पास ले कर गये। यद्यपि श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने स्टेशन अधीक्षक को बहुत समझाया था कि भगवान् जिस किसी को भी कह देने से अथवा स्वीकार कर लेने से दोष लगता है किन्तु उन्होंने श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज की बात को नहीं माना। श्रीस्वाधिकारानन्द प्रभु ने भी उन्हें समझाते हुये कहा, “हमारे पास ऐसे व्यक्तियों से मिलने का समय नहीं है।” तब भी स्टेशन अधीक्षक अपनी जिद्द पर अड़े रहे।

उस ढोंगी से वार्तालाप करने की अनिच्छा होने पर भी श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज एवं श्रीस्वाधिकारानन्द प्रभु स्टेशन अधीक्षक के साथ उस ढोंगी से मिलने गए। वहाँ श्रील भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज ने उस ढोंगी से वार्तालाप करते हुए पूछा, “क्या मैं आपका परिचय जान सकता है?”

उसने अंग्रेजी भाषा में उत्तर देते हुए कहा,

“I am Lord Krishna. I am Mohammed. 1 am Christ. I am Buddha. I am Chaitanya.”

उसकी बात सुनकर श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने कहा, “आप किसी स्वस्थ व्यक्ति के साथ में वार्तालाप कर रहे हैं, ऐसा जानकर उत्तर देने से मुझे प्रसन्नता होगी।”

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज की बात सुनकर वह ढोंगी चिढ़कर कहने लगा, “Joseph Stalin, the Leader of Soviet Union, is a dog to me. Franklin D. Roosevelt, the President of United States of America, is a cat to me.”

उस ढोंगी को क्रोधित होते देखकर उसके चेले श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज से कहने लगे, “आप भगवान् को विरक्त (परेशान) क्यों कर रहे हैं?”

स्टेशन अधीक्षक ने उस ढोंगी साधु के चेले से कहा, “भगवान् और भक्त में वार्तालाप हो रहा है, आप बीच में क्यों बोल रहे हैं?”

तब श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने उस ढोंगी से पूछा, “आपके क्षोभ का, आपके दुःखी होने का कारण क्या है?” तब उस ढोंगी के मुख से अनायास ही निकल गया, “मैंने भारत को स्वतन्त्र कराने के लिये सब कुछ किया। जब मेरी पत्नी दिल्ली में अत्यधिक अस्वस्थ थी, तब उसकी चिकित्सा के लिए किसी ने कोई भी आर्थिक सहायता नहीं की तथा वह मर गयी। क्या मैं पागल हूँ जो ऐसे व्यक्तियों के लिए अपने प्राणों का बलिदान दूँ जिन्होंने मेरी कोई सहायता नहीं की, एक ऐसे सैनिक की जिसने उनकी स्वतन्त्रता के लिए इतनी कर्मठतापूर्वक युद्ध किया? जगत् के लोगों ने मुझे ठगा है और अब मैं जगत्वासियों को ठगूँगा।”

उस ढोंगी के मुख से यह सब सुनकर उसे विदा करने आये विशिष्ट व्यक्ति एक-एक करके वहाँ से चले गये। श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने श्रीस्वाधिकारानन्द प्रभु से कहा, “यः पलायते स जीवति अर्थात् इस दुष्ट व्यक्ति के सङ्ग से जो पलायन कर जायेगा वह तो बच जायेगा, अन्य सब फैस जायेंगे।”

श्रील प्रभुपाद की कृपा से सिक्त श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज में ढोंगी लोगों के ढोंग को उघाड़ देने की, उनकी वास्तविक स्थिति को प्रकाशित करने की अतुलनीय प्रतिभा थी।

श्रीमद्भागवतम् की प्रमाणिकता की रक्षा करना

एक समय किसी विद्वान् व्यक्ति ने श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज से जिज्ञासा की, “अनेक लोग श्रीमद्भागवतम् को श्रील वेदव्यास द्वारा रचित प्रमाणिक ग्रन्थ की श्रेणी में नहीं रखते। उनके द्वारा दिया गया तर्क भी कुछ हद तक युक्ति सङ्गत प्रतीत होता है, कारण, श्रीमद्भागवतम् की भाषा, श्रील वेदव्यास द्वारा रचित अन्य ग्रन्थों की भाँति नहीं लगती, उसकी शैली आधुनिक है। प्राचीन भाषा शैली नहीं होने के कारण मन में सदैव यह जानने का कौतूहल रहता है कि भागवत की रचना कब हुई?”

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने एक अभूतपूर्व उत्तर दिया, “अवश्य ही!

“श्रीमद्भागवतम् हरिभक्ति से सम्बन्धित ग्रन्थों तथा उपनिषदों के मन्थन द्वारा उत्पन्न माखन-स्वरूप सर्वोत्तम ग्रन्थ है। ग्रन्थ के रचना-काल (नूतन अथवा पुरातन) से ग्रन्थ की उत्तमता का कोई सम्बन्ध नहीं है।”

श्रीमद्भागवतम् की रचना कल ही सम्पूर्ण हुई है।”

उन्होंने तब नम्रतापूर्वक उस विद्वान् व्यक्ति से पूछा, “क्या प्राचीन होने से ही किसी वस्तु का गुरुत्व, उसका मूल्य अधिक होता है, किसी नई वस्तु के गुरुत्व, उसकी गुणवत्ता के अधिक होने पर क्या उसे स्वीकार नहीं करना चाहिये? उदाहरण स्वरूप, पहले एटम बम नहीं था, बाद में आविष्कृत हुआ तो क्या हमें उसके अधिक शक्तिशाली होने को जानकर, अनुभव कर भी उसे केवल इसलिए अस्वीकार कर देना चाहिये कि वह नया है या फिर उसकी उत्तमता को स्वीकार करके उसे प्रसन्नतापूर्वक गर्व करते हुए ग्रहण करना चाहिये?

“इसी प्रकार हरि-भक्ति से सम्बन्धित ग्रन्थों तथा उपनिषदों का मन्थन करके प्रकाशित होने वाला माखन श्रीमद्भागवतम् उपनिषदों से नूतन होगा या पुरातन ? तथा नूतन होने पर भी उसका गुरुत्व अधिक होगा या नहीं?

गौड़ीय वैष्णव धारा के एक विशिष्ट आचार्य श्रील वृन्दावन दास ठाकुर महाशय ने कहा है –

‘चारि-वेद ‘दधि’ भागवत ‘नवनीत’।
मथिलेन शुक, खाइलेन परीक्षित ॥

श्रीचैतन्यभागवत (मध्य-खण्ड २१.१६)

[चार वेद दधि के समान हैं तथा श्रीमद्भागवतम् नवनीत के समान है। श्रीशुकदेव गोस्वामी ने दधि का मन्थन कर नवनीत का परीक्षित महाराज को आस्वादन कराया।]

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा, “किसी नूतन उत्तम वस्तु को देख-सुनकर उसकी गुणवत्ता की परख करने में अयोग्य व्यक्ति यदि संशयात्मा होकर उसकी अवहेलना कर दे तो इसमें उसकी अपनी ही मूर्खता प्रकाशित होती है। बुद्धिमत्ता तो इसी में है कि किसी श्रेष्ठ के अनुगत होकर वस्तु के उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट होने की पुष्टि होने पर उसी के अनुरूप उससे सम्बन्ध युक्त होना।”

अद्वयज्ञान-परतत्त्व को जानना

एक बार जब श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज मुम्बई में गौड़ीय मठ की स्थापना से पूर्व प्रचार करने के लिये गये तब स्वतन्त्र भारत के प्रथम महाधिवक्ता (Advocate General) एवं थियोसोफिकल सोसायटी के सभापति श्री एम पी इंजीनियर ने श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज को सोसायटी की एक सभा में आकर वक्तृता देने का निवेदन किया। उस दिन सभा में अन्य वक्ताओं को भी आमन्त्रित किया गया था, इस कारण सभी को १५ मिनट का समय दिया गया।

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने अपने भाषण में कहा, “भगवान् के असीम, अनन्त, सर्वशक्तिमान होने के कारण उन्हें अद्वयज्ञान-परतत्त्व कहा जाता है इसी कारण उन्हें न तो कोई अपने किसी भी प्रकार के प्रयास से जान सकता है और न ही कोई अन्य मनुष्य भगवान् के विषय में किसी को कुछ जना सकता है।”

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
कठोपनिषद् (१.२.२३)
[इस परमात्म वस्तु को तर्क, मेधा या पाण्डित्य द्वारा नहीं जाना जा सकता।]

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज के भाषण के उपरान्त श्री एम०पी० इंजीनियर ने उनके बैठने के साथ ही प्रश्न किया, “जब भगवान् को कोई जान नहीं सकता, कोई जना नहीं सकता तब फिर आप लोग संसार छोड़ कर संन्यासी बनकर भगवान् को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न क्यों कर रहे हैं?

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने साथ-ही-साथ उत्तर दिया, “भगवान् को अवश्य ही जान सकते हैं।”

तब श्री एम० पी० इंजीनियर ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा, “महाराज, एक बात तो कहनी ही पड़ेगी कि आप जो भी हैं, एक संन्यासी निश्चित रूप से नहीं हैं। कारण, आपने तो एक वकील की भाँति साथ-ही-साथ अपना कथन परिवर्तित कर दिया।”

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने कहा, “आप लोगों द्वारा समय की पाबन्दी है इसलिये मैं अत्यन्त गम्भीर विषय के एक दृष्टिकोण को ही बतला पाया, अन्य एक दृष्टिकोण को बतलाने से पहले ही समय समाप्त हो गया, मैं निर्धारित समय के भीतर अपने द्वारा अभिलषित विषय वस्तु को सम्पूर्ण नहीं कर पाया।”

“अपने प्रयास से अथवा अपने ही समान अधिकार वाले व्यक्ति के प्रयास से कोई भगवान् को नहीं जान सकता।”

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज की बात सुनकर श्री एम पी इंजीनियर ने कहा, “आपने एक गम्भीर विषय को अत्यन्त सुन्दर रूप से बतलाना प्रारम्भ किया है इसीलिये आप १५ मिनट और लेकर कृपया अपने विषय को पूर्ण कर दीजिये।”

तब श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने सिद्धान्त स्थापित करते हुए कहा, “यद्यपि एक ओर शास्त्र यह कहते हैं कि भगवान् के अनन्त, असीम, अद्वयज्ञान-परतत्त्व होने के कारण कोई उन्हें जान नहीं सकता, कोई उन्हें जना नहीं सकता किन्तु दूसरी ओर शास्त्र यह भी कहते हैं कि अनन्त, असीम, सर्वशक्तिमान अद्वयज्ञान परतत्त्व यदि स्वयं को न जना सके तो उनका असीमत्व, अनन्तत्व, सर्वशक्तिमानत्व ही कहाँ रहा? तथा तब फिर अद्वयज्ञान-परतत्त्व का क्या अर्थ हुआ

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ॥

कठोपनिषद् (१.२.२३)

अर्थात् अपने प्रयास से अथवा अपने ही समान अधिकार वाले व्यक्ति के प्रयास से कोई भगवान् को नहीं जान सकता किन्तु भगवान् द्वारा स्वयं अथवा अपने किसी प्रियजन के द्वारा हमारी सेवोन्मुखता को देखकर हमें जानकारी देने पर ही हम भगवान् को जान सकते हैं।

अतः श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियैः।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ॥

भक्तिरसामृतसिन्धु (१.२.२३४)

[श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण, लीला प्राकृत इन्द्रियों के द्वारा ग्रहणीय नहीं हैं। जब जीवों के हृदय में श्रीकृष्ण की सेवा करने की वासना उदित होती है, उस समय उनकी जिह्वा आदि इन्द्रियों पर नाम आदि स्वयं स्फुरित होते हैं।]

श्रील महाराज की कथा का श्री एम-पी० इंजीनियर पर इतना गहन प्रभाव पड़ा कि जब श्रील प्रभुपाद मुम्बई आये तब श्री एम पी इंजीनियर ने प्रार्थनामूलक निवेदन करते हुए कहा, “आप लोगों की जो विचारधारा है, कृपया मुम्बई वासियों को उससे वञ्चित मत कीजिए, यहाँ पर भी एक मठ की स्थापना कीजिये।” इसके पश्चात् ही श्रील प्रभुपाद के दिशा-निर्देश में एक किराये के मकान में गौड़ीय मठ की स्थापना करके मुम्बई में विशुद्ध गौड़ीय-विचार-धारा का प्रचार प्रारम्भ हुआ।

श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी के संदेशवाहक

एक बार मेरे परमाराध्य गुरुदेव श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज (उस समय श्रीहयग्रीव ब्रह्मचारी), श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज तथा श्रीमद्भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज (उस समय श्रीसिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी) पूर्वीबङ्गाल (अब बङ्गलादेश) स्थित सिलेट नामक स्थान पर प्रचार करने के लिये गये। वहाँ पर ३ दिन की धर्म-सभा का आयोजन किया गया था। प्रथम दिन श्रीसिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी ने मायावादियों के मत की अपेक्षा श्रीचैतन्य
महाप्रभु की शिक्षाओं का श्रेष्ठत्व स्थापित करने के लिये अत्यधिक स्पष्ट किन्तु कठोर एवं अमर्यादित शब्दों में विवेकानन्द को बि-बेकानन्द तथा उसके गुरु रामकृष्ण परमहंस को रामहंस, बड़ाहंस इत्यादि कह दिया जिसके फलस्वरूप बहुत से सिलेट निवासी अत्यधिक असन्तुष्ट तथा क्रोधित हो गये। उन्होंने रात में ही पर्चे बैटवाकर पूरे शहर में गौड़ीय मठ के विरुद्ध प्रचार किया तथा धर्मसभा को रद्द करने का आह्वान किया।

अगले दिन श्रीहयग्रीव ब्रह्मचारी जिला न्यायाधीश से जाकर मिले जिन्होंने कहा कि ऐसी परिस्थिति में अन्य दो दिन धर्मसभा में किसी अप्रिय घटना की सम्भावना को देखते हुए सभा नहीं करना ही बुद्धिमानी है। श्रीहयग्रीव ब्रह्मचारी ने उनसे कहा, “मैं आपको प्रतिज्ञा करके कह सकता हूँ कि जिन्होंने कल कथा बोली थी वह अब कथा नहीं बोलेंगे, हम लोग (श्रीहयग्रीव ब्रह्मचारी एवं श्रील श्रीधर महाराज) बोलेंगे। जिला न्यायाधीश ने कहा, “आपके कहने पर मैं सुरक्षा की सब व्यवस्था कर देता हूँ किन्तु आप लोग थोड़ा सावधानीपूर्वक ही कथा का परिवेशन करना।”

सन्ध्या को सभा के समय हाल कलहप्रिय लोगों से भर गया। सर्वप्रथम श्रीहयग्रीव ब्रह्मचारी ने अपने प्रवचन में सिलेट वासी लोगों के आतिथ्य की प्रशंसा की तथा फिर विषय वस्तु का स्थापन किया। श्रीहयग्रीव ब्रह्मचारी के पश्चात् श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने अपने भाषण में कहा, “हमारे गुरु महाराज श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने हमें शिक्षा दी है कि हम स्वयं भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी के संदेशवाहक हैं। हम निर्भीक कण्ठ से उन्हीं श्रीचैतन्य महाप्रभु के हद्गत विचारों को भूतल पर स्थापित करने वाले श्रील रूप गोस्वामी एवं उनके अनुगत श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी, श्रील जीव गोस्वामी, श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी आदि भागवत् परम्परा के गुरुवर्गों के द्वारा वेदान्त-सूत्र के अकृत्रिम भाष्य श्रीमद्भागवतम् की विचार-धारा के प्रवाह को ही वितरण करने के उद्देश्य से आये हैं। हम लोग यहाँ पर घूँघट ओढ़कर प्रचार करने के लिये नहीं आये हैं।

“स्वयं भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु की वह विचार-धारा जो न केवल श्रीशङ्कराचार्य, जैमिनि, पतञ्जलि, कणाद आदि बल्कि चार वैष्णव सम्प्रदायों के आचार्य श्रीमध्वाचार्य, श्रीरामानुजाचार्य, श्रीनिम्बादित्य एवं श्रीविष्णुस्वामी के द्वारा स्थापित विचारधारा से भी अधिक उन्नत एवं अभूतपूर्व है, ऐसी विचारधारा के माध्यम से ऐसे विशिष्ट सज्जनों के विचारों की असम्पूर्णता को भी प्रकाशित किया जा रहा है। जगत् की प्रायः समस्त अप-उप-छल-धाराओं को स्तब्ध किया जा रहा है तब फिर विवेकानन्द, रामकृष्ण, भण्डारकर आदि के विषय में ऐसा ना हो, क्या यह विचार समीचीन है?

“दूसरी बात हम लोग तो संदेशवाहक हैं, हमारा काम तो शिक्षाओं का वितरण करना है, आप लोगों को यदि कोई प्रतिवाद करना है तो श्रीचैतन्य महाप्रभु, श्रीवेदव्यास, श्रीरूप गोस्वामी से कीजिए। यद्यपि हम उनकी विचारधारा के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाले हैं किन्तु यदि कोई उनसे उन्नत विचारधारा को प्रस्तुत कर दे तो हम उनके शरणागत हो जायेंगे, यदि नहीं तो फिर श्रीमन्महाप्रभु एवं उनके अनुगतजनों के द्वारा प्रचारित श्रेष्ठ विचारधारा को, मङ्गलमय पथ को जान-सुन-समझ लेने पर भी कौन-सा बुद्धिमान व्यक्ति उसका अनुसरण नहीं करेगा।

“श्रीमद्भागवत् में स्पष्ट रूप से श्रीकृष्ण के स्वयं भगवान् होने का स्थापन किया गया है –

एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।

श्रीमद्भागवतम् (१.३.२८)

[पहले जिन अवतारों का वर्णन किया गया है, उनमें कोई अंश तथा कोई कला हैं किन्तु कृष्ण स्वयं भगवान् हैं।]

“इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण ने निम्नलिखित श्लोकों के माध्यम से स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में बताया है कि वही जीवों के एकमात्र चरम लक्ष्य हैं-

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

श्रीमद्भगवद्गीता (१८.६६)

[वर्ण, आश्रम आदि समस्त शारीरिक तथा मानसिक धर्मों का परित्यागकर एकमात्र मेरी शरण ग्रहण करो। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा।]

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥

श्रीमद्भगवद्गीता (१८.६५)

[तुम मुझे चित्त समर्पण करो, मेरे नाम-रूप-गुण-लीला आदि के श्रवण-कीर्त्तन परायण होकर मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो तथा मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम मुझे ही प्राप्त करोगे। मैं तुमसे यह सत्य प्रतिज्ञा करता है, कारण, तुम मेरे प्रिय हो।]

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥

श्रीमद्भगवद्गीता (९.२२)

[अन्य कामनाओं से रहित तथा मेरी चिन्ता में रत जो व्यक्तिगण सर्वतोभावेन मेरी उपासना करते हैं, मैं नित्य मुझमें एकनिष्ठ उन व्यक्तियों का योग एवं क्षेम वहन करता हूँ।]

“इसलिये हम किसी भी देवी-देवता की आराधना करने वाले रामकृष्ण परमहंस को कैसे स्वीकार कर सकते हैं? उनके मत को स्वीकार करने से क्या लाभ? अपितु ऐसी उपासना श्रीमद्भागवतम् (४.३१.१४) के विपरीत है जिसमें कि दृढ़तापूर्वक कृष्ण की उपासना का ही स्थापन किया गया है –

यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ।।

श्रीमद्भागवतम् (४.३१.१४)

[जिस प्रकार वृक्षकी जड़ सींचने से उसके तना, शाखा, उपशाखा, आदि सभी का पोषण हो जाता है तथा जैसे भोजन द्वारा प्राणों को तृप्त करने से समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं उसी प्रकार एकमात्र श्रीकृष्ण की पूजा द्वारा ही निखिल देव-पितृ आदि की पूजा हो जाती है।]

“विवेकानन्द के द्वारा कहा गया विचार है कि ‘जीवे प्रेम करे जेइ जन सेइ जन सेविछे ईश्वर अर्थात् जीव से जो व्यक्ति प्रेम करता है वास्तव में वही व्यक्ति ईश्वर की सेवा कर रहा है।’ परन्तु हम देखते हैं कि उनके अनुगतजन अन्य-अन्य प्राणियों का वध करके उनके माँस को खाते हैं, अतएव इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि उनके द्वारा प्रचारित वाक्यों में प्रयुक्त जीव शब्द का अर्थ केवल मनुष्य ही है किन्तु जीव शब्द का वास्तविक अर्थ समस्त प्राणियों से है।

“अतएव आप स्वयं ही इन सब विषयों पर विचार कीजिये। हम इससे अधिक अन्य कुछ भी नहीं कहेंगे। अन्त में एक बात कहना चाहता हूँ कि हाँ, मेरे गुरुभ्राता श्रीसिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी द्वारा इन विचारों को प्रस्तुत करने की पद्धति में जो कमी हुई है, आप उसके लिये हमसे शिकायत कर सकते हैं, किन्तु यह निश्चित जानिये कि विषय-वस्तु आपके निकट शुद्ध ही प्रस्तुत की गयी थी, उसमें कोई मिश्रण नहीं था।”

“विचारों को प्रस्तुत करने की पद्धति में जो कमी हुई है, आप उस के लिये हमसे शिकायत कर सकते हैं, किन्तु यह निश्चित जानिये कि आपके समक्ष परम-विशुद्ध विषय-वस्तु ही प्रस्तुत की गयी थी।”

श्रील महाराज की कथा के समाप्त होने पर बहुत अधिक तालियाँ बजी। स्थानीय लोग वास्तविक रूप में प्रसन्न थे तथा उन्होंने प्रार्थना करके कथा की अवधि को १५ दिन कर दिया। इस प्रकार श्रीमन्महाप्रभु की वाणी का सिलेट में बहुत अधिक प्रचार हुआ। सिलेट उचित गुणवत्ता वाले चूने के लिये सर्वत्र प्रसिद्ध था इसलिये वहाँ के निवासियों ने गाड़ी भरकर चूना भेजा जिससे श्रीमन्महाप्रभु के धाम में स्थित श्रीचैतन्य मठ तथा श्रीयोगपीठ मन्दिर आदि में सर्वत्र पुतायी की गयी।

निष्कपट रूप से अपने से कनिष्ठ गुरुभ्राता का महिमा-गान करना

श्रील भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज प्रत्येक वर्ष, गौर पूर्णिमा के पश्चात् अपने समस्त गुरुभ्राताओं को अपने स्थान श्रीनवद्वीपधाम में कोलेरगञ्ज-स्थित श्रीचैतन्य सारस्वत मठ में उत्सव का आयोजन कर निमन्त्रित किया करते थे। एक वर्ष मेरे परमाराध्यतम गुरुपादपद्म श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज, श्रीगौर पूर्णिमा उत्सव के पश्चात् श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के प्रबन्धन कार्यों यथा परिक्रमार्थियों को विदाई देने तथा परिक्रमा में हुए व्यय इत्यादि का हिसाब-किताब करने इत्यादि में बहुत व्यस्त थे भी, श्रीचैतन्य सारस्वत मठ, नवद्वीप में कुछ तथा इच्छा एवं यथासम्भव प्रयास करने पर विलम्ब से ही पहुँच पाए। गुरुमहाराज को देखते ही श्रीमद्भक्तिकमल मधुसूदन गोस्वामी महाराज ने उनसे कहा, “माधव महाराज, आज आपने आने में बहुत अधिक विलम्ब कर दिया। हम सभी आपकी कब से प्रतीक्षा कर रहे थे।”

उनकी इस बात को सुनकर गुरु महाराज ने कहा, “महाराज, हमारे यहाँ पर श्रीनवद्वीप धाम परिक्रमा के उद्देश्य से बहुत से यात्री आए थे, इसलिए परिक्रमा का सुचारु रूप से आयोजन करने के उद्देश्य से हमें बहुत ऋण लेना पड़ा था। आज उस ऋण के भुगतान तथा अन्य व्यवस्थाएँ करते हुए ही बहुत समय चला गया जिससे कि मठ का सेवाकार्य सुचारु रूप से चलता रहे। आप सभी लोग मेरे विलम्ब के कारण मुझे क्षमा करना।”

श्रीगुरु महाराज की बात सुनकर श्रीमद्भक्तिविचार यायावर गोस्वामी महाराज ने कहा, “महाराज, नारम्भानारभेत् क्वचित् अर्थात् अनावश्यक रूप से अपने भौतिक ऐश्वर्य को वर्धित करने का प्रयास सर्वथा निरर्थक है। इतना आडम्बर करने की क्या आवश्यकता है?”

श्रील यायावर गोस्वामी महाराज के मुख से इस बात को सुनकर श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज ने कहा, “माधव महाराज, में श्रीयायावर महाराज की बात का उत्तर दूँगा।”

गुरु महाराज ने कहा, “महाराज, जैसी आपकी इच्छा।”

श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज ने कहा, “हाथी के लिए जो गन्ना नसवार अर्थात् सूँघने के साथ ही अन्दर चली जाने वाली अर्थात् एक अति तुच्छ वस्तु के समान होता है, वही गन्ना एक चींटी के लिए पहाड़ जैसा होता है। अर्थात् हमारे लिए जो कार्य बहुत बड़े आडम्बर के समान प्रतीत हो सकता है, वही कार्य श्रीपाद माधव महाराज के लिए बाएँ हाथ का खेल है।

“मुझे इसका प्रत्यक्ष अनुभव है। श्रील प्रभुपाद ने मुझे और श्रीपाद माधव महाराज (उस समय श्रीहयग्रीव ब्रह्मचारी) को श्रीरायरामानन्द और श्रीमन्महाप्रभु की मिलन-स्थली, गोदावरी के तट पर स्थित कोवूर नामक स्थान पर श्रीमन्महाप्रभु के पादपीठ स्थापना हेतु कुछ स्थान संग्रह करने के उद्देश्य से भेजा था। कई दिनों के अथक प्रयास के बाद मैंने उनसे कहा, ‘हयग्रीव प्रभु, श्रील प्रभुपाद ने हमें यहाँ पर बहुत आशा के साथ श्रीमन्महाप्रभु के पादपीठ हेतु स्थान संग्रह करने के उद्देश्य से भेजा है। मेरा ब्रह्मचारी नाम भी रामानन्द दास था तथा यह स्थान श्रीमन्महाप्रभु एवं श्रीरामानन्द रायजी का मिलन स्थल है। यद्यपि हमने तो जो भी सम्भवपर था वह सब कुछ करके देख लिया परन्तु कुछ भी नहीं हुआ। अतः आपकी क्या राय है? क्या हमें यहाँ और अधिक रहना चाहिये अथवा मद्रास में प्रचार के लिए चले जाना चाहिये ?’

“मेरी बात सुनकर श्रीहयग्रीव प्रभु ने मुझसे कहा था, ‘महाराज, हमने तो अभी तक कोई विशेष चेष्टा की ही नहीं है। इसलिए कृपया थोड़ा समय दीजिए, कुछ चेष्टा करके देखते हैं। बाद में विचार करेंगे।”

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने तब वहाँ पर उपस्थित सभी वैष्णवों को कहा, “आप सभी इससे ही अनुमान लगाइए कि श्रीपाद माधव महाराज की योग्यता किस प्रकार की है। जहाँ पर हमारी समस्त चेष्टाएँ समाप्त होती थीं, वहीं उनकी चेष्टा प्रारम्भहोती थी। बाद में उनकी अन्यतम चेष्टाओं के फलस्वरूप कोवूर में स्थान संग्रह किया गया तथा वहीं पर मठ बना। श्रीपादमाधव महाराज को श्रील प्रभुपाद Volcanic Energy अर्थात् ज्वालामुखीय ऊर्जा सम्पन्न कहते थे। श्रीवासुदेव प्रभु उन्हें ‘सर्व घटे’ अर्थात् समस्त प्रकार के कार्यों को करने में सर्वश्रेष्ठ योग्यता रखने वाले कहते थे।

“इनके विषय में मेरा अपना कथन यह है कि श्रीपाद माधव महाराज की तुलना एकमात्र श्रीमन्महाप्रभु के परिकर श्रीवक्रेश्वर पण्डित से ही हो सकती है जो बिना किसी क्लान्ति के बहत्तर घण्टे तक निरन्तर नृत्य कर सकते थे।”

उपरोक्त प्रसंग में गुरु महाराज की महिमा कीर्तन के अतिरिक्त एक शिक्षणीय विषय यह भी है कि यद्यपि श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज हमारे गुरु महाराज से मठवास की दृष्टि से एवं संन्यास आश्रम ग्रहण के विचार से ज्येष्ठ होने पर भी अपने कनिष्ठ सतीर्थ की महिमा को देखने एवं उसे वर्णन करने में कुण्ठित नहीं हुए। कारण, ऐसे महापुरुष वैकुण्ठ अर्थात् कुण्ठा रहित स्थान के भी सर्वोपरि प्रकोष्ठ गोकुल के अनुरागी-जनों के निर्मत्सर अनुगामी होने के कारण जागतिक किसी भी सीमा में आबद्ध नहीं होते और इसलिए वे इस प्रकार की स्वाभाविक, विनम्न और निष्कपट रूप से प्रशंस्रा करने में समर्थ होते हैं।

प्रतिष्ठा से घृणा

एक समय किसी एक भक्त ने श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज से जिज्ञासा की, “श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने स्वरचित ‘वैष्णव के?’ नामक कीर्तन में ‘तोमार प्रतिष्ठा, शूकरेर विष्ठा’ नामक पद में प्रतिष्ठा की तुलना शूकर की विष्ठा से क्यों की है?”

{‘यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि श्रील प्रभुपाद ने शुकर की विष्ठा ही क्यों कहा जबकि मनुष्य की विष्ठा भी उतनी ही असार वस्तु है। ऐसा इसलिए कि मनुष्य की विष्ठा का फिर भी एक उपयोग यह है कि शूकर उसे ग्रहणकर जीवित रहते हैं, परन्तु शूकर की विष्ठा नितान्त असार है, क्योंकि समस्त पशु-प्रजातियाँ यहाँ तक कि शूकर भी उसकी अवहेलना करते हैं।}

श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने उत्तर प्रदान किया, “प्रतिष्ठा इतनी घृणित तथा सार रहित है कि किसी भी प्राणी के लिये अनुपयोगी शुकर की विष्ठा’ से उसकी तुलना करना समीचीन ही हुआ है। वास्तव में यदि श्रील प्रभुपाद को इससे भी अधिक निकृष्ट तुलना योग्य कोई शब्द मिलता तो वे उसका ही उपयोग करते।”

अन्यों को हरि-कथा कहने हेतु प्रेरित करना

एक बार श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज ने मुझसे जिज्ञासा की, “यदि मैं तुमसे कथा करने के लिये कहूँ तो क्या तुम मञ्च पर खड़े होकर वक्तृता दे सकते हो?”

मैंने उत्तर दिया, “नहीं महाराज, मैं तो अभी बहुत ही नया व्यक्ति हैं। मैं स्वयं ही कुछ ठीक से नहीं जानता तब फिर भाषण कैसे दूँगा?”

श्रील महाराज ने पुनः मुझसे जिज्ञासा की, “श्रीचैतन्य महाप्रभु के विषय में आपका क्या अभिमत है, विचार है?”

मैंने उत्तर दिया, “महाराज, स्वयं भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के विषय में मेरा अपना तो कोई स्वतन्त्र विचार नहीं है, किन्तु गुरु-वैष्णवों के मुख से मैंने अब तक जो समझा है, मैं उसी के अनुसार आपके समक्ष कुछ बतलाने का प्रयास कर सकता हूँ।” श्रील महाराज की अनुमति मिलने पर मेरे लिए जो सम्भवपर हो पाया मैंने उसे बतलाया।

फिर उन्होंने पूछा, “श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षा पद्धति के विषय में आपको क्या जानकारी है? तथा उनकी शिक्षाओं का पालन किस प्रकार सम्भव है?”

तब मैंने कहा, “श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कृष्ण-कीर्तन के लिए चार गुणों को आवश्यक बतलाया है-

तृणादपि सुनीचेन तरोरिव साहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥

श्रीशिक्षाष्टक (३)

जो स्वयं को तृण की अपेक्षा अधिक छोटा मानते हैं, जो वृक्ष के समान सहिष्णु होते हैं, स्वयं मानशून्य तथा अन्य व्यक्तियों को सम्मान प्रदान करते हैं, वहीं सदैव हरिनाम-कीर्तन के अधिकारी हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु इन चार गुणों के साक्षात् मूर्त्तिमान स्वरूप हैं। श्रीचैतन्यचरितामृत (आदि-लीला ३.२०-२१) में श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्रीचैतन्य महाप्रभु के वचनों का उल्लेख किया है –

आपनि आचरि’ भक्ति शिखामु सबारे।
आपने ना कैले धर्म शिखान ना जाय।।

[मैं स्वयं आचरण करके सबको भक्ति की शिक्षा दूँगा। स्वयं धर्म का आचरण किये बिना धर्म सिखाया नहीं जा सकता।]

इसे सुनकर श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने मुझसे कहा, “संक्षेप में तुमने जो बताया उसी को विस्तार से बतलाने को ही भाषण कहते हैं, और भाषण का क्या अर्थ होता है?” तब उन्होंने साथ में यह भी बतलाया, “तृणादपि सुनीचेन श्रेष्ठ सङ्ग के द्वारा स्वतः ही सिद्ध हो जायेगा, इसलिये कृत्रिम साधन की कोई आवश्यकता नहीं है, सेवा साधन ही करना होगा।”

सेवा करने की भावना का फल

एक बार श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज ने मुझे उपदेश देते हुए कहा, “कभी भी कीर्तन के सुर, ताल, मान, लय इत्यादि की ओर अधिक ध्यान नहीं देकर सदैव कीर्तन के गूढ़ अर्थ तथा कीर्तन की रचना करने वाले भक्त के हृद्गत विचारों का अनुसरण करने का प्रयास करना। उग्रश्रवा बनना अर्थात् सदैव श्रेष्ठ वैष्णों के मुख से ही भगवान् की वीर्यवती कथा का श्रवण करना।”

मैंने साथ-ही-साथ प्रश्न किया, “महाराज सब समय श्रेष्ठ वैष्णवों के मुख से ही श्रवण करना कैसे सम्भव होगा?”

श्रील महाराज ने उत्तर दिया, “सेवा के माध्यम से सब सम्भवपर है। जब-जब अवसर प्राप्त हो, श्रेष्ठ वैष्णवों की सेवा करना।”

“वैष्णवों की निष्कपट सेवा के माध्यम से सब सम्भवपर है।”

श्रील महाराज के उपरोक्त आदेश को हृदयङ्गम कर मैंने वैष्णव सेवा का यथासम्भव एक भी अवसर नहीं गैवाया। अपने जीवन में मैंने अनेक प्रकार से वैष्णव सेवा की जैसे कि उनके लिये पानी गर्म करना, वस्त्र धो देना, कमरे की सफाई कर देना, उन्हें एक स्थान से अन्य स्थान पर ले जाना, ध्यानपूर्वक उनके मुख से हरि कथा एवं वार्तालाप श्रवण करना तथा निकट से उनके आचरण को देखना।

मेरी सेवावृत्ति से प्रसन्न होकर हमारे मठ में आने वाले श्रील प्रभुपाद के अनेकानेक आश्रित शिष्य प्रायः मेरे गुरुपादपद्म से स्वयं ही कहते, “माधव महाराज, आप भारती महाराज को हमारे साथ रहने का ही सेवा दायित्व प्रदान करो।” ऐसा होने से मुझे उन भुवन पावन वैष्णवों की सेवा का सौभाग्य, उनके भजन के आदर्श को साक्षात् रूप से देखने का अवसर तथा उनके मुख से भक्ति राज्य के अति निगूढ़, अति सूक्ष्म रहस्यमय विचारों को श्रवण करने का सुवर्ण सुयोग प्राप्त हुआ।

सरस्वती-पुत्र

एक बार में पंजाब के कुछ भक्तों के साथ श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज के दर्शन करने हेतु श्रीनवद्वीप में गया। किन्तु हमारे श्रीचैतन्य सारस्वत गौड़ीय मठ पहुँचने पर उनके सेवक ने बतलाया कि महाराज अस्वस्थ हैं इसलिए उनके समक्ष जाना उचित नहीं। सेवक की बात सुनकर हम लोग बाहर से ही उन्हें प्रणाम करके जाने ही लगे थे कि श्रील महाराज ने मेरे कण्ठ की ध्वनि को सुनकर सेवक से पूछा, “बाहर कौन आया है?” जब सेवक ने मेरा नाम बताया तो उन्होंने कहा, “अन्दर आने दो।”

जब हम लोग उनके सामने गए तो उन्होंने कुछ असन्तुष्ट होते हुए कहा, “यहाँ पर आकर भी मुझसे मिले बिना ही जा रहे हो।”

मैंने कहा, “नहीं महाराज ऐसी बात नहीं है। आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं होने के कारण ही हम आपको कष्ट नहीं देना चाहते थे तथा इसीलिये बाहर से आपको प्रणाम करके जा रहे थे।”

मेरी बात सुनने के पश्चात् उन्होंने बहुत देर तक श्रील प्रभुपाद के समय में किये गए पंजाब में अपनी प्रचार सेवा की बहुत सी बातें बतलायी, पंजाब के लोगों के आतिथ्य के विषय में भी बतलाया तथा यह भी कहा कि, “हम सरस्वती (अर्थात् श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर) की सन्तान हैं, भगवान् एवं भक्तों के चरित्र का गान कर अपने आपको सरस्वती की सेवा में नियुक्त करने से ही ठीक रहते हैं। यदि नित्यप्रति कथा-कीर्तन करते हुए ही हमारा शरीर चला जाये, तो हमारा अहोभाग्य है।”

श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज का महिमामृत

श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित

उनका आविर्भाव एवं आरम्भिक जीवन

पूज्यपाद श्रीधर गोस्वामी महाराज कार्तिक मास, कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि, शनिवार, १० अक्टूबर १८९५ ई० को वर्धमान जिले के कालना उपमण्डल के अन्तर्गत, हौंपानिया नामक ग्राम में आविर्भूत हुये थे। उन्होंने पण्डितप्रवर श्रीयुक्त उपेन्द्रचन्द्र भट्टाचार्य विद्यारत्न महोदय को पिता रूप में एवं श्रीमती गौरीदेवी को माता के रूप में वरण करके शुभ शुभक्षण में प्रकटलीला प्रकाशित की थी। माता-पिता दोनों ही स्वधर्मनिष्ठ भगवद्-परायण सज्जन थे। उन्होंने पुत्र का नाम रखा श्रीरामेन्द्रसुन्दर भट्टाचार्य।

१९२३ ई में श्रील महाराज परमाराध्य श्रील प्रभुपाद की कृपा से उनके प्रति आकृष्ट हुये एवं कोलकाता १ नं., उल्टाडाङ्गा जंक्शन रोड पर स्थित गौड़ीय मठ में आवागमन करने लगे जिससे कि वे श्रील प्रभुपाद के श्रीमुख से हरि-कथा श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त करके मनुष्य जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पूर्ण कर सकें। श्रील महाराज श्रील प्रभुपाद की कथा को बहुत ही मनोयोग के साथ श्रवण किया करते थे। अतिशीघ्र ही दिसम्बर मास में उन्होंने उक्त गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान में एकान्त भाव से योगदान दिया एवं श्रील प्रभुपाद के विशेष स्नेहभाजन हुए।

वैशाख मास (अप्रैल) में श्रील महाराज ने श्रील प्रभुपाद से श्रीहरिनाम महामन्त्र और श्रावण मास (अगस्त) में पाञ्चरात्रिक विधि के अनुसार मन्त्रदीक्षा प्राप्त की। दीक्षा-उपरान्त उनका नाम श्रीरामानन्द दास हुआ।

शीघ्र ही, १९३० ई० में श्रील प्रभुपाद के द्वारा उपदिष्ट साधन भजन में उनकी ऐकान्तिक निष्ठा, श्रीगुरु-वैष्णव-सेवा में निष्कपट अनुराग एवं श्रील प्रभुपाद की विचारधारा का अनुसरण करते हुये सत्-शास्त्र-सिद्धान्तों के परिवेषण कार्य में उनकी विशेष निपुणता को लक्ष्य करके श्रील प्रभुपाद ने उन्हें त्रिदण्ड संन्यास वेष प्रदान किया तथा उन्हें नाम दिया त्रिदण्डिभिक्षु श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर अर्थात् ‘शुद्ध भक्ति की रक्षा करने वाले एवं उसकी ‘श्री’ अर्थात् सुन्दरता को धारण करने वाले’। वस्तुतः वे श्रील प्रभुपाद द्वारा प्रदत्त उस नाम की यथार्थ रूप में सार्थकता सम्पादित करके गुरुकृपा से आज जगत्-वरेण्य हुए हैं।

उनकी अद्वितीय प्रतिभा

श्रील महाराज में वैष्णवोचित समस्त सगुण विराजमान थे। श्रीगुरुकृपा से ही भगवकृ‌पा प्राप्त होती है और उन भगवान् में जिनकी अकिञ्चना भक्ति होती है, उनमें देवता समस्त सद्गुणों सहित निवास करते हैं। उच्च ब्राह्मण कुल में जन्म, ऐश्वर्य, पाण्डित्य एवं सौन्दर्यादि गुण रहने पर भी वास्तव में हमने उनके मठ जीवन में कदापि उन्हें आभिजात्य अथवा पाण्डित्य का किसी प्रकार का दम्भ प्रकाशित करते नहीं देखा। बड़े-बड़े विद्वानों से सुसज्जित विचार-सभा में उनकी स्थिर-धीर चित्त एवं गम्भीर भाव से भक्तिशास्त्र विरुद्ध अपसिद्धान्त खण्ड-विखण्ड करके सत्-सिद्धान्त स्थापन करने की शैली अत्यन्त सुन्दर थी।

एक शोध निबन्ध के समान उनकी हरि-कथा

उनके श्रीमुख से श्रीमद्भगवद्गीता-भागवत आदि सात्वत शास्त्रों की अपूर्व युक्तिपूर्ण भक्तिपरक व्याख्या और शुद्धभक्ति-सिद्धान्त-मूलक हरि-कथा श्रवण करके अनेक सारग्राही सज्जनों ने जगगुरु श्रील प्रभुपाद के चरणाश्रय में अपना जीवन सार्थक करने का सौभाग्य प्राप्त किया है। उनका प्रत्येक सम्भाषण मानो एक-एक Thesis के समान है, यदि कोई उन्हें मनोयोगपूर्वक अध्ययन कर ले, तो उससे ही डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर सकता है।

श्रीब्रह्म गायत्री की अभूतपूर्व व्याख्या

गरुड़पुराण में श्रीमद्भागवतम् को समग्र वेदमाता ब्रह्मगायत्री का भाष्य स्वरूप कहा गया है। श्रील महाराज ने श्रीभागवतम् के आनुगत्य में ब्रह्मगायत्री की ‘श्रीराधापदं धीमहि अर्थात् में श्रीराधा के चरणों का ध्यान करता हैं’ रूपी जो अपूर्व व्याख्या-माधुर्य प्रकाशित किया है, वह अप्राकृत रसज्ञ सुधीसमाज में विशेष रूप से समादूत हो रहा है।

श्रीमद्भागवतम् (१०.३०.२८) में उल्लेख है [कृष्ण का अनुसन्धान करते हुए गोपियौ कहती हैं] ‘अनयाराधितो नूनं- इस सौभाग्यशाली गोपी ने अवश्य ही [भगवान् हरि] की आराधना की है। यहाँ जिनके द्वारा कृष्ण के भली-भाँति आराधित होने की बात कही गयी है अर्थात् जिनके द्वारा कृष्ण आनन्दित होते हैं, उन स्वरूप-शक्ति हादिनी [श्रीराधा] के एकान्त आनुगत्य के बिना कृष्ण के श्रीचरणकमलों की प्राप्ति का और कोई उपाय क्या हो सकता है? यही तो व्रज-वधुओं के द्वारा अङ्गीकार की गई रम्या उपासना-पद्धति है।

[श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने लिखा है-]

‘राधा भजने यदि मति नाहि भेला।
कृष्ण भजन तव अकारण गेला ॥

[यदि श्रीराधा के भजन में तुम्हारी मति नियुक्त नहीं हुई है तब तुम्हारा कृष्ण का भजन करना व्यर्थ ही है।]

यह उपरोक्त वचन ही तो स्वरूपरूपानुगवर्य श्रीगुरुपादपद्म का उपदेश है, इस मन्त्र का जप करने से ही तो माया पिशाची भागेगी।

श्रीमद्भगवद्गीता (१०.१०) में कहा गया है, ‘ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते-मैं भक्तों को वह बुद्धियोग प्रदान करता हूँ जिसके द्वारा वे मुझे प्राप्त होते हैं’। इस वचन में श्रीभगवद्-पादपच्यों की नित्यसेवा प्राप्त करने की शुद्ध-निश्चयात्मिका बुद्धि को इङ्गित किया गया है, जिसके लिए वेदमाता गायत्री के निकट प्रार्थना करनी चाहिये। पूज्यपाद महाराज के हृदय में श्रीराधानित्यजन- श्रीवार्षभानवी दयितदास होने का भाव रखने वाले श्रीगुरुदेव की कृपा से ही इस व्याख्या की स्फूर्ति हुयी है।

‘श्यामाच्छबलं प्रपद्ये शबलाच्छयामं प्रपद्ये’- इस वेदवचन का अभिधा [मुख्य] वृत्ति के द्वारा ‘में श्रीकृष्ण के आश्रय में स्वरूपशक्ति हादिनी के सारभाव का आश्रय ग्रहण करता हूँ एवं मैं हादिनी के सारभाव के आश्रय में श्रीकृष्ण का आश्रय ग्रहण करता हूँ- जब इस प्रकार का न्यायसिद्ध अर्थ प्राप्त होता है, तब लक्षणा [गौण] वृत्ति का अवलम्बन करके ‘श्याम’ शब्द का ‘हार्दब्रह्मत्व’ [निर्विशेष ब्रह्म जो सबके हृदय में विद्यमान है। रूपी अर्थ अनुमान करने का क्या प्रयोजन है?

श्रीब्रह्म गायत्री का मूल उद्देश्य श्रीराधा के चरणों का ध्यान करना है- श्रीराधापदं धीमहि। इस अर्थ का आनुगत्य करने पर ही श्रीराधानाथ श्यामसुन्दर के श्रीचरणों की प्राप्ति होगी, वे श्यामसुन्दर ही परमसत्य हैं। श्रील श्रीधर महाराज के द्वारा कृत गायत्री का यह अर्थ ही सर्वत्र जययुक्त हो रहा है।

श्रद्धापूर्ण सम्मान के पात्र

श्रील महाराज इतने भजनविज्ञ थे कि हमारे गौड़ीय मठ-मिशन के प्रायः सभी प्रवीण संन्यासी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रमी सेवक ही पूज्यपाद श्रीधर महाराज को यथायोग्य मर्यादा प्रदान करते थे एवं उनके साथ इष्टगोष्ठी करके सुख का अनुभव करते थे।

नित्यलीलाप्रविष्ट पूजनीय त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव महाराज एवं नित्यलीलाप्रविष्ट पूज्यपाद त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्ति सारङ्ग गोस्वामी महाराज ने भी परमपूज्यपाद श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर देव गोस्वामी महाराज से त्रिदण्ड संन्यासवेष ग्रहण किया था।

जिन्होंने पाश्चात्य देशों में विपुल रूप से श्रीचैतन्यवाणी का प्रचार किया एवं बहुत से मठ-मन्दिर स्थापित किये, जो पूज्यपाद केशव महाराज से त्रिदण्ड संन्यासवेष ग्रहण करके त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज के नाम से विश्व में विख्यात हुए, वह भी अपने प्रकटकाल में अपने ज्येष्ठ भजनविज्ञ गुरुभ्राता पूज्यपाद श्रीधर महाराज के प्रति विशेष मर्यादा प्रदर्शन करते थे तथा समय-समय पर उनके निकट आकर कृष्णकथा श्रवण करने में अपरिमित सुख का अनुभव करते थे।

उनकी अपूर्व बुद्धिमत्ता

पूज्यपाद महाराज ने विद्यालय में अध्ययन के समय अपने विचक्षण अभिभावकों के निर्देशानुसार अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के साथ-साथ संस्कृत भाषा में भी विशेष निपुणता प्राप्त की थी। सुविख्यात विद्वान पण्डित वंश में उनका जन्म हुआ था, अतः अति अल्प आयु में ही संस्कृत भाषा में कविता आदि की रचना करने में उनकी स्वतःस्फूर्त बुद्धिमत्ता परिलक्षित हुई। परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणाश्रय में उनकी वह स्वतःसिद्ध भगवद्-प्रदत्त शक्ति और भी अधिक विकसित हो गई। श्रील प्रभुपाद अपने प्रकटकाल में समय-समय पर श्रीधर महाराज के द्वारा रचित श्लोक विशेषतः ‘श्रीमद्भक्तिविनोद-विरह-दशकम्’ नामक स्तोत्र का पाठ करके उनके प्रति अत्यन्त प्रसन्न होते थे।

उनके द्वारा रचित ‘श्रीश्रीप्रभुपादपव्य स्तवकः’, ‘श्रीदयितदासप्रणति पञ्चकम्’, ‘श्रीश्रीदयितदास-दशकम्’, और ‘श्रीश्रीप्रभुपाद प्रणतिः’ इन स्तोत्रों के द्वारा सहज ही बोध होता है कि उनकी श्रीगुरुपादपव्य में किस प्रकार की ऊर्जिता अथवा प्रबल अनुरागमयी भक्ति विराजमान थी। इनके अतिरिक्त उनके द्वारा रचित ‘श्रीमद् गौरकिशोर नमस्कार-दशकम्’, ‘श्रीमद्रूप-पदरजः प्रार्थना-दशकम्’, ‘श्रीमन्-नित्यानन्द-द्वादशकम्’, ‘श्रील गदाधर-प्रार्थना’, ‘ऋक् तात्पर्यम्’, ‘श्रीगायत्री-निर्गलित-अर्थम्’, ‘श्रीप्रेमधामदेव-स्तोत्रम्’, ‘श्रीगौरसुन्दर नृतिसूत्रम्’ आदि स्तोत्र श्रीगौड़ीय वैष्णव समाज में विशेष रूपसे समादृत हैं।

उल्लिखित स्तोत्रादि का श्रील प्रभुपाद के निजजन भजनानन्दी वैष्णवप्रवर नित्यलीलाप्रविष्ट श्रीपाद कृष्णदास बाबाजी महाराज एवं त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज प्रचुर आदर करते थे एवं अपने प्रकटकाल में अत्यन्त प्रीति के साथ उनका कीर्तन और आस्वादन करते थे। यह दोनों श्रील श्रीधर महाराज के विशेष गुणग्राही थे।

विशेष काव्यरत्न के रचयिता

उनके ‘प्रेमधामदेव-स्तोत्रम्’ में श्रीमन्महाप्रभु की आदि-मध्य-अन्त प्रायः समस्त लीला ही संक्षेप में वर्णित की गयी है। यह अनुपम काव्यरत्न स्वरूप-स्तोत्र अन्वय-टीका अनुवाद के साथ स्वतन्त्र ग्रन्थाकार रूप में प्रकाशित होने पर एक नित्यपाठ्य विराट भक्तिग्रन्थ के रूप में आत्मप्रकाश करेगा।

उनके द्वारा बङ्गला भाषा में रचित श्रीगौरसुन्दर के आविर्भाव-दिवस के दिन कीर्त्तित ‘अरुण-वसने सोनार सूरज -श्रीचैतन्यदेव लाल वर्ण के वस्त्र धारण किए हुए स्वर्णिम सूर्य के समान हैं’ आदि गीतों का भी वैष्णवजन परम आदर के साथ कीर्तन करते हैं।

बृहद्-मृदंग की सेवा में उनका योगदान

पूज्यपाद महाराज की सम्पादकता में श्रील रूप गोस्वामी-प्रणीत सम्पूर्ण ‘श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु’ ग्रन्थ (मूल श्लोक, टीका, अन्वय और बङ्गानुवाद के साथ) प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्रीता (मूल श्लोक, अन्वय और बङ्गानुवाद के साथ), श्रीप्रपन्नजीवनामृतम् (शरणागति-मूलक महाराज के द्वारा स्वरचित संस्कृत श्लोक, बंगानुवाद के साथ) आदि कुछ ग्रन्थ बाङ्गला भाषा में एवं अंग्रेजी भाषा में भी बहुतसे ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। यह ग्रन्थ पाश्चात्य देशों के विद्वत् समाज में विशेष रूप से समादृत और विपुल रूप से प्रचारित हो रहे हैं।

यह हमारे अत्यन्त आनन्द का विषय है कि पूज्यपाद महाराज की श्रीमुखनिःसृत शुद्धभक्ति-सिद्धान्त वाणी को श्रवण करके उनके प्रति आकृष्ट होकर पाश्चात्य देशों के अनेक सारग्राही सज्जन व्यक्तियों ने श्रीधाम नवद्वीप में स्थित श्रीचैतन्य सारस्वत गौड़ीय मठ में आगमनपूर्वक श्रील महाराज के श्रीचरणों के आश्रय का सौभाग्य प्राप्त किया है। भक्तों ने उनकी अर्धशायित अथवा शायित अवस्था में अंग्रेजी भाषा में उपदिष्ट वाणी को संग्रह (Record) करके उन्हें ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया है। ये समस्त ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा-भाषी पाश्चात्य विद्वत् समाज में विशेष रूप से समादृत हुए हैं। इन भक्तों की हृदयगत उत्साहमयी चेष्टाओं से पाश्चात्य देशों के लण्डन आदि कुछ विशेष विशेष स्थानों पर प्रचारकेन्द्र भी स्थापित हुए हैं। इन सभी प्रचारकेन्द्रों में श्रील प्रभुपाद की शुद्धभक्तिसिद्धान्त वाणी विभिन्न भाषाओं में विपुल रूप से प्रचारित हो रही है। श्रील महाराज ने जीवन भर प्रायः एक स्थान पर ही अवस्थान किया तथापि उन्होंने ‘पृथ्वीते आछे जत नगरादि ग्राम। सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम ॥ अर्थात् मेरे नाम का पृथ्वी के प्रत्येक नगर एवं ग्राम में, सर्वत्र प्रचार होगा।” श्रीमन्महाप्रभु के श्रीमुख की इस वाणी को अत्यन्त अद्भुत पद्धति से सार्थक सिद्ध किया है।

श्रील सरस्वती ठाकुर के वास्तविक अनुयायी

परमाराध्य श्रील प्रभुपाद ने अपने अप्रकटकाल के पूर्वदिवस पूज्यपाद श्रीधर महाराज के श्रीमुख से श्रील नरोत्तम ठाकुर महाशय के द्वारा कीर्त्तित- ‘श्रीरूप मञ्जरीपद, सेइ मोर सम्पद, सेइ मोर भजन-पूजन’ इत्यादि गीत श्रवण करने की इच्छा प्रकाशित करके उनके प्रति विशेष करुणा प्रकाशित की थी। पूज्यपाद महाराज ने परमाराध्य प्रभुपाद के उस कृपाशीर्वाद को मस्तकपर धारण करके अपने अप्रकटकाल के शेष मुहूर्त तक श्रीस्वरूप-रूपानुगवर श्रील प्रभुपाद का मनोऽभीष्ट पूर्ण करने के लिये सतत यत्न किया।

श्रील प्रभुपाद ने अपने अप्रकटकाल के कुछ दिन पूर्व कहा था-

‘भक्तिविनोद धारा कदापि अवरुद्ध नहीं होगी, आप लोग और अधिक उत्साह के साथ श्रीभक्तिविनोद-मनोऽभीष्ट के प्रचार में व्रती होना।’

ठाकुर श्रील भक्तिविनोद रूपानुगवर महाजन हैं। परमाराध्य श्रील प्रभुपाद ने उनका मनोऽभीष्ट पूर्ण करने का महान आदर्श स्थापित किया है। उनके चरणाश्रित निजजन पूज्यपाद तीर्थ महाराज, गोस्वामी महाराज, माधव महाराज, वन महाराज, यायावर महाराज, कृष्णदास बाबाजी महाराज और श्रीधर महाराज आदि प्रमुख वैष्णवाचार्य उस आदर्श का अनुसरण करते हुए रूपानुग श्रील प्रभुपाद के गणों में गणित हुए हैं। वर्त्तमान में श्रील प्रभुपाद एवं उनके अनेक पार्षद नित्यलीला में प्रविष्ट हो गये हैं, ऐसे में श्रील प्रभुपाद का श्रीचरणाश्रय प्राप्त करने के लिये उनके दासानुदासों को भी उस श्रीगुरु-मनोऽभीष्ट को पूर्ण करने की महती आशा और आकाङ्कना हृदय में दृढ़‌भावसे पोषण करनी होगी। इस विषय में रूपानुग वैष्णवों की पदधूलि, पदजल और अवशिष्ट प्रसाद ही हमारा एकमात्र बल और भरोसा है।

उनके एकनिष्ठ सेवक

श्रील महाराज की अस्वस्थ लीला के समय उनके प्राच्य और पाश्चात्य देश के सेवक दिवा-रात्रि जिस प्रकार से उनके श्रीअङ्ग की सेवा में तत्पर हुए, वह निश्चित रूप से अभूतपूर्व, कल्पनातीत एवं आदर्शस्वरूप है। श्रील ईश्वरपुरी के द्वारा श्रील माधवेन्द्रपुरी की अप्रकट लीला के सेवादर्श के अनुसरण में गौड़देशीय कुछ बालसेवक विशेषतः तपन नामक एक बालक गुरुसेवा में अत्यन्त अद्भुत रूप से काय-मन-वाक्य को समर्पण करके गुरुदेव के असीमित कृपाशीर्वाद का पात्र बना है।

मेरा सैभाग्य

पूज्यपाद महाराज की अप्रकटलीला से चतुर्थ-दिवस पूर्व अर्थात् आठ अगस्त सोमवार को मुझे दैवक्रम से पूज्यपाद श्रीधर महाराज के दर्शन के लिये श्रीचैतन्य सारस्वत मठ में उपस्थित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके अप्रकटकाल तक वहाँ अवस्वानपूर्वक समय-समय पर मैंने पूज्यपाद महाराज के श्रीचरणों के सान्निध्य में आकर उनकी कुछ-कुछ सेवा का सुयोग प्राप्त करने का सौभाग्य भी प्राप्त किया था। समाधि की आनुष्ठानिक क्रियाएँ मेरे पौरोहित्य में ही सम्पादित हुयी थीं।

हमारा नितान्त दुर्भाग्य

नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर के निर्याण प्रसङ्ग में श्रीमन्महाप्रभु के श्रीमुख निःसृत वचन श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने पयार छन्द में इस प्रकार लिखे हैं

‘हरिदास आछिल पृथ्वीर रत्नशिरोमणी।
तीहा बिना रत्नशून्या हइला मेदिनी।
कृपा करि कृष्ण मोरे दियाछिल संग।
स्वतन्त्र कृष्णेर इच्छा हेल संग-भट्ट॥’

चेन्च (अन्त्य-लीला ११.९७.९४)

[हरिदास पृथ्वी पर विराजित सर्वोत्तम रत्न-स्वरूप थे, हरिदास के बिना यह पृथ्वी रत्न से शून्य हो गयी है। श्रीकृष्ण ने अतिकृपापूर्वक मुझे (हरिदास ठाकुर का) सङ्ग प्रदान किया था। आज श्रीकृष्ण की स्वतन्त्र इच्छा से ही मेरा सङ्ग भङ्ग हो गया।]

“हम आज परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के एक निजजन के अभाव में उक्त ठाकुर हरिदास के निर्याण-प्रसङ्ग का स्मरण करते-करते दुःख के समुद्र में निमग्न हो गये हैं। उनके अभाव की पूर्ति कदापि सम्भवपर नहीं है।

हमारे दुर्दैववशतः सारस्वत गौड़ीय गगन के परमोज्जवल सूर्यगण, सभी एक-एक करके अन्तर्ध्यान-लीला आविष्कार करके गौड़ीय गगन को अन्धकारमय कर रहे हैं। हाय! हाय! हम क्रमशः रक्षक और पालकशून्य हो रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे भ्रम एवं कुसिद्धान्त रूपी मेधसमूह एक बार पुनः शुद्धभक्ति-सिद्धान्त रूपी सूर्य को आच्छादित करने का प्रयास कर रहे हैं।

अहेतुकी कृपावर्षण कौन करेगा?

‘दुःख मध्ये कोन दुःख हय गुरुतर? समस्त प्रकार के दुःखों में से कौन सा दुःख सर्वोपरि है?’ इस प्रश्न के उत्तर में श्रीमन्महाप्रभु अपने पार्षदप्प्रवर श्रील राय रामानन्द के मुख से पुनः स्वयं ही कह रहे हैं- ‘कृष्णभक्त विरह बिना दुःख नाहि देखि पर। कृष्णभक्त के विरह से अधिक विकट अन्य कोई दुःख दिखाई नहीं देता।

वास्तव में ही कृष्णभक्त के वियोग से उत्पन्न दुःख की कोई सीमा नहीं है, सान्त्वना भी नहीं है। करुणा के सागर, परदुःख-दुःखी, दूसरों के कष्ट को स्वयं अनुभव करने वाले, उनकी व्यथा में व्यथित, कृष्णगत-प्राण कृष्णभक्त के अतिरिक्त कृष्णविमुख जीव को कृष्णकथा श्रवण कराकर, कृष्ण का सन्धान प्रदान कर, उनके उद्धार की चेष्टा और कौन कर सकता है? मुझ सदृश पतित-दुर्गत माया-मोह में अन्धे जीवों का मोह-अन्धकार नष्ट करने के लिये निःस्वार्थ भाव से और कौन चेष्टा करेगा?

श्रीगौरहरि के पार्षद

भक्ति ही जीवमात्र का परमधर्म है। उस भक्ति में अपसिद्धान्त रूपी दोष के प्रवेश करने पर अधर्म का प्रादुर्भाव होता है। उस धर्म-दोष को दूर करके सद्धर्म की संस्थापना के लिये श्रीभगवान् निज-पार्षदों के साथ युग-युग में अवतीर्ण होते हैं। पुनः यथासमय अपने भक्तों को प्रेरित करके उनके द्वारा सद्धर्म का प्रचार कराकर वह जीवों के प्रति करुणा प्रकाशित करते हैं। तभी परमकरुण श्रीगौरहरि ने अपने निजजन श्रील ठाकुर भक्तिविनोद एवं श्रील प्रभुपाद सरस्वती गोस्वामी ठाकुर को क्रमशः प्रेरित करके तथा वर्त्तमान समय में उनके ही निजजन पूज्यपाद श्रीधर महाराज, माधव महाराज आदि प्रमुख आत्मीय वर्ग के द्वारा सद्धर्म की संस्थापना रूपी कार्य कराया था।

उनके श्रीचरणों में सकातर प्रार्थना

हाय! वर्तमान समय में क्रमानुसार इनके अदर्शन से हम सम्पूर्ण रूप में रक्षकशून्य हो गये हैं। हे गौरसुन्दर। हमारी रक्षा करो! पूज्यपाद श्रीधर महाराज निश्चित ही परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के श्रीधरणों में उपनीत होकर उनकी नित्यसेवा में नियुक्त हैं, वह वहाँ से हम दीन-हीन जनों के प्रति किञ्चित कृपादृष्टि निक्षेप करें, यही उनके चरणों में हमारी सकातर प्रार्थना है।

वैष्णव अदोषदर्शी होते हैं। पूज्यपाद महाराज हमारे ज्ञात और अज्ञात रूप में कृत सभी अपराधों, त्रुटि विच्युतियों को क्षमा और संशोधन करके, हमारे ऊपर निष्कपट कृपा करें, यही उनके चरणों में हमारी गलवस्त्र धारणपूर्वक सकरुण प्रार्थना है। वह श्रील प्रभुपाद की नित्य सेवा में नियुक्त हुए हैं, हमें भी कृपा करके सहगण श्रील प्रभुपाद के श्रीपादपद्मों की सेवा में

अधिकार प्रदान करके कृतकृतार्थ करें, उनके चरणों में यही प्रार्थना निवेदित करता हूँ।

श्रीचैतन्यवाणी (वर्ष २८, संख्या ७) में प्रकाशित एक लेख से अनुवादित